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लेख
मनुष्य जन्म मुक्ति का अवसर है, या मौत की सज़ा? || (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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दुर्लभ मानुष जन्म है, मिले न बारम्बार। तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।।

~ कबीर साहब

प्रश्नकर्ता: सत्य की साधना में यह मनुष्य का शरीर ही अवरोध बनती है तो इसे ही दुर्लभ क्यों कहा गया है?

आचार्य प्रशांत: मैं सवाल समझा देता हूँ सबको। कह रहे हैं कि एक तरफ़ तो संतजन हमको ख़ूब चढ़ाते हैं। कहते हैं, "मानुष जन्म मिला है तुमको, बड़ी नियामत है, बड़ा वरदान है, बड़ा अवसर है, चूक मत जाना। आदमी का जन्म सबसे ऊँचा जन्म होता है। चौरासी लाख यौनियों में आदमी की ही योनि अकेली है जिसमें जन्म लेने पर मुक्ति संभव हो पाती है।"

"तो एक तरफ़ तो हमसे ये सब बातें कही जाती हैं कि मनुष्य जन्म मिला है तो अब भरपूर उपयोग करो, मौका मत गँवा देना। और दूसरी ओर बहुत लोग, ख़ासतौर पर आचार्य जी आप बताते हैं कि आदमी बिलकुल पशु है। हज़ार तरह के विकार और वृत्तियाँ उसमें जड़ जमाए बैठी हुई हैं। तो आदमी की हालत जब इतनी ही ख़राब है, जैसा कि आप कहते हैं कि जंगल से ताज़ा-ताज़ा गोरिल्ला निकला है सूट-पैन्ट में, तो फिर संतों ने क्यों कहा कि मनुष्य जन्म मिलना बड़े भाग्य की बात है, क्यों कहा उन्होंने?"

इसलिए कहा क्योंकि आदमी अकेला गोरिल्ला है जो अपने गोरिल्ला होने को लेकर के ख़फ़ा है, बेचैन है। इसमें तो कोई शक़ ही नहीं कि आदमी भरपूर गोरिल्ला है। और गोरिल्ला तो बेचारा बहुत मासूम होता है। आदमी बड़ा हिंसक, बड़ा नुक़सानदेह गोरिल्ला है क्योंकि आदमी के पास क्या है? बुद्धि, इंटेलैक्ट जो गोरिल्ले के पास नहीं है। आदमी के पास क्षमता है, सिस्टम्स , व्यवस्थाएँ बनाने की और आदमी के पास भाषा है जो गोरिल्ले के पास नहीं है। उसका मस्तिष्क ही ऐसा नहीं है। आदमी संगठित होना जानता है, ऑर्गनाइज्ड होना जानता है, गोरिल्ला संगठन वगैरह नहीं जानता।

तो आदमी की हालत बिलकुल समझ लो फटने को तैयार बम जैसी है, घातक बम। आदमी अपनी ही छाती में लगा हुआ बम है। टक-टक-टक, कभी भी फटता है। तो ये सब तो वो चीज़ें हुईं जो आदमी को गिराती हैं और उसे कहीं का नहीं छोड़तीं। कौनसी चीज़ें? उसकी देह ही।

उसकी देह किसकी है? गोरिल्ले की है। उसकी बुद्धि का विकास हो गया है लेकिन उसकी वृत्तियाँ आदिम ही हैं। उसकी क्षमताएँ बहुत बढ़ गई हैं पर उसके उद्देश्य सब पाशविक ही हैं। ये सब बातें आदमी के ख़िलाफ़ जाती हैं।

आदमी के पक्ष में क्या जाता है? आदमी के पक्ष में ये जाता है कि आदमी जैसा है उससे राज़ी नहीं है। आदमी वो गोरिल्ला है जो अपने गोरिल्ला होने को लेकर दुखी है, बेचैन है। कह रहा है, "ग़लत हो रहा है ये।"

तो एक तरफ़ तो ये बात बिलकुल सही है कि वो गोरिल्ला है और दूसरी तरफ़ ये भी बात है कि उसे गोरिल्ला होना पसंद नहीं आ रहा। गोरिल्ला होकर के उसे शांति नहीं मिल रही। तो इसलिए संतों ने कहा कि, "बेटा तुम अकेले हो जो अशांत हो। इसीलिए तुम अकेले हो जिसको मुक्ति का अवसर उपलब्ध है। ये बहुत विरल जन्म मिला है तुमको। कोई जानवर अशांत नहीं रहता।"

