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लेख
मन का बदलना ही है मन का पुनर्जन्म || आचार्य प्रशान्त (2016)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
12 मिनट
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मन में एक प्रश्न बहुत उठता है। जैसे आज आपने कहा कि जिसमें आनंद मिले वही सत्य, तो जैसे मुझे पढ़ने में बड़ा आनंद मिलता है, सिर्फ पढ़ने में और मैं काम भी करता हूँ, जॉब भी करता हूँ। तो बहुत बार लगता है कि जो रोज़ हम काम करते हैं उसकी समय सीमाएँ, उसकी जो चीज़ें हैं, वो मेरे पढ़ने में बाधा बनती हैं। तो मुझे ये तो पता है कि हाँ, मेरा दिल कहाँ जा रहा है, पर फिर ये जो मन की कंडीशनिंग इस तरह हो रखी है कि अगर जीवन में कोई महत्वाकांक्षा नहीं है, अगर गोल (लक्ष्य) नहीं रखूँगा, मैं जॉब नहीं करूँगा तो मेरे आगे आने वाले जीवन में दिशा कैसे आएगी? फिर मैं अपने आप को बिना लक्ष्य के... कैसे अपने आम जीवन को जीयूँ? इस चीज़ की वजह से कोई एक रास्ता चुनने में बड़ी तकलीफ होती है।

आचार्य प्रशांत: देखो, ये सवाल, ये चुनने या वो चुनने का नहीं है। पढ़ रहे हो, तब तक लगता है कि नौकरी बाधा है। चलो प्रयोग कर लो, नौकरी छोड़ के पढ़ने बैठ जाओ, पढ़ने में मन नहीं लगेगा। पढ़ने में भी मन तुम्हारा तभी तक लग रहा है जब पीछे नौकरी है। इसको ऐसे मत देखो कि या तो ये है, या तो वो है। ये वैसी ही बात है कि कहो कि मुझे भजन करने में बहुत रस आता है, लेकिन खाना खाने के लिए बीच में विराम लेना पड़ता है तो मुझे खाना पसंद नहीं है। ठीक है।

तुम बिना खाए दिखा दो कितनी देर भजन कर लोगे? तो खाना फिर भजन का हिस्सा हो गया न? खाना फिर भजन का परिपूरक हो गया न? खाने को फिर भजन ही जानो। खाना क्या है? दाँतों का भजन। जुबान नाचती है, दाँत गाते हैं। यही क्यों कहते हो जब तुम बँधे-बँधाए गीत गा रहे हो तभी भजन कीर्तन है। ये जो आहार भीतर जा रहा है, इसके बिना भजन हो पाएगा क्या? नहीं तो कर लो प्रयोग, देख लो। जीवन में ये सब मिला जुला चलता है, एक है, उसको खंड-खंड मत देखो, पहली बात।

दूसरी बात और समझना, पढ़-पढ़ करोगे क्या? पढ़ना जीवन थोड़े ही है, कहते हो कि पढ़ना अच्छा लगता है, पर नौकरी भी तो करनी है। पढ़ना ज़िन्दगी थोड़े ही है। पढ़-पढ़ कर करोगे क्या? तुम पुस्तक पढ़ रही हो, वो कहती है, “घास का हरा रंग बड़ा जीवंत है।” अब वो हरा रंग तुमको पन्ने पर दिख जाएगा? या उसके लिए किताब बंद करके बाहर बागीचे में आना पढ़ेगा? जवाब दो। पढ़-पढ़ करोगे क्या?

पुस्तक पढ़ रहे हो, पुस्तक कहती है कि प्रेम सत्य का द्वार है, अब प्रेम तुम जानते नहीं। क्या करोगे? किताब को चूमोगे? किताब कभी बंद भी तो करनी पड़ेगी। कभी प्रेम के मैदान में कूदना भी तो पढ़ेगा। नहीं तो लिखा हुआ है “प्रेम सत्य का द्वार है” अब तुम अपने बिस्तर पर विराजे हुए हो, तुम तो द्वार भी भूल गए हो।

अब तुम गूगल कर रहे हो, “द्वार माने क्या?” “चित्र दिखाओ”

