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लेख
न तुम, न तुम्हारा श्रम || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
12 मिनट
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प्रश्न: सर सफलता कैसे पाएँ?

वक्ता: तुम मुझे बताओ कि सफलता क्या है?

श्रोता: परिश्रम करने से सफलता मिलती है।

वक्ता: तुम कहना चाहते हो कि परिश्रम करने से सफलता मिलती है। यह पंखा देखो। यह कितना परिश्रम कर रहा है, परिश्रम करते-करते गरम हो गया है।

श्रोता: यह पंखा हमें हवा दे रहा है।

वक्ता: क्या इसको पता है कि यह हवा दे रहा है?

श्रोता: किसी कम को करने के बाद अगर ख़ुशी मिलती है, तो सफलता है।

वक्ता: काम करने के बाद? (दोहराते हुए) अगर काम करने के बाद खुशी मिल रही है, तो मैं काम करने के दौरान कैसा हूँ?

श्रोता: नाखुश।

वक्ता: नाखुश। अगर काम करने के बाद खुशी मिल रही है, तो मैं काम करने के दौरान नाखुश हूँ। अगर लगातार काम करने के दौरान खुश हूँ, तो इससे अधिक खुशी तो मिलेगी नहीं।

श्रोता: पर सर किसी ने कहा है कि “हार्डवर्क इस द की टू सक्सेस”।

वक्ता: जिसने कहा, उसने कहा। तुमने क्या समझा?

(सभी श्रोतागण हँसते हैं)

बाज़ार में तो यह बात फ़ैली ही हुई है। लेकिन तुमने क्या समझा? तुमने यह बात क्यों मानी?

क्या नाम है तुम्हारा?

श्रोता: सर, शिवम।

श्रोता: सत्यम, शिवम्, सुन्दरम! शिवम्, सत्य को समझो। बाज़ार में जो चल रहा है, उसे आसानी से मत मानो।

श्रोता: सर, हम कोई योजना बनायें और उसे समय पर पूरा कर लें, यही सफलता है।

वक्ता: हमारे लिए तो यही सफलता है। बस यही बात है, तो इस चर्चा को यहीं ख़त्म करते हैं। जब पता ही है कि योजना का समय पर पूरा हो जाना, और उसे पूरा करने के लिए परिश्रम करना, यही सफलता है, तो इस चर्चा को यहीं ख़त्म करते हैं। तुम्हें तो सब पता है, तुम सब बहुत होशियार हो, पर यह सब सारी होशियारी उधार की है।

योजना किसने बनाई?

सभी श्रोतागण: मैंने ।

वक्ता: मैंने यानी दूसरों ने। दूसरों की बनाई योजना पर तुम चले तो सफल भी कौन हुआ?

सभी श्रोतागण: दूसरे।

वक्ता: दिक्कत हो गयी। फँस गए। कोई मुझे कहे कि वहाँ उस पेड़ तक चले जाओ और दो पत्ते तोड़ कर ले आओ, खूब योजना बनाओ, खूब परिश्रम करो। क्या मुझे कोई हक़ है कहने का कि ‘मैं’ सफल हो गया? खूब परिश्रम किया, खूब योजना बनायी, किसके लिए?

सभी श्रोतागण: दूसरों के लिए।

वक्ता: पता नहीं किसके लिए? उस भाग्य विधाता का मुझे नाम भी नहीं पता जो मुझसे यह सब करा रहा है।

श्रोता: सर, कैसे जानें कि हम किसके कहने पर कोई काम करते हैं?

वक्ता: जानने का बस एक तरीका है। कितने लोग यह जानने के लिए उत्सुक हैं? जानने का एक ही तरीका है – जानना। तुम मुझे कैसे सुन रहे हो? तुम मुझे अभी कैसे समझ रहे हो? कितने लोग विधियाँ लगाकर, मेथड लगाकर सुन रहे हो? (कुछ श्रोतागण हँसते हैं)।

सुनने का एक ही तरीका है। क्या? सुनना।

देखने का एक ही तरीका है। क्या? देखना।

जानने का एक ही तरीका है। क्या? जानना।

इतनी साधारण सी बात है। बोलने के तरीके पूछते हो क्या?

