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लेख
मैं कौन हूँ? || आचार्य प्रशांत (2015)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
13 मिनट
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प्रश्न: सर, मैं ये जानना चाहता हूँ कि मैं कौन हूँ। मतलब शरीर दूसरों ने दिया, नाम दूसरों ने दिया, विचार भी दूसरों ने ही दिए।

वक्ता: बेटा, ये सवाल भी तो तुम्हें दूसरों ने ही दिया है न।

श्रोता १: सर बहुत जिज्ञासा है जानने की।

वक्ता: ये जिज्ञासा तुम्हें होती क्या अगर तुम्हें ये संकल्पना ना दी गई होती कि तुम्हारा शरीर दूसरों का है, तुम्हारे विचार दूसरों के हैं? ये जो जिज्ञासा है, ये भी दूसरों ने ही दी है। जैसे तुम इतनी किताबें पढ़ते हो वैसे ही तुमने एक आध्यात्मिक किताब भी पढ़ ली जिसमें ये सब बातें लिखीं हुई थीं कि शरीर और मन बाहर से आये हैं, तो उस कारण ये सवाल तुम्हारे लिए थोड़ा महत्वपूर्ण हो गया। ईमानदारी से बताओ कि अगर उस तरह की किताबें नहीं पढ़ी होतीं तो क्या ज़िन्दगी भर भी तुम्हें ये सवाल आता कि ‘मैं कौन हूँ?’। और दुनिया में करोड़ों लोग हैं जो ऐसी किसी चर्चा में जाके नहीं बैठते हैं। वो अस्सी-साल के हो जाएँ या पांच-सौ-साल के हो जाएँ, उन्हें कभी ये सवाल उठता है कि मैं कौन हूँ?

श्रोता १: सर तो फिर जीवन व्यर्थ हो जाएगा।

वक्ता: जीवन व्यर्थ हो गया, ये बात भी तुम्हें किसने बताई है? क्या ये तुम्हारा कोई अपना बोध है? ये तो कबीर आए उन्होंने बोल दिया कि जीवन की सार्थकता इसी में है कि आत्मज्ञान हो। ये सब भी तो तुम्हें किसी और ने ही बता दिया है न।

श्रोता १: सर ये सब तो समाज ने बताया है।

वक्ता: तो उत्तर आ गया मैं कौन हूँ, आ गया उत्तर?

श्रोता १: समाज की बात तो सुननी ही पड़ेगी।

वक्ता: ये सारा बातों का ही खेल है देखो न। तुम ये माने बैठे हो कि सामाजिक प्राणी हो और साथ में पूछ रहे हो कि मैं कौन हूँ।

श्रोता १: पर ये तो समाज कहता है।

वक्ता: तुमने क्या कहा?

श्रोता १: सर मैं तो बस कल्पना कर सकता हूँ।

वक्ता: ये भी क्या तुम्हारी सोच है? तो ये सवाल कि ‘मैं कौन हूँ?’ ये कल्पनाएँ बनाने के लिए नहीं होता है।

अब समझो इस सवाल का महत्व क्या है। इस सवाल का ये महत्व बिल्कुल भी नहीं है कि इसका कोई जवाब मिल जाएगा मुझे। इसका कोई जवाब नहीं होता कि मैं कौन हूँ।

‘मैं कौन हूँ?’ – सिर्फ़ एक ईमानदार सवाल होता है। ध्यान से समझना। ‘मैं कौन हूँ?’ सिर्फ़ एक ईमानदार सवाल होता है। किसी भी क्षण में जो भी घटना घट रही है उसमें ‘मैं’ कौन हूँ।। इसका कोई बंधा हुआ एक मात्र उत्तर नहीं होता। खेल रहा हूँ तो उस वक्त मैं कौन हूँ? गुस्से में आ गया हूँ तो मैं कौन हूँ? भावुक हो गया हूँ तो मैं कौन हूँ? आकर्षण उठ रहा है तो मैं कौन हूँ? भूख-प्यास लग रही है तो उस वक़्त किसे लग रही है, मैं कौन हूँ?

ये विधि है सिर्फ़ एक। लेकिन ये विधि सिर्फ़ काम तभी करती है जब मैं कौन हूँ ईमानदारी से पूछा जाए। इस चक्कर में मत रहना कि पूछते-पूछते एक दिन तुम्हें उत्तर मिल जाएगा कि मैं आत्मा हूँ या मैं मुक्त आकाश हूँ या मैं पञ्च कोशों से परे कोई महा शून्य हूँ। ये सब बातें तुमने पढ़ ली होंगी। मैं तीन अवस्थाओं से परे कोई चौथी अवस्था हूँ और मैं चौथी अवस्था से भी आगे कुछ हूँ। ये सब छोड़ दो। तुम कौन हो ये देखो, इस प्रश्न का शास्त्रीय उत्तर क्या है ये नहीं। तुम्हें अपनी ज़िन्दगी जीनी है, शास्त्रों की तो नहीं जीनी है न।

