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लेख
माँसाहार के पक्ष में अहिंसा का तर्क || आचार्य प्रशांत (2020)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
25 मिनट
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प्रश्नकर्ता: पिछले दिनों आपने कहा कि एक हाथी की जान और एक मुर्गे की जान एक बराबर है, तो फिर एक मुर्गे और एक बैक्टीरिया की जान भी तो बराबर होनी चाहिए न।

साँस लेते वक़्त हम न जाने कितने बैक्टीरिया मार डालते हैं, अन्न उगाने की प्रक्रिया में खेती-बाड़ी में भी हम तमाम जीवाणुओं को मारते हैं तो वो भी तो हिंसा हुई न? तो फिर हमें क्या हक़ है मुर्गा और बकरा खाने वालों पर ऊँगली उठाने का?

आचार्य प्रशांत: तृप्ति, हिंसा क्या होती है? आपने तो बस एक-दो मौकों का उल्लेख करा है जब एक इंसान के कारण तमाम छोटे जीवाणुओं की मृत्यु होती है और कई बहुत ज़्यादा सूक्ष्म और निरन्तर घटने वाली घटनाएँ भी हैं जहाँ हमारे होने के कारण ही न जाने कितने छोटे-छोटे जीवाणु जीते-मरते रहते हैं।

उदाहरण के लिए आपकी त्वचा पर लगातार जीवाणुओं का वास रहता है, आप कितनी भी साफ़-सफ़ाई रख लें उसके बाद भी। चाहे हथेली हो, हाथ हो, सिर हो, शरीर का कोई भी हिस्सा हो, उस पर लगातार कीटाणु, जीवाणु माइक्रो ऑर्गेनिज्म (सूक्ष्म जीव) मौज़ूद रहते ही हैं। वो वहीं जन्मते भी हैं, वहीं मरते भी हैं।

आप अगर ताली भी बजा रहे हो तो उनकी जान जा रही है। इसी तरीके से आपके मुँह में जो लार है, उसमें भी तमाम छोटे-छोटे जीवाणु बसते हैं, तो आप अगर बोल भी रहे हो तो उनकी जान जा रही है। आप बिस्तर पर करवट बदल रहे हो, तो भी उनकी जान जा रही है।

आगे सुनिएगा। हम जिसको इंसान कहते हैं वो वास्तव में एक जीव नहीं होता है, इंसान का होना अनिवार्यत: लाखों, करोड़ों अन्य छोटे-छोटे जीवों के साथ होता है, जो उसके शरीर के भीतर वास करते हैं। उनके होने का हमारे होने के साथ बिलकुल अविछिन्न सम्बन्ध है।

हम हैं तो वो हैं, वो हैं तो हम हैं। ऐसा नहीं हो सकता कि आप हैं पर आपकी आँतों में जीवाणु न हों, अगर आपकी आँतों में जीवाणु नहीं होंगे, तो फिर आप भी नहीं होंगे, आप ख़त्म हो जाएँगे और जब मैं कह रहा हूँ जीवाणु तो मैं पेट के कीड़ों की बात नहीं कर रहा हूँ, मैं उन बैक्टीरिया इत्यादि की बात कर रहा हूँ जो पेट में होते-ही-होते हैं और एक स्वस्थ आदमी के शरीर के भीतर भी पाये जाते हैं।

वास्तव में अगर वो न हो तो आप स्वस्थ नहीं रह पाएँगे। वो जीवाणु पाचनक्रिया से लेकर शरीर की अन्य कई क्रियाओं में सहयोगी होते हैं, तो आप जब खाना भी खाते हो तो शरीर के भीतर उनमें से न जाने कितने होते होंगे जो मर जाते होंगे। ये अलग बात है कि वो शरीर के भीतर ही जन्म भी लेते रहते हैं, लेकिन आपने भोजन किया तो बहुत सम्भव है उनमें से बहुतों की मृत्यु भी हो जाती होगी।

इसी तरीके से साँस लेना, कंघी करना, कपड़े बदलना, नहाना, ज़मीन पर चलना आप कुछ भी कर रहे हैं तो जीवाणु तो मारे ही जा रहे हैं। ये लीजिये आप तो बस यही पूछ रहे थे न कि आदमी अगर फल खाता है या अन्न खाता है या उगाता है तो उसमें जीवाणु मारे जाते हैं, तो ये हिंसा हुई।

