आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
मुझे आसमान पर चढ़ाने की कोशिश मत करो
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
23 मिनट
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प्रश्नकर्ता: आज आपको सामने देखकर मुझे बहुत ख़ुशी हो रही है। इस ख़ुशी के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। जैसे अर्जुन को साक्षात ईश्वर के दर्शन हुए थे वैसे मुझे भी लग रहा है। मैं आपके सामने झोली फैलाकर आई हूँ। मैं वह पाना चाहती हूँ जो आपके अंदर है। मुझ पर कृपा करें। मुझे अपने चरणों में स्थान दें। मुझे और कुछ नहीं मालूम।

आचार्य प्रशांत: देखिए अध्यात्म का लक्ष्य यह नहीं होता है कि कोई भी किसी के चरणों में स्थान पाए। अध्यात्म का लक्ष्य यह भी नहीं होता कि कोई किसी के गले लग जाए। लक्ष्य होता है अद्वैत। लक्ष्य होता है कि जिसको भी आप गुरु देखते हैं उसकी गुरुता आप में भी प्रतिष्ठित हो जाए।

गुरु ऊपर है चेला नीचे है, चरण बंधन चल रहा है। यह सब देखने-सुनने में अच्छा लगता है। शायद एक प्रक्रिया के तौर पर आवश्यक भी है कभी-कभार। लेकिन ये अंत नहीं है। यह उद्देश्य नहीं हो सकता। और अगर बताने वाले ने — जिसको आप गुरु कहे या कुछ भी — आपके मन में यही उद्देश्य बैठा दिया कि गुरुदेव के तो चरण ही स्पर्श करते रहने हैं। या गुरुदेव के प्रति तो प्रेम से ही भरे रहना है। तो गड़बड़ हो जाएगी।

चरण स्पर्श करने में द्वैत का बखेड़ा है इतना तो आपको दिख ही रहा होगा। एक ऊपर है एक नीचे है। गले लगने में भी द्वैत है। भूलिएगा नहीं कि प्रेम भी द्वैत का ही एक उदाहरण है। क्योंकि प्रेम के लिए भी कितने चाहिए? दो। तो प्रेम भी अधिक-से-अधिक साधन हो सकता है, उपकरण हो सकता है, आध्यात्मिक प्रक्रिया का हिस्सा हो सकता है, अंत नहीं है। अंत नहीं है प्रेम। अंत माने लक्ष्य।

तो अगर जो आपको बता रहा है—मित्र, शिक्षक, गुरु जो भी कहिए—अगर वो वाकई आपका भला चाहता है तो वो यह नहीं कहेगा कि, "तुम मुझसे कुछ सीखते ही रह जाओ या मुझसे कुछ पा लो।" वह कहेगा, "तुम बिलकुल मेरे जैसे हो जाओ।" और मेरे जैसे हो जाने का क्या मतलब है? कि मेरे दाढ़ी है आप भी दाढ़ी रख लें? या कि मैं अपना पंथ चला दूँ आप उस पंथ की सदस्य हो जाएँ?

मेरे जैसे हो जाने का मतलब है कि मैं मिटा हुआ हूँ तुम भी मिट जाओ। और यह बात काव्य और शायरी भर की नहीं है। कि मैं मिटा हूँ तुम भी मिट जाओ ये सब। कुछ होता है न, बात सिर्फ़ कविता की नहीं है। कुछ असलियत भी होती है न। ऐसे ही थोड़े ही आप कह देते हो कि गीता सम्मानीय है। गीता में कुछ होता है न। या बस काव्य है गीता? कुछ दम होगा न इसके भीतर? आप समझ रहे हो मैं क्या पूछ रहा हूँ? गीता सिर्फ़ जुमलेबाजी है, मुहावरे-बाजी है, वागजाल हैं, शाब्दिक प्रपंच है या इसमें कुछ फौलाद भी है? बोलिए! कुछ है न फौलाद?

