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लेख
मन कामवासना में इतना लिप्त क्यों?
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जीवन का अधिकांश समय कामवासना में व्यतीत किया है। किशोरावस्था से लेकर अब तक कामवासना से मन ग्रसित रहा। जीवन की सारी व्यग्रता, उदासी या मन की किसी भी व्यग्र कर देने वाली स्थिति में वासना को ही द्वार बनाया खाली होने के लिए या कुछ क्षणों की शांति पाने के लिए। कुछ सालों से काम ऊर्जा क्षीण- सी प्रतीत हो रही है लेकिन मन से उतर नहीं रही है। बल्कि इसका क्षीण होना ही और व्यग्र करता है, डराता है। आचार्य जी, मन काम को, वासना को, इतना महत्व क्यों देता है?

आचार्य प्रशांत: तुम बताओ? कुछ तो करोगे न जीने के लिए? चौबीस घंटे मिले हैं, शरीर, हाथ, अन्य अवयव मिले हैं तो कुछ तो होगा। कुछ सार्थक नहीं होगा तो कुछ निरर्थक होगा।

अच्छा बताओ वो कालिमा कहाँ से आई ज़मीन ओर (सामने पड़ रही पेड़ की छाया के बारे में पूछते हुए) वो देखो! अनु, अनमोल के पीछे से शुरू हो रही है और लम्बी खिंच रही है वो कहाँ से आई? बोलो, वो काली छाया कहाँ से आई?

प्रश्नकर्ता: वृक्ष से।

आचार्य प्रशांत: वृक्ष स्वयं तो प्रकाशित है। ये काली छाया कहाँ से आई? वृक्ष तो कहीं से मुझे अंधकार में नहीं दिखता, ये काली छाया कहाँ से आई? जहाँ रोशनी नहीं है वहाँ ये (काली छाया) है। वो कहीं से थोड़े ही आई है। इसी तरह तुम्हारे जीवन में जब सत्य नहीं होगा, राम नहीं होंगे तो ये होगा- कालिमा! काम!

अभी यहाँ बैठे हो, मुझे सुन रहे हो, इस समय थोड़े ही कामोत्तेजित हो या हो? अभी तो शांत बैठे हो न? क्योंकि किसी सार्थक कृत्य में पूरे तरीके से संलग्न हो।

जीवन को वो नहीं दोगे जिसके लिए जीवन बना ही है तो जीवन पचास तरह के उपद्रवों से भर जाएगा। बात बहुत ज़ाहिर और छोटी सी है।

आ रही है समझ में?

वासना वगैरह की औकात क्या है? तुम ऐसे लिखते हो जैसे कितना बड़ा जंजाल हो, कितनी बड़ी ताकत हो तुम्हारे खिलाफ। उनमें क्या ताकत है? इस काली छाया में क्या ताकत है? ज़रा- सी रोशनी पड़ती है, मिट जाती है ये तो मुँह छुपाती फिरती है कि कहीं मुझे प्रकाश देख न ले। ये तो नज़र भी नहीं मिला सकती। अंधेरे में रोशनी से नज़र मिलाई और- मिटा!

तुम उससे छुपते क्यों फिर रहे हो जो असली है? ये मत कहो कि काम मुझ पर क्यों सवार है? तुम जवाब दो इस बात का कि- तुम उससे क्यों भाग रहे हो जिसके साथ तुम्हें होना ही है, जो स्वयं तुम्हें आमंत्रित करता है, जिसको पाने के दसों द्वार सदैव खुले ही हुए हैं, तुम उससे भाग क्यों रहे हो? उससे भागोगे तो ये सब कांड शुरू होंगे- काम चढ़ेगा, बेचैनी चढ़ेगी, ऊब चढ़ेगी, व्यर्थ ऊर्जा का क्षरण होगा। कहीं लपटोगे-झपटोगे, हिंसा में उतरोगे।

तुम्हें सुबह छह बजे बुलाऊँ सत्संग को और तुम रात को तीन बजे तक वासना में लिपटे पड़े रहे। आ सकते हो? और फिर तुम मेरे पास आए दस बजे और तुमने कहा "आचार्य जी, बड़ी समस्या है- रात भर वासना नोचती है।" समस्या ये है कि रात भर वासना नोचती है या समस्या ये है कि जब गुरु से, अस्तित्व के प्रकाश से अनुदेश मिला था तो तुमने उसकी अवज्ञा, अवहेलना की? जवाब दो? मूल समस्या क्या है? कि रात भर काम तुम्हें नोचता रहा या ये है कि छह बजे आना था- तुमने उस बात को महत्व दिया ही नहीं। जिसे छह बजे आना है वो जानेगा कि ग्यारह बजे सो जाना है। ग्यारह बजे सोया नहीं जो वो पाँच बजे उठ ही नहीं सकता। अब ग्यारह बजे नहीं सोए हो तो ग्यारह से तीन तुम कर क्या रहे हो? कीर्तन तो कर नहीं रहे? कीर्तन में तुम्हारा इतना रस होता है तो जिस उत्साह के साथ तुम आधी रात के उपरांत कीर्तन कर रहे हो, उसी उत्साह से सुबह छह बजे भी आ जाते।