अगर आपको हिंसा को इस तल पर परिभाषित करना है तो फिर तो आदमी का होना ही हिंसा है, आपका पलक झपकना भी हिंसा है, आप पलक झपकिए न जाने कितने जीवाणु मारे गये। तो हिंसा की यह परिभाषा तो बड़ी विचित्र हो गयी, अटपटी हो गयी, अव्यावहारिक हो गयी, निश्चित रूप से अनुचित हो गयी।

हिंसा इस कृत्य में नहीं हो सकती कि एक जीव के होने से दूसरे जीव की मृत्यु हुई या एक जीव के कृत्य से दूसरे जीव की मृत्यु हुई, यह हिंसा की परिभाषा नहीं हो सकती।

बात समझ रहे मैं क्या कह रहा हूँ?

एक जीव की हस्ती के कारण एक जीव के होने, उसके अस्तित्व के कारण ही दूसरा जीव अगर मर रहा है तो ये हिंसा नहीं हो सकती। हिंसा फिर कुछ और होगा, आप देखिये जंगल में शेर होता है, उसे आप कभी हिंसक बोलते हो क्या?

और अगर आप उसे हिंसक बोलते हो तो आपकी नादानी है, क्योंकि शेर के सामने कोई विकल्प नहीं है हिरण को या अन्य जीवों को न मारने का, वो प्राकृतिक रूप से संस्कारित है माँस ही खाने के लिए पहली बात, और दूसरी बात इतनी चेतना उसके पास है नहीं कि प्रकृति ने उसको जो संस्कार दिए हैं वो उन संस्कारों का उल्लंघन कर सके।

इन दोनों बातों को साफ़-साफ़ समझिएगा। शेर जो है जंगल में पहली बात वो प्राकृतिक रूप से संस्कारित है माँस ही खाने के लिए, उसके दाँत देखो, उसके शरीर की बनावट देखो, वो जब अपना जबड़ा बन्द करता है तो उसके जबड़े की और मसूड़ों की माँसपेशियों में इतनी ताकत होती है कि वो जिस चीज़ को दबा रहा होता है, जिस चीज़ को अपने जबड़े में भींच रहा होता है उस पर ज़बर्दस्त दबाव पड़ता है और वो चीज़ बिल्कुल टूट कर बिखर जाती है।

उसके जबड़ों की बनावट ऐसी है निश्चित रूप से जबड़े की ऐसी बनावट फल चबाने के लिए तो चाहिए नहीं। अगर आपको फल ही चबाना हो तो आपके जबड़ों में कितनी मज़बूती चाहिए? बहुत ज़्यादा नहीं चाहिए। फल तो यूँ ही कट जाता है। पर आप शेर का या चीते का या बाघ का जबड़ा देखो तो वहाँ मामला कुछ और नज़र आता है।

इसी तरीके से उसके पंजे देखो, उसके दाँत देखो और उसकी आँतें देखो उसकी पूरी पाचन व्यवस्था देखो। उसकी पूरी पाचन व्यवस्था ऐसी है कि उसमें बहुत उच्च तीव्रता के, बहुत उच्च शक्ति के रस उत्सर्जित होते हैं ताकि वो माँस को पचा सके। माँस ही नहीं ताकि उसके पेट में जाकर हड्डी के छोटे-छोटे टुकड़े तक गल जाएँ।

तो प्रकृति ने ही उसको ऐसा बनाया है, उसके पास कोई विकल्प नहीं है, तुम उसे फल खिलाओगे, घास खिलाओगे वो खा ही नहीं पाएगा। वो कितना भी भूखा होगा, वो खा ही नहीं सकता, उसको अंततः भूख के कारण जान देनी पड़ेगी पर वो फल, सब्जी या घास नहीं खा पाएगा।

तो उसके साथ एक अनिवार्यत: या मजबूरी यह है कि उसकी प्राकृतिक संरचना ही माँस खाने के लिए हुई है, और दूसरी बात उसको इतनी चेतना उपलब्ध ही नहीं है कि वो विचार कर सके कि माँस खाने का क्या मतलब है? हिंसा का क्या मतलब है? हत्या का क्या मतलब है?

इतनी चेतना, विचार की इतनी शक्ति शेर, चीते, बाघ, तेंदुए के पास है ही नहीं। मगरमच्छ क्या सोच सकता है कि मैं कौन हूँ? ये मछलियाँ कौन हैं? मेरा समस्त प्रकृति से नाता क्या है? मेरी असली पहचान क्या है? हत्या करनी चाहिए, नहीं करनी चाहिए?