तो गुरु चेले का असली रिश्ता तब है जब चेले में वही फौलाद आ जाए जो गुरु में है। और गुरु अगर असली है तो उसकी और कोई इच्छा या उद्देश्य नहीं होगा शिष्य को लेकर। बल्कि अगर चेला बहुत दिन तक ऐसे ही रह गया कि बिलकुल वो चेला ही राम है—लोटपोट में एक चेलाराम भी होता था। और उसके और डॉक्टर झटका के बड़े अफसाने थे। उसके सर पर चुनाई थी चेलाराम की—अब शिष्य अगर ऐसा है कि वह चेलाराम ही रह गया तो गुरु को उस पर बहुत प्रेम नहीं आता है, झुंझलाहट ही होती है।

मेरे साथ भी हैं लोग, सालों से साथ हैं। ऐसा तो नहीं कि पचास साल से साथ होंगे। मेरा तो अभी काम ही टी-ट्वेंटी वाला रहा है। तो दो साल-चार साल से साथ हैं। पर मैं हड़बड़ी में रहता हूँ। देखिए मैं जल्दबाज़ आदमी हूँ। तो कोई मेरे साथ अगर साल-डेढ़ साल भी रुक गया है और मुझे उस में तरक्की नहीं दिख रही है, उसके भीतर फौलाद बनता हुआ नहीं दिख रहा है तो इमानदारी से कह रहा हूँ, मैं तो चिढ़ने लग जाता हूँ। मैं कहता हूँ तुम यहाँ किस लिए आए हो, 'जय गुरुदेव' करने? मुझे जय गुरुदेव सुननी ही नहीं है तुम्हारी।

पहली बात तो मैं गुरुदेव हूँ नहीं। जिस तरीक़े से तुम गुरुओं की छवि वगैरह रखते हो मैं कहीं से गुरु नहीं हूँ। तो मुझे तुम वैसा गुरु समझ भी मत लेना। संबोधन और शिष्टाचार की बात है तो नाम के साथ आचार्य जुड़ गया है, तो ठीक है। नहीं तो मैं बहुत सीधा-सादा तुम्हारे सामने एक आदमी हूँ जो तुमको एक लक्ष्य दे रहा है कि अगर ज़िंदगी में जीने लायक कुछ सच्ची चीज़ है तो उसका विकास करो और उस पर जीना सीखो।

यह कोई पराभौतिक बात नहीं है। यह निहायत ही ज़मीनी, सीधा-सादा और नंगा सच है। ठीक है?

मैं कहता हूँ तुम मेरे साथ खेल भी रहे हो तो खेलने में भी ज़रा दम दिखाओ। ये थोड़े ही कि खेलने गए और थोड़ा सा पीछे हुए तो हथियार डाल दिए कि हम तो अब हार ही गए। मैं कह रहा हूँ मेरे साथ खेल रहे हो तो मैं चाहता हूँ कि तुम जीतो। जितना मैं जीत रहा हूँ, मेरे से ज़्यादा जीतो। और यह नहीं कि मैं तुम्हें जिताऊँगा। मैं पूरी कोशिश यही करूँगा कि मैं ही जीतूँ। मैं तो बेईमानी भी करता हूँ कि मुझे ही जीतना है। लेकिन फ़िर भी तुम में दम होना चाहिए, तुम हराओ मुझे। और तुम अगर मुझे नहीं हरा पा रहे तो गाली खाओगे मुझसे। यह बात समझ में आ रही है?

मैं यह थोड़े ही कहूँगा कि तुम मेरे साथ खेलने गए हो टेनिस और तुम टेनिस का बल्ला मेरे चरणों में रख कर कहो, "जय गुरुदेव!" क्या मज़ाक है? और ज़िंदगी में तो टेनिस ही है न या कुछ और है? भाई ज़मीन है ये। भू-लोक है, स्वर्ग लोक इत्यादि तो नहीं है।

हमें बताया जाता है कि बत्तीस लोक हैं अलग-अलग तरीक़े के। हम नहीं जानते बाकी इकत्तीस कौन से हैं, हम तो एक ही लोक जानते हैं, कौन सा? भू-लोक। और भू-लोक पर ही जीना है, जहाँ तक मैं समझता हूँ। आपके इरादें कुछ और हो तो पता नहीं। और भू-लोक पर जीना है तो ढंग से जीना सीखो, यही अध्यात्म है। अध्यात्म यह सब नहीं है कि किसी को बिलकुल झाड़ पर चढ़ा दिया। कि तुम तो अवतार हो, पैगम्बर हो, महर्षि हो पता नहीं क्या हो। कुछ भी!

