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लेख
मृत्यु का भय, और जीवहत्या || आचार्य प्रशांत (2018)

प्रश्नकर्ता आचार्य जी, मुझे मरने से बहुत डर लगता है, निजात कैसे पाऊँ?'

आचार्य प्रशांत: मर जाइए। और कोई तरीका नहीं है। जिसको आप जीवन कहती हैं, वो मृत्यु का डर है। तो मृत्यु का डर तभी हटेगा, जब जीवन हटेगा। समझिए बात को! जीवन की आपकी परिभाषा में ही मृत्यु का डर शामिल है। जीवन की परिभाषा ही मृत्यु के डर को सम्मिलित किए हुए है। इस परिभाषा को ही हटा दीजिए, जीवन को ही हटा दीजिए!

मृत्यु कुछ नहीं है, ग़लत जीवन की छाया है। सही जीवन की मौत होती नहीं और ग़लत जीवन में जीवन नहीं है, मृत्यु मात्र है। जिसे मरने से डर लगता हो वो समझ ले कि वो जी ही ग़लत रहा है।

जीवन की अपनी परिभाषा को ही ग़ौर से देखिए और रगड़कर साफ़ कर दीजिए; जीवन भी चला जाएगा और जीवन के साथ-साथ मृत्यु का डर भी चला जाएगा।

मृत्यु का डर किसको है? मरे हुए को? मुर्दे डर रहे हैं क्या मौत से? कौन डर रहा है? जो अपनेआप को जीवित बोलता है। तो यानि मृत्यु के डर का सीधा सम्बन्ध किस से है? जीवन से है; मृत्यु से तो नहीं। मृत्यु के डर का सम्बन्ध अगर मृत्यु से होता तो मुर्दों को डरना चाहिए था। पर सब कौन डर रहे हैं? जीवित लोग। मतलब जीवन कुछ ऐसा है कि उसमे मौत का, मिटने का, खोने का, छोटे हो जाने का, अपमानित हो जाने का डर समाया हुआ है।

जीवन के इस ढर्रे को तोड़ना होगा। जीवन की परिभाषा को ही स्वास्थ्य देना होगा। सुबह से शाम तक कैसे जी रही हैं? उसमें जितना मोह होगा, उसमें मान-अपमान की जितनी धारणाएँ होंगी, उसमें सूचना, जानकारी, ज्ञान से जितना जुड़ाव होगा, जितने कड़े, सख्त, दृढ़, आपके अभिमत, विचारे होंगे, उतना ज़्यादा आप मौत से डरी हुई रहेंगी।

जीवन में जिसने जितना इकट्ठा कर लिया होता है, वही तो उतना ही ज़्यादा चोरी हो जाने से डरता है न? फकीर तो बौड़म, बेलगाम, बेपरवाह सोते हैं। उनका कोई क्या चुरा लेगा? और कोई इतना इकट्ठा कर ले, और इतना इकट्ठा कर ले, और इतना इकट्ठा कर ले, उसको दिन-रात क्या लगेगा (दोनों हाथों को और ज़्यादा, और ज़्यादा और ज़्यादा फैलाकर आकार बढ़ाकर के दिखाते हुए)? कहीं चोरी न हो जाए।

क्योंकि तुमने जो इकट्ठा कर लिया है, वो कोई ऐसी चीज़ नहीं कि तुम्हारे साथ रहेगी। तुम जानते हो, कोई भी आकर के ले जाएगा। कोई मेरी चीज़ ले जाएगा, यही तो है मौत का डर। क्यों इकट्ठा किया इतना? क्यों इकट्ठा किया वो सबकुछ जिसे कोई ले जाएगा? किसने कहा था?

प्र: मुझे यह लगता है कि कैसे मरा जाएगा?

आचार्य: यह कब लगता है, मरते वक़्त लगता है या जीते वक़्त लगता है?

प्र: अभी सोच रही हूँ मैं। जीते वक्त!

आचार्य: जीते वक़्त लगता है न? मतलब जीवन में ही कुछ ऐसा है कि इस तरह का विचार चला आ रहा है।

प्र: वो कैसे ख़तम हो?

आचार्य: जीवन जैसा चल रहा है, अगर वैसा ही चलेगा तो फिर यह विचार भी जैसा चल रहा है, वैसा ही चलेगा। जीवन में जब तमाम तरह के डर होंगे, तो यह डर भी होगा कि मरते वक़्त कैसा लगेगा। अब आप उन्हीं लोगों के साथ रहेंगी जो डरने और छिनने की ही बातें करते हैं, या आप वैसे ही सीरिअल टीवी में देखेंगी या वैसी ही सूचनाएँ, समाचार, कहानियाँ पढ़ेंगी, जिनमें पाने या छिनने का ही वर्णन है, तो आपको भी फिर यह लगता ही रहेगा कि मेरा जब छिनेगा तो कितना दर्द होगा।