विचार के लिए, ध्यान के लिए जो चेतना चाहिए वो इन पशुओं को उपलब्ध नहीं है। इसीलिए हम कभी नहीं कहते — अगर हम शब्दों का सही इस्तेमाल करें, अगर हम शब्दों का आध्यात्मिक अर्थों में सटीक प्रयोग करें — तो हम कभी नहीं कहते कि शेर हिंसा कर रहा है।

तुमने कभी कहते सुना है किसी को कि ये बाघ बड़ा पापी है, उम्रभर इसने सिर्फ़ खून बहाया है। इसे सब जानवरों की बद्दुआ लगेगी, यह नर्क में सड़ेगा। ऐसा कभी कहीं लिखा है, पढ़ा है, सुना है? बोलो? क्यों नहीं, क्योंकि हिंसा सिर्फ़ मारने से नहीं होती है, हिंसा मारने में नहीं है। हिंसा सिर्फ़ तब है जब आपकी चेतना के पास विकल्प हो करुणा का और आप उस विकल्प का इस्तेमाल न करके, दूसरे को अपने स्वार्थ की ख़ातिर मार दो तब हिंसा है।

हिंसा की परिभाषा समझना — अगर दूसरे को चोट पहुँचाना शारीरिक रूप से या शारीरिक रूप से दूसरे का वध कर देना ही हिंसा होती, तो फिर तो श्रीकृष्ण, अर्जुन से जो करवा रहे हैं उससे बड़ी हिंसा हो ही नहीं सकती। लेकिन निश्चित रूप से श्रीकृष्ण अर्जुन से हिंसा तो नहीं करवा रहे न।

तो हिंसा की ज़रूर कोई ऊँची और ज़्यादा साफ़ परिभाषा होनी चाहिए। हिंसा शब्द ही सिर्फ़ उस प्राणी पर लागू होता है जिसके पास सोचने-समझने की, विकल्प करने की, चुनाव करने की चेतना हो।

तो इसलिए हम कह रहे हैं कि शेर और चीतों को हिंसक हम नहीं कह सकते, शेर और चीतों को हम शिक्षा भी नहीं दे सकते अहिंसा की। वो तो प्रकृति मात्र हैं, वो एक तरीके से कह सकते हो कि मशीन ही हैं, यंत्रवत हैं। उनको प्रकृति ने जैसा बना दिया है, वैसे जिये जा रहे हैं, उनको हिंसक कहना कोई काम की बात नहीं होगी, उचित बात नहीं होगी।

आदमी के पास विकल्प है कि वो सोंचे-समझे, विचार करे। आदमी को ताक़त है कि वो अपने भीतर प्रेम का पक्ष ले, करुणा का पक्ष ले या फिर स्वार्थ का और भोग का पक्ष ले। तो आदमी अकेला है जिस पर हिंसा का अभियोग लगाया जा सकता है, जानवरों पर नहीं लगाया जा सकता।

यह बात समझ में आ रही है?

आदमी अकेला है जिसको हिंसक कहा जा सकता है। हम अक्सर कह देते हैं एक हिंसक शेर या अजगर को हिंसक बोल दिया। किसी भी चीज़ को हिंसक बोल दिया। लेकिन अगर हम ऐसा कहते हैं तो हम ग़लत कह रहे हैं, वो हिंसक नहीं है। वो तो बस वैसे हैं जैसा उनको प्रकृति ने बना दिया है।

आदमी ही है सिर्फ़ पूरी प्रकृति में जो हिंसक भी हो सकता है और अहिंसक भी हो सकता है। क्यों, क्योंकि आदमी ही है अकेला जिसके पास ऐसी चेतना है जो विचार कर सकती है, ध्यान कर सकती है और ऊँचे तल के निर्णय कर सकती है।

ऊँचे तल के निर्णय कौन से होते हैं? निचला निर्णय वो, जिसमें तुम सिर्फ़ अपने देह के सुख का ख़्याल करते हो, ये निचले तल का निर्णय है। कि भाई, मेरा सीमित काम चलता रहे, मुझे सुख मिलता रहे, मैं कुछ खा लूँ, मैं कुछ भोग लूँ, मेरी ज़िन्दगी अच्छी चलती रहे। मुझे दुनिया से मतलब क्या। और मेरे सुख के, मेरे भोग की ख़ातिर अगर किसी को जान गँवानी पड़े, तो कोई बात नहीं। ये होते हैं निम्न कोटी के निर्णय।

