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लेख
मौत के सामने खड़े होने का क्या अर्थ है?
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: मौत के सामने खड़े होने का क्या अर्थ है?

आचार्य प्रशांत: मृत्यु से बात करने का अर्थ क्या है? पर जबतक हम ये समझ नहीं रहें हैं तब तक हम नहीं समझेंगे क्योंकि बाकी सारे काम तो अपने आप हो ही जाएँगे। एक बार आप यम के सामने खड़े हो जाएँ, तो उसके बाद जो कुछ लिखा है वो आपको पढ़ने की जरूरत क्या है? वो तो आपको ही मिल जाएगा। जो मूल प्रश्न था वो किसी ने पूछा नहीं। जो मूल प्रश्न है वो ये है कि, “मृत्यु के सामने खड़े होने का अर्थ क्या है?” क्या यही सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न नहीं है?

एक बार संवाद शुरू हो जाए, तो उसके बाद तो उत्तर अपने आप मिलने लग ही जाते हैं। एक बार बातचीत शुरु हो गई, तो फिर तो जो होनी है वो होगी। बातचीत शुरू ही कैसे हुई? बातचीत शुरू होने का अर्थ क्या है? मैं मौत से बात कर रहा हूँ, इसका क्या अर्थ है?

प्र: अपने सबसे बड़े भय का सामना कर रहा हूँ।

आचार्य: बहुत बढ़िया, तो बात कैसे कर रहा हूँ मैं उससे? क्योंकि यमराज तो कुछ होते नहीं। कोई होता है क्या आदमी कि भैंसे पर बैठ कर आ रहा है? जो उनकी छवि बनाई गई है, वैसा तो कुछ होता नहीं।

प्र: मृत्यु के क्षण...

आचार्य: मृत्य के क्षण में, तो नचिकेत मरने वाले है इसका मतलब? मृत्यु का क्षण है नचिकेत का। क्या अर्थ है इसका? इसका अर्थ है कि जो मन में सबसे गहराई से छुपा हुआ डर है, नचिकेत ने उससे आँखे चार करी हैं। वो क्षण ध्यान का होता है। ये जो कुछ आप पढ़ रहे हैं, पूरा उपनिषद्, ये और कुछ नहीं है, ये नचिकेत के ध्यान से निकले हुए वचन हैं।

जब एक व्यक्ति ध्यान में होता है, गौर से देख रहा होता है अपने आप को, तब वह जो कुछ भी जनता है या बोलता है, वही उपनिषद् है। और कुछ नहीं होता उपनिषद्। उपनिषद् कोई ब्रह्म वाक्य नहीं है कि कोई इधर–उधर से आकर के देवी देवता बोल गया, यमराज बोल गए या ऐसा कुछ हो गया। ये साधारण आदमी की ही बात है, ये एक साधारण आदमी के ही वचन हैं, लेकिन उस समय उसकी स्थिति ध्यान की है। वो वैसा नहीं है कि हमारी तरह बैठा हुआ है, कि मन पाँच जगह बँटा हुआ है। हैं यहाँ, पर सोच कहीं और की रहे है, इस तरह का।

आपके-मेरे जैसे लोग ही जब ध्यान में होते हैं, तो हम जो कुछ कहते हैं उसी का नाम उपनिषद् कहलाता है। उसी का नाम कोई भी धर्म ग्रंथ है। हमारे अलावा कोई नहीं है दुनिया में, पर हमारी हो दो अवस्थाएँ हो सकती हैं। छितराई हुई, बिखरी हुई और दूसरी हो सकती है ध्यान की।

तो कठोपनिषद और कुछ नहीं है, वो नचिकेत के ही वचन हैं। कोई यमराज नहीं आया नचिकेत से मिलने। वो नचिकेत के अपने वचन हैं, नचिकेत का अपना जानना है, परन्तु ध्यान में जानना है। और जिसने ये बात नहीं समझी उसने कुछ नहीं समझा। क्योंकि जो ये बात समझ जाएगा कि ये नचिकेत के अपने वचन हैं, उस क्षण में जब वो अपने भय को साफ–साफ देख रहा है, तब वो हर उस मौके पर जो उसे मिलेगा कि अपने भय को खोल कर रख दो, अपने भय को खोल कर रख देगा।