तो तुम्हें अगर कहीं किसी से ईर्ष्या उठ रही है तो उस वक्त पूछो कि किसे उठ रही है। ये सिर्फ़ विधि है आत्म-अवलोकन की। ये कोई ठहरा हुआ सवाल नहीं है कि मैं कौन हूँ – मन, शरीर, संस्कार या आत्मा, और तुम बड़े होशियार हो कि तुमने आत्मा को चुन लिया कि मैं तो आत्मा हूँ और तुम जान गए। हम आम तौर पर ऐसे ही करते हैं। ‘मैं कौन हूँ’ क्या है? मैं कौन हूँ कोई सवाल है ही नहीं, विधि है विधि। किस चीज़ की विधि है?

श्रोता २: अपने-आप को देखने की।

वक्ता: अपने-आप को देखने की विधि है। तो अभी तुम कौन हो? – जिज्ञासु। ठीक है? और गहरे जाना चाहते हो – जिज्ञासा किसको आई? और गहरे हो जाओ। अपने साथ ज़बरदस्ती करने की ज़रूरत नहीं है, मन जहाँ तक साथ देता है वहाँ तक जाओ उससे आगे मत जाओ।

यही बहुत शुभ बात है कि तुम ईमानदारी से इस बात को पूछो। कोई ख़ास उत्तर आए, वो बड़ी बात नहीं है। तो सार्थकता उचित समय पर इस सवाल के आ जाने की है। सार्थकता किसी ख़ास उत्तर को याद करने की बिल्कुल भी नहीं है।

ठीक उस मौके पर जब डर लग रहा हो, पूछो कि डर किसे लग रहा है? बस, अब इस प्रश्न से तुम्हें कुछ मिला। ठीक उस मौके पर जब बिल्कुल तनाव है, पूछो। ठीक उस मौके पर जब कोई पूर्वाग्रह मन को पकड़ ले रहा है कि ऐसा क्यों हुआ, पूछो। जब कोई संकल्प बन रहा है कि अभी जाकर के ये करना है, पूछो कहाँ से आ रहा है, किस को आ रहा है। मैं कुछ और होता तो मुझे आता क्या? मेरा अतीत अलग होता तो मुझे आता क्या? या ये परिस्थिति नहीं होती तो ये विचार आता क्या? तो ये विचार मुझ को आ रहा है या इस परिस्थिति को आ रहा है, पूछो।

ये भी जो मैं बोल रहा हूँ, ये भी मैंने बहुत विस्तार में करके बोल दिया है। ‘मैं कौन हूँ?’ जो प्रश्न होता है न वो सूक्ष्म होता है, उसमें ज़्यादा सोचना नहीं पड़ता है। वो तो एक रौशनी की तरह आता है बस। जल्दी से आता है जैसे बिजली कडकी हो।

‘मैं कौन हूँ?’ के उत्तर की तलाश मत करो क्योंकि कोई अंतिम उत्तर नहीं है उसका। ईमानदारी से ‘मैं कौन हूँ?’ में जीना सीखो। ईमानदारी से इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि ‘मैं कौन हूँ?’ के बहुत सारे उत्तर तुम्हें इधर-उधर लिखे हुए मिल जाएँगे। वो तुम्हारे उत्तर नहीं हैं। तुम्हें तो अपना ही पूछना पड़ेगा न कि इस स्थिति में क्या चल रहा है। तुम्हारी स्थिति सिर्फ़ तुम्हारी स्थिति है, व्यक्तिगत। और तुम्हारे अलावा किसी के लिए संभव नहीं है उस स्थिति में ‘मैं कौन हूँ?’ पूछ पाना। तुम्हें ही करना पड़ेगा।

श्रोता ३: सर, जब हम बुल्लेशाह या और किसी की कविताओं या प्रसंगों को पढ़ते हैं तो ‘मैं कौन हूँ?’ जानने का प्रश्न ही नहीं उठता है। उसमें जो भी है ठीक लगता है क्योंकि हम उसमें लीन हो जाते हैं और मन कुछ और नहीं सोच पाता। उस समय यह सवाल क्यों नहीं आता?

