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लेख
मृत्यु क्या है? || आचार्य प्रशांत (2016)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांत: जन्म से पूर्व भी कोई दिखायी नहीं देता, कोई अनुभव नहीं होता उसका। मृत्यु के पश्चात भी कोई दिखायी नहीं देता, कोई अनुभव नहीं होता उसका। ये बीच में अचानक कुछ आ जाता है, जिसको हम जीवन बोलते हैं। तो कृष्ण अर्जुन से कह रहें हैं, ‘अगर कोई मर भी गया तो वो वहीं तो गया, जहाँ वो जन्म से पूर्व था।’

तो तुम यह क्यों कहते हो कि कुछ बदल गया, तुम यह क्यों नहीं कहते कि वो अपनी सहज अवस्था को लौट गया। तुम तुलना करते हो। तुम जीवित और मृत की तुलना करते हो। तो तुम कहते हो कि अब मृत है, दिखायी नहीं देता, थोड़ी देर पहले दिखायी देता था — चलता था, फिरता था, अनुभव करता था। कृष्ण कह रहें हैं, ‘तुलना करनी ही है तो फिर उसी अवस्था से क्यों करते हो जो मृत्यु से ठीक पूर्व थी; तुम उस अवस्था से ही क्यों नहीं तुलना कर लेते जो जन्म से भी पूर्व थी?’ अब मुझे यह बताओ कि मृत्यु के पश्चात की अवस्था और जन्म के पूर्व की अवस्था अलग-अलग हैं क्या?

श्रोता: पता ही नहीं इनके बारे में।

आचार्य: और दोनों में यही साझा है न कि दोनों के बारे में हमें कुछ पता नहीं। तो इतना तो दोनों में साझा है। इतना तो हम कह ही सकते हैं कि दोनों एक हैं कि उन दोनों के बारे में कुछ कह नहीं सकते। दोनों में ही वो सब नहीं है जिसे हम आमतौर पर जीवन कहते हैं।

बात समझ रहे हो?

तो हम क्यों बार-बार यह रोते हैं, क्यों इस बात को लेकर के विलाप करते हैं कि भाई, कुछ अनिष्ट हो गया, कुछ ग़लत हो गया? वो जैसा था, वैसा हो गया। इसमें अनिष्ट क्या हो गया? बात समझ रहे हो?

श्रोता: आचार्य जी, पता ही नहीं क्या था, क्या हो गया, तो लगता है कि अज्ञेय है।

आचार्य: जैसा था, वैसा हो गया। नहीं पता क्या था, पर इतना तो पक्का है कि जैसा था वैसा हो गया। लहर जहाँ से उठी थी, वहीं को चली गयी। इतना तो पता है? एक लहर है, वो कहाँ से उठी है? कहीं से तो उठी है और फिर चली जाती है। कहाँ को चली जाती है? जहाँ से उठी थी, वहीं को चली जाती है। अब आप हो सकता है कि समुद्र से परिचित न हों। असीमित है, बहुत बड़ा है, आप परिचित हो ही नहीं सकते। लेकिन इतना तो पक्का है न कि जहाँ से आयी थी, गयी वहीं है, क्योंकि और जाएगी कहाँ!

प्रश्नकर्ता: अब जैसे यह मेरे लिए एक कॉन्सेप्ट (अवधारणा) है, मैं इसको मान लूँगा। अगर मुझे कोई दूसरा व्यक्ति कोई और कॉन्सेप्ट देगा, मैं उसको मान लूँगा।

आचार्य: नहीं। देखो, कॉन्सेप्ट भी कोई बहुत बुरी चीज़ नहीं है; विचार या मान्यता या धारणा भी कोई बहुत बुरी चीज़ नहीं है, अगर वो तुमको निर्विचार की तरफ़ ले जाए। वो विचार बुरा नहीं है, जो आगे-पीछे के, दाएँ-बाएँ के कई अन्य विचारों को काट दे। काट दे और फिर स्वयं भी शेष न रहे। तो ये जो उदाहरण होते हैं, जैसे कल कबीर साहब हमें तीन छवियाँ दे रहे थे, तीन चित्र उन्होंने खींचे। वो चित्र इसलिए थे ताकि तुम्हारे मन में जो अन्य छवियाँ हैं, वो उनसे कट जाएँ।