दस-बीस-पचास साल जितनी भी ज़िंदगी है उसको ज़रा हिम्मत और ताक़त के साथ जीना है। ऐसे जीना है कि भीतर लाचारगी, बैचारगी न रहे यही अध्यात्म है। बाकी जितनी बातें हैं वो तो वही हैं जैसे मन्दिर पर फूल लटका दिए बहुत सारे। उन फूलों से थोड़े ही कुछ होता है। ये तो साज-सज्जा है, बनावटी चीज़ें हैं।

आप कह रही हैं किसी एक चीज़ की आपको तलाश है। क्या है वो पता नहीं। वो आपको इसी चीज़ की तलाश है। ज़िंदगी में ताकत, स्पष्टता, मजबूती, अपने दम पर सच्चाई के हक़ में खड़े होने की नियत, ये हो तो इसके अलावा चाहिए क्या। बाकी सब तो शब्दालंकार हैं, कि समाधि और ये और वो। क्या समाधि? यही समाधि है। बलपूर्वक जी रहे हैं, जीवन में शक्ति है तो यही समाधि है।

और मुझे नफ़रत होगी अपने-आपसे अगर कोई मुझे सुनने आया है, उसे मैं अपने ऊपर आश्रित बना दूँ। मैं खुद ज़िंदगी में किसी पर आश्रित नहीं रहा। और जो लोग दूसरों पर आश्रित हो करके जीते हैं, मैं उनको उपेक्षा की दृष्टि से देखता हूँ। मैं उनको कहता हूँ ये आदमी से थोड़ा नीचे के है। तो मैं यह कैसे कर सकता हूँ कि मैं किसी को अपने से नीचे की जगह दे दूँ और कह दूँ कि, "भाई मेरा पूजन वन्दन किया करो और ये सब किया करो"? मैं यह करने लग जाऊँगा तो मैं अपनी नज़रों में गिर जाऊँगा।

तो मुझसे इस भाषा में बात ना करिए जैसे कि मैं पता नहीं कौन हूँ, किस स्वर्ग लोक का हूँ और आपको मेरे भरोसे मुक्ति मिल जानी है या आत्मा मिल जानी है। ऐसा नहीं होने वाला।

मैं कुछ बातें आपसे कह सकता हूँ और मैं ये गहरी इच्छा रख सकता हूँ कि मेरी बातें आप समझो। ज़िंदगी का कुछ रस, कुछ आनंद मिला है मुझे। मैं चाह सकता हूँ कि वो आपको भी मिले। उससे ज़्यादा कुछ नहीं। और ये सब करा भी मत करिए कि किसी को बिलकुल कुछ मान लिया कि पैगंबर ही है, ये है वो है।

कल रात मैं अपनी पुरानी डायरी पढ़ रहा था तो एक पन्ना खोल लिया। सोलह-अठारह वर्ष का था, तब मैंने लिखा था। उसमें मैंने लिखा था कि मैं किसी को भी अवतार या पैगम्बर मानने से इन्कार करता हूँ। किशोरावस्था की बात है। मैंने कहा अगर मैं उन्हें इंसान मानूँगा तब तो वो फ़िर भी मेरे लिए पूजनीय हो जाएँगे। कि देखो इंसान होते हुए भी उन्होंने ऊँचा जीवन बिताया। पर अगर मुझसे कोई कहेगा, "नहीं! वो तो ऊपर से नीचे उतरे थे", तो मेरे लिए मुश्किल हो जाती है।

बहुत पुरानी बात है। तब शायद मैं कॉलेज में भी नहीं गया था, स्कूली दिनों की बात है। पर अपना ऐसा रहा है ख्याल, जब वो सब, जिनको इतना ऊँचा-ऊँचा माना जाता है, मैंने उनको नहीं माना कि वो किसी और लोक के थे। तो मैं कैसे स्वीकार कर लूँ कि आप मुझे बहुत ज़्यादा महिमा मंडित करें?