वक्ता: असल में जब तुम आइने में खुद को देख रहे होते हो तो क्या चिल्ला रहे होते हो कि ‘मैं कौन हूँ?, मैं कौन हूँ?’? जब दिख रहा है न तो पूछना क्या है। तो आइने की तरह ये बात हमेशा सामने रहे कि पूछना नहीं पड़ता, सवाल इतना सूक्ष्म हो जाता है, इतना सूक्ष्म हो जाता है कि उसकी उपस्थिति फ़िर पता नहीं चलती। वो सजकता लगातार अपने-आप बनी रहती है कि कोई भूमिका निभा रहा हूँ, नाटक कर रहा हूँ या संस्कारित हूँ या बस सहज रूप से मौजूद हूँ, सजकता अपने-आप बनी रहती है।

‘मैं कौन हूँ?’ जब तक ख़याल है तब तक उसका उत्तर भी ख़याली ही होगा। ‘मैं कौन हूँ?’ जब एक सूक्ष्म सजकता बन जाता है, फ़िर वो विचार नहीं रह जाता।

मैंने सालों से ये सवाल नहीं सोचा होगा कि ‘मैं कौन हूँ?’। और तुम मुझसे ज़बरदस्ती भी करो कि सोचो तुम कौन हो तो मुझे अधिक से अधिक नींद आ जाएगी, नहीं सोच पाउँगा। क्या सोचो कि कौन हूँ! अगर सोच रहा हूँ तो कौन हूँ – सोचने वाला। इसमें क्या सोचें, ये कोई सोचने कि बात है। ये तो जागने की बात है। बहुत फैशनेबल हो जाता है।

आध्यात्मिकता के अपने फैशन होते हैं। तो ये सब उस फैशन का हिस्सा है – मैं कौन हूँ; हरी ॐ तत्सत; कोई गंजा हो जाता है, कोई बाल लम्बे कर लेता है – ये सब आध्यात्मिक फैड होते हैं। कितना शास्त्रीय लगता है न, ‘मैं कौन हूँ?’।

तुम चाहे कपड़ो के फैशन में पढ़ो या चाहे आध्यात्मिक फैशन में पढ़ो, फैशन तो फैशन है। उसमें कोई सच्चाई थोड़ी ही है। और ये सब आध्यात्मिक फैशन होते हैं। कोई ‘ॐ’ का टैटू बना कर घूम रहा है। मैंने देखा एक दिन किसी को उसने बाल ऐसे कटवाए थे कि सर पर ‘ॐ’ लिख गया। अब ये कोहम जैसी ही बात है। मुंडी पे ‘ॐ’ लिखा हुआ है। लड़कियाँ घूम रही हैं, उन्होंने नेवल रिंग डाल रखी है, उसमें स्वास्तिक बना हुआ है। चल रहा है आज-कल खूब। नाभि में स्वास्तिक लटक रहा है। और न जाने क्या-क्या होगा आगे। बाकी वो टी-शर्ट प्रिंट करता है उससे पूछो, वो भी कुछ आध्यात्मिक टी-शर्ट निकालता होगा।

सीधे रहो, सरल रहो – यही आध्यात्मिकता है, यही परमात्मा है।

परमात्मा जटिल नहीं है कि टेढ़े-मेढ़े सवालों से होकर उसकी ओर जाना है, जटिल सूत्रों से पहुंचोगे, कुछ हिब्रू या संस्कृत में लिखा हो तो समझ में आएगा, एक खतरनाक सी चीज़ है सिर्फ़ परम ज्ञानियों को मिलती है!

परम ज्ञानियों को नहीं मिलती, सीधे-साधे लोगों को मिली होती है।

सीधे-साधे रहो बस।

मक्कार ना रहो, यही आध्यात्मिकता है। पूरी आध्यात्मिकता बस इतनी ही है क्या – मक्कार मत रहो बस। उसके बाद तुम्हें कबीर का एक दोहा नहीं आता, गीता का एक श्लोक नहीं आता तो भी कोई बात नहीं। कृष्ण तुम्हारे भीतर बैठें हैं, उनके श्लोक रटके क्या करोगे।

श्रोता ४: सर, सूक्ष्म विचार और साधारण विचारों में कुछ ज़्यादा अन्तर तो नहीं होता?

वक्ता: सूक्ष्म विचार से आप क्या समझ रहे हैं?

श्रोता ४: ऐसा कि जिसमें सब-कुछ निराधार होता है।

वक्ता: सूक्ष्म विचार हमने कहा वो जो सूक्ष्म के संपर्क से निकलता हो। ऐसी ही परिभाषा दी थी? और हमने क्या कहा था सूक्ष्म क्या है?

सूक्ष्म विचार वो जो आत्मा के संपर्क से निकलते हैं।

उसमें वो सारे गुण होंगे जो आत्मा की उपाधियाँ मानी जाती हैं। क्या होती हैं आत्मा की उपाधियाँ?

आत्मा नित्य है। वो सबका आना-जाना देखती है, लेकिन स्वयं ना आती है ना जाती है। तो सूक्ष्म विचार क्या हुआ?