श्रोता: सर, पहले तो दूसरे ही बताते हैं।

वक्ता: जब दूसरे बताते हैं तो जानो कि दूसरे बता रहे हैं। जब मैं तुमसे कुछ कह रहा हूँ, तो ज़रूरी है बस सुनना। और यह दुनिया का सबसे मुश्किल काम बन गया है- बस सुनना।

मुट्ठी भर लोग नहीं होंगे जो बस सुनना जानते हैं, मुट्ठी भर लोग नहीं होंगे जो बस देखना जानते हैं, और मुट्ठी भर लोग नहीं होंगे जो बस जानते हैं। तुम हिन्दू हो अगर और मंदिर के सामने से गुज़रते हो, तो तुम मंदिर नहीं देख पाते। तुम्हें उसमें अपनी सारी कहानियाँ याद आ जाती हैं। तुम अगर मुसलमान हो, और मंदिर के सामने से गुज़रते हो , तुम भी मंदिर नहीं देख पाते। तुम्हें भी दूसरी कहानियाँ याद आ जाती हैं। हम कुछ देख नहीं पाते, हम कुछ सुन नहीं पाते, हम कुछ जान नहीं पाते।

जो हमारे सामने व्यक्ति बोल रहा है, हम उसको नहीं देख पाते। हम कहते हैं, यह ‘पिता’ बोल रहा है। हम उसे नहीं सुन पाते। कोई दूसरा व्यक्ति आता है। हम कहते हैं, यह व्यक्ति मेरा कौन लगता है? हम उसे भी नहीं सुन पाते। वो सुनना जो इतनी सहज घटना थी, वो हमारे साथ कभी घटती ही नहीं। हम बिना देखे, सुने, जाने पूरा जीवन बिता देते हैं

और हम सबसे कम देखते, सुनते उनको हैं, जो हमारे सबसे करीब हैं। बाप, बेटे को कभी नहीं जान पाता, भाई, भाई को कभी नहीं सुन पाता। वह उसे व्यक्ति कि तरह कभी नहीं जान पाता। पति, पत्नी को कभी नहीं समझ पाता। वो होगा बड़ा विद्वान्, दुनिया को समझ लेगा पर अपनी पत्नी को कभी नहीं समझ पाएगा। तुम्हें पहले ही पता है, तुम क्या देखोगे, क्या सुनोगे, क्या जानोगे। दुनिया में इतने बड़े -बड़े विद्वान् हुए हैं, उनकी हर जगह कद्र होती थी, एक ही जगह को छोड़कर। कहाँ?

सभी श्रोतागण: अपने ही घर में।

वक्ता: दुनिया उनको जान लेती थी परन्तु घर वाले नहीं जान पाते थे। सुनना जो इतनी सहज घटना हो सकती थी, वो इसलिए नहीं हो पाती क्योंकि हम व्यक्तित्व के फेर में रहते हैं। इस समय तुम में से मुझे वही लोग सुन पा रहे हैं, जो इस पर गौर नहीं कर रहे हैं कि बोल कौन रहा है। जिसको भी यह ख्याल है कि ‘कौन’ बोल रहा है, वो कुछ नहीं सुन रहा है। जो मात्र सुन रहा वो सुन ले जाएगा।

श्रोता: आप जो कह रहे हैं, उस पर अमल करने का निर्णय कैसे करें?

वक्ता: तुम्हें यह निर्णय लेने की ज़रुरत नहीं है कि इस पर अमल करूँ या न करूँ। एक प्रयोग करते हैं। तुमने मुझसे यह प्रश्न पूछा, एक बात हुई, मैंने इस पर उत्तर दिया। अर्थात मैंने इस पर अमल किया, यह कर्म ही तो हो रहा है। क्या मैंने निर्णय लिया कि उत्तर दूँ या सहजता से उत्तर दिया जा रहा है। जो कर्म हो रहा है, सहजता से हो रहा है। ‘तुम’ हटो बीच में से, अपने आप होगा। न तुम्हें निर्णय लेने की ज़रुरत है, न तुम्हें कुछ करने की ज़रुरत है। कर्म हो रहा है। तुम हटो बस। तुम इस समय यह सोच कर बैठोगे कि मुझे अब सुनना है, तुम कुछ नहीं सुन पाओगे। तुम यहाँ बस शांत होकर बैठ जाओ, बिना विचलित हुए, बिना परिश्रम किये, सब सुनाई देगा, सब समझ जाओगे। तो यह बोलना बंद करो कि ‘आनंद सफलता की कुंजी है’।

