आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
मौत के बाद क्या होता है? पुनर्जन्म कैसे होता है? || (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
19 मिनट
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, हम मृत्यु के बाद के जीवन के बारे में कुछ-न-कुछ कहानियाँ सुनते रहते हैं, आखिर मृत्यु के बाद क्या होता है?

आचार्य प्रशांत: पहेली है ये, कुछ है ही नहीं मृत्यु के बाद। संसार ही नहीं है, तुम्हारे ही देखे संसार है तुम्हारे ही देखे समय है। जब तुम कहते हो, "मृत्यु के बाद क्या है?" तो तुम ये कह रहे हो कि, "मैं चार बजे मरा शाम को, चार बजकर पाँच मिनट पर क्या है?"; क्योंकि बाद का यही अर्थ होता है न? मृत्यु के बाद के समय में क्या है यही तो पूछ रहे हो, कि, "चार बजे मैं मर गया तो चार बजकर पाँच मिनट पर क्या है?" चार बजे तुम मर गए तो तुम्हारी घड़ी चार पर रुक गई, चार बजकर पाँच मिनट कभी बजेंगे ही नहीं। मृत्यु के बाद जब समय ही नहीं है, तो मृत्यु उपरांत क्या होता है ये प्रश्न ही निरर्थक हो गया न। समय ही सिर्फ़ तब तक है जब तक अहम् वृत्ति शरीर से जुड़ी हुई है। शरीर के लिए समय होता है; शरीर समय के साथ बड़ा होता है, शरीर समय के साथ बूढ़ा होता है, शरीर समय के साथ मृत्यु को प्राप्त होता है। समय किसके लिए होता है?

श्रोतागण: शरीर के लिए।

आचार्य: शरीर के लिए। समय मस्तिष्क के लिए होता है, है न? मस्तिष्क माने शरीर। शरीर ही भस्म हो गया तो बताओ अब समय कौन गिनेगा, अब समय ही कहाँ बचा? जब समय ही नहीं बचा तो तुम क्या पूछ रहे हो कि चार बजकर पाँच मिनट पर क्या हुआ। घड़ी चार बजे रुक गई माने रुक गई, अब चार बजकर एक मिनट भी कभी बजने नहीं वाले; दुनिया की घड़ियों में बजेंगे, तुम्हारे लिए चार बजे सब ख़त्म हो गया। तो अब मत पूछो कि इसके बाद क्या है। इसके बाद ना समय है ना संसार है ना आकाश है, कुछ नहीं है।

प्र: आचार्य जी, फिर ऐसा क्यों कहा जाता है कि आत्मा अमर है और वो बस वस्त्र बदलती है?

आचार्य: क्योंकि आत्मा अमर है। पर आत्मा ना कोई चीज़ है, ना कोई पदार्थ है। बड़ा गंदा तरीका है उसे वर्णित करने का, कहते हैं — " ट्रांसमाइग्रेशन ऑफ द सोल (आत्मा का एक शरीर से दूसरे शरीर में जाना)", कितना भद्दा तरीका है बोलने का। कह रहे हैं, "आत्मा उठकर दूसरे शरीर में प्रवेश कर गई।" अब शरीर में प्रवेश तो कोई सीमित चीज़ ही कर सकती है। तुम्हारे शरीर में केला प्रवेश करेगा, हाथी तो नहीं प्रवेश कर सकता। जब इस शरीर में हाथी भी नहीं घुस सकता तो अनंत आत्मा कैसे घुस गई भाई? या आत्मा केला या अंगूर है कि घुस गई भीतर?