मुझे देखो आप बहुत महिमा मंडित करोगे तो आप अपने लिए लाइसेंस ले लोगे नीचे रहने का। यह भी अपनी एक अंदरूनी चाल होती है। दूसरों को ऊपर दिखा दो तो फ़िर खुद को अधिकार मिल जाता है कि वो तो बहुत ऊपर हैं हम तो नीचे वाले हो गए भाई। मैं कहीं से नहीं बहुत ऊपर इत्यादि हूँ। मैंने जानबूझकर के कम-से-कम नहीं तो सौ दफे कहा है। सालों से कहा है कि मुझे इनलाइटेंट मत मान लेना। न हूँ और न ही पूरी ज़िंदगी होने की कोई संभावना है।

आप ही की तरह एक इंसान हूँ। आप भी कुछ काम करते हो मैं भी कुछ काम करता हूँ। वो काम कर रहा हूँ जो मुझे लगता है करने में सबसे ज़रूरी है, ठीक। आपने भी कुछ बुद्धि लगाई है कुछ काम कर रहे हो। तो मैंने भी कुछ बुद्धि लगाई है। मेरा भी कुछ अनुमान है, कुछ गणना है। मैं देख रहा हूँ कि इस समय किस काम की ज़रूरत है और वह काम मैं कर रहा हूँ। जैसे सब काम करते हैं मैं भी कर रहा हूँ। तो उस दृष्टि से आइए।

एक साधारण इंसान की तरह मुझे देख कर के, जो बातें मैं कह रहा हूँ और जो ज़िंदगी मैं जी रहा हूँ, उससे कुछ बातें अगर सीख सकते हैं, ग्रहण कर सकते हैं या उनसे आपको कोई प्रेरणा मिल सकती है तो बहुत अच्छी बात है। अन्यथा आप मुझे भी वही पुराने गुरु इत्यादि की तरह देखेंगी तो कोई लाभ होगा नहीं।

मेरे पास कोई चमत्कारिक शक्ति नहीं है। मेरे पास कोई दिव्य विभूति नहीं है। मैं किन्हीं सिद्धियों का स्वामी नहीं हूँ। तमाम तरह की जो वृत्तियाँ, ऐब और दोष विकार आप में होते हैं वो मुझ में भी है। जिन सुख-दुखों से आप गुज़रते हैं उनसे मैं भी गुज़रता हूँ। तो मुझे किसी भी पद पर विभूषित करने की कोई ज़रूरत नहीं है।

जो बातें मैं कह रहा हूँ अगर उनमें कुछ दम, कुछ फ़ौलाद समझ में आता है तो उसे अपनी ज़िंदगी में उतार लें, मेरा उद्देश्य पूरा हो जाएगा। और अगर वो फ़ौलाद आप ज़िंदगी में नहीं उतार पा रहे हो और सिर्फ़, "गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु" कर रहे हो तो करते रहो, कुछ नहीं होना है।

ये शिष्य इत्यादि बनना भी न कई बार फरेब की बात हो जाती है कि, "हमारी ज़िम्मेदारी तो पूरी हो गई है। हम क्या बन गए? शिष्य। आगे का कौन देखेगा? अब आगे का गुरु जी देखेंगे न।" गुरुजी कुछ नहीं देख सकते। क्या देखेंगे? गुरुजी के पास अपने काम-धंधे हैं, जो ठीक नहीं चल रहे। अपने निपटाए कि आपके निपटाए?

हम यहाँ परस्पर बैठ कर के कोई नाटक नहीं खेलना चाहते। कि नाटक है जिसमें दो तरह के किरदार हैं। एक किरदार कौन सा है? गुरु का। तो इन्होंने गुरु के कपड़े-वपडे़ पहन लिए, बाल बड़ा लिए, जाने विग है कौन जाने।

अभी दो-चार दिन पहले यूट्यूब पर कोई पूछ रहा था कि बाबा तेरी दाढ़ी नकली है क्या? बाल तो तेरे सारे काले हैं दाढ़ी कैसे सफेद है? बाबे तेरी दाढ़ी नकली है। तो ये ड्रामा थोड़े ही चल रहा है कि मैं यहाँ दाढ़ी लगाकर, बाल लगा कर, कुर्ता पहन कर आ गया हूँ और आप यहाँ पर शिष्य बन कर आ गए हो। और तीन-चार घण्टे का ये खेल खेलेंगे और उसके बाद बाहर निकल कर आप अपना हिसाब देख रहे हो, मैं अपना हिसाब देख रहा हूँ। वो सब नहीं करना है न। आइए इसे वास्तविक रखें।