परिश्रम अपने आप हो जाए तो अच्छी बात है, जिसने परिश्रम ‘किया’, वो कहीं नहीं पहूँ चता। परिश्रम वो भला, जो अपने आप से हो जाए।

मैं तुमसे कुछ बोल रहा हूँ, निश्चित रूप से परिश्रम हो रहा होगा, गले पर कुछ तो ज़ोर पड़ रहा होगा। अगर सोच-सोच कर ज़ोर डालूँगा, तो क्या बोल पाऊँगा? हम तो मौज ले रहे थे, खेल रहे थे। उसमें अगर परिश्रम हो गया तो भला है। हमने परिश्रम किया नहीं। हम तो खेल रहे थे। खेलने के बाद पता चला कि पाँव में छाले आ गए, खून निकल आया। परिश्रम वो भला कि पढ़ने में ऐसा डूबे, कि रत कट गयी और हमें पता भी नहीं चला। हो गया।

तुम परिश्रम करना चाहते हो इसलिए तुमसे परिश्रम होता भी नहीं। तुम पढ़ने बैठते हो और अलार्म लगाकर सो जाते हो। परिश्रम करने के लिए अपने आप को बाध्य भी मत करो। जब खेलते हो, तो अपने आप को दौड़ने के लिए भी बाध्य मत करो और न रुके रहने के लिए बाध्य करो। जब देख रहे हो कि मैदान में यह जाए रही है गेंद, तो उसके पीछे दौड़ोगे। रुके थोड़े ही रहोगे। परिश्रम अब होना चाहता है। तुम परिश्रम का होना क्यों रोक रहे हो? परिश्रम अपने आप होगा, तुम्हें निर्णय लेने की ज़रुरत नहीं पड़ेगी कि अब समय आ गया है परिश्रम करने का।

श्रोता: सर, एक धावक है। वो देश के लिए दौड़ना चाहता है। वो किस तरह से परिश्रम करेगा?

वक्ता: दो तरह के खिलाड़ी होते हैं हमेशा से, जिस तरह दो तरह के व्यक्ति होते हैं। जीवन का कोई भी क्षेत्र हो, उसमें दो तरह के व्यक्ति होते हैं। चाहे खेल हो, चाहे सिनेमा हो, चाहे इंजीनीअरिंग हो, चाहे मैनेजमेंट हो, चाहे राजनीति हो, चाहे कुछ भी हो, चाहे तुम्हारा घर हो। व्यक्ति हमेशा दो तरह के होते हैं। एक वो, जो आदतों पर चलते हैं, और एल वो जो समझ पर चलते हैं। एक वो जाना है, और एक वो जिन्होंने सिर्फ आकर्षण जाना है, सिर्फ रुचियाँ जानीं हैं। तो बात सिर्फ खिलाड़ी की नहीं है। चाहे खिलाड़ी की बात करो, चाहे अभिनेता की बात करो, बात एक ही है। एक धावक ऐसा हो जो अपने मज़े के लिए दौड़ता हो, और दूसरा जो प्रशंसा के लिए या पैसे के लिए दौड़ता हो। बहुत से खिलाड़ी ऐसे होते हैं, जो किस टूर्नामेंट में खेलना है, इस बात का निर्णय इस आधार पर करते हैं कि किस में पैसा ज्यादा मिलेगा। तो अब यह खेल कहाँ रहा, अब तो यह व्यापार बन गय। अब यह खिलाड़ी कहाँ रहा, अब तो यह व्यापारी बन गया।

श्रोता: सर, हम पढ़ने बैठें और हमें नींद आ रही हो, तो क्या हम सो जाएं?