ऊँचे निर्णय कौन से होते? ऊँची चेतना कौन सी होती है, जो कहती है कि अपनी ही सोचना ही तो अहंकार है न और अहंकार ही मेरे सब दुखों का कारण है, और दुनिया के सब दुखों का कारण है।

तो अपनी ही नहीं सोचनी है, अपना पेट इतना महत्वपूर्ण नहीं हो गया कि अपने पेट की ख़ातिर या अपने जबान की स्वाद की ख़ातिर मैं किसी की हत्या कर डालूँ, ये ऊँची कोटी की चेतना होती है।

इंसान के पास विकल्प है कि वो निचली चेतना रखे या ऊँची चेतना रखे। जो इंसान निचले स्तर की चेतना रखे वो हिंसक कहलाएगा निश्चित और जो इंसान ऊँची कोटी की चेतना रखे वो अहिंसक होगा।

तो हिंसक या अहिंसक कहलाने के लिए सर्वप्रथम आपके पास विकल्प होना चाहिए मारने या न मारने का, ठीक। जिनके पास विकल्प ही नहीं है उन पर हम हिंसा का इल्ज़ाम नहीं लगा सकते।

तो जैसे हम शेर, चीतों पर इल्ज़ाम नहीं लगा सकते कि तुमने हिरण को क्यों मारा‌। वैसे ही हम आदमी पर इल्ज़ाम नहीं लगा सकते कि तुमने साँस लेकर के बैक्टीरिया क्यों मारा। क्यों नहीं लगा सकते, क्योंकि आपके पास विकल्प ही नहीं है।

या तो आप ये कह दो की आप जियोगे ही नहीं, लेकिन अगर जियोगे तो साँस लोगे, साँस लोगे तो बैक्टीरिया मरेगा। यहाँ आपके पास विकल्प की सुविधा उपलब्ध ही नहीं है, तो इसलिए ये कृत्य हिंसा का नहीं हुआ।

समझ में आ रही है बात?

हालाँकि मैं निश्चित रूप से स्वीकार कर रहा हूँ, की तुम साँस लेते हो या फल भी खाते हो तो उसमें भी छोटे-छोटे जीवाणु मरते ज़रूर होंगे। लेकिन फिर भी इसको हिंसा नहीं कहा जा सकता।

लेकिन अगर आप बकरे या मुर्गे को मारते हो तो उसको हिंसा निश्चित रूप से कहा जाएगा, क्यों? क्योंकि वहाँ आपके पास क्या उपलब्ध था, विकल्प था। आप चाहते तो न मारते, आपका काम चल जाता।

आपको और कई तरीके के शाक-पत्ते, तरकारी-भाजी उपलब्ध थे, आप अपना काम चला सकते थे, लेकिन आपने जानते-बूझते ग़लत निर्णय करके एक जीव की हत्या करी, इसीलिए ये हिंसा है।

बात समझ में आ रही है?

अच्छा तो क्या इसका ये मतलब की जानते-बूझते किसी की हत्या की जाए तो वो हिंसा ही है, नहीं अभी भी ऐसा नहीं है। समझो। महाभारत पर फिर लौटते हैं।

श्रीकृष्ण, अर्जुन से जानते-बूझते ही तो हत्या करवा रहे हैं, तो भी वो हिंसा नहीं है। माने दूसरे की हत्या अगर ऐसे कारण की वजह से करनी पड़े जो पूर्णतया आध्यात्मिक है, तो वो हिंसा नहीं कहलाएगी।

बात समझ में आ रही है?

अब एक-दो उदाहरण समझ लो। जैसे कानून भी होता है देश का, वो कहता है अगर आपने प्रतिरक्षा में किसी पर गोली चला दी और वो मर गया तो आप दंड के भागी नहीं होओगे कोई आपको मारने चला आ रहा था और सिर्फ़ अपनी रक्षा के लिए आपने उस पर गोली चला दी, तो आप दंड के भागी नहीं होंगे। क्योंकि आपके पास अब कोई विकल्प ही नहीं था और देह को बचाने का अधिकार है आपके पास।

तो दूसरे की हत्या करना भी हमेशा हिंसा नहीं होता। दूसरे की हत्या करना और दूसरे की हत्या करना अपने सीमित स्वार्थ के लिए तब जबकि प्रेम और करुणा का रास्ता खुला हुआ था, वो कहलाता है हिंसा।

बात समझ में आ रही है?