शरीर से सम्बन्धित छोटी-छोटी बातों से अगर जुड़े बैठे हो...। कंगन, अब कंगन को बड़ी कीमत दे रखी है। और कंगन की कीमत इतनी ही है कि वो आकर के कलाई पर बैठ जाता है। कलाई पर बैठे हुए कंगन के छिनने का इतना डर, तो कलाई के छिनने का कितना डर होगा? एक दिन तो ऐसा आएगा न कि कलाई ही छिन गई। आग लगी हुई है और धू-धू करके कलाई जल रही है।

हाड़ जले ज्यूँ लाकड़ी ! केस जले ज्यूँ घास। सब जग जलता देखकर, भए कबीर उदास।। ~ कबीर साहब

अब यहाँ एक दिन सुबह-सुबह कंगन नहीं मिल रहा है। वो न मिले, वो जो हाथ में है, तो क्या हालत होती है? कितना शोर मचता है? पूरा मोहल्ला उठा लिया। और कंगन की कीमत इतनी कि बस कलाई की शोभा है। और एक दिन यह कलाई ही जल रही होगी– झर-झर-झर-झर, झर-झर-झर-झर !

देखा है मुर्दा जलते हुए? जाना चाहिए श्मशान। झर-झर-झर-झर! झर-झर! लपट-लपट-लपट! लपट-लपट! कंगन से इतना मोह, तो सोचो कलाई से कितना मोह होगा। फिर तो डरोगे ही, रोओगे ही। कंगन से मोह कम रखो, धीरे-धीरे कलाई से भी मोह कम हो जाएगा। और जो कंगन से मोह रख रहा है, वो दिन-रात—-चाहे व्यक्त, चाहे अव्यक्त—-डर में जले ही जा रहा है। हो नहीं सकता कि आपको कंगन बहुत प्रिय हो और आप गहरी डर की ज्वाला में जल न रहीं हों; आपको जलना पड़ेगा। आपका जीवन ही मृत्यु-तुल्य है। आपको जीवन में ही मृत्यु-तुल्य कष्ट मिल रहा है, तभी तो कंगन से इतना मोह है।

सही ज़िंदगी में सही विचार आते हैं। ग़लत ज़िंदगी में मौत के विचार आते हैं। जीवन ही सही जीयें, फिर विचार अपनेआप ठीक रहेंगे, ये डर वगैरह दूर रहेंगे।

अगर आप कहेंगी कि मुझे ज़िंदगी तो वैसी ही जीनी है जैसी मैं जी रही हूँ, बस मौत का डर हटा दो आचार्य जी! तो आचार्य जी कहेंगे, ‘क्षमा।' जीवन की पूरी धारा को बदले बिना सस्ता उपचार मत माँगिए। और जीवन की पूरी धारा को बदलेंगी तो मौत का ही डर नहीं, जो जितने दिनभर छोटे-मोटे डर और क्लेश और शंकाएँ सताते रहते हैं न, सब एक साथ चले जाएँगे।

प्र: जो जीव हत्या हमसे रोज़ होती है, जैसे मच्छर या कीड़े का मरना, क्या वह पाप है? क्या उसका भी हिसाब देना पड़ेगा?

आचार्य: जीव नहीं कीमती होता, सत्य कीमती होता है। पर जीव के लिए सत्य तो बहुत दूर की बात है क्योंकि वो अनिर्वचनीय है, अचिंत्य है। तो फिर जीव के लिए वो कीमती हुआ जो सत्य के बिलकुल समीप है। उसे कहेंगे– चेतना, शुद्ध चेतना। जीव के लिए कीमत हुई चेतना, तो चेतना को कीमत देनी है, वरीयता देनी है। जहाँ चेतना हो, उसे बचाएँ।

जहाँ चेतना हो, उसे बचाएँ और अगर कभी स्थिति यह आती है, संयोग ऐसा बैठ जाता है कि उच्च चेतना और निम्न चेतना में से एक को ही बचाया जा सकता है, तो चुनाव स्पष्ट है, किसको चुनना है? ऊँची चेतना को।

डेंगू का मच्छर जाकर के बुद्ध को काटता हो, और उड़ाए न उड़ता हो। उड़ाओ, फिर आकर बैठ गया। उड़ाओ, फिर आकर बैठ गया। बहुत तरीके आज़मा लिए मान नहीं रहा है, तो दो बातें देखना। पहली बात– आक्रमण मच्छर की ओर से हुआ है। दूसरी बात– मच्छर यदि सफल रहा तो निम्न चेतना को बचाने के लिए...।

मच्छर के लिए बुद्ध बस बूँद भर खून है न? तो मच्छर बुद्ध का खून ही तो पीना चाहता है सिर्फ़। क्या करेगा उस खून का? अपना पेट भरेगा। निम्न चेतना अपनेआप को बचाने के लिए उच्च चेतना की कुर्बानी दे रही है। यह नहीं होने दिया जा सकता! इस मच्छर को मारना अपराध नहीं हुआ। क्योंकि जीव की कीमत नहीं होती, चेतना की कीमत होती है। शरीर की कीमत नहीं होती, चेतना की कीमत होती है।

