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लेख
माया माने क्या? || आचार्य प्रशांत (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
13 मिनट
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प्रश्नकर्ता : आचार्य जी, हम हर बार कहते रहते हैं कि सब माया है, ये माया है, वो माया है। जैसे मैं यहाँ पर हूँ, तो मैं अभी कैसे अंतर करूँगा कि ये एक साफ़ मन का निर्णय होना चाहिए, और ये एक प्राप्त और अधिकृत मन का निर्णय होना चाहिए?

आचार्य प्रशांत : जब भी वस्तु रूप में कुछ भी मन पर छाए, वो माया है, उसमें तुम्हें और ज़्यादा सोचने की ज़रुरत नहीं है। मन पर छाना दो तरीके से हो सकता है, आकर्षण, नहीं तो विकर्षण। जब भी कभी कोई वस्तु , और जो भी वस्तु होता है, मानसिक, उसका कोई आकार होता है, नाम होता है। जब भी कोई चीज़, विचार, व्यक्ति, वस्तु, मन पर छाने लगे, सोच का केंद्र बन जाए, तो समझ लेना कि माया है। और कुछ नहीं होती है माया।

मन का रूप की तरफ आकर्षित होना — रूप कुछ भी हो सकता है — या फिर रूप से डरना, वो भी माया ही है। दोनों ही स्थितियों में बात मन पर छाई तो हुई ही है। बात समझ में आ रही है?

कोई इंसान है, तुम्हें बार बार याद आता है, रूप हुआ न वो? एक रूप है। ये माया है। कोई इंसान है, जिसकी याद से तुम मुक्त होना चाहते हो, ये भी माया है। कुछ पाना चाहते हो, माया है। कुछ छोड़ना चाहते हो, माया है। मन में जो कुछ भी है, जब वो बहुत महत्वपूर्ण लगने लगे, तो माया है। हो कुछ भी, कोई भी मानसिक रचना। वो, तुम्हारी नज़रों में ऊँची से ऊँची चीज़ हो सकती है, और छोटी से छोटी चीज़ हो सकती है, पर अगर महत्वपूर्ण लगने लग गयी है, तो माया है। आ रही है बात समझ में?

इसी को कबीर ने ऐसे कहा है कि “जो मन से न उतरे, माया कहिये सोय”। जो भी कुछ मन पर छाया रहे उसी का नाम माया है। और मन पर जो भी छाएगा, उस का रूप, रंग, आकार, सीमा, इतिहास, ये सब होगा ही होगा। मन तो हम जानते ही हैं ना, किसमें रहता है? टाइम एंड स्पेस में। तो मन पर जो कुछ भी छा रहा होगा, वो “कुछ” होगा। और “कुछ” माने? उसकी छवि बनाई जा सकती है। मन में छवियाँ ही तो होती हैं।

मन का, अपनी छवियों को बहुत गंभीरता से ले लेना ही, माया है। इतना गंभीरता से लेने लगा कि वो छवियाँ ही मन की पूरी गतिविधियों का केंद्र बन जाए, तो माया है। और जब मन के केंद्र पर वो बैठा रहे, जिसका नाम नहीं हो सकता, जिसके बारे में सोचा नहीं जा सकता, लेकिन जिसकी समीपता से बड़ी ठंडक सी मिलती है, तो समझ लेना, मन माया से मुक्त है। आ रही है बात समझ में?

माया कभी कह के नहीं आएगी कि माया हूँ। वो हमेशा रूप, रंग, आकार किसी दूसरी चीज़ का ही लेगी। अगर तुमसे कभी कहा जाए कि माया ले कर के आओ, तुम ला नहीं पाओगे। किसी भी व्यक्ति का, किसी भी चीज़ का आकार ले सकती है। जो भी तुमको लुभाने लग गया, समझ लेना वहीं पर माया है। और वो कुछ भी हो सकता है। जो भी तुम्हें लगने लग गया, “अरे नहीं, इससे ऊपर कुछ हो ही नहीं सकता।” जब भी तुम ये कहने लग जाओ कि ये पा लूँ तो जीवन सार्थक हो गया, समझ लेना माया है। जब भी किसी भी क्षण पाओ कि दुनिया की कोई भी चीज़ तुम्हारे लिए इतनी क़ीमती हो गई है कि तुम काँपे जा रहे हो, तो समझ लेना कि माया है।

तुम खड़े हो, “ये मुझे नौकरी देगा कि नहीं देगा।” और दिल धड़क रहा है, धड़ धड़ धड़ धड़ धड़ धड़। इस वक़्त तुम्हारे लिए सबसे महत्वपूर्ण क्या है?