तुमने देखा है किसी कुत्ते को कि तीर्थ यात्रा के लिए निकल गया, मोक्ष चाहिए? कुछ नहीं चाहिए उसे। खाएगा और तान कर सोएगा।

आदमी अकेला है जो संतुष्ट नहीं है अपने होने से। इसीलिए मात्र मनुष्य को ही मुक्ति की संभावना उपलब्ध है। आपको दोनों बातें एक साथ याद रखनी होंगी। एक पक्ष भी भुलाया तो फँस जाएँगे। आमतौर पर हम ये भुला ही देते हैं कि हम गोरिल्ला हैं। हम बिलकुल गुब्बारे की तरह फूल जाते हैं कि हम तो आदमी हैं, चौरासी लाख यौनियों में सर्वश्रेष्ठ। बिलकुल भूल जाते हैं कि होओगे तुम मनुष्य लेकिन निन्यानवे-दशमलव-नौ प्रतिशत तुम क्या हो? गोरिल्ला।

और कई बार लोग बिलकुल दूसरे ध्रुव पर पहुँचकर अटक जाते हैं। वो कहना शुरू कर देते हैं कि "अजी, मैं तो विकाररंजित हूँ। कामी हूँ, क्रोधी हूँ, गिरा हुआ पतित-पापी-नीच हूँ। दुनिया भर के सब कुकर्म मैंने सब कर रखे हैं। मेरे लिए अब इस जन्म में मुक्ति की क्या संभावना है। तो छोड़िए न अध्यात्म तो मेरे लिए है ही नहीं। मुर्गा लाओ भई। अब जब इतने पाप पहले ही कर लिए तो अब मेरे लिए क्या संभावना बची है? तो मैं तो जैसा हूँ वैसा ही बना रहूँगा।"

ये दोनों ही बातें ग़लत हैं। ये बात भी ग़लत है कि आदमी पैदा हुए हैं तो मुक्ति बस अब हाथ की पहुँच में ही है, आसानी से मिल जाएगी। ये बात बिलकुल ग़लत है। इसी तरीक़े से ये बात भी बराबर की ग़लत है कि हम तो पापी हैं, नीच हैं, नराधम हैं, नरपशु हैं, हमें मुक्ति कहाँ मिलेगी।

बात ये है कि आप जैसे भी हैं उससे संतुष्ट हैं क्या? जैसे भी हैं उससे संतुष्ट हैं क्या? नहीं हैं न। नहीं हैं तो अवसर अभी खुला हुआ है, द्वार बंद नहीं हुआ। आप प्रवेश कर सकते हैं।

दोनों बातें याद रखनी ज़रूरी हैं। जो ऊँचाई मिल सकती है उसको पाने की संभावना भी याद रखनी है और उस संभावना के विरूद्ध जो हमारे ही भीतर ख़तरे बैठे हुए हैं उन ख़तरों को भी याद रखना है। कोई शक़ नहीं इसमें कि आदमी की काबिलियत है कि वो आसमानों का राजा बन जाए और इसमें भी कोई शक़ नहीं कि आदमी ज़मीन की कीचड़ में ही लोटता रहे। इसकी पूरी तैयारी आदमी की देह में ही बैठी हुई है। ये दोनों बातें एक साथ सही हैं और दोनों बातें इसीलिए एक साथ याद रखनी हैं।

आदमी को सद्गति भी मिल सकती है और अधोगति भी। आदमी अकेला है जिसको सद्गति भी मिल सकती है जो किसी जानवर को नहीं मिल सकती और आदमी अकेला है जिसकी इतनी बुरी दुर्गति हो सकती है जितनी किसी जानवर की नहीं हो सकती। तो हमारी हालत बड़ी डाँवाँडोल है। ऊँचे-से-ऊँचा हो जाने का भी हमें विकल्प उपलब्ध है और नीचे-से-नीचे गिर जाने का भी ख़तरा मंडरा रहा है। ज़्यादातर लोग ऊँचे जाने की संभावना तो साकार नहीं कर पाते, हाँ नीचे गिरने के ख़तरे के शिकार हो जाते हैं।

