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लेख
माँ की बच्चे के प्रति वास्तविक ज़िम्मेदारी क्या? || (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: एक माँ होने के नाते मेरी वास्तविक ज़िम्मेदारी क्या है?

आचार्य प्रशांत: अब ज़िम्मेदारी का तो अर्थ ही हुआ न मुक्ति। हमनें कहा कि बच्चा पैदा होता है बंधनों में, तो बच्चे की अपने प्रति ज़िम्मेदारी हो या बच्चे के हितैषियों की बच्चे के प्रति ज़िम्मेदारी हो, सबकुछ एक ही बात पर आ गया, क्या? मुक्ति, बच्चे को मुक्ति दो। तो उसको इस तरीके से सिखाना होगा, बड़ा करना होगा कि मुक्त होता चले और मुक्ति के लिए उसके मन में प्यार गहराता चले। यही ज़िम्मेदारी है और ये अच्छी-सच्ची-वास्तविक ज़िम्मेदारी है।

ज़िम्मेदारी गड़बड़ बात नहीं है पर ज़िम्मेदारी के नाम पर दूसरी चीज़ें करने लग जाएँ तो गड़बड़ है। बच्चे की माँ हो, बच्चे का शिक्षक हो, चाहे कोई भी हो अगर वो किसी बच्चे को मुक्ति की दिशा में तैयार और प्रेरित कर रहा है तो ये प्रेम भी है, ज़िम्मेदारी भी है, दोनों एक ही बात हैं। देखिए, दो तरह के प्रेम होते हैं — एक तो प्रेम उसकी तरफ़, जिसको परम-प्रेम कहते हैं, 'इश्क़-ए-हक़ीक़ी' और दूसरे हमारे प्रेम के ताने-बाने होते हैं ज़मीन पर, पृथ्वी पर, पार्थिव-प्रेम। और पार्थिव-प्रेम में इंसान का इंसान से, इंसान का ज़मीन से, इंसान का जानवरों से, नदियों से इन सब से नाता होता है, इसको बोलते हैं — 'इश्क़-ए-मज़ाज़ी'। वहाँ जाते हैं अपनी मुक्ति के लिए, वहाँ जहाँ वो प्रेम है, वहाँ उससे क्या नाता होता है? तेरे पास आ रहे हैं क्योंकि तेरे पास आकर ही आज़ादी मिलेगी। और ज़मीन पर दूसरों के प्रति प्रेम का क्या अर्थ होता है? जब आप कहते हैं कि, "मैं इस इंसान से प्यार करता हूँ", तो उसका वास्तविक अर्थ क्या होता है? कि मैं दूसरे को वो देना चाहता हूँ जो मैं वहाँ जाकर पाना चाहता हूँ।

माँ को बच्चे से प्रेम है वो प्रेम सच्चा-शुद्ध तभी हो सकता है जब माँ बच्चे को उसकी (परमात्मा की) संगत देना चाहे। 'इश्क़-ए-हक़ीक़ी' का मतलब हुआ — मैं सीधे उसके प्रेम में पड़ गया। 'इश्क़-ए-मज़ाज़ी' का मतलब हुआ — मैं दूसरे के लिए वो माध्यम बन गया जो दूसरे को उस तक ले जाएगा, ऊपर तक। समझ रहे हो बात को?

तो प्रेम तो जहाँ भी है, उसका ताल्लुक ऊपरवाले से ही होगा। जहाँ प्रेम का मतलब नीचे वाले का संबंध नीचे वाले से हो गया, वो प्रेम नहीं है फिर नर्क है। समझ रहे हो बात को? अगर प्रेम का मतलब ये हो गया कि मेरा और तुम्हारा नाता, तो ये नर्क हो गया क्योंकि इसमें आप हो और आपका नातेदार है, परमात्मा नदारद है। जिस जगह से परमात्मा नदारद है उसको क्या कहते हैं? नर्क। तो ये नर्क है। जिस संबंध में भगवत्ता ना हो उसी संबंध को कहते हैं नर्क।