श्रोता : नौकरी।

वक्ता : वो नौकरी, एक कागज़ जिसपे लिखा हुआ है, चयनित हुए, माया है। इस वक़्त कुछ भी और तुम्हें याद ही नहीं आ रहा। सब भूल गए हो। सिर्फ तुम्हें क्या याद है?

श्रोता : नौकरी।

वक्ता : नौकरी। समझ लेना माया है। मन पर कोई चीज़ छाई हुई है। आ रही है बात समझ में? कोई तुम्हें गाली दे कर के चला गया, और तुम एक घंटे तक उफनाए बैठे हो, और तुम्हारे दिमाग पर वही इंसान और वही वाक़या छाया हुआ है। और वही शब्द गूँज रहे हैं कान में। कुछ और इस वक़्त तुम्हें याद ही नहीं है। इस वक़्त तुम्हारे लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण कौन है? सिर्फ वही। समझ लेना माया है। दुनिया जब भी हावी होती दिखाई दे, उसी का नाम माया है। तो अपने आप से पूछ लो, क्या है जो मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है? पूरी एक लम्बी सूची बनाओ, मेरे लिए क्या क्या महत्वपूर्ण है। ईमानदारी से। जिन भी उद्देश्यों के लिए तुम जी रहे हो, जिन भी बातों को तुम कहते हो कि ये जीवन को सार्थकता देती हैं, उनकी एक फेहरिस्त बना लो। और फिर उन सब के आगे लिख दो, माया। वही माया है।

जो कुछ मन पर छाया, उसी का नाम?

श्रोतागण : माया।

वक्ता: माया। जिसके लिए भी तुम जान देने को उतारू हो, उसी का नाम माया है। जिसको ही तुम कहते हो कि मेरे प्राणो का प्राण है, उसी का नाम माया है। जिसको ही तुम कहते हो कि तू न रहा तो मेरा क्या होगा, उसी का नाम माया है। आ रही है बात समझ में?

और वो कुछ भी हो सकता है; वो ऐसा लग सकता है कि कोई बड़ा सार्थक, नैतिक, यहाँ तक कि आध्यात्मिक उद्देश्य भी हो सकता है। अगर तुम्हारे मन पर लगातार यही छाया हुआ है कि मुझे मुक्ति चाहिए, मुक्ति चाहिए, मुक्ति चाहिए, तो ये भी माया ही है, क्योंकि तुम्हारे मन में मुक्ति की एक छवि है। मुक्ति तुम जानते तो नहीं हो ना? क्योंकि मुक्त तो तुम हो नहीं। जो मुक्त नहीं है, वो मुक्ति भी तो नहीं जानता। उसके पास मुक्ति के नाम पर क्या है?

श्रोता : छवि।

वक्ता : एक छवि है। और जहाँ कहीं भी मन पर एक छवि छाई हुई है, उसी का नाम माया है। कोई भक्ति में मशगूल है, और उसके मन में भगवान की एक छवि छाई हुई है, “मेरे भगवान ऐसे हैं, बड़े सुन्दर हैं, ऐसे हैं, ऐसे हैं।” जहाँ कहीं भी छवि है, वहीं माया है।