डरा हम में से हर कोई है। अगर कोई कहता है कि, "मेरे जीवन कोई डर नहीं", तो वो झूठ बोल रहा है। हमने भी अभी कुछ ही दिन पहले एक मौका ऐसा तलाश था कि जहाँ अपने-अपने डर को खोल कर रख दे। कुछ लोगों ने खोल कर रख दिया, कुछ भाग गए कि, "हमारे जीवन में तो कुछ डर ही नहीं है।" उन्हें कुछ नहीं मिलेगा, वो भिखारी आए थे, वापस वैसे ही लौटेंगे।

जिन्होंने अपने आप को उद्घाटित कर दिया, उनके जीवन में उपनिषद् उतर सकता है। और जो इधर-उधर की बातें करके, बहाने बना कर निकल लिए, उन्हें कुछ मिलेगा नहीं। मौके हम सब को मिलते हैं। आप ये मत समझिएगा कि उपनिषद् कोई बड़ी दैवीय बात है कि कोई खास जगह होगी वहाँ बैठते होंगे, कोई खास आयोजन किया जाता होगा, तब उपनिषद् निकलता होगा। नहीं, ऐसा नहीं है, ये रोजमर्रा की घटनाएँ हैं। उपनिषद् खुद कहते हैं कि उपनिषद् कैसे उठाते हैं। शिष्य गुरु से कह रहा है कि, "उपनिषद् बोलो", और गुरु कह रहा है कि “उक्ता ते उपनिषद्”- जो हम बोल रहे है अभी यही उपनिषद् है।

हम जो ये साधारण जीवन जी रहे हैं इससे अलग कुछ होता नहीं। इसी में अगर ध्यान से आप जी रहे हैं, तो उस वक्त आप जो कुछ भी कहेंगे वो उपनिषद् ही है। उपनिषद् का अर्थ क्या? उपनिषद् का अर्थ है सत्य, और कुछ नहीं। तो वो सच होगा। और उसी में आप अगर बिखरे-बिखरे रहेंगे, बेहोश रहेंगे, आपको पता भी नहीं रहेगा कि आपने क्या मौका गँवा दिया, तो जैसे रहे आ रहे हैं वैसे रहे आइए। अपने आप से ही झूठ बोल गए, अपने आप से ही बहाने बना दिए। मौका था हाथ से जाने दिया। जिन्होंने मौके का इस्तेमाल कर दिया, उन्हें लाभ हुआ कि नहीं हुआ? हुआ। जिन्होंने नहीं किया वो घूमते रहे अपना। जहाँ खड़े हो उस वक्त तुम्हारे लिए जो संभव है, वो तो करो!

जिन झूठों का तुम्हें पता भी नहीं, उनको तो तुम बोल भी नहीं पाओगे। कम से कम जिनको जानते हो उनको तो खोलो। जिन डरों का तुम्हें पता भी नहीं कि इतने गहरे बैठे हुए हैं कि हमें पता भी नहीं है कि हम डरे हुए हैं, होते हैं कई ऐसे डर, जो इतने गहरे बैठे हुए होते हैं कि हमें पता भी नहीं होता उनका। उनको तो तुम वैसे भी नहीं बोल पाओगे। उनको बोल पाने का कोई तरीका नहीं है। पर जिनको बोल सकते हो उनको तो बोलो। जो उनको भी नहीं बोल रहा, वह अपने आप से धोखा कर रहा है। उसका कुछ नहीं हो सकता। वो चाहे कृष्णमूर्ति को पढ़े, चाहे कुछ पढ़ता रहे, उसे कुछ मिलेगा नहीं। क्योंकि कुछ पढ़ कर कभी किसी को कुछ मिला नहीं। नचिकेत होना पड़ता है, ये बात मैं सौ बार कह चुका हूँ। नचिकेत पढ़ कर कुछ नहीं पाएँगे, नचिकेत हो कर पाएँगे। नचिकेत ने अपने डर का सामना किया है। मृत्यु माने सबसे बड़ा भय। उसने अपने भय से आँखें चार करी हैं, बहादुर आदमी है वह। नचिकेत बन कर ही कुछ मिलता है। ये नहीं है कि इस कमरे में आकर उसकी कहानी सुन ली और उससे कुछ पा जाओगे। क्या पा जाओगे? जब मौका था तब तो सटक लिए। अब उसकी सुनते रहो कहानी। यह भी मैं क‌ई बार कह चुका हूँ पहले कि नचिकेत जैसों को समझने के लिए नचिकेत जैसा ही होना पड़ता है। जो तुम हो ही नहीं नचिकेत तो तुम्हें क्या लाभ होगा तुम्हें उसकी कहानी सुन कर?

