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लेख
मान ही लिया है या जानते भी हो? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
14 मिनट
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प्रश्न: सर, ये बात तो पक्की ही है कि हम दूसरों की इसलिए सुनते हैं, 100 आदमियों की इसलिए सुनते हैं क्यूँकी हम ख़ुद जान नहीं पाते। हम जानने से मना कर देते हैं, हम जान नहीं पाते। तो कैसे हम किसी भी चीज़ को जाने?

वक्ता: कुछ भी कैसे जाना जाता है? अभी मैं कुछ कह रहा हूँ तुमसे, तुम कैसे जानोगे? तुम कह रहे हो कि दूसरों की बात इसलिए सुननी पड़ती है, उनको महत्त्व इसलिए देना पड़ता है क्यूँकी ख़ुद कुछ पता नहीं तो पूछ रह हो कि खुद कैसे जाने। कुछ भी कैसे जाना जाता है? अभी मैं कह रहा हूँ तो कैसे जानोगे कि क्या कह रहा हूँ? कैसे जानोगे? सुन कर के ना? सुन कर के। जीवन को सुनो और जीवन क्या है? जीवन यहाँ से 2000 कि.मी दूर, किसी और गृह पर या किसी और आकाश गंगा में तो नहीं है। जीवन क्या है? जीवन कल, परसों या आज से 6000 साल बाद भी नहीं है। जीवन कब है? और कहाँ है? इसी को सुनो। जैसे मुझे जानने के लिए सुन रहे हो न। देखो, अभी अपने-आप को स्थिर बैठे हो, आँखें गड़ा रखीं हैं कोई और हलचल नहीं, इधर-उधर से कोई विक्षेप नहीं, ठीक इसी तरह से जीवन को भी देखो, सुनो, जानो।

ये जो देखा है जो लोग सपने में चलते हैं कभी इनको, सोते-सोते चलते हैं? वैसे न देखा हो, फिल्मों वगैरह में देखा होगा। अब वो सो रहा है आँखें बंद हैं और वो चल रहा है और अक्सर ये लोग जो सपने में चल रहे होते हैं ये अक्सर कहीं न कहीं पहुँच भी जाते हैं। कोई बड़ी बात नहीं कि घर से दफ़्तर तक चला जाए। दूर से देखोगे तो तुम्हें लगेगा कि ये आदमी चल रहा है, सामान्य तरीके से चल ही तो रहा है। जब करीब जाओगे, ध्यान से देखोगे तब जान पाओगे कि चल तो रहा है पर जान नहीं रहा ये कर क्या रहा है। हम सब जीवन में ऐसे ही चलते हैं। कर तो रहे होते हैं पर हमें कुछ पता नहीं होता हम कर क्या कर रहे हैं, क्यूँ रहे हैं, हो क्या रहा है? जो आदमी अपनी नींद में चलते-चलते घर से दफ्तर तक पहुँच जाता है वो अपनी आदत का गुलाम है उसे देखना ही नहीं पड़ रहा। उसको रट गया है रास्ता, उसे नींद में भी पता है 70 कदम इधर चलो, 500 मीटर उधर चलो फिर यूँ मुड़ जाओ दफ़्तर आ जाएगा। ठीक इसी तरीके से हमें भी कुछ बातें पता लग गयी हैं जो करनी हैं, आदत लग गई है करे जा रहे हैं, क्यों कर रहे है ये पता नहीं।

सुबह से लेकर शाम तक 24 घंटे जीवन को देखो तब समझ आ जाएगा कि जागृति कितनी है। इस देखने को ही कहते हैं जानना। अपनी आँखों से ज़िन्दगी को देखो और फिर जो दिखाई दे उसको अस्वीकार मत कर दो। ये मत कह दो कि जो दिख रहा है उसको हम देखना नहीं चाहते। और मैं तुमसे पक्का कह रहा हूँ जो तुम्हें दिखाई देगा वो शायद तुम्हें भला ना लगे। तुम्हें दिखाई देगा कि जिनको तुमने अपना आदर्श माना था वो बौने हैं, तुमको दिखाई देगा कि तुम जिन रास्तों पर चल रहे थे उन पर काँटों और दुःख के अलावा और कुछ नहीं है। तो इसी लिए हम जब देखते भी हैं तो, जल्दी से आँखें बंद भी कर लेते हैं क्यूँकी जो दिख रहा होता है वो बड़ा असहनीय होता है। जैसे कोई आईना देखे और उसे अपनी शक्ल बड़ी कुरूप दिखाई दे। तो वो क्या करेगा जल्दी से अपनी आँखें ही बंद कर लेगा कम से कम अब वो कल्पनाओं में ये मान तो सकता है न कि मैं सुन्दर हूँ। आँख बंद कर लो।