जीवन पचास तरीके से बुलाता है - कि तुम्हें सद्गति मिले। तुम उसके सारे आमंत्रणों का बड़ा असम्मान करते हो। सत्य के सामने विनीत होना तो छोड़ो, सत्य जब तुम्हारे सामने विनीत होता है तो तुम उसके साथ दुर्व्यवहार करते हो। तुम्हें लगता है पीछे पड़े हैं, इनकी कोई गरज होगी। "बड़े आये परमात्मा! बड़ी पूर्णता बघारते थे। इनकी पूर्णता का तो ये है- कि हम इन्हें न मिलें तो ये अपूर्ण रह जाते हैं। देखो कैसे पछिया रहे हैं? ये पूर्ण होते तो हमारे पीछे क्यों लगते?"

उर्जा तो है न तुम्हारे पास? इतना खा रहे हो, कहाँ जाए? खाते हो रोज नहीं खाते हो? तो उसका क्या होगा? इतना खाते हो और उत्सर्जित बस इतना करते हो तो शेष कहाँ गया? शेष कहाँ गया? ऊर्जा बन के संचित हुआ। अब वो ऊर्जा कहीं तो व्यक्त होगी- सत्कार्य में नहीं व्यक्त कर रहे तो राक्षसी वृत्तियों की तरफ जाएगी।

जीने का तो एक ही तरीका है- अपने आपको ऊर्जा से खाली कर दो, चुका दो अपने आपको। बचाओ ही नहीं। जितना तुम बचा के ले आए, समझ लो कि ज़हर हो जाएगा तुम्हारे लिए। जीवन जितना दे, तुम ठीक उतना वापस लौटा दो। तुमने जो बचाया कि ये तो अब सुबह के लिए। जैसे रेस्ट्रॉ में होता है न- खा लिया, बच गया तो तुम कहते हो "इसको ज़रा 'टेक-अवे' कर दीजियेगा।" तुम घर आते हो और फिर बाद में उसको अपने स्वादानुसार खाते हो। जीवन के साथ ये नहीं चलता। जीवन में जो मिला है उसका तत्काल सेवन करो। सेवन करो, नहीं तो वितरण करो, संचय मत कर लेना। जो तुमने बचाया, वही तुम्हारे लिए ज़हर हो गया। आ रही है बात समझ में? जो तुम ने बचाया, वही ज़हर हो गया तुम्हारे लिए। जो बची हुई ऊर्जा है, अब वो रात भर तुमको शांत नहीं रहने देगी, उछलेगी-कूदेगी। दिन ऐसा बिताओ कि रात को बिल्कुल पड़ो और सो जाओ। खाली करो अपने आपको। हर दृष्टि से स्वस्थ रहोगे- शारीरिक दृष्टि से भी क्योंकि श्रम किया और मानसिक दृष्टि से भी क्योंकि कोई बोझ नहीं बचाया अपने ऊपर।

मैं उस व्यक्ति के बारे में पूछना चाहता हूँ- जिसके पास रोज कई घंटे निकल रहे हैं कामुक विचारों में लथपथ होने के लिए। कोई जरूरी थोड़े-ही हैं कि तुम कामकृत्य में उतरो, तभी तुमने काम को समय दिया। कामकृत्य तो हो सकता है, हो ही ना, या थोड़े समय का हो पर देखा है? वासना के विचार तुम्हारा कितना समय लेते हैं? इसका अर्थ क्या है? कि तुम कामचोर हो इसका अर्थ ये है। ऐसा तो है नहीं कि जीवन ने तुम्हें काम दिये नहीं है। तुम उन कामों में से चोरी करके ही तो समय बचा रहे हो न वासना के लिए? और दिन भर के, दिनचर्या के काम तुम्हारे निपट गए- तो सत्संग में बैठ जाओ, राम की सेवा कर लो, अनाथों की सेवा कर लो, समाज की सेवा कर लो! अवसर ही अवसर हैं।