नचिकेत वो आदमी है जिसने अपने गहरे-से-गहरे डर को कहा है कि, "आ, बता, अपना राज़ खोल मेरे सामने। मृत्यु का राज़ खुले मेरे सामने। अपना राज़ खोल, तू क्यों है? मेरा जीवन ऐसा क्यों बीत रहा है, सहमा-सहमा, उथला-उथला?" तो जो वैसा हो गया, उसके लिए फिर ये उपनिषद् मायने ही नहीं रखता। क्योंकि वह तो हो गया। और जो वैसा है नहीं, वो लाख सुनता रहें, उसे मिल क्या जाना है?

एक बड़ी गहरी संवेदना चाहिए, अपने पूरे जीवन के प्रति, "ये जो हो रहा है ये क्या हो रहा है?" हज़ार बच्चे होते हैं जिनके सामने उनके माँ-बाप पता नहीं क्या-क्या कुकर्म करते रहते हैं, बच्चे उनके कुछ नहीं बोलते। हम सब घरों में रहते हैं और घरों में पता नहीं क्या-क्या चल रहा होता है, तुमने कभी प्रश्न उठाया? नचिकेत के घर में भी कुछ चल रहा था, उसने सवाल उठा दिया। हमारे घरों में सौ तरह के पाखंड चलते रहते हैं, और हम पता है न कि चलते रहते हैं, हम कभी पूछते हैं कि क्यों चल रहे हैं? नचिकेत जा कर खड़ा हो गया। बोलता है कि, "क्या कर रहे हो पापा? दान देते हो तो गाय का क्या देते हो, मेरा दो न! अगर असली दानी हो, तो मेरा दो न!" हमनें कभी बोला क्या? बोला तो बहुत बढ़िया, बोला तो आप नचिकेत हो गए। जिसने नहीं बोला उसे कुछ फायदा नहीं होगा ये सुन कर।

नचिकेत क्या है? नचिकेत एक विद्रोही है, जो अपने घर में चल रहे आडंबर के विरुद्ध खड़ा हो सकता है। आप अपने घरों में चलते हुए आडंबरों के विरुद्ध खड़े हो पा रहे हो? कोई है जिसके घर में धोखे, आडंबर, पाखंड ना चल रहे हो? उपनिषद् शुरू ही वहाँ से होता है, जहाँ पर एक बेटा अपने बाप के आडंबर के विरुद्ध खड़ा हो रहा है। और जो बेटा अपने बाप के विरुद्ध खड़ा होने को तैयार नहीं, जो पत्नी अपने पति के विरुद्ध खड़ी होने को तैयार नहीं, जो व्यक्ति समाज के विरुद्ध खड़े होने को तैयार नहीं वो क्यों अपना समय खराब करे उपनिषद् सुन कर?

ये बात साफ-साफ समझ में आ रही है कि ये उपनिषद् कहाँ शुरू होता है? जहाँ पर एक बेटा अपने बाप से कहता है कि, "तुम धोखेबाज हो, और अगर असली आदमी हो तो इन गायों को नहीं मुझे दान करो।" और जहाँ पर वह अपने छोटे-मोटे नहीं सबसे बड़े डर के सामने खड़ा होता है। "मौत का राज़ जानूँगा। मुझे बताओ मौत क्या है, मुझे समझना है।"

जो आदमी अपना छोटा सा डर खोलने में हिचकता हो, सटक लेता हो इधर-उधर, क्या जिंदगी में करेगा? बेकार! व्यर्थ!

ऐसे ही मौके होते हैं। नचिकेत के सामने भी ऐसा ही एक मौका आया था, वह चाहता तो कहता, "क्या फर्क पड़ता है! पापा कर रहे हैं करने दो। कुछ उनका काम है, मैं क्यों हाथ डालूँ? क्या लेना-देना है? करने दो। उनका काम है, कुछ कर रहें होंगे दान, यज्ञ, हवन, आयोजन। मैं क्यों जाऊँ और कहूँ कि, 'पापा वो गाये तो बुड्ढी हैं, इनके दान से क्या फायदा? तुम किसको बेवकूफ बना रहें हो?' हम तो ऐसे ही करते हैं न?