उसी तरह से यह जो उदाहरण है, तरंग का, लहर का यह भी इसीलिए है कि तुम समझो कि बार-बार, बार-बार लहर उठती रहती है, लेकिन जहाँ से उठती है वहीं को तो गिरती है, और जाएगी कहाँ। अब ऐसे में यह कहना कि मृत्यु हो गयी है या जन्म हो गया है, कोई विशेष बुद्धिमानी की बात तो नहीं है।

मृत्यु क्या है? पानी, पानी में मिल गया इसको मृत्यु कहते हैं क्या? इसी को शास्त्र इस तरह से कहते हैं कि यह गिलास (हाथ में गिलास उठाते हुए) इसके भीतर आसमान, इसके बाहर भी आसमान। इसको कहते हैं — घटाकाश, घट के भीतर जो है। इसको कहते हैं — महाकाश, घट के बाहर जो है। भीतर वाला, बाहर वाला अलग-अलग है? है क्या? अब ये टूट जाए गिलास, तो क्या होगा? भीतर वाला, बाहर वाला एक हो गये, इसमें मृत्यु क्या है? तो कबीर साहब ने कहा है, “एक रहा, दूजा गया, दरिया लहर समाए।” अभी ऐसा लग रहा है कि दो हैं, है क्या?

प्र: एक ही।

आचार्य: तो यह हटने से इतना ही होता है कि यह जो दो-पन का भाव है वो हट जाता है। 'एक रहा, दूजा गया', अब जो दूजा गया वो था ही कहाँ। इसमें दो हैं कहाँ, या इसमें दो हैं? दो हैं क्या? एक ही था, एक ही है, दूसरा प्रतीत होता था, क्योंकि बीच में ये (गिलास) आ गया था। यह हट गया, दोनों एक हो गये — 'दरिया लहर समाए'।

प्र: खेल की तरह आया था, गया।

आचार्य: दरिया, लहर; जैसे दरिया का जो स्वभाव है समुद्र में मिल जाना, लहर का भी स्वभाव है समुद्र में मिल जाना और दरिया में भी, नदी में भी तमाम लहरें स्वयं उठती-गिरती रहतीं हैं।

प्र: इसमें जन्म कैसा और मृत्यु कैसी।

आचार्य: इसमें जन्म-मृत्यु की बात ही फ़िज़ूल है न। बीच में, मध्य में तुम्हें कुछ प्रतीति होने लगती है।

प्र: सफरिंग (कष्ट) क्या है फिर?

आचार्य: उसको अध्यास कहते हैं, यही प्रतीति।

प्र: हाँ, आईडेंटिफिकेशन (तादात्म्य)।

आचार्य: यही, यही पीड़ा है। तुम्हें लगने लग जाता है कि तुम यही तो हो, छोटे से। जैसे कि लहर को अपने रूप-रंग-आकार से मोहब्बत हो जाए और वो कहे, ‘मुझे ऐसे ही रहना है।’ और फिर जब वो गिरने लगे और समुद्र में समाने लगे तो उसको तकलीफ़ हो। वो कहे, ‘यह तो ग़लत हो रहा है भाई।’ ग़लत क्या हो रहा है! पानी, पानी से मिल रहा है। ग़लत बस यह हो रहा है कि तुम्हें इस रूप-रंग-आकार से आसक्ति हो गयी थी।

प्र: पर आचार्य जी, यह जो होता है, इसका भी कोई कारण होगा। सर्वाइवल (जिजीविषा) की वजह से होता होगा, या क्यों होता होगा?