तो दो बातें हैं पहला आँख खोल कर के जीवन को देखो और मैं कह रहा हूँ जीवन बड़ी सरल चीज़ है, कहीं दूर नहीं है, कभी और नहीं है। न दूर है, न कभी और है। यहीं है और अभी है। तो उसको देखो और जो दिखाई दे तो हिम्मत रखो कि इसको मानूँगा, अस्वीकार नहीं करूँगा। बस ऐसे ही जाना जाता है इसके अलावा जानने का कोई तरीका नहीं।

जीवन एक मात्र गुरु है। जीवन को देखो सब दिखने लगेगा।

देखो अपनी चारों ओर की ज़िन्दगी को, कभी खड़े हो जाओ सड़क किनारे या घर की छत पर खड़े हो जाओ और देखो आते-जाते लोगों को और ऐसे मत देखो कि ये तो मैं जानता ही हूँ कि लोग हैं, ट्रैफ़िक चल रहा है, लोग घर जा रहे हैं, घूमने जा रहे हैं जो भी कर रहे हैं, ऐसे मत देखो। ऐसे देखोगे तो कुछ जान नहीं पाओगे। वैसे देखो जैसे कोई बच्चा देखे, वैसे देखो जैसे दूसरे गृह से आया हुआ कोई प्राणी देखे।

तुम नहीं जानते कि ये क्या हो रहा है, तुम पूछो अपने-आप से ये इतना बड़ा लोहे का डब्बा है, उसमें चार पहिये लगे हैं, उसमें एक आदमी बैठा है, ये क्या हो रहा है? एक आदमी को कहीं जाना है वो अपने साथ ये 1200 किलो लोहा क्यूँ लेके जा रहा है? ये सवाल कभी पूछा अपने आप से? आदमी कितने किलो का? 60 किलो का। लोहा कितना है? 1200 किलो। बच्चा ये सवाल पूछेगा, बड़े पूछते ही नहीं। एक 60 किलो का आदमी जा रहा है वो अपने साथ 1200 किलो का लोहा लेकर क्यूँ जा रहा है? 20 गुना? और इसको वो सुख कहता है? खड़े हो जाओ, पूछो।

चौराहे पर खड़े हो जाओ और पूछो शाम के 7 बज रहे हैं, ये सारे लोग यहाँ पर क्यूँ खड़े हैं, ये क्या कर रहे हैं? और एक साथ क्यूँ है? और ये कहाँ से आ रहे हैं? क्या ये सुखी लग रहे हैं? ये सब पूछो अपने आप से। ऐसे मत कहो हाँ-हाँ शाम का समय है ट्रैफिक तो होता ही है। ये तो बड़ों वाली बात हो गई। बच्चों वाली बात करो। ज़रा पूछो अपने आप से ये कहाँ से आ रहे हैं? क्या ये सुखी लग रहे हैं? और अगर ये यदि सुखी नहीं लग रहे तो फिर ये रोज़ वहाँ जाते ही क्यूँ हैं जहाँ रोज़ जा रहे हैं और फिर अगली सुबह उनकी शक्ल देखो और पूछो ये ऐसा नहीं है कि ये जब लौट रहे हैं तब ही दुखी हैं, ये तो जाते हुए भी ऊबे हुए ही लग रहे हैं, इनके चेहरों पे कोई आनंद नहीं। ये खिले हुए नहीं लग रहे। अभी सुबह है लेकिन ये अभी से थके हुए ही लग रहे हैं और अगर ये अभी से ही थके हुए लग रहे हैं तो रोज़ ये जा ही क्यूँ रहे हैं जहाँ ये जा रहे हैं। ऐसे ही जाना जाता है जीवन को। बिलकुल जान जाओगे लेकिन उसके लिए बड़ी साफ़ आँखों से बड़ी निर्मल आँखों से दुनिया को देखना पड़ेगा।

अभी त्योहार मना कर आ रहे हो, पूछो अपने आप से त्यौहार माने क्या? ठीक-ठीक बताओ ये हम कर क्या रहे हैं? ऐसे नहीं कि हाँ दिवाली है, दशहरा है इस पर तो ये करना ही होता है। ये जीवन का संविधान है कि करो, तो हम कर रहे हैं। नहीं, ऐसे नहीं। तो पूछो, जैसे कोई बच्चा पूछे जब पहली बार देखे। ये क्या जलाया और क्यूँ जलाया? नहीं ट्यूब लाइट तो पहले से ही जल रही थी तो इस कमरे में दीया क्यूँ जलाया? अच्छा तो दीये का कोई और सांकेतिक महत्त्व है। क्या महत्व है दीये का? नहीं पता आपको? जब नहीं पता तो जलाया क्यूँ?