वक्ता: बेशक, तुम इसके अतिरिक्त कर भी क्या सकते हो। जीवन में इसके अतिरिक्त और कुछ है नहीं। जीवन में तुम्हारी सजगता में जो हो रहा हो, उसे होने दो। तुम बस सजग रहो। जब सोने जाओ तो जानते रहो कि सोने जा रहा हूँ। ऐसा न हो कि पढ़ने बैठो और बेहोशी में सो जाओ। हाँ, नींद आ रही है और हम नींद का सम्मान करते हुए सो रहे हैं। जब शरीर अपनी सहजता में कुछ कहे, तो तुम भी अपनी सहजता में उसकी बात मान लो। शरीर की जो सहज गतिविधियाँ हैं, जब उनको रोकते हैं तो कब्ज़ हो जाती है। शरीर से दोस्ती करो न कि दुश्मनी। कि तू पापी है, तुझमें भूख उठती है, तुझमें प्यास उठती है, तू थक जाता है, तुझमें काम उठता है, तुझे मार कर रहूँगा। शरीर से दोस्ती करो। यह सब बातें बेकार हैं कि विद्यार्थी वही जो नींद को भुला दे। विद्यार्थी हो या चौकीदार। (सभी श्रोतागण हँसते हैं) जब शरीर छक कर के सो लेगा तो बिना ग्लानि के, बिना अपराध भाव के, जो भी करेगा डूब कर करेगा। फिर चाहे सिर्फ दो घंटे पढ़ो, पर ऐसा पढ़ो, ऐसा पढ़ो कि बस पढ़ो। हमने कहा था न कि बस देखना, बस सुनना, बस जानना, ठीक उसी तरह पढ़ना तो बस पढ़ना। जब खाना तो.…?

सभी श्रोतागण: बस खाना।

वक्ता: जब देखना तो ….?

सभी श्रोतागण: बस देखना।

वक्ता: जब पढ़ना तो.… ?

सभी श्रोतागण: बस पढ़ना।

वक्ता: हम जब खेलते वक्त पढ़ रहे होते हैं, हम पढ़ते वक्त टहल रहे होते हैं। हम जब कक्षा में होते हैं, तो हम कैंटीन में होते हैं, वहीं गड़बड़ हो जाती है। यह मिलावट है। मिलावट मत करो। जब मौज कर रहे हो, तो बस मौज करो। कोई चैलेंज नहीं है। जो कुछ भी तुम्हें समझ नहीं आता, जो भी कुछ तुम्हें अपनी सामर्थ्य से बाहर का लगता है, उसे तुम नाम चैलेंज का दे देते हो। अभी तुम में से जो सबसे लंबा हो यहाँ और तुम उससे कहो कि उछलो और इस दीवार को छूओ। वो कहेगा कि इसमें क्या चैलेंज है। में किसी छोटी लम्बाई वाले से यही बात कहूँ, तो वो कहेगा कि यह चैलेंज है, चैलेंज कुछ है नहीं। तुम अपनी सीमाएं निर्धारित कर लेते हो, और वो तुम्हारी ही बनायीं हुई सीमाएं हैं, उन सीमाओं में कोई सत्य नहीं है। तुमने खुद तय कर लिया है कि मैं इतना ही हूँ , सीमित हूँ, और छोटा सा हूँ। उस सामर्थ्य के बाहर, उस सीमा के बाहर जो कुछ भी होता है, तुम उसे क्या नाम दे देते हो? चैलेंज। समस्या है नहीं, तुमने नान दे दिया है। यह नामकरण ही समस्या है। मत करो यह नामकरण। नामकरण चला आ रहा है अतीत से। उदहारण के लिए-मन में ‘परीक्षा’ शब्द ऐसा बैठा है कि वो आया नहीं कि क्या लगा? चैलेंज। परीक्षा शब्द विचलित हो जाते हो क्योंकि अत्तीत में परीक्षा को लेकर ऐसे अनुभव बैठे हुए हैं जो अच्छे नहीं हैं। क्या परीक्षा वाकई चैलेंज है? नहीं, पर तुम उसे बना देते हो।

अगले पाँच मिनट में, अभी तक तुम्हें जो कुछ भी समझ आया है उसे एक छोटी सी कविता के रूप में लिखिए।

– ‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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