इसी तरीके से आप किसी बहुत ऊँची चीज़ की रक्षा कर रहे हो, सीमा पर एक सैनिक प्रहरी है वो देश के उच्चतम आदर्शों की रक्षा कर रहा है — कल्पना करो — और उन उच्चतम आदर्शों की रक्षा के लिए अगर उसको वध करना पड़ता है युद्ध में, तो यह भी हिंसा नहीं कहलाएगी।

हाँ, दो लोग इसलिए लड़ रहे हैं कि उन्हें एक-दूसरे से पैसा चाहिए या दो लोग इसलिए लड़ गये कि उन्हें एक-दूसरे से इर्ष्या थी या किसी किस्म की क्षुद्र दुश्मनी थी और दो लोग ऐसे लड़ गये और लड़ाई में मर गये, तो ये ज़रूर हिंसा कहलाएगी, क्योंकि इसमें कोई उच्चतर आदर्श शामिल ही नहीं था।

बात समझ में आ रही है?

तो हिंसा क्या है यह समझे बिना यूँही नहीं कह देना चाहिए कि हम अगर चल भी रहे हैं तो भी छोटे-छोटे जीव मर रहे हैं तो ये हिंसा हो गयी न, और अगर हमारे चलने से छोटे जीव मरते हैं तो फिर मुर्गा और बकरा खाने में क्या बुराई है।

तुम अगर ये तर्क दोगे की जीव के मरने से मुर्गा और बकरा खाना जायज़ हो गया तो मैं कहूँगा इसी बात को आगे बढ़ाओ न। जैसे मुर्गा और बकरा जीव है, इंसान भी जीव है। तो फिर हम कहेंगे की हम साँस लेते हैं उसमें बैक्टीरिया मरते हैं, तो अगर हम बैक्टीरिया को मार ही रहे हैं, और ये बात जायज़ है; तो आदमी को मार लो, वो बात भी जायज़ होनी चाहिए।

तो इसलिए बेतुकी बातें और कुतर्क नहीं देने चाहिए, हिंसा का बहुत सटीक अर्थ होता है। हिंसा की बहुत साफ़ परिभाषा होती है। शेर किसी को मारे वो हिंसा नहीं है, ‌तुम साँस लो कोई जीवाणु मर गया वो हिंसा नहीं है।

तुम पर किसी ने आक्रमण कर दिया है और तुमने अपनेआप को बचाने के लिए उसको मार दिया क्योंकि तुम्हारे पास बिलकुल और कोई विकल्प नहीं बचा था — पहली कोशिश तुमने यह करा कि उसको समझाओ या उससे दूर हट जाओ, लेकिन वो चढ़ा ही आ रहा है वो कह रहा, नहीं तुझे मार कर ही दम लूँगा और फिर तुम्हें सिर्फ़ अपनेआप को बचाने के लिए सारे विकल्प ख़त्म हो जाने के बाद, उसको मारना पड़ा। तो वो भी हिंसा नहीं है।

बात समझ में आ रही है?

कोई बहुत ख़तरनाक जानवर तुम पर आक्रमण कर रहा है, कुछ भी हो सकता है, छोटा जानवर भी हो सकता है, जो तुमको हानि पहुँचाने के लिए तुम पर आक्रमण कर रहा है और तुमने पूरी कोशिश कर ली कि मैं इससे दूर हट जाऊँ, ये मुझे नुक़सान न पहुँचाए, लेकिन उसके बाद भी वो मान ही नहीं रहा, वो चढ़ा आ रहा है तुम्हारे ऊपर, उसकी नीयत ही यही है कि वो तुम्हें हानि पहुँचाए, और फिर सिर्फ़ अपनी रक्षा के लिए तुम्हें उसे मारना पड़ा तो यह भी हिंसा नहीं है।

लेकिन पहले तुमने कोशिश पूरी कर ली कि इसे मारना न पड़े, किसी तरीके से यह पीछे हट जाए या मैं दूर हट जाऊँ। लेकिन तुम्हारे सारे विकल्प ख़त्म हो गये। फिर मात्र आत्मरक्षा के लिए तुम्हें उसको मारना पड़ा तो यह भी हिंसा नहीं है।

हिंसा सिर्फ़ कब है, हिंसा सिर्फ़ तब है जब तुम्हारे पास दूसरे को बचाने का व्यावहारिक विकल्प उपलब्ध था, लेकिन फिर भी तुमने अपने क्षुद्र स्वार्थ की ख़ातिर उसे कष्ट पहुँचाया या उसे मार दिया तब हिंसा है। विकल्प होना चाहिए।

अगर विकल्प ही नहीं है दूसरे को बचाने का, तो फिर तुम पर इल्ज़ाम कैसे लगाया जा सकता है कि तुमने कुछ ग़लत किया। भाई, जब आप किसी पर आरोप लगाते हो कि तूने कुछ ग़लत किया तो उसमें यह बात निहित होती है न कि सही करने का विकल्प तेरे पास था, लेकिन तूने उस विकल्प का इस्तेमाल नहीं किया, तभी तो इल्ज़ाम लगा सकते हो न?