इतना बड़ा बल्ब है तो फिर ये क्यूँ जलाया? उसमे से धुआँ उठा। ये आवाज़ क्यूँ करी, आवाज़ क्यूँ करी। आवाज़ तो वैसे ही बहुत है, ये आवाज़ क्यूँ कर रहे हो आप? ये भट्ट-भट्ट, बम-बम (पटाखों की आवाज़ की ओर इशारा करते हुए) ये क्या हो रहा है? पूछो न कभी पूछते ही नहीं ऐसे चलते हो जैसे ठीक, एक पटरी बनी हुई है उस पर ट्रेन चली जा रही है। पूछने का सवाल ही नहीं पैदा होता कि, क्या है? दाएँ-बाएँ होने का सवाल ही नहीं पैदा होता क्यूँकी ढर्रा बना हुआ है, उस पर रेल चली जा रही है।

ऐसे ही जाना जाता है पक्का समझ लो जानने का कोई और तरीका नहीं है। तुम अगर ये कहोगे कि मैं किताबें पढ़ के जान जाऊँगा, नहीं जान पाओगे क्यूँकी किताबें तुमसे जो कह रही है वो अभी तुम्हारी अनुभूति ही नहीं है तो तुम कैसे समझोगे? किताब तुमसे कह रही है ‘लाल और लाल,’ तुमने कभी देखा ही नहीं तो उस शब्द का तुम्हारे लिए कोई अर्थ रहेगा? कोई व्यक्ति है जिसने लाल कभी देखा ही ना हो और किताब उससे कहे शब्द ‘लाल’ अब उस ‘लाल’ शब्द का उसके लिए कोई अर्थ रहेगा? नहीं रहेगा ना। पहले तुम्हें पता होना चाहिए लाल फिर किताब पढ़ो। तो किताबें भी तुम्हारे तब ही काम आएँगी जब तुमने जीवन को जान रखा हो। जिसने जीवन को नहीं जाना , किताबें भी उसकी कोई मदद नहीं कर सकती।

सारा खेल ध्यान का है और ध्यान से आते बोध का है। मैं ये अभी जो भी तुमसे कर रहा हूँ ये सब ध्यान की ही तो बातें कर रहा हूँ और कमाल की बात ये है कि ध्यान की बातें भी तुम सिर्फ ध्यान में ही समझ सकते हो। मैं जो कुछ कर रहा हूँ वो इसी लिए कर रहा हूँ कि तुम ध्यान में उतर सको लेकिन, मेरे शब्द भी तुम्हारे काम तभी आएँगे जब तुम पहले से ध्यान को जानते हो। अब उसमें एक गनीमत की बात है। गनीमत की बात ये है कि ध्यान की ताकत सब में होती है। पहले से ही होती है, सदा से ही होती है तुम्हारे पास भी है। उसी ताकत का उपयोग करो सब जान जाओगे किसी और की ज़रुरत नहीं है। मैं भी तुमसे जो कुछ कहता हूँ, ये जो पूरी प्रक्रिया चल रही है, एक के बाद एक शनिवार की वो इसीलिए नहीं है कि हम तुम्हें कुछ नयी बात बोल दें। नया कुछ बोलने को है ही नहीं।

ये सब बातें इसलिए नहीं है कि तुम्हें कुछ नया सिखा-पढ़ा दिया जाए, क्या नया सिखा-पढ़ा दिया जाएगा? ये सारी प्रक्रिया सिर्फ इसी बात की है कि तुम ध्यान में उतर सको, जो ध्यान में उतरेगा उसे सत्य स्वयं दिख जाएगा बात समझ रहे हो? तुमको कोई नयी विचार-धारा देने की कोशिश नहीं की जा रही है। विचार धारा तुम्हारे पास पहले से ही बहुत सारी हैं, बहुत पढ़े-लिखे हो, बहुत जानते हो, इधर-उधर से खूब सुन रखा है। तुम्हें अब और क्या बताया जाए? बात इसकी है कि क्या तुम्हारे पास वो ध्यान है, जिसमें तुम ये देख सको कि तुम्हारे मन में जो कुछ भरा हुआ है उसकी क्या कीमत है? उस ध्यान की, जागृति की कोशिश की जा रही है।