भाई, किताब जो भी कुछ बताती है वो जीवन के सन्दर्भ में ही तो बताती है। जिसे जीवन का कुछ नहीं पता, वो किताब से भी रिश्ता कैसे रख पाएगा? रमण हों या कृष्णमूर्ति हों, रामकृष्ण हों कि कृष्णा हों, बाईबल हो कि उपनिषद् हो, सब बात किसकी करते हैं? ज़िन्दगी की। अब ज़िन्दगी से हमारा कोई वास्ता नहीं और पढ़ क्या रहे है? उपनिषद्। अब उसमें जो कुछ लिखा है वो पल्ले ही नहीं पड़ रहा। जीसस कह रहे हैं प्रकृति, अष्टावक्र उदाहरण दे रहे हैं पशुओं के, कबीर अजगर की बात कर रहे हैं, अब अजगर माने क्या? वो तो कभी देखा नहीं, न प्रकृति का कभी अवलोकन किया।

किताबें ज़िन्दगी का हिस्सा हैं, ज़िन्दगी का विकल्प मत बना लेना उन्हें। कि हम तो जीते नहीं हैं, हम तो पढ़ते हैं। ये मूर्खता है। जो जिए हैं उन्होंने ऐसा लिखा है कि वो पढ़ने लायक है। जो जिया ही नहीं, वो पढ़ने लायक क्या लिखेगा? पहले जियो, फिर तुममे पढ़ने की पात्रता आएगी। और गहराई से जियो फिर तुममें लिखने की भी पात्रता आ जाएगी। पर पढ़ना हो, चाहे लिखना हो, दोनों से पूर्व है, जीना। तो जियो पहले खुल कर, अस्तित्व खुली किताब है, उसे पढ़ो, बाकी किताबें सब उसके सामने छोटी।

प्र: आचार्य जी,

अभी जैसे आपने कहा कि चार तरीके हैं पाने के, एक बाध्यता भी होनी चाहिए, सरल होना चाहिए और उसमें मुझे ये लगा कि बाध्यता मतलब, जैसे पहले मैंने बीच में भी शेयर किया था, मेरा एक्सीडेंट हुआ, और जब मैं आम जीवन में वापस आया — मैं अपनी माँ का बहुत सम्मान करता था, उनपर विश्वास करता था — उनहोंने कहा “सब कुछ छोड़ दो, सच पर ध्यान दे, भगवान् पर ध्यान दो और अब से जीवन बदलो।”

पहले मैं झूठ बोलने वाला, जो मर्ज़ी किया इधर-उधर, पैसे उठाये, मारा लोगों को। कम उम्र का था तो बहुत बिगड़ा हुआ था। फिर बिलकुल ही छोड़ दिया, बिलकुल ही सच बोलना है, बिलकुल ही नहीं करना है तो इतनी मुश्किल जिन्दगी हो गई थी, क्योंकि मुझे कहा था किसी ने जिनका मैं बहुत सम्मान करता था, मैं वो झेलता गया, इतनी बाध्यता, इतनी मुश्किल आई न मेरे लिए, मैंने कहा कि लेकिन जो हो जाए अब तो छोड़ना नहीं है, अब तो भगवान है तो है, अब चाहे तुम्हें दिखता है चाहे नहीं दिखता, अब झूठ वूठ कुछ होता है या नहीं होता, हमेशा सच ही बोलना है चाहे जो हो जाए। तुम मर जाओगे, तुम्हें तब भी सच बोलना है। तो मैं बहुत समय तक करता गया ओर बहुत बर्दाश्त किया।

और उसके बाद मुझे लगता है ये जो आपने पड़ाव बताया है न कि जहाँ आपको बिलकुल बाध्यता नहीं होती, बहुत सरलता होती है, वो एक बाद वाली अवस्था आती है। जब आपको सब कुछ समझ जाते हैं कि हाँ “क्या, क्या होता है” कि सब कुछ मेरे भले के लिए है और कुछ गलत नहीं हैं, आप ये बहुत अवधारणाएँ समझ जाते हैं, तो फिर उसके बाद सबकुछ बहुत सरल लगता है, और लगता है कि जो कुछ हो रहा है बहुत अच्छा हो रहा है लेकिन प्रारम्भिक अवस्था में तो बहुत मुश्किलें होती ही होती हैं।