मूल बात समझो। बाकी तो सत्तर बातें लिखीं हुई हैं, वो सब मंबो-जंबो हैं, वो कोई बड़ी कीमती नहीं है। मूल बात समझो। उपनिषद् पढ़ने से नहीं कुछ होगा, उपनिषद् जीवन में उतरे तब होता हैं। अपना जीवन उपनिषद् बने, हम नचिकेत बन जाए तब बनती है बात। जो मूल घटना है उसको पकड़ो, कि एक आदमी जब मौका आया तो पीछे नहीं हट गया। बस यही है उपनिषद्, कि जब मौका आया तो खड़ा हो गया बिलकुल, तन कर, यही है उपनिषद्, और कुछ नहीं है उपनिषद। उसे फर्क नहीं पड़ रहा था कि बाप के सामने खड़ा होना है, उसने कहा, "ठीक!" और बड़ा नहीं था बहुत ये, जवान आदमी नहीं है, नचिकेत बच्चा ही है। निर्भर भी रहा होगा आर्थिक रूप से, कई तरीकों से बाप पर, पर हट नहीं गया पीछे, कहा, "ठीक है, निर्भर हूँ तो भी अंतर नहीं पड़ता, जो बात ठीक है वो होनी चाहिए।" फिर मौत से भी नहीं डर गया, ना बाप से डरा ना मौत से डरा। बाप और मौत का अर्थ समझिएगा, बाप है समाज और मौत है प्रकृति।

आदमी दो ही तरीकों से संस्कारित होता है, समाज से और प्रकृति से। बाप है समाज और मौत है प्रकृति। मौत माने समय, प्रकृति। नचिकेत दोनों से भिड़ गया है। मन की दोनों तहों के पार जाने की उसने ठान ही ली है, तो निश्चित रूप से वह वहीं पहुँचेगा जहाँ उसे पहुँचना है। मन के दोनों तलो के पार वो बैठा हुआ है, आत्मन है। उस आत्मा तक वो पहुँच जाता है।

अर्थ समझ रहे हैं? माँ का अर्थ होता है प्रकृति, पिता का अर्थ होता है समाज। माँ प्राकृतिक होती है, पिता सामाजिक होता है। माँ माने जन्म, जन्म प्रकृति है, मृत्यु भी प्रकृति है। तो बाप से भिड़ गया है मतलब समाज से भिड़ गया है और मृत्यु से भिड़ गया है मतलब प्रकृति से भिड़ गया है। और हमारे मन में संस्कारो की यही दो सतहें होती हैं। सबसे जो नीचे की सतह होती है, तल होता है, जहाँ पर वृत्तियाँ वास करती हैं, वो होती है प्राकृतिक। जिसको आप बोलोगे, "मेरे डी.एन.ए में बैठा हुआ है।" और उसके ऊपर जो होता है, जो जन्म के बाद होना शुरू होता है, जो हमे समाज देता है, वो तल होता है सामाजिक। पिता उसका प्रतिनिधि है, सामाजिक संस्कार का। वो दोनों से नचिकेत ने पंगे ले ही लिए हैं। नचिकेत खड़ा हो गया है, एक साथ दोनों के विरुद्ध। यही कारण है कि वो जीतेगा, उसकी जीत पक्की है। वह आधी-अधूरी लड़ाई नहीं लड़ रहा। जहाँ तक वह का सकता है पूरा-पूरा जा रहा है।

इसको आप नचिकेत का अंतर्ज्ञान ही समझिएगा। यम और वो इधर-उधर की बातें सब काल्पनिक हैं। ये नचिकेत का अपना बोध है। उसे किसी ने सिखा नहीं दिया है। ये क्या है? ये नचिकेत का अपना बोध है। और नचिकेत यहाँ तक क्यों पहुँच पा रहा है यह भी स्पष्ट हो रहा है? क्योंकि जो मन के दोनों तलों के पार पहुँच गया, वो अब आत्मा तक पहुँचेगा ही। आत्मा मतलब खुद तक। आत्म माने, 'मैं'। आत्मा कोई काल्पनिक वस्तु नहीं है। आत्मा कोई सिद्धांत नहीं है। आत्मा का इतना ही अर्थ है कि 'मेरी' असलियत, 'मैं' वास्तव में जो हूँ उसी को क्या बोलते है? आत्मा। आत्मा कोई वो चीज नहीं है जो कहीं छुपी होती है और बड़ी सूक्ष्म सी होती है और हवा में तैरती है और गर्भ में प्रवेश करती है। वो सब नहीं है आत्मा। आत्मा माने 'मैं', मेरी हकीकत का नाम है आत्मा। मैं जो वास्तव में हूँ वो है आत्मा।

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