एक तरफ़ तो कहते हो कि आत्मा अनन्त है, असीम है और दूसरी ओर कहते हो कि एक शरीर से निकल कर दूसरे शरीर में घुस गई। तुम्हें दिख नहीं रहा कि ये व्यर्थ की बात है? इसको मैं दो तरीके से समझाता हूँ: मैं कहता हूँ कि इसको या तो ऐसे समझ लो कि अनन्त समुद्र में शांत लहरें उठती रहती हैं, असीम समुद्र में सीमित लहरें उठती रहती हैं। या ऐसे समझ लो कि असीम आकाश पर सीमित बादल डोलते रहते हैं।

तुम ये थोड़े ही कहोगे कि समुद्र एक लहर से निकल कर दूसरी लहर में घुस गया, ऐसे कहते हो क्या? समुद्र तो सदा था, लहरें आती जाती रहती हैं; सदा था, है, और रहेगा। लहरें आती जाती रहती हैं, इन्हीं लहरों का क्या नाम है? हम और तुम। और लहर आती भी कहाँ से है?

श्रोतागण: समुद्र से।

आचार्य: जाती भी कहाँ है?

श्रोतागण: समुद्र में।

आचार्य: अब पुनर्जन्म क्या है ये समझना। एक लहर में पानी के बहुत सारे परमाणु थे, मॉलिक्यूल्स * । वैसे तो इतने थे कि तुम उनकी गिनती नहीं कर सकते, बहुत ज़्यादा। उनका जो * ऑर्डर (गिनती) होता हैै वो दस का घात तेईस का होता है। तो तुम उनकी गिनती नहीं कर सकते, बहुत हैं। पर सुविधा के लिए मान लो कि एक लहर में पानी के सौ परमाणु थे, ठीक है?

सिर्फ़ सुविधा के लिए मान लो कि लहर में पानी के सौ परमाणु हैं। अब उस लहर की मृत्यु हो गई; माने वो लहर समुद्र में विलीन हो गई। तो ये सौ परमाणु कहाँ पहुँच गए वापस?

श्रोतागण: समुद्र में।

आचार्य: अब इन सौ परमाणुओं में से पाँच किसी दूसरी लहर में उठेंगे, तीन किसी और लहर में उठेंगे, दो-चार किसी और लहर में उठेंगे, एक किसी और लहर में उठेगा — ये पुनर्जन्म है। वो जो लहर थी सौ परमाणुओं वाली उसका पुनर्जन्म अब नहीं होने वाला। लेकिन एक-एक परमाणु समुद्र ही है, और समुद्र की ही तरह अमर भी है। इसीलिए उन सारे परमाणुओं का पुनर्जन्म ज़रूर होगा, अर्थात पुनर्जन्म लहर का नहीं है, पुनर्जन्म समुद्र का है। लहर का कोई अगला-पिछला जन्म नहीं होता; एक लहर एक ही बार उठती है। तुम दोबारा लौट कर नहीं आने वाले। तुम बिलकुल ख़ाक हो जाओगे। किसी उम्मीद में मत रहना, कि, "नहीं हम ही आएँगे!" ऐसा नहीं होने वाला।

प्र२: आचार्य जी, हमारी यादों का क्या होगा?

आचार्य: वो मस्तिष्क के साथ ख़त्म हो जाएगा। तुम्हारी यादों को ख़त्म होने के लिए तो तुम्हें मरना भी नहीं पड़ेगा, तुम्हारे सिर पर बस थोड़ा-सा हथोड़े से प्रहार करना पड़ेगा और तुम्हारी यादें सारी चली जाएँगी। हार्ड-डिस्क इस्तेमाल करी है?

श्रोतागण: हाँ।

आचार्य: वो ज़रा सा गिर जाए ज़मीन पर तो मेमोरी का क्या होता है उसकी?

प्र: क्रेश (नष्ट) हो जाती है।

आचार्य: तो ये (मस्तिष्क) हार्ड-डिस्क है, ये अभी ज़रा-सा ज़मीन पर गिर जाए तो इसकी भी मेमोरी ?

प्र: क्रेश हो जाएगी।

आचार्य: क्रेश हो जाएगी।

प्र: क्या वृत्ति फिर भी रहेगी?