पचासों तरीके से तुम अपनी अतिशय उर्जा का सदुपयोग कर सकते हो पर तुम वो सब करते नहीं। तो जितना खाया है वो कहाँ निकलेगा? वो फिर मलिन-कुत्सित द्वारों से अभिव्यक्त होता है। जैसे कि हम बात कर रहे हैं (पहाड़ों में चल रहे सत्र में) और कोई हो जो बहाने बना कर, धोखा दे कर, वहीं रुक गया हो और वहाँ बैठा अश्लील साहित्य पढ़ता है। उसे अवकाश कैसे मिला उस साहित्य में उतरने का? यहाँ से चोरी करी न? यहाँ से भागा।

राम से भागोगे तो काम में लिपटोगे बात सीधी है। लोग कहते हैं काम ने आक्रमण कर दिया। धोखे की बात है ये। काम ने आक्रमण नहीं कर दिया। तुमने राम का असम्मान कर दिया। काम, बेचारा तो पीछे खड़ा रहता है राम के।

वो तुमसे ज़्यादा अकलमंद है। तुम राम का जितना सम्मान करते हो, काम राम का उससे ज़्यादा सम्मान करता है। काम, राम से कहता है पहले आप। तो राम पहले आते हैं तुम्हारे पास, तुम उनका आमंत्रण स्वीकार कर लो, तो काम कहेगा ठीक है- "जगह भर गयी, अब मेरे लिए कोई जगह नहीं।" रिक्त स्थान की पूर्ति हो गयी। इस व्यक्ति के पास, जो स्थान था वो इसने राम को दे दिया तो काम लौट जाएगा। पहला अवसर किसको लेने दिया काम ने? राम को। तो पहला अवसर राम को। जब तुम राम का अनादर करके, उन से मुँह मोड़ लेते हो, तब काम कहता है, "चलो भाई! अब खाली जगह पड़ी हुई है तो हम ही विराज जाते हैं।" तुम खाली जगह छोड़ क्यों रहे हो?

राम के पास जाने से, सदवचनों से, गुरुओं से भी लोगों को मूलतः तकलीफ़ क्या होती है? यही तो। ये थोड़े- ही लगता है कि ये बातें गलत बता रहे हैं। सत्य वचन तो स्वयं सिद्ध होता है। सामान्यतया वो तुम्हें गलत लगेगा नहीं, तुम भी जानते हो कि बात ठीक कही जा रही है। तुम्हें तकलीफ ये होती है कि इनके पास रहते हैं- तो वो छूटता है। कौन? काम। तो इस मारे तुम बचे-बचे फिरते हो। तुम कहते हो कि पास भी जाएँ तो इतना ही जाएँ कि थोड़ी जगह बचा कर रखें। ब्रह्म ही, थोड़े ही हैं? देवी-देवता भी तो हैं? तमाम मेरी निजी देवियाँ हैं- मोहिनी कामिनी। उनकी भी कोई उपस्थिति है? कोई महत्व है न? कि बस ब्रह्म ही ब्रह्म है? एकाधिकार! वर्चस्व चलने दें?

ब्रह्म के सब उपासक नहीं होते। बहुत लोग इष्ट देव के उपासक होते हैं। तुम्हारी इष्ट देवियाँ हैं। ऐसी देवियाँ जो तुम्हारे सामने बिल्कुल अपने प्राकृतिक रूप में आती हैं। बड़ा स्वस्थ रिश्ता है, उसमें सामाजिक कुछ नहीं, सब प्राकृतिक है- वर्जनाओं का, नैतिकताओं का, कपड़ों का कोई स्थान नहीं है उस संबंध में। बस तुम हो और पेड़ से उतरी हुई तुम्हारी देवी जी हैं। बंदर की तरह प्राकृतिक। करना क्या है ब्रह्म का? बंदर है! बंदरिया है! पेड़ है! ये सब झूठ हैं क्या? हमें इनको भी तो कुछ मूल्य देना है? झुके ही रहना सब थोड़े-ही होता है? देखो इस पेड़ को, कैसा तना हुआ है? बिल्कुल आसमान की छाती में जाकर घुस गया है, छुरे की तरह। तो हमें भी तो कभी-कभी तने हुए होना चाहिए, पेड़ की तरह। तर्क तुम निकाल ही लेते होंगे, तने हुए पेड़ से ही तो बंदरिया आकर्षित होती है। कुछ तो तुम्हारे पास भी कारण होंगे, तर्क होंगे जिनके बूते तुम राम का अनादर करते हो। ऐसे ही तर्क होंगे? उन तर्कों को, तुम कभी उद्घाटित करते नहीं, उनको बहुत बचा कर रखते हो। जितने तुम सवाल लिखोगे, सब कुछ लिख दोगे। काम के पक्ष में तुम्हारे पास तर्क क्या है? ये नहीं बताओगे।