अगर किसी के पास जो हो रहा है, उसके अलावा कुछ और करने की सुविधा या आज़ादी या विकल्प ही न हो, तो उस पर कोई इल्ज़ाम लगाना बड़ी बेतुकी बात होगी न।

इसी तरीके से अगर आपको ज़िन्दा रहना है तो सिर्फ़ ज़िन्दा रहने के लिए ही आप कुछ तो खाओगे और निश्चित सी बात है आप जो कुछ भी खा रहे हो, आप चाहे केला खाओ, आम खाओ, सब्जी-भाजी खाओ, उसमें भी कहीं-न-कहीं, कोई-न-कोई, छोटा-मोटा जीवाणु मर रहा है।

लेकिन उसको नहीं हिंसा कहेंगे, न ही उसकी तुलना बकरा, मुर्गा खाने से करी जा सकती है। हालाँकि यह सच है कि मृत्यु वहाँ भी हो रही है। पर वो जो मृत्यु हो रही है वो बचायी नहीं जा सकती थी।

वो एक तरीके से अनिवार्यतः है, आपके अस्तित्वमान रहने की। फिर अगर आपको वो मृत्यु बचानी है तो एक ही विकल्प है, आप शरीर त्याग कर दो क्योंकि वो जो जीव मर रहा है वो तो मर ही इसीलिए रहा है क्योंकि आपके पास शरीर है।

फिर अगर आप वो मृत्यु बचाना चाहते हो तो आपको शरीर त्याग करना पड़ेगा। और भारत में ऐसे ही करोड़ लोग हुए हैं जिन्होंने यह मार्ग भी अपनाया है। अगर तुम जैन दर्शन को देखो तो जो बात मैंने अभी कही जैन दर्शन इसके काफ़ी निकट आ जाता है।

वो कहता है, दूसरे को बचाना है। बचाना है और दूसरे को बचाने के लिए अगर अपने शरीर को बड़े-से-बड़ा कष्ट भी देना पड़े तो तुम ज़रूर दो और यह बात बहुत ऊँची है, बहुत सुन्दर है लेकिन यह बात भी कहीं-न-कहीं जाकर रुक जाती है।

अंततः बड़े-से-बड़ा जैन मुनि भी जब साँस लेता है या ज़मीन पर चलता है तो अपनी पूरी कोशिश और अपनी पूरी करुणा और अपनी पूरी अहिंसा के बाद भी कुछ तो छोटे-मोटे जीव होते हैं जो उसके माध्यम से भी मरते हैं।

तो अगर आपको शून्य हिंसा ही करनी है, अगर आपको कहना है कि नहीं मेरे माध्यम से शून्य ही जीवाणु मरने चाहिए तो फिर तो एक ही विकल्प है शरीर त्याग दो, वो बात चलेगी नहीं, इसीलिए हिंसा की सही परिभाषा जाननी ज़रूरी है।

दोहराइए! हिंसा क्या है? — हिंसा तब है जब किसी को बचाने का विकल्प है लेकिन आपने, अपने संकीर्ण स्वार्थ के चलते उसको बचाया नहीं, आपने उसको कष्ट दिया या आपने उसको मार दिया, तब हिंसा है। बचाने का विकल्प ही न हो तो हिंसा नहीं है यह।

बात समझ में आ रही है आपको?