आचार्य: वृत्ति रहेगी, मेमोरी हट जाएगी। वृत्ति रहेगी क्योंकि वृत्ति का सम्बन्ध मस्तिष्क मात्र से नहीं है, वृत्ति तो शरीर की एक-एक कोशिका में है। पर जिसको आप अपनी चैतन्य स्मृति बोलते हो वो तो मस्तिष्क में ही रहती है। तो मस्तिष्क पर चोट लगी नहीं कि हार्डड्राइव क्रेश हो जाती है। मेमोरी पूरी तरह से भौतिक है, मटिरियल है। यादें भौतिक हैं तो यादें पदार्थ के साथ ही चली जाएँगी। जब आग लगेगी और भेजा जलेगा तो भेजे के साथ-साथ स्मृतियाँ भी जल जाएँगी। कुछ याद नहीं रह जाने वाला, कोई नहीं बचेगा जिसे याद रह जाए। तो ये जितने किस्से सुनते हो न कि वो एक लड़की पैदा हुई है और उसको अपने पिछले जन्म का ससुराल याद है...

प्र: वीडियो भी देखते रहते हैं इस सम्बन्ध में।

आचार्य: ये वीडियो सिर्फ़ उनको बुद्धु बना सकते हैं जिन्हें वेदांत के सूत्र स्पष्ट नहीं है। अब चेतो। तुम्हारे पास कितने जन्म हैं?

श्रोतागण: एक।

आचार्य: एक, और समय रहा है बीत। और कोई तुमको जन्म या अवसर मिलने नहीं वाला। तो अब तुम्हारे पास जो भी दस-बीस-चालीस साल बचें हों उनका भाई ज़रा सार्थक इस्तेमाल कर लो। किसलिए कर लो? इसलिए नहीं कि मृत्यु के बाद स्वर्ग मिलेगा, इसलिए कर लो कि तुम्हें तो इन्हीं बीस साल ही जीना है न? तो बीस साल क्या दुःख पा-पा कर जीना चाहते हो? जीवन सही जियो, इसलिए नहीं कि मृत्यु उपरांत स्वर्ग मिलेगा; जीवन सही जियो, ताकि मृत्यु से पहले जो ये जीवन है उसमें कुछ रस हो, कुछ आनंद हो।

अध्यात्म का उद्देश्य मृत्यु के बाद तुम्हें स्वर्ग आदि उपलब्ध कराना नहीं है। अध्यात्म का उद्देश्य तुम्हारे इसी जीवन को सार्थक करना है। मौत के बाद क्या होता है इससे अध्यात्म का कोई ताल्लुक नहीं है।

प्र: आचार्य जी, पुनर्जन्म के सिद्धांत को उदाहरण पूर्वक समझाने की कृपा करें।

आचार्य: समुद्र है जो अविचल है, अडिग है, अनन्त है, ठीक? ये सारे शब्द तुम किसके साथ सम्बंधित करते हो?

प्र: परमात्मा के साथ।

आचार्य: परमात्मा के साथ। तो समुद्र को हमने किसका प्रतिनिधि बना दिया?

श्रोतागण: परमात्मा का।

आचार्य: परमात्मा का। फिर लहरें हैं जिनमें लगातार आवागमन बना हुआ है; समय के साथ उठ रही हैं गिर रही हैं, ये सब गुण तुम किसके साथ सम्बंधित करते हो? प्रकृति के साथ। प्रकृति में ही तो जन्म-मृत्यु ये सब चल रहा है न लगातार? पत्ते उग रहे हैं, पत्ते झड़ रहे हैं। तो परमात्मा से आई है?

प्र: प्रकृति।

आचार्य: प्रकृति। जैसे समुद्र से आ रही हैं?

श्रोतागण: लहरें।

आचार्य: लहरें, ठीक? समुद्र का कभी कोई अंत नहीं है, लहरों का अंत है। प्रकृति परमात्मा से ही उठ रही है और परमात्मा में ही उसका लय हो जाता है, ठीक? तुम कौन हो? तुम कुछ अजीब सी वस्तु हो जो वास्तव में है नहीं पर सोचती है कि वो है। तो तुम अपने-आपको ऐसे मान लो कि तुम एक भौंरे हो, जो समुद्र के ऊपर मंडरा रहा है, बैचेन भौंरा। जैसे बागों में होता है न बैचेन भौंरा, कभी इस फूल पर कभी उस फूल पर, कभी यहाँ से पराग उठाया कभी वहाँ से रस चूसा, ऐसी तो हमारी हालत है। इस भौंरे का क्या नाम है? 'मैं', अहम् वृत्ति।

वास्तव में है सिर्फ़ परमात्मा और परमात्मा से उठी प्रकृति। ये भौंरा बस अपनी नज़र में है। अब इस भौंरे को बड़ी बैचेनी है, तो ये क्या करता है? ये जा कर बैठता है एक लहर पर और उस लहर में वो क्या खोज रहा है?