तो या तो प्रेम होगा ऊपरवाले से आपका सीधा नाता या प्रेम होगा दो इंसानों का ऐसा नाता जहाँ दोनों एक दूसरे को वहाँ तक (परमात्मा तक) ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। और अगर दोनों एक दूसरे को वहाँ तक ले जाने की कोशिश नहीं भी कर रहे हैं तो कम-से-कम उन दोनों में से एक ऐसा है जो दूसरे का हाथ पकड़कर उसे वहाँ ले जाना चाहता है। अब ये कहा जा सकता है कि ये रिश्ता प्रेमपूर्ण है।

दूसरे को वहाँ तो तब ले जाएँगी जब आप पहले खुद तैयार हों। तो जाइए आपको इश्क़ हो, आपको अपने बेटे की ख़ातिर इश्क़ हो। आप अपने बेटे को वहाँ तक तभी तो ले जा पाएँगी जब पहले आपको उससे (परमात्मा से) इश्क़ होगा। तो समझ रहे हो न, 'इश्क़-ए-मज़ाज़ी' के लिए भी क्या ज़रूरी है? 'इश्क़-ए-हक़ीक़ी', और 'इश्क़-ए-हक़ीक़ी' के लिए क्या ज़रूरी है? 'इश्क़-ए-मज़ाज़ी'। क्योंकि आप नहीं होंगी तो आपके बेटे को वहाँ तक कौन लेकर जाएगा?

इन दोनों का पार्थिव-प्रेम ज़रूरी है। इन दोनों का लौकिक-प्रेम बहुत ज़रूरी है ताकि आपके बेटे को अलौकिक-प्रेम हो सके। वो गुरु और शिष्य का रिश्ता होता है। गुरु और शिष्य का रिश्ता पार्थिव ही होता है, लौकिक ही होता है क्योंकि एक जीव है, दूसरा भी तो जीव-रूप में ही है न? तो पार्थिव रिश्ता तभी अच्छा है जब वो दोनों को अपार्थिव के प्रेम में डाल सके। बात समझ रहे हो? नीचे वाले के लिए ऊपरवाला ज़रूरी है और ऊपरवाले तक नीचेवाला पहुँच सके इसके लिए नीचेवाला ज़रूरी है। नीचेवाला नहीं तो ऊपरवाले तक कैसे पहुँचेगा अगर उसे ज़मीन पर कोई ना मिला जो उसे राह दिखाए?

"गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, गोबिंद दियो मिलाय" — गुरु ना होगा, नीचेवाला ना होगा तो ऊपरवाले से कौन मिलाएगा? तो 'इश्क़-ए-मज़ाज़ी' भी बहुत ज़रूरी है। बहुत ज़रूरी है कि ज़मीन पर भी तुम्हें किसी से प्यार हो। ज़मीन पर अगर तुम्हें किसी से प्यार नहीं हुआ तो आसमान तक तुम्हें कौन लेकर जाएगा? और अगर आसमान से तुम्हें प्यार नहीं हुआ तो ज़मीनवाले के तुम किस काम के? फिर फँस गई बात।

प्र: परिवार के बड़े लोग मेरे बेटे की अनुशासनहीनता के लिए मुझे ही दोषी ठहराते हैं, उसको अनुशासन की शिक्षा कैसे दूँ?

आचार्य: डिसाइपल (अनुयाई) बनेगा?