अभी यहाँ से जाओगे बस देखते चलना और तुम पाओगे एक-एक पल जीवंत हो गया है। एक-एक पल कुछ सिखा रहा है। अभी तुम्हारे आस-पास लोग बैठे हैं, इनकी अभी की अवस्था देखो और तीन बजे जब बाहर निकलेंगे इनकी तब हालत देखना और तुम तुरंत कुछ जान जाओगे बिना किताब में पढ़े। ये क्या हुआ? तुरंत लेकिन उसके लिए तुम्हें ध्यान देना होगा, तुम्हें ये मान के नहीं बैठना होगा कि हाँ ये तो होता ही है। जब कॉलेज ख़त्म होता है, तो हुडदंग तो होता ही है। तुम अगर ये पहले से ही मान के बैठ गए तो फिर तुम्हें कुछ समझ नहीं आएगा इसलिए मैंने कहा कि बच्चे की तरह देखना, जैसे कोई बच्चा देखे पहली बार कि ये क्या हुआ एक घंटे पहले तो ये लोग इतने शांत थे और अचानक कहाँ गयी वो शान्ति? तो शान्ति माने क्या फिर? तो समझ जाओगे कि शान्ति माने क्या और ये भी समझ जाओगे कि शान्ति के सहायक कारण क्या हैं? आ रही है बात समझ में?

सुबह जब आते हो तो देखो कि कैसे आते हो? देखो उदाहरण के लिए कि कैसे पकड़ते हो तुम अपने रजिस्टर्स को और ऐसे मत करो कि सभी ऐसे पकड़ते हैं। पूछो, अपने आप से कि ये हमने किस तरह से पकड़ रखा है। ये हम कर क्या रहे हैं? जब अपने क्लास रूम में जाते हो तो देखो कि कौन सी कुर्सियाँ हैं जिन पर पहले जाकर बैठ जाना चाहते हो? आगे वाली कि पीछे वाली और पूछो अपने आप से कि ये क्या चला?

ये हुआ क्या? क्या हुआ ये? कह मत दो कि ये तो होता ही है ये तो होना ही था। नहीं, होना नहीं था किसी ने तय नहीं कर रखा था कि होना है। हो रहा है और और तुम्हें जानना चाहिए कि क्या हो रहा है और क्यूँ हो रहा है? ये मत कहो कि अब उम्र आ गई है तो अब इस तरीके के काम तो जीवन में होंगे ही। पूछो, नही क्यूँ? पर क्यूँ? नौकरी माने क्या? पैसा, कमाना माने क्या? शादी माने क्या? परिवार माने क्या? बच्चे पैदा करना माने क्या और क्यूँ? हाँ, सारी दुनिया कर रही है आदमी, जानवर सब कर रहे हैं। ठीक, ये हमने देखा कि सभी कर रहे हैं पर ये बात क्या है और क्यूँ और हम यूँ ही तो नहीं मान सकते न कि सब कर रहे हैं। हमें समझा तो दो एक बार कि ये सब है क्या? कि जीवन का ये सब ढर्रा है क्या? हमें समझा तो दो कि व्यक्तिगत जीवन और प्रोफेशनल जीवन ये दो अलग-अलग चीज़ें हैं क्या? हमें नहीं समझ में आता व्यक्तिगत और व्यवसायिक में अंतर हमें बताओ, मान मत लो।

मानना ही जानने का दुश्मन है।

तुमने सवाल किया, ‘कैसे जानें’? मैंने कहा जान जाओगे ही, मानना छोड़ो।

जो कुछ जीवन में मान रखा है उससे दो कदम पीछे हट जाओ ,जानना शुरू हो जाएगा, क्रान्ति की शुरुआत हो गई।

जो भी कुछ माने बैठे हो उससे ज़रा सा पीछे हट जाओ। आज मुझे बाताया गया कि दो सेक्शन थे मैकेनिकल के वो गायब हो गए। माने बैठे हो कि ये तो होता ही है कि कभी-कभी बंक करना चाहिए। नहीं, पर क्यूँ क्या तुमने कभी समझा कि बंक माने होता क्या है? कह मत दो नहीं ये तो होता ही है। फिल्मों में देखा ऐसे ही होता है, कॉलेज का मतलब ऐसे ही होता है, हुडदंग हो नाच-गाना हो, कूदो, भागो। टीचर का मतलब ही होता है कि वो जिससे बचा जाए। माने ही बैठे हो न। सब कुछ तो मान लिया है तुम्हें बता दिया गया है कि कुछ-कुछ आदरणीय है ज़िन्दगी में, उस पर चलो ज़रूर उसको माने बैठे हो। पूछ तो लो क्यूँ, राष्ट्र माने क्या? धर्म माने क्या? परिवार माने क्या? क्यूँ आदरणीय हैं ये, और पूछने की भी ज़रुरत नहीं पड़ेगी बस मानना छोड़ो। सच्चाई उभर के सामने आएगी वो कहीं उभर के नहीं बैठी है वो तो चारों तरफ है ही। सत्य फैला हुआ है चारों तरफ, उसके सिवा कुछ नहीं है। तुम बस आँखों के ऊपर से मान्यता का पर्दा हटा दो, मान्यता का पर्दा हटा दो सत्य सामने आ जाएगा, है ही सामने तुमने आँखे बंद कर रखी हैं।

‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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