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लेख
न अंतर्मुखी न बहिर्मुखी, बस शांत || आचार्य प्रशांत (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्न: सर, अंतर्मुखी और शांत – दो शब्द होते हैं। इन दोनों शब्दों में क्या अंतर है और क्या समानता है?

वक्ता: अंतर्मुखी होने में और शांत होने में क्या सम्बन्ध है। बेटा, अंतर्मुखी, बहिर्मुखी – ये कुछ नहीं होता। ये हमने बस यूँ ही एक विभाजन बना दिया है। हम कहते हैं कि जो थोड़ा बातूनी है वो एक्सट्रोवर्ट है – बहिर्मुखी। और जो थोडा लजाता है, सकुचाता है, वो इनट्रोवर्ट है – अंतर्मुखी। ये सब कुछ नहीं है।

ये तो दोनों मन की अवस्थाएं हैं। एक के मन को संस्कार ऐसे मिले हैं, वृत्तियाँ ऐसी हैं कि वो चक-चक, चक-चक करता रहता है। कुछ नहीं है! संस्कार हैं, कंडीशनिंग है। और दूसरे के मन को कुछ ऐसे अनुभव मिले हैं, कुछ ऐसे संस्कार मिले हैं कि वो अपने में सिमट कर रह गया। अपने ही विचारों में, अपनी ही दुनिया में खोया रहता है। इन दोनों ही स्थितियों में कोई श्रेष्ठतर नहीं है। तुम ये नहीं कह सकते कि एक, दूसरे से बेहतर है, क्योंकि दोनों ही मन के खेल हैं। एक खेल दूसरे खेल से बेहतर नहीं होता।

शांत होने का मतलब है- ना अंतर्मुखी ना बहिर्मुखी। ना बाहर का खेल चला रखा है, ना भीतर का खेल चला रखा है। हम खेल से आज़ाद हैं। अंतर्मुखी व्यक्ति अन्दर वाले से बात करता है; बहिर्मुखी व्यक्ति बाहर वाले से बात करता है। लेकिन जो शांत है, वो ना अंतर्मुखी है ना बहिर्मुखी है – वो मौन है।

देखो, अभी थोड़ी देर पहले ये हॉल पूरा भरा हुआ था। लोगों को पता था कि यहाँ बैठ कर के पड़ोसी से बात नहीं करनी है, तो नहीं कर रहे थे। कोई-कोई ही बात करने की कोशिश भी कर रहा था। लेकिन इसका क्या ये मतलब है कि लोग चुप थे? चुप नहीं थे। बहुत सारे थे जो बात कर रहे थे, किस से? अपने आप से। एक आतंरिक बात-चीत, वार्तालाप चल ही रहा था। अब फर्क नहीं पड़ता है कि तुम अपने पड़ोसी से बात करो या अपने आप से बात करो, दोनों स्थितियों में मन तो वाचाल ही है। दोनों ही स्थितियों में तुम ध्यान तो नहीं ही दे पा रहे।

कभी तुमने ध्यान किया है कि भीतर भी कोई बैठा है जो बोलता ही रहता है? और खूब बोलता है। देखा है, कितनी बातें करता है? जो अंतर्मुखी होते हैं, वो उसके साथ लगे रहते हैं। जो बहिर्मुखी होते हैं वो पड़ोसी के साथ लगे रहते हैं।

ना अंतर्मुखी ना बहिर्मुखी; शांत।

हमने इस वार्तालाप को तोड़ ही दिया। कबीर का है कि “जब मन की खटपट मिटे, अधर भया ठहराए”। मन की खट-पट मिटनी चाहिए। होंठ भी तभी मिटते हैं। पहले मन की ख़ट-पट; होंठ बाद में। मन की ख़ट-पट अगर चल ही रही है तो तुम अगर होंठ सिल के भी बैठ गए तो क्या फर्क पड़ता है? क्या फर्क पड़ता है?

शांति इसलिए एक दूसरा आयाम है। शांति का अर्थ है – विक्षिप्तता बंद; बोलने की बीमारी बंद। विचारों का घूमना बंद। हम केंद्र पर बैठे हैं; कोई समस्या ही नहीं है। कोई रिक्तता, कोई छटपटाहट ही नहीं है। बोलें तो बोलें क्या? बोलने के लिए कुछ है ही नहीं। मस्त हैं और मगन हैं। क्या बोलें?

बोलने के लिए कोई समस्या होनी चाहिए। सोचने के लिए कोई चुनौती होनी चाहिए। जीवन में कोई समस्या नहीं है – तो क्या सोचें? जो बात है, वो पूरी है, तो किसी से क्या पूछें? जो भी कुछ कीमती है वो समझा ही हुआ है, तो किसी से क्या बाटें? अकेलापन है ही नहीं, तो किसी को क्यों तलाशें? – ये शांति है। और शांति का अर्थ ये नहीं है कि तुम्हारा दूसरों से कोई संबंध नहीं होता। सिर्फ़ एक शांत व्यक्ति ही दूसरों से प्रेमपूर्ण संबंध रख सकता है; स्वस्थ संबंध रख सकता है। एक अशांत व्यक्ति तो सिर्फ़ हिंसा के सम्बन्ध रखेगा।

जो निर्भर नहीं है, मात्र वही प्रेम जान सकता है। प्रेम ये नहीं है कि तुम मुझ पर निर्भर और मैं तुम पर निर्भर। तुम जिस पर निर्भर हो, उसके प्रति तो हिंसक हो जाओगे। तुम उसका उपयोग करोगे बस, जैसे तुम चीजों का उपयोग करते हो। तुम्हारे हाथ में पेन है मान लो, तुम निर्भर हो न इन पे लिखने के लिए? अब पेन अगर कहे, “मुझे जाना है”, तो उसे जाने दोगी?

निर्भरता, मुक्ति की दुश्मन है।

तुम अगर पेन पर निर्भर हो और पेन कहे कि मुझे जाना है तो तुम पेन को जाने दोगे क्या?

तो निर्भरता मुक्ति की दुश्मन है। जो तुम पर निर्भर है वो हमेशा तुम्हें बाँध के रखेगा क्योंकि उसके स्वार्थ पूरे होते हैं न तुमसे।

जो तुम पर निर्भर है, वो तुम्हें कभी मुक्ति नहीं दे सकता। और जो मुक्ति ना दे – वो प्रेम नहीं।

ना अन्दर; ना बाहर – मौन! शान्ति!

ये बंटवारा ही व्यर्थ है – अन्दर का-बाहर का; अंतर्मुखी-बहिर्मुखी। कुछ नहीं रखा है इसमें।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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