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लेख
महिला घर और दफ़्तर एक साथ कैसे संभाले? || आचार्य प्रशांत (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: एक महिला होकर घर और कार्यस्थल में समुचित तादात्म्य कैसे स्थापित किया जाए?

आचार्य प्रशांत: देखिए, जब आप कहती हैं कि - "एक महिला होकर घर और कार्यस्थल में समुचित तादात्म्य कैसे बैठाया जाए,” तो आप शायद अपनी पहचान के भीतर से ये सवाल कर रही हैं। आपने सवाल करते वक्त ही ये तय कर लिया है, ये शर्त रख दी है, कि महिला होने की जो पुरानी, परंपरागत, तयशुदा परिभाषा है, उसका तो मुझे सम्मान करना ही है।

समझिएगा, जब आप कहती हैं कि आप महिला हैं, तो आपका आशय लिंग से नहीं है; आपका आशय एक धारणा से है। अंतर समझ रही हैं? लिंग तो जीव का होता है; लिंग तो शरीर का होता है। जब आप कहती हैं कि आप महिला हैं, तो आप 'शरीर' की नहीं 'मन' की बात कर रही हैं; आप महिला होने की छवि की बात कर रही हैं। समाज ने, परंपरा ने, महिला की जो परिभाषा आपको दे दी है, आप उस परिभाषा के भीतर से बात कर रही हैं, है न? इसीलिए तो ये सवाल उठ रहा है, अन्यथा ये सवाल ही ना उठे।

अब सवाल क्या कह रहा है, मैं उसको आपके लिए ज़रा खोल कर पढ़े देता हूँ। सवाल कह रहा है कि - “यही जाना है अभी तक, यही देखा है, यही सीखा है कि महिला हो तो पहली ज़िम्मेदारी घर की है। दुनिया ने यही बताया है, और हमें भी अब ऐसा ही लगने लगा है कि स्त्री तो ममता की मूर्ती होती है; स्त्री वो होती है जिसके लिए पति के चरणों में स्वर्ग होता है; स्त्री तो वो होती है जो घर की देवी हो, और साथ-ही-साथ, समय कुछ ऐसा आ गया है, और हमने चुनाव कुछ ऐसे करे हैं कि अब हम एक व्यवसायिक कार्यस्थल पर भी हैं। हम पर काम की ज़िम्मेदारियाँ हैं, हम अपनी ज़िम्मेदारियों का निष्पादन करते हैं, हम कमाते हैं। कई लोग हैं जो हमारी तरफ़ निर्देशों के लिए देखते हैं। तो अब क्या करें?” ये है आपका सवाल।

तो सबसे पहले तो मैं ये निवेदन करूँगा कि एक दायरे के भीतर से अगर आप सवाल करेंगे तो आप दायरे से बाहर नहीं आ पाएँगे। सबसे पहले तो अपने आप से ये पूछना होगा कि वास्तव में आवश्यक है क्या, महिला की उस छवि को कायम रखना और उसी छवि के अनुसार जीवन बिताना जो हमें अतीत से मिली है, समाज से मिली है? मैं कहूँगा, पूछिए कि आवश्यक है क्या अपने आप को ‘महिला’ की तरह देखना? व्यक्ति मात्र क्यों नहीं हो सकतीं आप? और अगर आप व्यक्ति पहले हैं, महिला बाद में हैं, तो समीकरण बिल्कुल बदल जाते हैं फिर, क्योंकि 'महिला' होना तो थोड़ी शरीर की बात हो गई और थोड़ी समाज की बात हो गई, 'व्यक्ति' होना कुछ और बात हो गई।

और अगर आप 'व्यक्ति' हैं तो फिर आप का सरोकार होगा आप की प्रगति से, आप की पूर्णता से। फिर आप के पैमाने ही बदल जाएँगे। फिर आप कहेंगे कि - “जीवन है, और जैसे किसी भी व्यक्ति को, चाहे पुरुष हो चाहे स्त्री हो, अपने जीवन को पूर्णता देनी होती है, मुझे भी देनी है!” व्यक्ति की तरह देखेंगे तो जीवन बिल्कुल दूसरी तरह से दिखाई देगा, और फिर जीवन में क्या करने लायक है, ये भी दूसरा दिखाई देगा। 'स्त्री' की तरह देखेंगे, 'महिला' की तरह देखेंगे, तो फिर तो वही सब कुछ दिखाई देगा जो किसी स्त्री को दिखाई देना चाहिए।