इसीलिए इतिहास में शुरू से लेकर आज तक किसी ने नहीं कहा कि अगर आप पेड़ की पत्ती खा रहे हो या अन्न खा रहे हो तो ये हिंसा है। क्योंकि इतनी समझदारी सब में थी कि भाई, अगर अपना शरीर चलाए रखना है तो कुछ तो खाना पड़ेगा न।

तो वो खाओ जिसको खाने में कम-से-कम चेतना का ह्रास होता हो, तो पेड़ की पत्ती खा लो, अन्न खा लो, शाक खा लो, फल खा लो। इनमें भी ऐसा ज़रुर होता है कि आप अगर गेहूँ उगाते हो, चावल उगाते हो, तो फिर उसमें जो उसका पौधा है वो कटता है ही।

वो भी एक तरह की हिंसा है, पर वो हिंसा वो है जो न्यूनतम अनिवार्य हिंसा है, आपके अस्तित्व को बचाए रखने के लिए आवश्यक। इसलिए उसे हिंसा कहा भी नहीं जाना चाहिए। वो हिंसा नहीं है। अगर उतना भी नहीं करोगे तो जिओगे नहीं।

लेकिन अगर आप कहोगे कि साहब मैं बकरा नहीं खाऊँगा, तो जीऊँगा नहीं, तो आप झूठ बोल रहे हो और मक्कार हो। बकरा आप जीने के लिए नहीं खाते, मुर्गा तो निश्चित रूप से आप जीने के लिए नहीं खाते। हाँ, मुर्गा कई बार आप पीने के लिए ज़रूर खाते हो, जब बोतल खुलती है, तो उसके साथ मुर्गा अनिवार्य हो जाता है।

तो कोई कहे कि नहीं मुर्गा नहीं खाएँगे तो जियेंगे कैसे, तो झूठी बात है। अब यहाँ पर कुतर्की खड़े हो जाएँगे। तो कहेंगे साहब, उनका क्या जो साइबेरिया में रहते हैं? वो साइबेरिया वाला आये सामने और बात करे तो मैं उसको जवाब दे दूँगा।

अभी जो सवाल कर रहा है, किसी ख़ालिस हिंदुस्तानी ने करा है, तो आप अपनी बात करिए, आपका साइबेरिया से क्या नाता? ठंडी जगहों का अगर नाम लें, तो आप तो कभी हिमालय की चोटी भी न गये होंगे, तिब्बत भी न गये होंगे उत्तर में, साइबेरिया तो बहुत सुदूर उत्तर में हो गया।

तो ज़बरदस्ती साइबेरिया वग़ैरह का उदाहरण लाकर के कुतर्क करने की कोशिश मत करिए, अपनी बात करिए। साइबेरियन आएगा मैं उससे अलग से बात कर लूँगा।

आप अगर किसी प्राणी की जान तब ले रहे हो जब उसकी जान लिए बिना भी आप जी सकते थे तो ये हिंसा है। आप किसी प्राणी की जान तब ले रहे हो जब वो आपको नुक़सान पहुँचाने नहीं आ रहा तो ये हिंसा है।

या तो आप ये सिद्ध कर दो कि आप जिस मुर्गे को या बकरे को काट के खा रहे हो, वो आपके खून का प्यासा था इसलिए आपने उसको मार दिया, तो मैं कहूँगा बिलकुल ठीक किया।

भाई, आपके ऊपर चढ़ा आ रहा था बकरा, अपने तीन-तीन फुट लम्बे दाँत लेकर के और अपने पैने पंजों से आपकी गर्दन पर वो आक्रमण कर रहा था और बकरे तो होते ही हैं माँसाहारी, जैसा हम जानते हैं और बकरे तो खास तौर पर इंसानों को मारकर, काटकर खाना पसन्द करते हैं।

तो बकरे ने आप पर इतना ज़बर्दस्त आक्रमण किया तो अपनी आत्मरक्षा में आपने बकरे को मार दिया। चलिए कोई बात नहीं ये हिंसा नहीं हुई, या तो आप ये साबित कर दीजिये कि ऐसा है।

तुम अपनी ज़बान के स्वाद की ख़ातिर अरबों पशुओं को रोज़ मारते हो और उसके बाद इस तरीके के छिछोरे कुतर्क करते हो कि बकरे को मारा तो क्या हो गया?

हम जब मुँह धोते हैं तो मुँह धोने में भी तो कई जानवर मर जाते हैं। जब हम माउथवॉश का इस्तेमाल करते हैं तो वो भी तो कई बैक्टीरिया को मार देता है, उसमें तो लिखा ही होता है कि निन्यानवे प्रतिशत ज़र्म (कीटाणु) से आपको मुक्ति दिला देगा।

कोई पूछने आया था कि कोरोना के ख़िलाफ़ जो वैक्सीन बन रही है तो हिंसा हुई न? क्या कोरोना को जीने का हक़ नहीं है? इस तरह के कुतर्की, और वो ये बात क्यों बोल रहा है कि कोरोना को जीने का हक़ नहीं है? क्योंकि उसको मटन बिरयानी बहुत पसन्द है, तो किसी भी हाल में इस बात को जायज़ ठहराना चाहता है कि साहब मटन-बिरयानी तो मैं खाऊँगा-ही-खाऊँगा और मटन को जायज़ ठहराने के लिए मुर्गे के खून को, बकरे के क़त्ल को जायज़ ठहराने के लिए वो कह रहा है कि कोरोना को भी तो जीने का हक़ है न!