श्रोता (प्रश्नकर्ता का बेटा): जी।

आचार्य: तो हो गया डिसिप्लिंड (अनुशासित)।

प्र: लेकिन इसके पिताजी भी यही कहते हैं कि बच्चे पर माँ होने के नाते तुम्हारा नियंत्रण होना चाहिए, तुम्हारी सुनता नहीं है क्योंकि तुम्हारा इससे बहुत ज़्यादा मोह है।

आचार्य: मोह तो गड़बड़ है। एक सवाल पूछा करिए — उसके वास्तविक हित में क्या है? फिर वो बात अच्छी लगे तो अच्छी, बुरी लगे तो बुरी, कर डालिए बस। ईमानदारी से अपने-आपसे पूछिए — उसके लिए वाकई हितकर क्या होगा? और फिर वो जो कुछ भी लगे, कर डालिए।

प्र: हालाँकि ये आपके पास आने के लिए तुरंत तैयार हो जाता है परन्तु और दूसरी बातें नहीं मानता।

आचार्य: जीव ही तो पैदा हुआ है। जीव में दोष देखें तो कोई ताज्जुब मत किया करिए। हाँ, कोई जीव ऐसा मिल जाए जो कहे — मैं निर्दोष हूँ, तो चार कदम पहले पीछे हट जाइए फिर बात करिए। वहाँ धोखा होगा। जीव में अगर दोष और विकार दिख रहे हैं तो इसमें अचम्भा क्या है। जीव ही तो पैदा हुआ है। कुछ तो वो करेगा न? 'छोटन को उत्पात', कभी इधर कुछ करे, कभी उधर। अभी देखिए उधर देख रहा है बात कर रहा हूँ तो। पृथ्वी पर ही तो आया है, यहाँ तो जो है उसी में खोट है। कुछ तो करेगा, ठीक है।

आप अपने धर्म का लगातार ध्यान रखें। आपका धर्म ये देखना नहीं है कि आपका स्वार्थ कहाँ है और माँ के स्वार्थ के बड़े तार जुड़े होते हैं संतानों से। आप उसके हित का ख़्याल करिए। उसके लिए सर्वोत्तम क्या है? ये जानने के लिए आपको लगातार उधर जुड़े रहना होगा। आप वहाँ जुड़ी रहिए, साफ़ नज़रों से उसको देखिए, उसकी मदद होगी। बाकी ये सब जो सामाजिक बातें होती हैं कि डिसिप्लिन (अनुशासन) और ये और वो, उनकी कोई बहुत महत्व नहीं है। मैं ये भी नहीं कह रहा हूँ कि इंडिसिप्लिंड (ग़ैर-अनुशासित) रहे, मैं ये कह रहा हूँ कि असली चीज़ ये डिसिप्लिन-इंडिसिप्लिंड से ऊपर की होती है।

प्रेम में बड़े-बड़े लोग अनुशासित हो जाते हैं अपने-आप। उसको ये पता चल गया कि कौन-सी चीज़ें पसंद करने लायक हैं, तो वो अपने-आप अनुशासित ही चलेगा। उसकी पसंद ठीक रखें। बहुत चीज़ों पर जल्दी यक़ीन आ जाता है, उन चीज़ों के बारे में उनको सवाल करना सिखाएँ।

अब वो इस उम्र में है जहाँ दुनिया उसे बहुत सारे पैग़ाम देगी लगातार, ये है ऐसा है वैसा है। बाज़ार से बहुत सारे संदेश आएँगे। उसमें एक क्षमता विकसित करें कि वो सवाल कर सके। इस उम्र में बहुत ज़रूरी है सवाल कर पाना, चुनौती दे पाना कि, "ये ऐसा क्यों है? और ये जो मुझे बात बताई जा रही है क्या ये बात ठीक है? टीवी में जो ये आ रहा है ये क्या बोल रहा है और ऐसा क्यों बोल रहा है?"

