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लेख
मेरा शरीर किसलिए है? || आचार्य प्रशांत, गुरु नानक पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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साची लिवै बिनु देह निमाणी

अनंदु साहिब (नितनेम)

(Without the true love of devotion, the body is without honour)

वक्ता: शरीर किसलिए है? दो शब्दों में शिवसूत्र स्पष्ट कर देते हैं। शरीर क्या है? हवि है। शरीर यज्ञ की ज्वाला में समर्पित होने हेतु पदार्थ है। यज्ञ क्या? यज्ञ वो जो सीधे तुम्हें परमात्मा से मिला दे। शरीर का एक मात्र उद्देश्य ये है कि इसका उपयोग कर के उसको पा लो, शरीर का और कोई प्रयोजन नहीं। शरीर इसलिए नहीं है कि शरीर को ही भोगो, अपने निमित्त नहीं है शरीर।

शरीर इसीलिए है ताकि शरीर से आगे जा सको।

कार इसीलिए नहीं होती कि उसमें बैठ जाओ, कार इसीलिए होती है ताकि उसमें बैठ कर के कहीं पहुँच सको। और जो कार ऐसी है कि उसमें बैठ तो सकते हो पर वो चलेगी नहीं; गड़बड़ है मामला। जो लोग शरीर से बंधा हुआ जीवन जीते हैं, वो वैसे ही हैं। जो अपने आप को शरीर समझते हैं, वो वैसे ही हैं कि तुम्हें कार दी गई थी ताकि तुम वहाँ पहुँच सको, और तुमने कार को ही चमकाना शुरू कर दिया। बिलकुल चमाचम कार है तुम्हारी। रोज़ उसकी तेल-मालिश करते हो – नये टायर, चमचमाता बोनट, लेटेस्ट मॉडल, बस खड़ी रहती है। और तुमने अपनी जमा पूंजी उस कार को चमकाने में लगा रखी है, उस कार को और बेहतर बनाने में लगा रखी है, उस कार के पोषण में लगा रखी है। ये तेल मांगती है तेल, तो इंजन ऑन कर देंगे, इग्नीशन ऑन रहेगा। पूरा पिला रहे हैं उसको तेल, बस चलाएँगे नहीं।

शरीर श्रम के लिए है।

हिन्दुस्तान में दो प्रमुख धाराएँ रही हैं बोध की। एक तो धारा वो रही है जो कहती है कि तुम्हें हाथ-पाँव हिलाने की ज़रूरत नहीं है, अनुकम्पा होगी तो तुम्हें मिल ही जाएगा। और एक दूसरी धारा वो रही है जो कहती है श्रम करो, श्रम करोगे तो मिलेगा। सत्य निश्चित रूप से इन दोनों ही ध्रुवों पर नहीं है। वो कहीं और है। पर श्रम का महत्त्व समझिये, मेहनत की कीमत समझिये। इस परंपरा को श्रमण परंपरा कहा गया है – ये जैनों की और बौद्धों की परंपरा है। ये तपस्वियों की परंपरा है। ये उन सब की परंपरा है जो खोजने निकले।

करो, मेहनत करो, और जहाँ भी कहीं मेहनत होगी, वहाँ शरीर आएगा। शरीर को गलाओ, व्रत करो। इसमें अनुकम्पा के महत्त्व को नकारा नहीं जा रहा, ये नहीं कहा जा रहा कि तुम मेहनत करोगे तो बोध प्राप्त हो जाएगा। ये बिल्कुल नहीं कहा जा रहा है कि बुद्ध की तरह तुम भी बारह-साल तक जंगल-जंगल घूमोगे और ठीक उतनी ही दूरी तय कर लोगे जितनी बुद्ध ने तय करी थी, और ठीक उन्हीं-उन्हीं जगहों पर बैठ लोगे जहाँ बुद्ध बैठे थे तो तुम्हें भी बोध हो जाएगा; ये नहीं कहा जा रहा है। पर ये कहा जा रहा है कि वो सब करे बिना भी बुद्ध को न मिलता। वो सब कर के तो नहीं मिला है, पर वो करे बिना भी ना मिलता।

तो तुम्हारे श्रम का महत्त्व है। और जहाँ श्रम का महत्त्व है, वहाँ शरीर का महत्त्व है। क्योंकि ये शरीर नहीं चाहता श्रम। शरीर आदत का नाम है। शरीर का अर्थ ही है वृत्तियाँ, वो तो अपने अनुसार ही चलना चाहती हैं। और श्रम की एक दूसरी दिशा होती है, वो वृत्तियों की दिशा से मेल नहीं खाएगी, शरीर प्रतिरोध करेगा। कम से कम शुरू में तो करेगा ही।

क्या कह रहे हैं नानक? – “विदाउट द ट्रू लव ऑफ़ डेवोशन, द बॉडी इज़ विदाउट हॉनर”। वो शरीर जो सत्य की राह में गल जाने को समर्पित नहीं है, उसका कोई मान नहीं, वो व्यर्थ ही है। तुमने यूं ही खा-खा कर के कद बढ़ा लिया है, माँसपेशियाँ फुला ली हैं; व्यर्थ ही है। यही मान है शरीर का, किसी भी वस्तु का यही मान है कि वो अपने से आगे निकल जाए। इसके अलावा और कोई मान नहीं होता,और इससे ऊँचा कोई मान नहीं हो सकता। यही शरीर का मान है, हॉनर, ‘साची लिवै बिनु देह निमाणी’।

श्रोता १: सर, अभी आपने हाल ही के दिनों में बताया था, जिसमें ये लाइन थी कि ‘या तो अपना उद्देश्य पा लो, वरना ये शरीर गिर ही जाए’।

वक्ता: हाँ, और वो निश्चित रूप से श्रमण परंपरा से आएगी, बुद्ध की और महावीर की परंपरा से आएगी। व्यर्थ ही है इसको ढ़ोना, अगर वो नहीं मिल रहा। ‘या तो उसको पा लो, या ये शरीर गिर ही जाए’ – जिस दिन तुम ये कहते हो उस दिन शरीर का मान बढ़ जाता है। उस दिन शरीर की कीमत बढ़ जाती है कि अब ये शरीर ऊल-जलूल हरकतों का और व्यर्थ भोगने का साधन नहीं रहा। अब इस शरीर की कोई हैसियत है। ये शरीर अब धर्म-युद्ध में रथ जैसा हो गया है कि तुम लड़ रहे हो और शरीर के मध्य बैठ कर के लड़ रहे हो। धर्म का युद्ध लड़ रहे हो।

धर्म का युद्ध क्या?

जो परम को पाने को लड़ा जाए वो धर्म-युद्ध।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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