हज़ार में से नौ-सौ-निन्यानवे लोग ऊपर वाला विकल्प तो चुन ही नहीं पाते। वो नीचे ही गिर जाते हैं। वो इतना नीचे गिर जाते हैं जितना नीचे कोई जानवर भी नहीं गिर सकता। तो इसीलिए मैं कहा करता हूँ कि आदमी का जन्म मिला है आपको, ये कहने को बड़े सौभाग्य की बात है लेकिन वास्तव में ये दुर्भाग्य ही है क्योंकि हज़ार में से नौ-सौ-निन्यानवे लोग तो मनुष्य जन्म का दुरुपयोग ही करेंगे या उसे व्यर्थ ही गँवाएँगे।

जानवरों का ठीक है। उन्हें कोई असंतुष्टि नहीं, उन्हें कुछ पाना ही नहीं। उनके लिए ना तो कोई ऊँची संभावना है, ना कोई नीचा ख़तरा है। आदमी के लिए ऊँची संभावना भी है, नीचा ख़तरा भी है और अधिकांशतः वो नीचे ख़तरे का ही शिकार बन जाता है। तो बाज़ी ले गए कुत्ते, तैकूं उत्ते।

तैकूं उत्ते समझते हैं? क्या? आपसे बेहतर हैं। मैं नहीं कह रहा, बाबा बुल्लेशाह जी बोल गए हैं।

हमसे बेहतर हैं कुत्ते क्योंकि कुत्ते बस कुत्ते हैं। इंसान तो कुत्तों से भी बदतर गिर जाता है नीचे। जंगल का गोरिल्ला शहर के गोरिल्ले पर बहुत दया करता है, बड़ा अफ़सोस करता है। कहता है, "बेचारा, शहर गया था मारा गया। मैंने इतनी बार समझाया था जंगल ठीक है पर इसकी बुद्धि ज़्यादा चलने लग गई थी। तो भाग गया, जंगल काटा, शहर बना लिया। पहले खेती करी, फिर फैक्ट्री डाल दी और आजकल तो सुना है कि कुछ गूगल करता है ये, इंटरनेट आ गया है। और ये जितना आगे बढ़ता जा रहा है उतना नीचे गिरता जा रहा है। जंगल, जंगल से खेत, खेत से फैक्ट्री और फैक्ट्री से इंटरनेट।"

जितने भी बचे-कुचे गोरिल्ले हैं, थोड़े ही बचे हैं ज़्यादा हैं नहीं - वो भी दस-बीस साल बाद नहीं बचेंगे - वो सब अक्सर सभा किया करते हैं, शोकसभा। ख़त्म वो हो रहे हैं पर वो शोकसभा अपने ख़त्म होने की नहीं करते हैं। वो शोकसभा आदमी की संभावना की मौत की करते हैं। कहते हैं, "हम ही में से एक गोरिल्ला निकल कर गया खेत की ओर और देखो कितना बदहाल है वो। हम तो बस विलुप्त हो रहे हैं और हो जाएँगे विलुप्त। जो विलुप्त हो गया अब उसका क्या बिगड़ेगा? लेकिन आदमी ने तो अपना सत्यानाश कर डाला। इससे कहीं भला था कि जंगल में ही रहा आता।"

समझ रहे हैं?

कभी जाइएगा पहाड़ों पर तो आप जब रास्ते में जा रहे होते हैं अपनी गाड़ी वगैरह से, तो देखा है सड़क के किनारे-किनारे कौन बैठे होते हैं? बंदर, बहुत सारे। ख़ासतौर पर अगर लम्बी पहाड़ी यात्रा है तो बंदर ही बंदर बैठे होते हैं। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर दो बंदर, चार बंदर अपना बैठे होते हैं।

कभी सोचा है वो बात क्या कर रहे होते हैं आपकी गाड़ियाँ और आप को देखकर के? 'बेचारा', यही बोल रहे होते हैं बस, 'बेचारा'। अगली बार कोई ऐसा दिखे तो गाड़ी रोक दीजिएगा। उनके चेहरों की ओर देखिएगा। वो बिलकुल यही कह रहे हैं, क्या? "बेचारा। अब ये इतना गिर गया है कि इसे पहाड़ आने के लिए गाड़ी का इस्तेमाल करना पड़ता है, बेचारा।"