आचार्य: तुम्हें यह दिखने लगता है और अगर तुम इन्द्रियों में जी रहे हो, तो यह बहुत आसान है कि तुम्हें जो दिख रहा है, तुम उसी को सत्य मान लो। और जब वो तुम्हें सत्य लगने लगता है तो उसके जो पीछे का सत्य है, जो वास्तविक है, वो भूल सा जाता है। तुम्हें लगता है कि तुम हो, दुनिया है, पेड़ हैं, पत्थर है, रोशनी है, मोमबत्ती है, ज़मीन है, ये सब हैं और तुम इन्हीं को सच मानकर के, इन्हीं में जीना शुरू कर देते हो।

प्र: ख़ुद को भी वैसे ही परिभाषित कर लेते हो।

आचार्य: अपनी भी परिभाषा वही बना लेते हो। जब यह सब हो जाता है, मन इन सब चीज़ों से भर जाता है, तो मन उसको भूल जाता है जो उसका स्वभाव है। इधर-उधर नाचना शुरू कर देता है। तमाम विषयों से अनुरक्त हो करके जुड़ जाता है। जब तुम्हें इतना कुछ और याद आ गया है, जब तुम इतनी व्यर्थ की चीज़ों से जुड़ गये हो, तो तुम को फिर सत्य कैसे याद रहेगा? अब ऐसा भी नहीं कि सत्य भूल गया है, पर ऐसे समझ लो कि जैसे उसके ऊपर तहें पड़ गयीं हों। तो इन तहों को बस हटाना होता है। और वो हटता कब है? जब तुम्हें यह दिख जाता है कि ये तहें नकली ही हैं, फिर हट जाती हैं।

प्र: हम जब इस माहौल में बैठते हैं, तो इतना दिखता है कि यह चल रहा है, यह आया, यह गया। कभी-कभी विश्लेषण करने पर होता है कि थोड़ी देर पहले मैं ऐसा अनुभव कर रहा था, अब मैं ऐसा अनुभव कर रहा हूँ, मतलब दोनों ही बकवास हैं।

आचार्य: हाँ, और यह बड़ा मज़ेदार होता है जैसे ही तुम इस बात को पकड़ते हो कि तू थोड़ी देर पहले कितना उदास था और अभी तू कितना उत्तेजित है। समझ रहे हो? तो जैसे ही यह बात पकड़ में आती है न कि थोड़ी देर पहले क्या हाल था और अचानक मन, मूड (मनोदशा) कैसे बदला।

प्र: कभी-कभी खेलने का भी जी करता है — अच्छा, चल मैं चार नये विचार लेकर आता हूँ। फिर देखता हूँ कि उनमें बदलाव हो रहा है, बदलाव हो रहा है। मैंने कहा, ‘बकवास है, छोड़ो इसको।’

आचार्य: तुम्हें अच्छे से पता होगा कि तुम ज़बरदस्ती कुछ सोच रहे हो। अभी जैसे तुम अगर कोशिश करो तो यह हो जाएगा। मैं कहूँ कि तुम कोशिश करो अपनेआप को उदास करने की, तुम बिलकुल कर सकते हो।

प्र: हमने एक एक्टिंग वर्कशॉप (अभिनय कार्यशाला) की थी। उसमें एक एक्सरसाइज़ (अभ्यास) थी। जिसमें हर किसी को रैंडम (बेतरतीब) सामान पकड़ा दिया — मोबाइल, हेलमेट इत्यादि और सब को छोड़ दिया। बोला, जाओ आधा घंटा इससे बातें करो; यह आपकी जीवन की सबसे महत्वपूर्ण चीज़ है। और वो कमेंट्री (आँखों देखा हाल) दे रहें हैं — ‘और यह आपकी जीवन में ये ले आया है, वो ले आया है।’

सब लोग मोबाइल, हेलमेट, बोतलें लेकर बैठें हैं, उससे बात कर रहें हैं, चूम रहें है, ये सब कर रहें हैं। फिर कहा, सब आँखें बन्द करो और फिर सबके हाथ से फ़ोन और सामान उठा लिया। लोग रो पड़े। मेरा माथा ख़राब; मैं रो नहीं रहा था, मैंने कहा, ‘भाई, भाव ही नहीं आ रहे!’ मैं एक गन्दा एक्टर (अभिनेता) हूँ।