आचार्य: मैंने किसी स्थिति की, तल की बात नहीं करी है, मैंने कहा है कि मुक्ति, आर्जव, सरलता, सहजता, स्पष्टता, ये सब आपके जीवन में वर्त्तमान में ही मौजूद हैं। ये किसी अवस्था के बाद आने वाली बात नहीं है। ये अभी है, अभी है पर आप इसको पहचानते नहीं हो। मैं कहाँ कह रहा हूँ कि ये कभी आएगा? मैं तो कह रहा हूँ ये अभी है। और ये जहाँ है, वहाँ इसकी कद्र करना सीखो। कोई ऐसा है यहाँ पर जिसको ये लगा हो कि उसके जीवन में कहीं से भी कोई द्वार नहीं है, कोई क्षण नहीं है सरलता का, मुक्ति का, सहजता का, हल्केपन का? कोई है ऐसा? तो सबके जीवन में, यथार्थ में, अभी, वर्तमान में ही मौजूद है भगवत्ता, मौजूद है सत्य, कोई ऊँची उड़ान नहीं चाहिए, किसी भविष्य की आवश्यकता नहीं है, अभी है।

कितने लोग पहचान बैठा पाए? कितने लोगों को लगा, "हाँ, ऐसा तो होता है मेरे साथ"? हम पूर्वार्ध में जो बातें कर रहे थे, वहाँ कितने लोगों को लगा कि ऐसा तो होता है मेरे साथ कहीं-न-कहीं पर। तो आपको इंतज़ार नहीं करना है, आपको प्रतीक्षा नहीं करनी है, आपको प्रयत्न नहीं करना है। वो मिला ही हुआ है बस उसका स्वागत करना है। हम उसका स्वागत करने की जगह, उसको जगह देने की जगह, उसे द्वार से ही लौटा देते हैं, लौटाना बंद करिए, घर साफ़ करिए, दीप जलाईये, मेहमान आ रहा है, और बड़ा हठी मेहमान है।

आपसे दुत्कारे जाने के बावजूद, वो आपके घर का चक्कर लगाता ही रहता है। आप दरवाज़ा खोलें न खोलें, वो खटखटाता ही रहता है। दुत्कारना बंद करें, आप उसका तिरस्कार नहीं, अपना करते हैं। जो आपसे प्यार करता हो, उसे दुत्कारने का इससे भद्दा तरीका क्या हो सकता है कि वो सामने खड़ा हो और आप अज्ञात दिशाओं में देख देख कर प्रेम के गीत गाएँ। "प्रेमी मिलता नहींं, शान्ति मिलती नहीं, मुक्ति मिलती नहीं", और वो सामने खड़ा है। और आप पुकार रहे हैं ओर व्यथा के आँसू रो रहे हैं। न बात निराकार की है, न बात मौन की है, न बात शून्य की है। मैं आपसे कह रहा हूँ साकार रूप में, जीवन की साधारण परिस्थितियों में, व्यक्ति रूप में, देह रूप में, स्थिति रूप में ही सत्य आपके सामने आता है। व्यक्ति के रूप में वो आपको संगति देता है।

प्र: आचार्य जी, इसको मैं सरलता में समझना चाहता हूँ। एक सवाल है। भागवत गीता में हम समझ रहे थे, जो मुझे समझ में आया, वो ये लगा कि करोड़ों में कोई बिरला होता है, हज़ारों जन्मों के बाद, चौरासी लाख योनियों के बाद, जिसको ज्ञान की प्राप्ति होती है, उसके भी हज़ारों जन्मों बाद उसे समझ में आती है। जबकि यहाँ अष्टावक्र जी ने जो ज्ञान दिया कि सहजता में, सरलता में हर एक के पास में उपलब्ध है। इन दोनों के अंतर्विरोध में स्पष्टता नहीं आ पा रही है।