मुझे कहीं सड़क पर देख लोगे, एयरपोर्ट पर देख लोगे तो मैं हमेशा कुर्ता पहन कर थोड़े ही होता हूँ भाई। तुम्हारी तरह टी-शर्ट पहन कर रहता हूँ। अभी वो पीछे भाई साहब बैठे हुए हैं उनका एमटीएम (गुरु संग वार्ता कार्यक्रम) हुआ, बातचीत हुई, उसके बाद ऊपर गया। वहाँ खरगोशों को देखने लग गया। वो नीचे से मुझे देख रहे थे उन्होंने देखा होगा ये तो पजामा में है, टी-शर्ट में है। तो अब दिक्कत हो जाती है लेकिन। टी-शर्ट वाले आदमी का चरण स्पर्श करने में थोड़ा अजीब लगता है।

ज़मीन की बात करो, ज़िंदगी बदलो। मैं जो बोल रहा हूँ बस बोल ही नहीं रहा हूँ; मैंने जिया है। और मैंने क्या जिया है वो हर बात मैं आपको न बता सकता हूँ, न बताऊँगा। कुछ बातें हैं जो उनको ही बतानी चाहिए जो बिलकुल समझ ही सकते हों, उस तल पर आ गए हों। पर अगर आप मुझे अपने सामने पाते हैं कि मैं हथोड़े से हर खोखली चीज़ पर प्रहार करता हूँ तो मैंने अपनी ज़िंदगी में भी ये किया है भाई। आज से नहीं पिछले बीस साल से कर रहा हूँ।

आप अगर यह पाते हैं कि मैं धर्म के झूठे रिवाजों और झूठी रूढीयों के प्रति बिलकुल निर्मम हूँ तो मैंने अपनी ज़िंदगी में भी ये किया है। किया है इसलिए आपके सामने बैठकर के ईमानदारी और हक़ के साथ बोल पा रहा हूँ कि देखो साहब किया जा सकता है। मैंने किया है आप भी करो। और कर के बड़ी ताक़त अनुभव होती है भीतर, बड़ी आज़ादी।

मैं पंडा, पंडित, पुरोहित थोड़े ही हूँ। तुम क्या मुझे समझ रहे हो? क्या समझ रहे हो? आप चरण-स्पर्श कह रही हैं। अभी साल भर पहले तक तो वर्जित था कोई पाँव छूने की कोशिश भी न करे। मुझे बड़ा अजीब लगता था मेरे पाँव क्यों छू रहे हो। फ़िर धीरे-धीरे लोगों ने पकड़-पकड़ कर आदत डाल दी। एक दफे तो गिरा दिया। वो छूने की कोशिश कर रहे हैं, मैं हटने की कोशिश कर रहा हूँ। तो चार लोगों ने देखा कि हट जाएँगे उससे पहले ही छू लो तो आए मारा पाँव में, लेट गया लो। मैंने कहा जो-जो छूना है सब छूलो।

कुछ शेर लिखे थे मैंने बीस साल पहले। वो भी कल डायरी खुली तो सामने आए। ठीक से याद नहीं है। वो मैंने अपने एक ऑफिस में काम चोरी करके ऑफिस में लिखे थे और ऑफिस के ही प्रिंटर से प्रिंटआउट करवाया। तो उसमें कुछ ऐसा सा था कि “मेरी बातों की तारीफ़ ना करो तुम, काबिल-ए-तारीफ़ मैं तुम्हें चाहता हूँ।” और ये नहीं कि यह मैंने आज कहा है। यह मैंने बीस साल पहले कहा था। तब कोई आचार्य नहीं था, तब प्रशांत था। प्रशांत का भी यही मानना था कि मेरी क्या तारीफ़ कर रहे हो भाई काबिल-ए-तारीफ़ मैं तुम्हें चाहता हूँ।

यहाँ कोई आशीर्वाद वगैरह नहीं मिल पाना है। कुछ नहीं है मेरे पास। कहो तो दे दूँ वही जैसे इनको दिया था। क्या पा जाओगे? "हरि ओम तत्सत! जा बच्चा।" क्या? नौटंकी करनी है?

