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लेख
क्या करोगे बहुत जीकर? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, मेरा सवाल डर पर है। असल में पिछले दो-तीन महीनों से मैं शारीरिक रूप से एक परेशानी से जूझ रहा हूँ। अभी इलाज तो नहीं चल रहा है, डायग्नोस (निदान) करने की कोशिश कर रहे हैं डॉक्टर (चिकित्सक), लेकिन हर पड़ाव पर मैं इतना डर जाता हूँ कि अति सोच लेता हूँ, कि अब मैं बचने वाला नहीं हूँ। जाँच जैसे होती है, उसके परिणाम के पहले ही मैं सोचता हूँ कि परिणाम ख़राब होगा।

पहले कुछ जाँच हुई, बायोप्सी वगैरह हुई, बायोप्सी का नाम सुनते ही मैंने समझ लिया कि मुझे कैंसर (कर्क रोग) हो गया। उसकी अंतिम रिपोर्ट अभी नहीं आयी है, कुछ और जाँच होनी है, लेकिन हर पड़ाव पर मैं बहुत ज़्यादा डर जाता हूँ। इसकी वजह से बीच में मैंने काम एकदम छोड़ दिया था, काम हफ़्ते-दस दिन छोड़कर कुछ अवसाद जैसी स्थिति में चला गया था।

इस चीज़ से मैं कैसे बाहर आऊँ?

आचार्य प्रशांत: मैं पूछूँ कि आज से ठीक छः महीने पहले आप क्या कर रहे थे — मैं आपको कोई तारीख़ दे दूँ, कोई भी, मान लीजिए आपसे पूछूँ कि अठारह फरवरी को क्या कर रहे थे, या आप पाँच मार्च को क्या कर रहे थे — आपको याद है?

प्र: नहीं, नहीं याद है।

आचार्य: नहीं याद है। तो कुछ महीने बीतते-बीतते ही, चार-पाँच महीने बीतते-बीतते ही ज़िंदगी काफ़ी आगे निकल जाती है न?

प्र: जी।

आचार्य: काफ़ी आगे निकल जाती है, दूर की बात हो जाती है न चार-पाँच महीने? अगर पीछे के पाँच महीने का याद नहीं है, तो माने पाँच महीने में ज़िंदगी बहुत आगे निकल जाती है। तो आपके पास जीने के लिए अभी पाँच महीने तो होंगे?

प्र: जी।

आचार्य: तो अभी बहुत ज़िंदगी है।

प्र: आचार्य जी, इस बात से मैं बाहर कैसे निकल सकूँ? मैं समझ रहा हूँ कि मैं ग़लत चीज़ को पकड़े हुए हूँ।

आचार्य: पाँच महीने में क्या करना है ये देख लो, ऐसे बाहर निकलो। कैंसर है भी, बोल भी दें डॉक्टर कि मर रहे हो; दो-चार-छः महीने तो देंगे जीने के लिए? तो दो-चार-छः महीने तो बहुत लंबा समय है, देखो कि उसमें क्या करना है। आठ महीने आगे का तो वैसे भी कुछ बना नहीं सकते, या बना पाते हो? नहीं बना पाते न?

प्र: नहीं बना पाते।

आचार्य: चार महीने पीछे का जब याद नहीं है, तो चार महीने आगे का क्या करोगे?

प्र: वो स्थिरता आ नहीं रही है आचार्य जी।

आचार्य: वो इसलिए नहीं आ रही है क्योंकि करने के लिए कुछ सार्थक है नहीं हाथ में। अगर जीने के लिए तीन महीने भी हों, तो उस तीन महीने के लिए तुम्हारे पास एक अच्छी योजना होनी चाहिए, एक अच्छा, सार्थक लक्ष्य होना चाहिए; वही तो ज़िंदगी को जीने लायक बनाता है।

हो सकता है कि आपको कैंसर न हो, हो सकता है कि आपके पास जीने के लिए अभी पचास साल हों, बिलकुल हो सकता है, कोई अभी परिणाम आ तो नहीं गया! लेकिन चाहे पचास साल हों या पाँच महीने हों, बात एक ही है, क्योंकि आप सालों-महीनों में नहीं जीते हो, आप जीते हो पलों में, दिनों में; बहुत हुआ तो हफ़्ते में। उसके आगे का तो वैसे ही न आपको समझ में आना है, न याद रहता है।

एक हफ़्ते पहले कौनसी शर्ट (कमीज़) पहनी थी, बताओ!

प्र: नहीं याद है।

आचार्य: तो एक हफ़्ते बाद की क्यों चिंता कर रहे हो? जब बीता हुआ एक हफ़्ता इतना पीछे छूट गया कि उस दिन क्या खाया था, क्या पहना था, किससे मिले थे, ये महत्व अब रखता ही नहीं; महत्व रखता तो याद रहता न? जब बीता हुआ एक हफ़्ता बहुत महत्व नहीं रखता, तो फिर आने वाले हफ़्ते के बाद क्या होगा, उसकी इतनी परवाह क्यों कर रहे हो?