एक बात आप अच्छे से समझ लीजिए, स्त्रीत्व आप की मौलिक पहचान नहीं है। हम जिसको कहते हैं "अपना जेंडर (लिंग),” वो आत्मिक तो होता ही नहीं, प्राकृतिक भी नहीं होता; वो सामाजिक होता है। लड़की यूँ ही स्त्री नहीं बन जाती। प्रकृति 'लड़की' को 'स्त्री' नहीं बना देती। लड़की कुछ काल के बाद, एक दशक के बाद जो मनोस्थिति ग्रहण कर लेती है, वो मनोस्थिति उसे दुनिया देती है। वो मनोस्थिति उसे ना परमात्मा ने दी है, ना प्रकृति ने दी है। पर इतने चैतन्य हम होते नहीं कि हम समझ पाएँ कि हम ने अपने आप को जो बना लिया है, जो मान लिया है, वो हम हैं नहीं, वो सिर्फ़ एक शिक्षा है जो हमें दे दी गई है। वो सिर्फ़ इधर-उधर से आए प्रभाव हैं जो हमने आत्मसात् कर लिए हैं।

अब बड़ा द्वंद खड़ा होता है। द्वंद क्या है? द्वंद ये है कि एक तरफ़ तो वो मानसिक छवि है, वो कांसेप्ट है, जो देखा-सुना, पढ़ा-सीखा, और दूसरी तरफ़ कुछ और है भीतर जो पुकारता है पूर्णता के लिए, मुक्ति के लिए, सत्य के लिए। अब करें क्या? इन दोनों में द्वंद बैठता है। जब ये द्वंद बैठे, तो मैं निवेदन कर रहा हूँ, कि आप बहुत होशपूर्वक पक्ष लीजिएगा। आप बहुत होशपूर्वक देखिएगा कि आपके लिए क्या ज़्यादा आवश्यक है: रीतियाँ निभाना, या मुक्ति पाना। और मेरी बात को कोई आधुनिक वक्तव्य मत मान लीजिएगा। मैं आधुनिक बात नहीं कर रहा हूँ। मैं पुरानी-से-पुरानी बात कर रहा हूँ।

उपनिषदों के ऋषियों से आप पूछेंगी कि किसी भी व्यक्ति का जन्म किसलिए है—चाहे महिला हो कि पुरुष हो, लड़का हो, लड़की हो—आदिकालीन ऋषियों से भी आप जा कर के पूछेंगी कि, "किसी भी व्यक्ति का जन्म और जीवन किसलिए है?" तो वो ये नहीं कहेंगे कि इसलिए है कि तुम परम्पराएँ निभाओ और ज़िम्मेदारियाँ उठाओ। वो भी वही कहेंगे जो मैं कह रहा हूँ। ये मेरी बात कोई आधुनिक बात नहीं है। वो भी यही कहेंगे कि जन्म अगर तुमने लिया है, तो इसीलिए लिया है ताकि बीज वृक्ष बन पाए, ताकि तुम अपनी संभावना के उच्चतम शिखर को छू सको। जीवन इसलिए है।

मैं जब कह रहा हूँ कि पुरानी बातों से आगे निकलो, तो मैं आपको कोई नई बात नहीं बता रहा हूँ। जब मैं कह रहा हूँ कि पुरानी बातों से आगे निकलो, तो मैं वास्तव में आपको पुरानी से ज़्यादा पुरानी बात बता रहा हूँ। मैं आपसे ये नहीं कह रहा हूँ कि पूर्वजों की परिपाटी का खंडन करो; मैं कह रहा हूँ, जाओ वास्तव में अपने पूर्वजों के पास और देखो कि उन्होंने अपनी बच्चियों के लिए क्या संदेश छोड़ा है।

हमारे आदिकालीन पूर्वज बहुत प्रेम करते थे हमसे, वो हमारे लिए दासता का, और बंधन का संदेश छोड़कर नहीं जा सकते। अगर परंपरा की ही आप बात कर रही हैं, तो हमारी परंपरा किसी भी तरह किसी व्यक्ति को बंधन में रखने की नहीं है! भक्ति हो, ज्ञान हो, दर्शन की कोई भी शाखा हो, भारत ने सब को यही समझाया है, स्त्रीयों को, पुरुषों को, कि—बहुत ख़याल रखना ज़िंदगी का। बहुत अमूल्य निधि है जीवन। पल-पल पर नज़र रखना कि ये पल कैसे बीत रहा है।