आप अगर मुझ में वही सब तलाशने आए हैं जैसा आपने गुरुओं इत्यादि की छवियाँ बना रखी हैं, तो मुझे माफ़ करिए मुझे आपको निराश करना पड़ेगा।

ये आप लोगों के लिए है। हाँ वो जो अभी मैंने बोला शेर वो वो नहीं था जो लिखा था, वो दूसरा था। मैंने लिखा था, “मेरी तारीफ़ से ग़मगीन ना करो मुझे, काबिल-ए-तारीफ़ मैं तुम्हें चाहता हूँ।” बार-बार बोलोगे, "आचार्य जी ये वो।" तुम बोलोगे, "आचार्य जी महान हैं।" आचार्य जी क्या है ये वो जानते हैं कि तुम जानते हो? बोलो! मैं जानता हूँ न मैं क्या हूँ।

तुम मुझे ही मेरे बारे में कुछ बताना चाहते हो। "आचार्य जी महान हैं!" अगर तुम यह बोल सकते हो कि, "आचार्य जी महान हैं" तो कल तुम यह भी बोल सकते हो कि आचार्य जी लफंगे हैं। अगर मैं यह मान लूँ तुम्हारे कहने से, तुम्हारे मुँह की बात, कि आचार्य जी महान हैं तो तुम कल यह भी बोल सकते हो, "आचार्य जी गधे, घोड़े हैं।" कल मुझे यह भी मानना पड़ेगा। मैं काहे को मानूँ?

और तुम्हें पता कितना है मेरे बारे में? तुम्हें अपने बारे में कितना पता है कि मेरे बारे में पता हो जाएगा? मुझे यह सब मत बताओ कि मुझे देख कर के तुम्हें दिव्यता की अनुभूति होती है इत्यादि-इत्यादि। तुम आईने में अपने-आपको देखो उससे तुम्हें दिव्यता की अनुभूति हो तो अच्छी बात है। मुझे देख कर जो अनुभूति होती है वो रातों-रात बदल भी सकती है। हाँ अपनी ज़िंदगी के बारे में ईमानदार रहो तो कुछ मिलेगा जो बिलकुल पक्का होगा। वो नहीं बदलेगा।

और लिखा था, “मुझे बात करने से रोकते हो तुम, तुम बात कर सको यही बात चाहता हूँ।” तो मतलब बात मेरे बारे में नहीं है। बात आपके बारे में है। आप बात कर सको न, तो कुछ बात बनी। और अंदाज तो बाँका था बीस साल पहले भी। अब ये बीस-इक्कीस साल का छोकरा है जिसने लिखा है।

“उम्र काफ़ी हो गई है थोड़ा ही ज़िंदा बचा हूँ। पुण्य काफ़ी कर लिए कुछ पाप चाहता हूँ।”

और यह बात अभी भी लागू होती है - “सीखा बहुत कम है तालीम है अधूरी, इस घने जंगल में आदम जात चाहता हूँ।” यही चाहता हूँ इस से ज़्यादा कुछ नहीं। बार-बार बात करता हूँ न जंगल की, गोरिल्ला की, तो इस घने जंगल में आदम जात चाहता हूँ। बस यही है। जहाँ तक मेरी बात है मैंने सीखा वाकई बहुत कम है। वाकई तालीम अधूरी है। मुझे इस तरह का कोई मुगालता नहीं है कि मैं अवतार हूँ या जो कुछ भी जो कई बार आप बोल जाते हैं। ना, बिलकुल भी नहीं। जंगल से निकल आओ, गोरिल्ला से आदमी बनो यही बहुत बड़ी बात है।

दो-हज़ार-सोलह में ऋषिकेश में पहला मिथ डिमोलिशन टूर (शिविर) हुआ था। तो वहाँ जितने घूम रहे थे ऋषिकेश में उन सबको इनलाइटनमेंट चाहिए था। वहाँ सब पहुँचते ही इसी कारण से हैं, सब विदेशी। तो मैंने पोस्टर छपवाया एक। उसमें लिखवाया — फॉरगेट इनलाइटनमेंट बी ह्यूमन फर्स्ट (समाधि भूल जाओ, पहले मनुष्य बनो)। “इस घने जंगल में आदम जात चाहता हूँ।” छोड़ो न इनलाइटनमेंट आदमी तो बन जाओ। आज भी वही बात कह रहा हूँ। गोरिल्ला से इंसान बन जाओ बहुत है। इनलाइटनमेंट का करोगे क्या? ख्याली पुलाव!