‘दिस टू शैल पास’ (यह भी गुज़र जाएगा)

सुना है न ये, सूफी कहानी है। ‘ये एक सूक्ष्म विचार है’ – ये बाकी तर्कों को काट देगा। आपको बड़ी ख़ुशी उठ रही है और आपके मन में अब एक लहर आई है कि चलो कुछ कर डालते हैं। यदि ये सूक्ष्म विचार आ गया…

श्रोता ४: ‘दिस टू शैल पास’ (यह भी गुज़र जाएगा)।

वक्ता: सब आवत-जावत है, आया है सो जाएगा। तो बाकी तर्क अब इसके सामने अब नहीं चलेंगे। समझ रहे हो?

इसी तरीके से अब आत्मा की और उपाधियाँ ले लीजिए।

आत्मा निर्विशेष है। आत्मा क्या है?

श्रोता ४: निर्विशेष।

वक्ता: निर्विशेष। उसका कोई खास रूप, रंग, आकार नहीं होता। आपके जो साधारण विचार उठते हैं उनमें रूप, रंग, आकार सब कुछ होता है और आपको वही विचार सबसे ज़्यादा आकर्षित करते हैं और सुहाते हैं जिसमें ‘आप’ ख़ास हों। ख़ास रूप, ख़ास रंग, ख़ास आकार – ऐसा ही होता है न। तो यदि आपको ये विचार आ जाए कि जो है वो मिट्टी हो जाना है। तो ये विचार जितने भी ‘खासियत’ के विचार होंगे उनको तत्क्षण साफ़ कर देगा। या इसी तरीके से आपको वो विचार उठाए जो मंत्र ज़ेन गुरु देते हैं कि जन्म से पहले तुम्हारा कौन सा ख़ास चेहरा था। आज तुम ये चेहरा देखते हो, कहते हो ‘मैं’, और अपने बारे में हज़ार तरीके की हसरतें करते हो। ज़रा जन्म से पहले वाला अपना चेहरा दिखाना। निर्विशेष थे तब। यदि ये विचार आ जाए तो बाकी दुनिया भर के जो उपद्रवी, उत्पाती विचार हैं वो सब साफ़ हो जाएँगे।

मंत्र की और जप की जो पूरी अहमियत है वो इसीलिए है कि उल्टे-पुल्टे विचारों से तो मन भरा ही रहता है। अगर सही समय पर सही विचार, सूक्ष्म विचार आ जाए तो आप बहुत सारी आफ़तों से बच जाएँगे। पर सही समय पर आना चाहिए, बाद में नहीं। कबीर का एक-एक दोहा या जीज़स का एक-एक वचन या कृष्ण का एक-एक श्लोक या शिव सूत्र, ये सब हैं क्या? सूक्ष्म विचार ही तो हैं और क्या हैं। यदि सही समय पर याद आ जाए आपको गीता का कोई श्लोक तो क्या बात है। और आप किसको कहोगे कि अनुकम्पा है। या यदि सही समय पर आपके सामने कृष्ण की मूर्ति कौंध जाए तो और क्या चाहिए आपको।

मूर्तियाँ बनाने का जो पूरा विज्ञान था वो यही तो था कि मन तो छवियों में ही चलता है तो ज़रा कृष्ण की भी एक छवि बना दो ताकि मन के सामने वो कौंध सके सही समय पर और आप चेत सको। एक चेहरा आँख के सामने आ गया और आप तुरंत संभल गए। बात आ रही है समझ में? कि रविवार का दिन है और अनु को आलस आ रहा है और तभी शिव-सूत्र कहते हैं “प्रयत्न साधकः” कि साधक को तो प्रयत्न करना पड़ेगा। उठो, करो तो उठी और आ गई। पर फ़िर सही समय पर ये सूत्र कौंध जाना चाहिए। यही सूक्ष्म विचार होते हैं। “प्रयत्न साधकः” यही है सूक्ष्म विचार।

अभी हम ये जो सारी चर्चा कर रहे हैं ये क्या करती है? ये आपके इधर-उधर के सारे विचारों को शांत कर देती है। ये जो आप लिख-लिख करके भेजोगे थोड़ी देर में ये क्या होंगे? ये सूक्ष्म विचार ही तो होंगे।

आप जांचना ही चाहते हो कि कोई विचार सूक्ष्म है या नहीं तो उसकी कसौटी आत्मा है। ये देख लीजियेगा आप कि उसमें समय तो शामिल नहीं है। जिस विचार में समय को महत्व मिल रहा हो वो सूक्ष्म नहीं हो सकता। देख लीजियेगा कि उसमें कोई विशेष व्यक्ति या स्थान तो शामिल नहीं है। जिस विचार में स्थान को या व्यक्ति को या रूप को या व्यक्तित्व को जगह मिल रही हो वो सूक्ष्म विचार नहीं हो सकता। समझ में आ रही है बात?

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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