प्र: रस।

आचार्य: कुछ रस खोज रहा है, कुछ अमृत खोज रहा है। वो काहे को मिले? तो कुछ समय तक खोजता है, कितने समय तक खोजता है?

श्रोतागण: जब तक लहर बनी हुई है।

आचार्य: जब तक लहर बनी हुई है। लहर उठी उठी, लहर उठी नहीं कि भँवरा आ कर बैठ गया।

प्र: पैदा हो गया।

आचार्य: तो पैदा हो गया। और उसपर कब तक बैठा रहेगा?

श्रोतागण: बचपन से मृत्यु तक।

आचार्य: उतनी देर तक तो भौंरा उसपर बैठा ही हुआ है, समझ रहे हो? अब जब लहर विलीन ही हो गई तो भौंरा क्या करेगा? कहीं और जा कर बैठेगा, क्योंकि पिछली से तो निराशा ही मिली है। वो फिर कहीं और जा कर आज़माएगा, फिर कहीं और आज़माएगा, फिर कहीं और आज़माएगा। यहाँ तक कि जब वो एक लहर पर बैठा है, तब भी उस लहर के अनेक-अनेक हिस्सों को वो आज़मा ही रहा है। ऐसा भी नहीं कि लहर पर वो तृप्त और शांत होकर बैठ गया है, वो जब लहर पर है तब भी उसने पचासों तरह के प्रयोग कर रखे हैं, कभी यहाँ कभी वहाँ।

प्र: बचपन में कुछ और जवानी में कुछ और।

आचार्य: हाँ, ऐसे ही। वो लगा ही हुआ है, तो उसकी जो बैचेनी है, उसकी जो शांतिहीनता है, वो अनवरत है। चाहे वो लहर पर हो और वो चाहे लहर से निराश हो चुका हो। लहर से निराश होगा तो जाकर दूसरी लहर को आज़माएगा, ठीक है? ये तुम हो। ये है 'मैं वृत्ति'।

अध्यात्म क्या है? अध्यात्म है तुमको ये समझाना कि तुम ग़ैरज़रूरी हो। तो सारा अध्यात्म किसको सम्बोधित करके बताया जाता है? तीन इकाईयाँ हैं: समुद्र, लहर और भौंरा। सारा अध्यात्म किसके लिए है?

श्रोतागण: भँवरे के लिए है।

आचार्य: और सारा अध्यात्म भँवरे को क्या समझाने के लिए है?

प्र: तुम ग़ैरज़रूरी हो।

आचार्य: (दोनों हाथ जोड़कर) दादा, आपकी ज़रूरत नहीं है। दादा, हम आपके ही भले की खातिर कह रहे हैं कि आप मिट जाओ। आप मिट जाओ, किसी का कुछ नहीं बिगड़ेगा, समुद्र यथावत रहेगा, और लहर भी यथावत रहेगी। तुम अकेले हो अस्तित्व में जो दुःख में है। दुःख ना समुद्र को है, दुःख ना लहर को है, दुःख बस तुमको है। और हम तुम्हारे ही दुःख के समाधान के लिए कह रहे हैं — ये लहर-लहर भटकना छोड़ो, अपने-आपसे आज़ाद हो जाओ, ये अध्यात्म का उद्देश्य है। और जब तक आज़ादी नहीं मिलेगी पुनर्जन्म चलता रहेगा। लेकिन ये मत भूलना कि पुनर्जन्म किसी भी लहर का नहीं होता। जो लहर एक बार समुद्र में मिट गई वो मिट गई। इसीलिए संतों ने कहा है कि "चेत जाओ, ये क्या तुमने खेल चला रखा है इतने समय से।"

प्र३: हर शरीर में फिर एक अहम् वृत्ति पैदा होगी?