जो वास्तविक रूप से समर्पित मन है, वो किसी छवि को नहीं समर्पित होता। वो सत्य को समर्पित होता है। और सत्य का कोई नाम पता ठिकाना नहीं होता। छवि तो सीमित होती है, और छवि के बाहर जो कुछ होगा, उसको तो तुम सत्य मानोगे नहीं, क्योंकि तुमने सत्य की छवि बना रखी है। तो अपनी सूची को ध्यान से देखना कि इसमें मैंने क्या-क्या लिख रखा है। और जो कुछ लिख रखा हो, वही तुम्हारे कष्ट का कारण है। और तुम्हारे लिए बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाएगी क्योंकि उसमें जो कुछ लिखा होगा वो तुम्हें बड़ा प्यारा होगा। उस सूची में तुम लिखोगे ही वही सब, जो तुम्हें बड़ा प्यारा है। सिर्फ उसी से तुम्हारे जीवन में नर्क है, क्योंकि वही माया है, वही तो मन पर छाया रहता है। और इसीलिए माया से मुक्ति इतनी कठिन है। क्योंकि वो, या तो गहरा आकर्षण बन के आती है, बड़ी प्यारी लगती है, या फिर वो बड़ा डर बन के आती है। और मन पर डर भी खूब छाता है, छाता है कि नहीं? मन पर वासना जितना छाती है, और जितनी ऊर्जा से तुमको भर देती है, तुम दो ही स्थितियों में बहुत तेज़ी से दौड़ लगाते हो। कुछ तुम्हें बहुत अच्छा लग रहा है, तो उसकी और भागोगे। और कुछ तुम्हें बहुत डरावना लग रहा है, तुम उससे?

श्रोतागण : दूरभागोगे।

वक्ता : दूर भागोगे। दोनों ही स्थितियों में तुम बिलकुल ऊर्जा से भर जाते हो। यही माया है। खूब दौड़ाती है। कभी किसी की तरफ, कभी किसी से दूर। आकर्षण जानती है माया, प्रेम में ख़त्म हो जाती है। इसीलिए आकर्षण में, और प्रेम में, ज़मीन आसमान का अंतर है। हमने क्या कहा था? माया जहाँ है, वहीं पर रूप, रंग, आकार, छवि है। तो तुम भी इसी बात से जाँचो, जहाँ तुम कहते हो कि मुझे प्रेम है, क्या रूप, रंग, आकार, छवि, नाम है वहाँ पर?

जाँचो कि जिससे भी कहते हो कि प्रेम है, यदि उसका रूप, रंग, नाम, छवि, आकार बदल जाए, तो क्या प्रेम तब भी रहेगा? यदि उसका इतिहास बदल जाए? तब भी रहेगा? जो भी कुछ मन के दायरे में आता है, सोचा जा सकता है, यदि वो बदल जाए, तो भी क्या प्रेम बचेगा? यदि नहीं बचेगा, तो वो प्रेम है ही नहीं। वो माया है। और माया को बड़ा पसंद है, प्रेम बन कर आना। तुम चिल्लाते हो, मुझे इश्क़ हुआ, तुम समझ ही नहीं पाते, माया है। क्योंकि रूप रंग शामिल है उसमें। सारी मानसिक वृत्तियाँ शामिल हैं उसमें। तुम्हारी पसंद-नापसंद शामिल है उसमें।

आकर्षण में माया पलती है, प्रेम से माया दूर भागती है। ठीक इसी तरीके से, भ्रम से माया को खूब पोषण मिलता है। और ध्यान में माया सफाचट हो जाती है। क्योंकि ध्यान का अर्थ ही है, कि बात की हक़ीक़त दिख जाएगी। सतह सतह पर तो रूप, रंग, आकार, नाम, यही सब होता है ना, छवि? ध्यान का अर्थ है, छवि के आगे कुछ है, ये दिख गया। माया ध्यान से खूब डरती है, माया प्रेम से खूब डरती है। माया को सीमित बहुत पसंद है, जहाँ कहीं भी तुम बाँटो, सीमाएँ खींचो, बहुत पसंद है। पर माया मुक्ति से बहुत डरती है। मुक्ति माने असीमित। इसलिए, जहाँ कहीं भी तुम टुकड़ों की बात कर रहे होंगे, रेखायें, सीमाएँ खींचने की बात कर रहे होंगे, माया को बड़ा मज़ा आएगा। माया कहेगी, “हाँ बिलकुल ठीक, ये मेरा ये तेरा।” क्योंकि जहाँ सीमा है, वहीं पर बात मन की हो गयी ना?