अरे! भैय्या, कोरोना अगर जाकर के कहीं जंगल में जिये तो उसे पूरा हक़ है जीने का, कौन कह रहा है कि उसे नहीं जीना चाहिए। और अगर कोरोना जंगल में होता तो कौन उसके ख़िलाफ़ वैक्सीन इजाद करने जाता।

लेकिन कोरोना अगर आपके ऊपर चढ़ा आ रहा है और आपके प्राण ले रहा है तो फिर उसको मारना हिंसा नहीं कहलाएगा, क्योंकि वो आपके ऊपर चढ़ा आ रहा है। आपने उसका कुछ नहीं बिगाड़ा, लेकिन वो आपका बिगाड़ना चाहता है। अब आप अपनी आत्मरक्षा में उसको मार रहे हो तो ये हिंसा नहीं कहलाएगी।

लेकिन कुतर्कियों की कोई कमी नहीं है, वो आएँगे, कहेंगे देखिए आप अगर फल खाते हो तो वो भी हिंसा है। क्या पेड़-पौधों में जान नहीं होती? और जहाँ वो कहेंगे पेड़-पौधों में जान नहीं होती उसके बाद वो तुरन्त जाएँगे और एक भैंसा मारकर खा जाएँगे। कहेंगे देखो, तुम सेब खा रहे हो हम भैंसा खा रहे हैं, बिलकुल एक ही तो बात है। अगर सेब बराबर भैंसा तो फिर भैंसा बराबर इंसान। तो फिर तो इंसान को मारकर खाना भी जायज़ हुआ न, इंसान को मारकर क्यों नहीं खाते?

तो ये सब बातें मत करिए। जहाँ मारने की ज़रूरत नहीं वहाँ मत मारिए, बात बहुत सीधी-साधी है, दूसरे की जान लिए बिना, दूसरे को दुख पहुँचाये बिना, अगर आप जी सकते हो तो जियो, सीधी सच्ची बात है। इसी का नाम अहिंसा है।

मुझे अभी ख़त्म करते-करते जर्मन दार्शनिक हैं महान विचारक आर्थर शोपेनहावर — उनकी एक पंक्ति याद आ रही है, उन्होंने कहा है — अब हिंदी में अनुवाद कर रहा हूँ, तो कुछ ऊपर-नीचे हो जाएगा — कि “एक साफ़, सच्चे सुसंस्कृत मन की निशानी ही यही है कि उसमें जानवरों के प्रति प्रेम ज़रूर होगा, ऐसा हो नहीं सकता कि आप एक अच्छे और ऊँचे आदमी हों और जानवरों के प्रति हिंसा भी करते हों।“ दूसरे शब्दों में:-

यह हो ही नहीं सकता कि जानवरों के प्रति हिंसा करने वाला कोई आदमी अच्छा और ऊँचा हो, नहीं हो सकता ऐसा।

तो थोड़ा विचार करिएगा — जिन्होंने जाना है, जिन्होंने समझा है आदि काल से आज तक, मनीषी, चिंतक, विचारक सब अगर एक ही बात बोल गये हैं, तो उनकी बात में कुछ तो दम होगा न।

एक तरफ़ उनकी बातें हैं, दूसरी तरफ़ आपके ये नये-नये अनूठे तर्क कि अगर हम कंघी करते हैं तो उसमें भी तो जुएँ मर जाते हैं, तो फिर ये भी तो हिंसा है।

तो इन तर्कों को सामने लाने से पहले थोड़ा विचार किया करिए और अपनेआप से पूछा करिए कि माँसाहार के पक्ष में आप जितने भी तर्क दे रहे हैं वो तर्क उठ कहाँ से रहे हैं? वो तर्क वास्तव में आपके भीतर की कठोरता, निर्दयता, करुणा हीनता और स्वाद लोलुपता से उठ रहे हैं।

बस ज़बान के स्वाद का खेल है और कुछ नहीं, थोड़ा समझिए।

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