आचार्य: नहीं, अहम् वृत्ति एक ही है। अब मामला थोड़ा घुमावदार हो जाएगा। इतनी विविधता-पूर्ण दुनिया है ये कौन कहता है? तुम्हीं कहते हो न? वास्तव में सिर्फ़ तुम हो, ये बाकी सब तुम्हारी परछाईंयाँ हैं।

हमने पहले दिन बात करी थी काँच के महल की, करी थी? चारों तरफ़ दर्पण-ही-दर्पण हैं और वो सब दर्पण विविध प्रकार के हैं; कोई लाल है, कोई नीला है, कोई हरा है, कोई कॉनकेव है, कोई कॉनवेक्स है, किसी में मुहँ बढ़ जाता है, किसी में टाँग छोटी हो जाती है। तो उनको देखो तो ऐसा लगेगा कि ये जितनी प्रतियाँ हैं, ये जितनी छवियाँ हैं, ये सब अलग-अलग लोग हैं। वो अलग-अलग लोग नहीं हैं, वो तुम ही हो। तो अहम् वृत्ति भी हज़ार नहीं है। ऐसा नहीं है कि दुनिया की आबादी बढ़ती जा रही है तो अहम् वृतियाँ भी बढ़ती जा रही हैं; एक ही अहम् वृत्ति है। एक ही अहम् वृत्ति है जो एक बड़े शरीर पर छाई हुई है, वो बड़ा शरीर इन सब प्रतिबिम्बों को देखता जा रहा है; सबको देखता जा रहा है। मतलब इसका समझते हो क्या हुआ? इसका मतलब हुआ कि किसी की भी व्यक्तिगत मुक्ति नहीं हो सकती।

काँच के महल के बीच में जो खड़ा है ऐसा कैसे हो जाएगा कि वो मुक्त हो गया लेकिन शीशों में जो हैं वो अभी शीशों में ही क़ैद हैं? इसीलिए समझाने वाले बोल गए हैं कि, "बेटा तुम तरोगे तो तभी जब सब तर जाएँगे। तो इसीलिए अपनी व्यक्तिगत आज़ादी की बात मत करना। अगर अपनी व्यक्तिगत आज़ादी प्यारी है तो औरों का भी हाथ थामो और सबको ले कर चलो।"

ये असम्भव है न कि काँच के महल के बीच में जो खड़ा है वो तो मिट गया है, लेकिन प्रतिबिंब अभी शेष है। ऐसा हो सकता है क्या? मिटेंगे तो सब एकसाथ मिटेंगे। जब तक एक भी बचा हुआ है मिटने से, तब तक कोई नहीं मिट सकता। इसीलिए तो मैं बार-बार बोला करता हूँ कि तुम ये जो पूछते हो कि अपना इनलाइटनमेंट बताइए, अपना इनलाइटनमेंट बताइए, वो मैं कैसे बता दूँ? जब तक तुम्हारा नहीं हुआ तब तक मेरा कैसे हो जाएगा? होगा तो साथ-साथ होगा। मैं बड़ी उम्मीद में भी रहूँ कि पड़ा रहने दो इनको मैं निकल लेता हूँ, तो वो सम्भव नहीं है न, सब बंधे हुए हैं। भवसागर के पार जो नाँव जाती है वो बहुत बड़ी है, उसमें जब सवार होगा तो पूरा संसार होगा।

प्र४: आचार्य जी, जो लहरें उठती हैं, क्या वो नीचे में एक-दूसरे से जुड़ी होती हैं?

आचार्य: हाँ हाँ, वो सब नीचे जाकर के एक हो जाती हैं, अपना पृथक अस्तित्व खो देती हैं। लेकिन ये बात प्रकृति के तल पर कही जा रही है, व्यक्ति के तल पर नहीं। ये बात ये हुई कि ये (हाथ) मिट्टी से उठा है और ये मिट्टी ही हो जाएगा।

प्र: वो मिट्टी फिर और लहरों में उठती रहेगी।

आचार्य: और लहरें उठती रहेंगी।

प्र२: तो क्या आत्मा फिर परमात्मा में लीन हो जाएगी?