मन के भीतर जो कुछ होता है, वो सीमित ही होता है। तो तुम जितनी सीमाएँ खींचोगे, उतनी छवियाँ बनाओगे। और सीमा खींच रहे हो, इसका मतलब कुछ ऐसा है जो महत्त्वपूर्ण है। तो तुमने किसी मानसिक चीज़ को महत्वपूर्ण बना दिया, माया को मिल गया मसाला। तो माया को बहुत मज़ा आएगा” मेरा-तेरा में माया बहुत मस्त रहती है। मैं और संसार। मेरा घर, मेरी उपलब्धियाँ। तो दिख ही रहा होगा कि अभिमान और माया, इकट्ठे चलेंगे। आ रही है बात समझ में? अभिमान भी तो इसी में खुश रहता है – सीमाएँ, मेरा, तेरा।

इसी तरीके से अगर गौर करोगे, तो सुख दुःख से माया का खूब सम्बन्ध पाओगे। सुख माने? मुझे क्या पसंद है। और दुःख माने? मुझे क्या नापसंद है? और मैं कौन, जिसे ये पसंद नापसंद है? मैं कौन, जिसे ये सब पसंद नापसंद है?

श्रोतागण : माया, अहंकार।

वक्ता : मेरा अतीत। मेरी वृत्तियाँ। मेरे संस्कार। इन्ही को तो पसंद नापसंद होता है। एक को जो पसंद है, वो पड़ोसी को नापसंद है। लड़के को जो पसंद है, वो लड़की को नापसंद है। जवान को जो पसंद है, बुड्ढे को नापसंद है। हिन्दू को जो पसंद है, मुसलमान को नापसंद है। तुम्हारा अतीत। जहाँ तुम सुख अनुभव कर रहे हो, समझ लेना माया नाच रही है। जहाँ तुम दुःख भी अनुभव कर रहे हो, वहाँ भी समझ लेना माया नाच रही है। तो इसलिए हमारे त्यौहार, कहने को तो सत्य के उत्सव होते हैं, पर उन सब में नाचती कौन है?

श्रोता : माया।

वक्ता : माया। बात समझ रहे हो बेटा?

माया वो, जो सत्य से खूब दूर है। माया वो जो अपने आप को, सत्य के विकल्प के रूप में पेश करती है। माया वो, जो कहती है, “सत्य न रहे तुम्हारे जीवन के केंद्र पर, मैं रहूँ।” माया माने, सत्य का विकल्प। इसीलिए , दूसरे शब्दों में ऐसा भी कहा गया है कि, माया वो, जो वो दिखाती है जो है नहीं, और उसे छुपाती है जो है। शास्त्रीय तौर पर माया को ऐसे परिभाषित कर देते हैं। माया की आवरण शक्ति कहलाती है, वो छुपा देना जो? है ही। और माया की विक्षेप शक्ति कहलाती है, वो दिखा देना जो नहीं है। आवरण माने पर्दा। जो है, वो तुम्हें दिख नहीं रहा। ये आवरण है। विक्षेप माने? यूँ ही कल्पना हो रही है। असत्य में जिए जा रहे हो, जो है नहीं, उसको माने बैठे हो। उसी विक्षेप से जुड़ा शब्द है, विक्षिप्तता, पागलपन। तो माया पागलपन है। वो दिखा रही है तुमको, जो है ही नहीं। जहाँ प्रेम नहीं है, वहाँ तुम्हें प्रेम दिख रहा है। जहाँ मुक्ति नहीं है, वहाँ तुम्हें मुक्ति दिख रही है। जिस रास्ते तुम्हारा मंगल नहीं है, उस रास्ते तुम्हें तुम्हारा मंगल दिख रहा है। जो सत्य है ही नहीं, उसे तुम सत्य माने बैठे हो। यही विक्षेप है।

तो शुरू करना बड़ा सरल है, अपनी सूची में जो भी लिखा हो; कौन सी सूची? क्या है जो मन पर छाया रहता है, मेरे मन पर? जो भी मन पर छाया रहता है, बड़ी ईमानदारी से, और बड़ी निर्ममता से, उसके आगे लिख दो, माया। अभी भी जो मन में चल रहा हो, उसके आगे लिख दो – माया।

यही मुक्ति है। माया को जान लेना, माया ही माया से मुक्ति है।

अब गाना माया को, मज़ा आएगा। माया तुम्हें गवाए तो क्या मज़ा, तुम माया को गाओ, तब मज़ा है। है तुम्हारे में? “माया तो ठगनी बड़ी, ठगत फिरत सब देश। जा ठग ने ठगनी ठगी, ता ठग को आदेश ”। गाओ माया को, क्या पता गाते गाते ठगनी को ठग लो?

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