‘लिबरेशन’ बहुत पुराना शब्द है। लिबरल नए हैं; लिबरेशन बहुत पुराना है। फेमिनिस्म नया है; आदिशक्ति की पूजा बहुत पुरानी है। आत्मा की दृष्टि से स्त्री और पुरुष में कहाँ से कोई भेद हो गया? सत्य की दृष्टि से कैसे आप के ऊपर आप के लिंग के आधार पर कोई बंधन रखा जा सकता है? जो हमारे वास्तविक पिता रहे हैं, वो अगर देखते होंगे कि उनकी बच्चियों को समाज की परंपराओं ने और समय की धारा ने किस स्थिति में डाल दिया है तो उन्हें बड़ा दुःख होता होगा। और उस से ज़्यादा दुःख की बात ये है कि अब जब आज़ादी की बात होती है तो ये कह दिया जाता है कि आज़ादी तो नए ज़माने का कोई जुमला है।

स्त्री अपने व्यक्तित्व को पूर्णता दे, अपने जीवन को सार्थक करे, ये बुनियादी-से-बुनियादी बात है।

आपको बच्चों से ममत्व है? ठीक है, बात समझ में आती है। थोड़ी देर पहले ही हम ने कहा कि बच्चों के लिए भी कुछ तब कर पाओगे जब 'तुम' कुछ होओगे। और जब तुम वास्तव में प्रकाशित हो जाते हो, तब ममत्व प्रेम में बदल जाता है। ममता और प्रेम बहुत अलग बातें हैं।

अपने आप को एक महिला की तरह देखना छोड़ दें, सब सवाल अपने आप गिर जाएँगे। आप भी वैसी ही एक चेतना हैं जैसे कोई पुरुष होता है, तो आपका भी धर्म वही है जो किसी भी पुरुष का अपने प्रति होता है। शरीर अलग है; मंज़िल वही है। याज्ञवल्कय और गार्गी की मंज़िलें अलग-अलग हो सकती हैं क्या? रैदास और मीरा की मंज़िल अलग-अलग हो सकती है क्या? तो फिर तो ये प्रश्न ही बहुत सार्थक नहीं हुआ न कि, “एक महिला क्या करे?”

पुरुषों ने भी इतने सवाल पूछे, कभी वो पूछते हैं कि, “एक पुरुष होने के नाते मैं ये सवाल करना चाहता हूँ कि घर और दफ़्तर में संतुलन कैसे कायम करूँ?” पुरुष तो कभी ये नहीं पूछते! महिलाएँ क्यों पूछती हैं कि, “एक महिला होने के नाते पूछना चाहती हूँ कि..?.”

आप महिला बाद में हैं, आप कुछ और पहले हैं। अपने आप को याद रखिए, अपनी मंज़िल का ख़याल रखिए, रास्ते में भटकने से ख़ुद ही बची रहेंगी। नहीं तो बहुत मोड़ आते हैं व्यर्थ के, भ्रामक, ख़तरनाक, उनमें से कई मोड़ सिर्फ़ अनावश्यक नहीं होते, आत्मघातक होते हैं।

जाना है आपको सीध में मंज़िल की ओर और बीच में इधर मोड़ आया—ये मोड़ जा रहा है एक कैदखाने की ओर—थोड़ा आगे चले उधर एक दूसरा मोड़ आया—वो मोड़ जा रहा है एक अंधे कुएँ की ओर। आसानी से मुड़ मत जाइएगा! और इन मोड़ों पर यही लिखा होता है, “ख़ास महिलाओं के लिए!” तो पुरुष तो बचकर आगे निकल जाते हैं कि अब महिला वाला मोड़ आ गया है; महिलाएँ बेचारी थोड़ी भोली होती हैं, वो मुड़ लेती हैं। आप मुड़ मत जाइएगा। सीधे बढ़ते रहिएगा शिखर की ओर। और अगर कोई ताना मारे कि, “ज़माना ही ख़राब आ गया है। ये तो कलयुग है। औरतों ने लाज-मर्यादा छोड़ दी है,” तो कहना, “ये कलयुग की नहीं सतयुग की बात हो रही है। जाओ और जाकर के देखो कि वैदिक ऋषियों ने क्या सिखाया है।” उन्होंने ठीक वही सिखाया है जो मैं अभी कह रहा हूँ।

कलयुग की बात है बंधन। जहाँ बंधन है, वहाँ कलयुग है।

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