आचार्य: आत्मा परमात्मा कोई अलग नहीं हैं, एक ही हैं। आत्मा माने सत्य, सत्य दो-तीन प्रकार के थोड़े ही होते हैं। आत्मा ही सत्य है।

प्र: सबके शरीर में अहम् वृत्ति एक है तो फिर सबकी मूल वृत्ति एक ही है। जैसे लालच और डर की वृत्ति, पर वो मानकर बैठे गई है कि वो अलग है।

आचार्य: हाँ, वो इसलिए कि कोई लहर छोटी है कोई बड़ी है, कोई आड़ी है कोई तिरछी है। वो जो भेद हैं, वो शारीरिक तल पर हैं। मूल अहम् वृत्ति ग़ौर तो करो कि सबकी एक है। जब सबकी एक है तो कैसे कह दें कि सौ अहम् वृत्तियाँ अलग-अलग घूम रही हैं? मूल वृत्ति सबकी एक है, मूल वृत्ति जानते हो क्या है, चाहे तुम्हारी हो चाहे इसकी हो? मूल वृत्ति ये है — "मुझे आज़ादी चाहिए और मुझे मिटना भी नहीं है", इसको कहते हैं 'मैं वृत्ति'। मुझे मुक्ति चाहिए और मुझे मिटना भी नहीं है। (हॉल में बैठे सभी श्रोताओं को इंगित रटे हुए) ये बात तुम भी कहोगे, ये बात ये भी कहेंगे, ये बात ये भी कहेंगे, ये भी। तो हम सबमें लाखों अंतर होंगे, लेकिन बुनियादी तौर पर हम एक बात तो साझी कह ही रहे हैं न, क्या? मुक्ति भी चाहिए और मिटना भी नहीं है। तो जब सबकी बुनियादी वृत्ति एक है, तो ज़ाहिर हो गया कि अहम् वृत्ति एक है। उसने बस ये अलग-अलग शरीर प्रदर्शित कर रखे हैं। एक ही चीज़ है जो अलग-अलग शरीरों से जुड़ी होती प्रतीत होती है, इसीलिए वो अलग-अलग तरीके के गुण प्रदर्शित करती है।

प्र२: वही जानना है कि क्या इसके भीतर जो है वो भी मैं ही हूँ?

आचार्य: नहीं, तुम दोनों के भीतर आत्मा एक नहीं है, तुम दोनों के भीतर अहम् वृत्ति एक है। आत्मा किसी के भीतर नहीं होती। तो ऐसा नहीं है कि उसकी आत्मा और तुम्हारी आत्मा एक है। पूरी दुनिया की अहम् वृत्ति एक है। जब कृष्णमूर्ति कहते है " द माइंड ऑफ मेनकाइंड इज़ वन (पूरी मानवता का मन एक है)" तो उससे यही आशय है उनका कि सबकी मूल वृत्ति एक है। इसको ऐसे मत कहने लग जाना कि ये जितनी आत्माएँ बैठी हैं ये आत्मा के तल पर एक हैं; नहीं।

प्र: अहम् वृत्ति के तल पर एक हैं।

आचार्य: बस अहम् वृत्ति के तल पर। क्योंकि ये भी बहुत लोग कहते हैं आमतौर पर कि, "तेरी आत्मा, मेरी आत्मा।" ये तेरी-मेरी आत्मा नहीं होती, आत्मा किसी की नहीं होती। तेरी आत्मा मेरी आत्मा कहना वैसा ही है जैसे एक लहर दूसरी लहर से कहे, "तेरा समुद्र और मेरा समुद्र अलग-अलग हैं।" लहरें अलग-अलग हैं समुद्र तो एक है न। तो ये तेरी आत्मा, मेरी आत्मा क्या हुआ?