आचार्य: नहीं, दोनों में कहीं कोई विरोध नहीं है। होता क्या है कि हम कृष्ण के वक्तव्य को किसी व्यक्ति का वक्तव्य समझ लेते हैं जो किसी दूसरे व्यक्ति अर्जुन के प्रति दिया गया है, उनकी बात को सुनिए जब वो कह रहे हैं कि हजारों जन्म लगते हैं और लाखों योनियाँ लगती हैं और किसी विरल क्षण में ही सत्य सुलभ हो पाता है। तो उस बात को किसी व्यक्ति को नहीं बल्कि मन को संबोधित जानियेगा, कि मन हज़ारों चेहरे बदलता है, हज़ारों रंग बदलता है, तब जाकर एक रंग उसे सत्य का मिलता है। अब मन को कितनी देर लगती है बदलने में? मन का बदलना ही एक पूरा जीवन है। मन बदला नहीं कि एक जन्म पूरा हो गया।

तो यदि आपसे कहा जा रहा है कि हज़ारों जन्मों बाद आपको सत्य के दर्शन होंगे, तो बड़ी दूर की बात नहीं की जा रही है, क्योंकि हज़ारों जन्म तो आपके दो मिनट में हो जाते हैं। मन के रंग का बदलना माने पुनर्जन्म। आप क्या अभी वही हैं जो आप पाँच मिनट पहले थे? पर चूँकि शरीर वैसा ही होने का एहसास कराता है तो हमको ऐसा लगता है मानो हम वही हैं, सत्य तो ये है कि पिछले कुछ मिनटों में ही आप कई मौतें मर चुके हैं और कई जन्म जी चुके हैं। “मन के बहुत रंग हैं, छिन-छिन बदले सोय” क्षण क्षण आपकी मृत्यु हो रही है और क्षण क्षण आप पुनर्जीवित हो रहे हैं।

तो बहुत समय नहीं लगता है अर्जुन को कृष्ण के सामने आ जाने में क्योंकि तुरंत बीतते हैं हज़ारों क्षण। ये जो चौरासी लाख योनियाँ हैं, किसी दूसरी योनी में जन्म लेने हेतु आपको सौ साल थोड़ी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, आप किसी के रक्त के प्यासे हो गए, तो आप सिंह हैं। आप डर गए, आप शशक हैं, आपके भीतर कुटिलता आ गयी, आप लोमड़ी हैं। हो तो रहे हैं आपके पुनर्जन्म, लगातार लगातार हो रहे हैं। आप उद्यम कर रहे हैं, आप संचय कर रहे हैं, आप चीटी हैं। पर चूँकि शरीर एक सा ही दिखाई देता है तो आप मानते ही नहीं कि मर भी गए, चींटी के रूप में जन्म भी ले लिया, अब चींटी गई, अब खरगोश बन गए।

अब खरगोश गया। आप दुत्कारे जा रहे हैं, घर पहुँच गए हैं, आप कुत्ते हैं। अब मिल गया कोई असहाय जो सामना नहीं कर सकता तो चढ़े जा रहे हैं उसके ऊपर, आप शेर हैं। तो यही तो सब पुनर्जन्म है, पुनर्जन्म ये थोड़े ही है कि आप मरोगे, फिर कोई सरसराती हुई धुएँ समान आत्मा निकलेगी, वो कहीं जाकर किसी गर्भ में प्रविष्ट हो जाएगी, फिर उसमें से आप चूहा बन कर निकलोगे। जो इधर-उधर भाग रहा हो, बिलों में मुँह डालता हो, वो चूहा। चूहा माने कौन? जो घुस जाए, कहीं बिल बना ले ओर फिर निकल कर देखे बाहर और जाए बाहर, वहाँ बिस्कुट का छोटा टुकड़ा पड़ा है, उठा कर लेकर आए, वो चूहा। और कौन होता है चूहा? दम्पलाट खाए जा रहे हैं, जितनी आवश्यकता नहीं है, मंद मंद चल रहे हैं, होल हौले सूंड़ हिल रही है सो हाथी। अभी हाथी हो तो बोझ भी ढोओगे, सबसे ज्यादा तुम्हारे ही पीठ पड़ेगा, पड़ भी रहा है।

प्र: आचार्य जी एक बात और साफ़ हुई कायदे से, बहुत अच्छी तरह से साफ़ हुई, लगता था अंतर्विरिध है यहाँ पर, आसान है।

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