“तुम्हारी हसरत मैं बन ना पाऊँगा, तुम्हारी हसरतें मैं आबाद चाहता हूँ।” मुझे अपनी हसरत मत बना लो, मैं भी मिट्टी का ढेला हूँ तुम्हारी तरह। अपनी हसरत उसको बनाओ जो आबाद कर देगा तुमको। मुझको अपनी हसरत बना लोगे तो बर्बाद हो जाओगे। मैं माने यह जो व्यक्ति बैठा है यहाँ, यह जो देह बैठी है, इसको बहुत महिमा-मंडित मत करो। और इसमें जो पहला शेर है वो है, “दायरों में बाँध लो तुम मेरी ज़िंदगी, मैं बस एक दायरा अपना चाहता हूँ।” उसी दायरे का नाम है — प्रशांत अद्वैत फाउंडेशन।

मैंने कहा — पैदा हुआ है तो हज़ार वृत्तों में तो बँधना तो पड़ेगा न। वृत्त माने ही दायरा होता है। कि वृत्तियाँ तो रहनी-ही-रहनी हैं, जीवन भर रहनी हैं। जो पैदा हुआ है उसको रहेगी-ही-रहेगी। जन्म लिए का दण्ड है, जो जन्में सो रोए। तो हज़ार दायरों में बाँध लो तुम मेरी ज़िंदगी, मैं बस एक दायरा अपना चाहता हूँ। ये सब तो चलता ही रहेगा। देह का, वृत्तियों का, विकारों का खेल है। उससे हटकर के कुछ अच्छा भी कर लो, बस इतनी ख्वाहिश है। तो कृपा करके पर्सनल ग्लोरिफिकेशन (व्यक्तिगत महिमामंडन) जैसा ना करें और ना ही किसी को करने दें।

हिंदुस्तान ने देखिए इस बात का भी खूब खामियाजा भुगता है, और मत करिएगा। हम यहाँ तमाम तरीक़े के बंधनों से आजाद होने आए हैं न? हम यहाँ एक नए बंधन में बंधने नहीं आए हैं। कि आए हैं? कल इसलिए मैं जो यहाँ पर स्वयं-सेवक हैं उनसे भी कह रहा था। मैंने कहा तुम डर किस बात से जाते हो, यहाँ आ गए हैं तो हाय कहीं यहीं तो नहीं रहना होगा? यहाँ कोई बंधन नहीं है।

यही बात मैंने इनसे भी कही थी आज पहले ही प्रश्न में। कि तीन दिन का खेल है फ़िर चले जाना। यह जगह कोई बंधन थोड़े ही है। बाकी भी जितने लोग हैं सब से कह रहा हूँ। जब तक लगता है लाभ हो रहा है ठीक है, फ़िर चले जाना भाई। डर क्यों जा रहे हो या अपने ऊपर एक नैतिक बोझ और बन्धन क्यों बनाए ले रहे हो कि, "अब आ गए हैं तो गुरुदेव को छोड़कर कैसे जाएँगे?" क्या पता किसी दिन गुरुदेव ही तुमको छोड़कर चले जाए, फ़िर क्या करोगे? मेरा कोई पक्का नहीं है मैं बहुत बेवफ़ा आदमी हूँ। तुम यह रखे रहना अपना आश्रम। मैं गायब हो जाऊँगा बिलकुल, फ़िर खोजते रहना।

यहाँ सब इसलिए है ताकि आज़ाद हो सकें। और मैं फ़िर कह रहा हूँ — मैं अपने आप को माफ़ नहीं कर पाऊँगा अगर मुझे यह दिखाई दिया, पता चला कि मेरी वजह से कुछ लोग ग़ुलाम हुए जा रहे हैं। एक ताकतवर ज़िंदगी जीएँ आप, ठीक है? बस इतना बहुत है। और कुछ है क्या ज़िंदगी में पाने को बताओ न? आप कर लो बहुत बड़ी बातें, ये सब बड़ी बातें लेकर के एक दिन सो जाओगे। मिट्टी के हो, मिट्टी को ही जाना है। बीच में इतना क्या बखेड़ा और बहाना है? शांत, सरल, आज़ाद जीवन बिताओ बहुत है। बाकी कुछ नहीं।