प्र: एक ही तो आत्मा होती है।

आचार्य: एक ही आत्मा है।

प्र३: आचार्य जी, आप कहाँ हैं अभी?

आचार्य: वो इसपर निर्भर करता है कि तुम मुझे कैसे देख रहे हो। तुम जो हो मैं वही हूँ। तुम लहर हो तो मैं लहर हूँ। तुम वृत्ति हो तो मैं वृत्ति हूँ। और जिस दिन तुम समुद्र हो गए मैं भी समुद्र हूँ।

प्र: इससे मदद मिलती है कि मैं फिर से देख सकूँ कि दूसरे और मैं एक ही हैं।

आचार्य: इसके बाद हिंसा नहीं कर पाओगे।

प्र: ये बहुत ही उपयोगी सूत्र है।

आचार्य: इसके बाद बहुत मुश्किल हो जाएगा किसी से नफ़रत करना।

"अपने जिय से जानिए मेरे जिय की बात।"

अब समझ में आया कबीर साहब क्या कह रहे हैं?

अगर तुम ईमानदारी से देख पाओ कि तुम्हारी हार्दिक इच्छा क्या है, तो तुम ये भी समझ जाओगे कि दुनिया में सब जीवों की अंतिम इच्छा क्या है। क्योंकि हम सब एक के ही प्यासे हैं, हम सबकी इच्छा एक ही है। अब बताओ कौन दुश्मन हुआ तुम्हारा? जो तुम्हारा दुश्मन है वो बिलकुल तुम्हारे ही जैसा है; उसको दुश्मन काहे बोल रहे हो? जिससे तुम नफ़रत कर रहे हो उसका और तुम्हारा प्यार एक है; अब नफ़रत क्यों कर रहे हो? जिसको तुम चाहते हो, उसीको वो चाहता है जिससे तुम्हें नफ़रत है, ये कैसी नफ़रत है?

तो अब समझ में आ रहा है कि ज्ञान और अहिंसा का क्या सम्बन्ध है? जब ज्ञान उठता है तो अहिंसा अपने-आप आ जाती है। और जब तक ज्ञान नहीं है तब तक हिंसा बनी रहेगी।

प्र: आचार्य जी, जैसे ओशो और कुछ संतों को अपने पिछले जन्म याद आ जाते हैं, जिसमें वो बताते हैं कि वो पंछी हैं या पेड़ हैं। इन बातों का क्या अर्थ है?

आचार्य: संतों को अपने पिछले जन्म नहीं याद आ जाते, संतों को लहर के, अर्थात शरीर के सारे पिछले जन्म समझ आ जाते हैं। संतों को ये पता होता है कि ये जो शरीर है ये बड़ी लम्बी यात्रा करके आ रहा है। ये कभी खरगोश था, ये कभी कछुआ था, ये न जाने क्या-क्या रह चुका है। ठीक वैसे, जैसे एक लहर में जो परमाणु हैं वो पहले अनगिनत लहरों में रह चुके हैं। अनगिनत लहरों में रहने के बाद अब वो पुनः इकट्ठा होकर के एक नया आकार ले रहे हैं, आकार नया है, परमाणु बहुत पुराना है। इसीलिए तुम जब बुद्ध की जातक कथाएँ पढ़ते हो, तो बुद्ध उसमें बताते हैं: तब मैं एक घोड़ा हुआ करता था, वो कहानी शुरू ही ऐसे होगी — तब मैं एक घोड़ा हुआ करता था। फिर दूसरी कहानी होगी — तब मैं एक ब्राह्मण हुआ करता था। फिर अगली कहानी शुरू होगी — तब मैं एक नृतकी हुआ करता था। फिर शुरू होगी — तब मैं घास का एक तिनका हुआ करता था। क्योंकि उस लहर में सब परमाणु मौजूद हैं। ये बात याद आ जाने की नहीं है, ये बात समझ जाने की है, याद नहीं आ गया है समझ आ गया है, दोनों बातों में अंतर है न? बुद्ध को अपने सारे पिछले जन्म स्मृति के माध्यम से नहीं याद हैं, बोध के माध्यम से याद हैं।

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