बंदरिया बैठी होगी, छोटा सा उसका बच्चा होगा, वो क्या बोल रही होती है? आप वहाँ से निकल रहे होते हैं सड़क से और वो कहते हैं, "देखो, देखो। इसकी नीचता की कोई हद है? अब कपड़े पहनने लग गया। नीच, दुर्मति इसने अपने शरीर को ढकना शुरू कर दिया है। छोटे बन्दु, तू कभी ऐसा नहीं करेगा।" वो (छोटा बन्दर) बोलता है, "बिलकुल ठीक। मैं नहीं करने वाला।"

यही वज़ह है न कि हमारी बड़ी लड़ाई चल रही है प्रकृति से। क्योंकि हम निकले थे प्रकृति के जाल से परमात्मा की ओर जाने के लिए और परमात्मा की ओर जाना तो दूर रहा, हम नरक में गिर गए। तो हमारी प्रकृति से बड़ी लड़ाई चल रही होगी, प्रकृति से तो हम बाहर ही आ गए हैं। यही तो कारण है कि मनुष्य प्रकृति का सर्वनाश किए दे रहा है।

दूसरी ओर अवतारों और संत पुरुषों के बारे में कितनी कहानियाँ हैं कि वो बैठ जाएँ तो इधर-उधर के साँप-बिच्छू आकर उनके पाँवों में लोटना शुरू कर दें। उन्हें भी आशीर्वाद चाहिए था।

सेंट फ्रांसिस को लेकर कहानी पढ़ी ही होगी आपने भेड़िए की। भेड़िया जो सबको परेशान करे, पूरे शहर को आतंकित करके रखे। वो उनके पास आए और पाँव सूँघकर चला जाए।

महादेव शिव की परिकल्पना ही पशुपति के रूप में की गई है भारत में। वो जिनके पास पूरी प्रकृति बड़े आराम से रहती है। हमारे पास नहीं आराम से रहती। आप बंदर की ओर जाइए, देखिए क्या होगा। पहले तो वो आपको दाँत दिखाएगा, खी-खी करेगा, फिर आपको डराएगा और उसके बाद भी देखेगा कि आप आ रहे हैं तो कहेगा, "निकल छोटू। ये पगला आ रहा है इधर को। कुछ भी कर सकता है।"

शिव के साथ ऐसा नहीं है मामला। वहाँ साँप भी बैठे हैं, बिच्छू बैठे हैं, बैल बैठा हुआ है, सब जानवर बैठे हुए हैं। नदी भी बह रही है। पूरी प्रकृति उनके साथ आनंदमग्न है। हमारे साथ प्रकृति आनंदमग्न है? हम खा गए प्रकृति को।

एक आदमी जो अपनी मुक्ति की ओर नहीं बढ़ रहा है उसकी पहचान आप इसी बात से कर सकते हैं कि उसका प्रकृति के साथ रिश्ता बड़ा हिंसक होगा। क्योंकि अगर वो मुक्ति की ओर नहीं बढ़ रहा है तो देह से रिश्ता रखता है अपनी। है न? देह से तादात्म्य रखता है तभी तो कह रहा है मुक्ति नहीं चाहिए।

"मैं क्या हूँ? मैं देह हूँ, और मुझे ऐसे ही रहना है।"

और जो अपने-आपको देह समझेगा वो बाकी सब देहों को खा जाएगा। जो ही व्यक्ति देहभाव में जीएगा वो प्रकृति को बिलकुल लील डालेगा, खा जाएगा। उसे सबकुछ दिखाई ही उपभोग के लिए देगा।

मुर्गा किसलिए है?

"मेरे खाने के लिए है।"

वो अजगर किसलिए है?

"उसकी खाल का मैं कुछ सामान बनाऊँगा।"

ये जंगल किसलिए है?

"काट कर खेत बनाऊँगा।"

और ये कितनी विचित्र बात है।

देह भी प्रकृति है। जो देह से तादात्म्य रखेगा वो प्रकृति का दुश्मन हो जाएगा। और जो अपनी देह से मुक्त हो गया, वो प्रकृति का मित्र हो जाएगा।

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