प्र२: प्रणाम सर, जिस बात के लिए मैं आया था वह यही बात थी। इससे पहले भी मैं कई जगह गया हूँ। मैं पब्लिक में नाम लेना पसंद नहीं करूँगा। मैं वहाँ पर रुका, तब तक रुका जब तक मैं जो वहाँ पर मुख्य आदमी था उससे मिल ना लिया। और जैसे ही मैं उससे मिला उसके बाद भाग छूटा वहाँ से। और ये मेरे जीवन में पहली जगह है जहाँ मैं जिस आदमी से मिलने आया हूँ उससे मिलने के बाद लगा है कि मुझे यहाँ पर रुकना चाहिए। तो यह चीज़ मेरे को मतलब बहुत अच्छा लग रहा है, रियली आई एम वेरी हैप्पी (मैं सही में बहुत खुश हूँ)। अब मज़ा आ गया। थैंक यू वेरी मच सर (आपका बहुत धन्यवाद सर)।

आचार्य: यहाँ पर रुकना बड़े इम्तिहान की बात होती है। तो अभी बात तुम्हारी तरफ़ से हुई है। तुम्हें अच्छा लगा, तुम चाहते हो यहाँ पर रुको। बाकी आधी बात इस जगह से होनी बाकी है। तुम तो कह रहे हो, यहाँ रुकना तुम्हें अच्छा लग रहा है। पर यह जगह इम्तिहान लेती है। उसके बाद यह जगह बताएगी कि यह जगह चाहती है कि नहीं तुम यहाँ रुको। समझ रहे हो न?

तो उस इम्तिहान में तुम सफल रहो मेरी इच्छा है। मेरी ओर से जो सहयोग होगा वह भी करूँगा। लेकिन मेहनत तो तुम्हें ही करनी पड़ेगी, तभी रुक पाओगे। यहाँ रुकना आसान बिलकुल भी नहीं है। और मैं चाहता भी नहीं हूँ कि यहाँ रुकना आसान हो। यहाँ रुकना आसान हो गया तो यह जगह वैसे ही हो जाएगी न जैसे सड़क यातायात। कोई भी आ रहा है, जा रहा है। अगर अस्पताल वैसी ही जगह बन गई जैसे कि सब आम गली मोहल्ले हैं तो अस्पताल अपनी काबिलियत खो देगा न बीमारियों को ठीक करने की।

तो यह बहुत शुभ हुआ है कि तुम्हें मन बन रहा है कि तुम रुकना चाहते हो। अब तुम यह प्रदर्शित करो कि तुममें योग्यता भी है यहाँ रुक पाने की। बड़ी सख्त और निर्मम जगह है ये। यह भी समझ रहे हो कि इसे सख्त और निर्मम होना पड़ेगा, मजबूरी है।

प्र2: तभी रुकने का मन है।

आचार्य: बढ़िया, बहुत बढ़िया। बहुत अच्छा लगा सुन कर कि तभी रुकने का मज़ा है जब जगह सख्त और निर्मम हो, बढ़िया बात। और यहाँ पर कोई जन्म भर का पट्टा नहीं लिखा जाता। यहाँ की डिग्री ऐसी भी नहीं है कि एक बार मिल गई कि मास्टर हो गए, पीएचडी हो गए तो उम्र भर के लिए है।

यहाँ लगातार संभल के, सध के चलना पड़ता है। माया आंटी लगातार तैयार रहती हैं। उन्होंने बाहर प्लेसमेंट ऑफ़िस खोल रखा है कि यहाँ से कोई निकले और तुरंत उसको नौकरी दे दें। वो जो तुम बाहर देख रहे हो तुम्हें क्या लग रहा है वो पार्किंग लॉट है? बोधस्थल के दरवाज़े के सामने माया का प्लेसमेंट ऑफिस है। वहाँ, जो कोई यहाँ से निकलता है उसकी वहाँ नौकरी लग जाती है। तो यहाँ बहुत सध कर चलना पड़ता है। सच जगह है, अच्छी बात है। आओ कोशिश करो इंतिहान दो, सफल रहो।

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