आदमी का शरीर बचा रह जाए, चेतना उड़ जाए…। वेन्टीलेटर पर पड़ा है ऐसा कोई, तुम कुछ दिनों बाद खुद ही सहमति दे देते हो कि इसको हटा दो। क्योंकि चेतना तो अब इसमें बची नहीं है, यह तो अब बस माँस है, रक्त है। हाड-माँस की क्या कीमत है! कीमत किसकी है? चेतना की। इसी तरीके से न बुद्ध के शरीर की कीमत है, न मच्छर के शरीर की कीमत है; कीमत है उस चेतना की, कीमत है उस बुद्धत्व की, जो सिद्धार्थ गौतम पर उतरा है। उसको बचाना आवश्यक है। और मच्छर तमाम तरह के उपद्रव कर रहा है, मच्छर उस बुद्धत्व का दुश्मन बना बैठा है। मार दो उस मच्छर को, कोई बात नहीं।

मैं नहीं कह रहा हूँ कि तुरन्त ही मार दो। मैं नहीं कह रहा हूँ कि और विकल्प उपलब्ध हों तब भी मार दो। पहले उड़ाओ, जो कर सकते हो, करो। लेकिन उसके बाद भी अगर मच्छर बाज़ न आए, अगर मच्छर बुद्ध की ओर ऐसे ही देखे कि यह तो सिर्फ़ एक शरीर है जिसका मुझे खून चूस लेना है, तो फिर उस मच्छर को मृत्यु दे देने में कोई नुकसान नहीं हो गया।

कृष्ण अर्जुन को गीता का उपदेश देते हों और तभी कोई अधर्मी और विक्षिप्त योद्धा, कौरव पक्ष से, पीछे से दौड़ता हुआ आए कि कृष्ण की गर्दन काट लूँगा और अर्जुन तुरन्त उसका वध कर दें, तो अर्जुन ने बिलकुल ठीक किया। क्योंकि कृष्ण चेतना को बचाने के लिए, अगर तुमको किसी पागल योद्धा की कुर्बानी देनी पड़ रही है, तो ठीक ही कर रहे हो। लेकिन यह सिर्फ़ तब करो, जब दो में से किसी एक को ही बचाया जा सकता हो। जहाँ तक संभव हो, दोनों को ही बचाओ!

तो मैं जो बात बोल रहा हूँ, उसको माँसाहार के पक्ष में दिया गया तर्क मत समझ लेना। क्योंकि जब तुम किसी मुर्गे या बकरी को काटते हो, तो उसको इसलिए नहीं काटते कि तुम्हें अपनी चेतना को बचाना है। तुम उसे सिर्फ़ अपने पेट के लिए काट रहे हो, अपनी चेतना के लिए नहीं काट रहे। और उसको खाने से तुम्हारी चेतना में इजाफ़ा भी नहीं हो जाना। तथ्य तो यह है कि उसको खा करके तुम्हारी चेतना गिरती ही है।

मैं जो बात बोल रहा हूँ, वो माँसाहार के बिलकुल विरोध में है। वास्तव में तुम अपने पेट के लिए—-और पेट में कोई चेतना नहीं होती—-वास्तव में तुम अपने पेट के लिए एक चैतन्य पशु की बलि दे रहे हो। यह मत कर देना। हाँ, तुम पर कोई हिंसक पशु टूट पड़े और तब तुम उसे मार दो, तो बात अलग है। क्योंकि अब एक निम्न दर्ज़े की चेतना, एक उच्च दर्ज़े की चेतना को अपना भोजन बना लेना चाहती थी, यह बात स्वीकार्य नहीं है।

लेकिन जब तुम एक मुर्गे को या बकरी को काटते हो, तो वो तुम पर आक्रमण नहीं कर रहा था और ऐसा भी नहीं है कि उसको खा करके तुम समाधि में प्रवेश कर जाओगे। अगर माँसाहार करके तुम्हारी समाधि गहराती, अगर माँसाहार करके तुम्हारी चेतना नयी ऊँचाइयाँ प्राप्त करती, तो मैं कहता, ‘माँसाहार ज़रूर करो!' पर माँसाहार करने से तुम्हारी चेतना को कोई लाभ नहीं होता है। उल्टा होता है। तुम चेतना की धारा के रास्ते में पत्थर रख देते हो। माँसाहार बहुत बड़ा पत्थर है, बहुत बड़ा अवरोध है। बात समझ में आ रही है?

तो मूल कीमत चेतना की है। जब तुम पेट की खातिर एक चैतन्य जीव को मारते हो तो पूछो, 'कि इसको मारकर के मुझे क्या मिला?' अगर उत्तर यह आए कि इससे तुम्हारी चेतना में इजाफ़ा हुआ है, तो उसे ज़रूर मार दो। लेकिन अगर उत्तर यह आए कि उसको मारा है तुमने सिर्फ़ ज़बान के स्वाद के लिए या पेट भरने के लिए, तो मत मारना! तुम ग़लत कर रहे हो! तुम अपने ही प्रति अपराध कर रहे हो!

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