दस पार करने के बाद थोड़ा विद्रोह उठे तो अच्छा है क्योंकि वो विद्रोह नहीं उठेगा तो वो इन्हीं सब चीज़ों में सम्मिलित हो जाएगा। अगर वो इन चीज़ों के प्रति विद्रोह नहीं करेगा तो फिर वो इन्हीं का हिस्सा बन जाएगा।

प्र: जैसे ये फ़ोन माँगता है।

आचार्य: सवाल करें। जैसे फ़ोन माँगता है तो पूछे, खुद ही पूछे — सबके पास फ़ोन क्यों है? लोग फ़ोन पर करते क्या हैं? फ़ोन में ज़्यादातर समय कहाँ जाता है? उसके पास बहुत सारे प्रश्न होने चाहिए और आपके पास उत्तर होने चाहिए। अब जैसे फ़ोन की चाहत भी कोई आत्मिक चाहत तो है नहीं। ये भी उसे दुनिया ने ही सिखाया है। आस-पास के लड़कों के फ़ोन आ गए होंगे। टीवी पर विज्ञापन आ रहे हैं फ़ोन के। ये सब चल रहा है। तो उसके भीतर ये बात हो कि, "सब फ़ोन लेकर क्यों घूम रहे हैं? फ़ोन का वास्तविक उपयोग क्या है?" उसके बाद आप फ़ोन भले ही दिला दो, मैं फ़ोन के लिए मना नहीं कर रहा। लेकिन मूलभूत जिज्ञासा ज़रूर हो।

प्र: आजकल बच्चे वो कोई नया गेम आया है न 'पब्जी', उसपर डेढ़-डेढ़ घण्टा खेलते ही रहते हैं।

आचार्य: कोई बात नहीं, 'पब्जी' की बात नहीं है, बात ये है कि वो और बातें पूछता है कि नहीं। कोई गाड़ी पर क्यों चल रहा है, कोई साईकिल पर क्यों चल रहा है? ये सवाल ज़रूरी है वो पूछे। किसी के पास पैसा क्यों है, क्यों नहीं है? कोई हँस क्यों रहा है कोई रो क्यों रहा है? वो ये सब बातें पूछे। बाकी तो देखिए, जिसके समय में जो खेल चलते हैं वो ही खेलेगा। आप साँप-सीढ़ी खेलते थे, आपसे चार-सौ साल पहले तो साँप-सीढ़ी नहीं खेली जाती थी। अब वो जो भी खेलता है पब्जी-सब्जी, वो आज खेल रहा है। जीवन के मूलभूत प्रश्नों को लेकर के उसमें संवेदना होनी चाहिए। माँस की दुकान के सामने से निकले तो उसे ये पूछना चाहिए कि ये जानवर क्यों मरा। हवाई-जहाज़ को देखे तो पूछे कि, "इतने लोग कहाँ जाते हैं बैठ करके और क्यों जाते हैं? एक आदमी के लिए ज़रूरी क्यों है दूसरी जगह जाना?" पूछे, "ये दीया क्या है? क्यों जल रहा है? कोई लाभ है इससे, कोई बात है? क्योंकि बल्ब तो जल रहे हैं तो इसकी रौशनी क्यों चाहिए?" ये बातें उसे पूछनी चाहिए। भले बेतुकी लगे ये बातें पर पूछे ज़रूर।

प्र: फ़ोन के पीछे समय बहुत बर्बाद होता है।

आचार्य: नहीं, फ़ोन को लेकर मेरा कोई नज़रिया नहीं है। बात ये है कि वो फ़ोन पर क्या करेगा। चित्त अगर साफ़ है तो फ़ोन उसके काम आएगा और चित्त अगर रुग्ण है तो फ़ोन का दुरूपयोग करेगा। चित्त सही होना चाहिए न, साफ़ होना चाहिए। छोटी-छोटी बातों में जिज्ञासा हो, संवेदना हो, सहानुभूति हो दूसरों के प्रति। जिन्हें गुण कहा जाता है न, सद्गुण, वो सद्गुण हो उसमें। कहीं किसी को गिरा देखे तो आपसे पहले उसके मन से ये निकलना चाहिए कि उसको उठा दे। भिखारी को देखे तो उसके मन में ज़रा करुणा आनी चाहिए। ये बातें आवश्यक हैं। ये बातें ठीक हैं तो फिर फ़ोन दे दीजिए कोई फ़र्क नहीं पड़ता।

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