ऐसी भी कोई आनंददायक चीज तो होती नहीं। ऐसी आनंददायक होती, तो चौबीस घंटे तुम्हारे सर चढ़कर बोलती। जब भी तुमने वास्तव में कुछ ऐसा पाया है, जो तुम्हारे हृदय के करीब है, तुम्हारे मन से सारे भूत उतर गए हैं। उतरे हैं कि नहीं उतरे हैं? काम बिल्कुल पीछे जाकर खड़ा हो गया है, छुप गया है, जैसे हो ही न। तो इतनी भी कोई ताकत है नहीं काम में। चिल्लाते फिरते हो- काम ने लूट लिया, बर्दाश्त नहीं हो रहा, ऐसा ज़ोर-जुलुम चढ़ा है भीतर, ऐसी गर्मी उठती है, फटे जाते हैं बिल्कुल। बिल्कुल चरम उत्तेजित हो और तभी सामने कोई छुरा लेकर खड़ा हो जाए फिर क्या होता है? जिस जीवन की सुरक्षा की खातिर काम को भूल जाते हो, जब कोई सामने खड़ा हो जाए छुरा लेकर, उस जीवन का ही ध्यान धर लो। वो जीवन तो प्रतिपल व्यर्थ जा रहा है न? चुनना हो जीवन और काम में तो किस को चुनोगे? जीवन को ही चुनते हो। तो जीवन क्या सिर्फ तब खतरे में होता है जब कोई छुरा लेकर सामने खड़ा हो गया? या जीवन लगातार खतरे में है? लगातार व्यतीत हो रहा है? बोलो! जीवन तो लगातार ही खतरे में है, प्रतिपल तुम मृत्यु की ओर ही जा रहे हो, मरते ही जा रहे हो। तो यही ख्याल कर लो- काम की ओर अभी कैसे भागें जब मौत सामने खड़ी है? यम सामने खड़ा है काम को कैसे याद करूँ?

और ऐसा नहीं होता कि राम के जीवन में प्रवेश से काम की मृत्यु हो जाती है, फिर काम भी राममय हो जाता है। एक तुम्हारा वहम ये भी है- कि ग्रंथ ज़्यादा पढ़ लिए, गुरुदेव को ज़्यादा सुन लिया, तो कहीं नपुंसक ही न हो जाएँ? पौरुष बचा के रखना है तो गुरुओं से दूर रहना। सत्संग माने बंध्याकरण अभियान! एक तुम्हारी धारणा ये भी है। पगले हो बिल्कुल? तुम्हारे लिए काम है क्या? जैसे चीटियाँ तुम्हारे बदन पर चढ़ी हुई हैं और नोच रही हैं, ऐसा ही तो है। खुजली है एक तरह की वो तुम मिटाते हो। शरीर में कभी खुजली हुई है तो देखा है? खुजलाने में कितना रस आता है? और न खुजलाओ तो कैसी बेचैनी उठती है? अब यहाँ बैठे हो, पीठ में, कि जांघ में खुजली उठे और न खुजलाओ तो बिल्कुल वैसी ही तीव्र इच्छा होती है जैसी संभोग के लिए। काम तुम्हारे लिए खुजली से बढ़कर है क्या?

भोग को भी उन्होंने ही जाना है, जिन्होंने योग को जाना है। हम तो जिसे काम कहते हैं वो डर की और शोषण की और दो पल की झूठी राहत की कहानी है।

शरीर को जानते नहीं, शरीर से तुम सुख क्या पाओगे? जो शरीर को जान गया, जो पुरुष को जान गया, जो स्त्री को जान गया, तृप्ति की प्यास के पीछे कौन-सी तृप्ति तुम चाह रहे हो, जो उसको पहचान गया वही अब काम को और भोग को भी जान पाएगा, आनंदपूर्वक उनमें उतर पाएगा।

जहाँ कहीं भी भनक लगे, जहाँ कहीं भी अवसर मिले, जहाँ कहीं भी राम का आमंत्रण मिले, जी जान से स्वीकार कर लो। वास्तव में तुम आमंत्रण की तो प्रतीक्षा भी मत करो, तुम अपनी ओर से भागे जाओ।

जीवन को रोज़ टटोलो सुबह से शाम तक- क्या है वो उच्चतम, वो सत्यतम, जिसमें मैं प्रवेश कर सकता हूँ? जीने का शुद्धतम तरीका कौन-सा है? किसी भी पल में तुम्हारे सामने जो विकल्प हों, पूछो इनमें से राममय विकल्प कौन-सा है? सच्चाई कहाँ है और उसी को चुन लो। फिर तुमको विचार ही नहीं करना पड़ेगा कि कामवासना का क्या करें? और मोह-माया का क्या करें? और मद-मात्सर्य का क्या करें? ये आएँगे ही नहीं। जैसे सूरज के सामने चमगादड़ नहीं आते।

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