आचार्य: नहीं, गन्दे अभिनेता होने की बात नहीं है, बेशक यह होगा।

प्र: आचार्य जी, आसक्ति जुड़ जाती है।

आचार्य: हाँ, बिलकुल। व्यर्थ में आसक्ति हो जाती है। इसी तरीक़े से अगर अभी तुम यह प्रयोग ख़ुद पर कर सकते हो, तुम अपनेआप को बोलो कि तुम्हें खुश होना है, तुम हो सकते हो। तुम जानबूझकर अपने भीतर विचार लाओ खुशी के।

प्र: आचार्य जी, ऐसा लगता है कि मैं यहाँ पर आकर यह काम क्यों करूँ। मैं ऐसे काम में क्यों पड़ जाऊँ कि फिर मैं अपनेआप को झूठा खुश करूँ।

आचार्य: बात यह है कि जो अपनेआप को झूठा खुश कर सकता है, वो थोड़ी ही देर में अपनेआप को झूठमूठ दुखी भी करेगा। अब यह जो खुशी है, यह भागने की तैयारी में है। जब खुशी भागने की तैयारी में है, तो तुम डरे हुए रहोगे कि इसको पकडूँ और डर क्या है? दुख! और जब दुख है, तब तो दुख है ही। तो मतलब सुख और दुख दोनों में क्या है? दोनों में दुख है।

प्र: आचार्य जी, मुझे यह समझ आता है कि जब मैं ये पढ़ता हूँ, तो मैं बहुत घूम जाता हूँ, बहुत घूम जाता हूँ!

आचार्य: किस चीज़ में घूम जाते हो?

प्र: जब ये श्लोक पढ़ना शुरू करता हूँ।

आचार्य: वो अपने-अपने स्वाद की बात होती है। तुम्हें अभी नहीं स्वाद आ रहा तो कोई बहुत ज़रूरी नहीं है कि तुम उनको पढ़ो, और अन्य हज़ार किताबें हैं। अगर पढ़ते तो बहुत अच्छा रहता, पर अगर वो नहीं भी पढ़ रहे हो तो ये (कबीर साहब को) पढ़ लो, जिद्दू कृष्णमूर्ति हैं, उनको पढ़ लो और अन्य तमाम तरह का साहित्य है।

प्र: एक बात हुई अभी कि आप अपने मूड को अपने हिसाब से नियंत्रित कर सकते हैं। आपको साफ़-साफ़ दिखता है कि अगर यह परिस्थिति थी तो आप खुश थे, परिस्थिति बदली आप दुखी हो गये, पर यह चीज़ परेशान बहुत करती है अपनेआप को।

आचार्य: परेशान करती है? अगर तुम इसको वाक़ई पकड़ पाओ तो तुम्हें हँसी छूटेगी।

प्र: बहुत अजीब लगता है यह।

आचार्य: अजीब तब लगेगा, अगर तुमने अभी इस बात को पूरा ठीक से पकड़ा नहीं है। वरना तो यह एक चुटकुले की तरह लगेगा, ‘वाह बेटा वाह! फ़िज़ा बदली और तुम भी बदले, मौसम बदले और तुम भी बदले।’ फिर ऐसे ही, यही निकलता है, ‘वाह बेटा वाह!’

प्र: लेकिन ऐसा भाव आता है कि तुम हो क्या आख़िर, परिस्थितियों के ग़ुलाम के अलावा।

आचार्य: हाँ, तो तुम परिस्थिति के ग़ुलाम हो और यह बात जब तुम पकड़ते हो तब तुम उस ग़ुलामी से आज़ाद हो। ग़ुलाम तभी तक तो हो न जब तक पकड़ नहीं पाये इस बात को। जैसे ही तुम पकड़ते हो, ‘अच्छा! अभी यह ख़याल चल रहा था तो मुँह लटका हुआ था और अभी टीवी खोला और उसमें कुछ और दिख रहा है तो पूरा मन ही बदल गया।’ जैसे ही इस बात को पकड़ते हो, उससे आज़ाद हो जाते हो।

प्र: कभी आधे घंटे बाद ही हो जाएगा कि देखो, बदल गया माहौल।

आचार्य: क्या माहौल बदला! और छोड़ो, तुम देखना कैसी ज़रा-ज़रा सी बातों से मन प्रभावित होता है। मन इतना परिस्थितियों का ग़ुलाम होता है न — तुम एक कमरे में बैठे हो जहाँ हल्की रोशनी है, तुम्हारा एक मन रहेगा; तुम पाँच-सात बत्तियाँ जला दो, रोशनी तेज कर दो, तुम्हारा मन बदल जाएगा। इतना यह मन इन्द्रियों का और परिस्थितियों का ग़ुलाम है। तुम एक तरह का संगीत सुन रहे हो मन एक रहेगा; तुम बदल दो, देखो मन कैसे बदलता है। कपड़े, तापमान, अभी गर्मी बहुत बढ़ जाए, मन अजीब सा हो जाएगा।

प्र: ये बदलाव ही समस्या है, ऐसा लगता है।

आचार्य: समस्या नहीं है, यह तो पता चलने वाली बात है। ‘अच्छा, तो आपको बुरा लग रहा है अभी। हम्म!’ कुछ हुआ होगा उसकी वजह से बुरा लग रहा है।

कोई सार की बात नहीं हो सकती, कोई महत्वपूर्ण बात नहीं हो सकती, हम गम्भीरता से नहीं ले सकते कि आपको बुरा लग रहा है। साहब, आप जो यहाँ (अपने सिर की ओर इशारा करते हुए) बैठे हैं, जिन्हें अच्छा-बुरा लगता रहता है, उनसे बात करो — ‘देखिए, आप तो यूँ हैं कि आपको ज़रा-ज़रा सी बात में अच्छा लग जाता है और ज़रा-ज़रा सी बात में बुरा लग जाता है। तो अभी आप कह रहें हैं कि आपको बहुत बुरा लग रहा है, आप रो रहे हैं, अब हम क्या करें, आपके रोने को गम्भीरता से लें?’

प्र: तब तो मन ऐसे बोलता है, ‘अभी देख बेटा, अभी तू हँसेगा, हँसेगा।’ और फिर अन्दर से बात यह निकलकर आती है कि जो व्यक्ति हमेशा सोचता रहता है कि अब मैं ये करूँगा, मैं ये कहूँगा, तो लगता है कि भाई, ये जो करेगा न, उसकी जो समस्या होगी न, वो उसी की है — मेरी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है।

आचार्य: देखो, अगर ऐन मौके पर, तत्क्षण यह याद आ जाए कि इधर (पुनः अपने सिर की ओर इशारा करते हुए) कुछ भी 'असली' नहीं है, 'ख़रा' नहीं है, तो फिर इसका दुख तुम्हारा दुख नहीं बनेगा। तुम कहोगे, ‘भाई, तेरा रोने का मन है, अच्छा रो। अच्छा भाई, तेरा उछलने का मन है, बहुत खुश हो रहा है, जा उछल। हमें पता है कि तेरी औक़ात क्या है। हमें पता है कि तू जब भी उछलता है औंधे मुँह गिरता है। और हमें पता है कि तेरा रोना भी असली नहीं है, तेरे रोने में भी ख़रापन नहीं है। तू रो रहा है और अभी कोई ज़रा सा दो रुपया दिखा देगा तो तू हँसना शुरू कर देगा। तो तू रो ले भाई! हम तुझे रोक नहीं रहे हैं। तू अपनी मर्ज़ी का मालिक! जा तू जो करना है कर! हम तेरा समर्थन-विरोध नहीं करेंगे, हमें ज़रा शान्त बैठे रहने दो। अभी हम बैठे हुए हैं बढ़िया। हम अपने आसन पर विराजे हैं, हमें नहीं आना।’

ये चलता रहेगा! मन के मौसम कभी एक से नहीं होने वाले। समझ लो कि धर्मशाला है — सुबह धूप होगी, दोपहर में ओले पड़ जाएँगे।

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