प्र: आचार्य जी, अभी तक इस उम्र में कुछ काम ऐसे करे हैं जो दिखते हैं कि मेरे करे हुए काम हैं, सब खड़ा किया हुआ है, कुछ ज़िम्मेदारियाँ पाल रखी हैं। ये सब चीज़ें दिमाग में जब आती हैं तो कहीं-न-कहीं से वही है कि मौत से डर लगता है।

आचार्य: तो कर्तव्य अगर वास्तविक हैं तो उनको पूरा करो।

प्र: तो वही लगता है कि कहीं ऐसा न हो कि समय बहुत कम हो।

आचार्य: हाँ समय हो सकता है कम हो, पाँच ही महीने हों, तो जल्दी-जल्दी हाथ चलाओ।

जिसके पास कम समय हो, उसके पास तो चिंता करने का और परेशान रहने का कोई समय ही नहीं है न? तुम्हारे पास अगर जीने के लिए पचास साल हों, बहुत अच्छी बात है, लेकिन अगर पाँच ही महीने हों, तब तो और ज़रूरी हो जाता है कि और जल्दी-जल्दी हाथ चलाओ। कहाँ बैठकर तुम चिंतित हो रहे हो और डर रहे हो! क्या करना है?

देखो समय माया है। तथ्य ये है कि चाहे दस साल हों, चाहे पाँच साल हों, चाहे बीस साल हों, वो आपके लिए एक बराबर होते हैं, लेकिन हम अपनेआप को ये मानसिक सांत्वना देते हैं कि बीस साल पाँच साल से ज़्यादा होते हैं। न आप बीस साल में जीते हैं, न दस साल में, न पाँच साल में, मैं कह रहा हूँ कि आप जीते हैं पलों में। बाक़ी तो सब मानसिक सुरक्षा के लिए, मेंटल इंश्योरेंस के लिए आप अपनेआप को बताए रहते हो - ‘मेरे पास अभी बीस साल हैं।‘ करोगे क्या उसका?

तुम इस्तेमाल कर रहे हो सिर्फ़ कुछ पलों का जो तुम्हारे सामने हैं, तुम्हारा कर्तृत्व, तुम्हारी ताक़त इन पलों से आगे है ही नहीं, और आगे की सोचकर के तुम अपनेआप को बस सांत्वना दे रहे हो। हम सब अपनेआप को बस दिलासा दिये रहते हैं - ‘मेरे पास अभी बीस साल हैं।‘ मान लो हैं भी बीस साल, तो? जो तुम्हारा रेंज ऑफ़ ऐक्शन (कर्म का दायरा) है वो कितना है? वो बस कुछ दिनों का है, इतने में ही तो काम कर सकते हो! जो तुम्हारा लेजिटिमेट रेंज ऑफ़ ऐक्शन है, उसमें करने के लिए तुम्हारे पास कुछ सार्थक है नहीं।

ये ऐसी सी बात है कि जैसे आपकी गाड़ी में दो सौ किलोमीटर जाने का ही ईंधन है, और आप रो रहे हैं कि मैं स्विट्ज़रलैंड कैसे जाऊँ, स्विट्ज़रलैंड कैसे जाऊँ। मैं पूछ रहा हूँ कि जब था उसमें पूरा ईंधन, ज़िंदगी भर, तब भी कभी गये थे क्या। दूसरी बात, दो सौ किलोमीटर के दायरे में जितनी खूबसूरत जगहें हैं और जो करने वाले काम हैं, वो जगहें घूम लीं, वो काम पूरे कर लिये? तुम्हारी रेंज दो सौ किलोमीटर की है, तुम बीस हज़ार किलोमीटर की सोच क्यों रहे हो?

पर बीस हज़ार किलोमीटर की सोचकर अच्छा लगता है, अच्छा लगता है, बस। और जब वो बीस हज़ार किलोमीटर की संभावना छिन जाती है, जब डॉक्टर बता देता है कि पाँच ही महीने हैं, तो मन को बुरा लगता है। तथ्य ये है कि तुम उतना आगे कभी जाने वाले थे ही नहीं, और जितना तुमको अपने वर्तमान कामों के लिए समय चाहिए वो अभी भी उपलब्ध है, करो! और लगता है कि कम है समय, तो और जान लगाकर करो, जल्दी-जल्दी करो!

लोग कहते हैं - ‘जैसे-जैसे बुढ़ापा आये, आदमी शिथिल हो जाता है, ढीला और सुस्त पड़ने लगता है।‘ अपने साथ मैं उल्टा देख रहा हूँ, और मुझे लगता है उल्टा होना भी चाहिए, जैसे-जैसे उम्र बढ़े, आदमी में और फुर्ती बढ़नी चाहिए, भीतर आग और लपट मारनी चाहिए।

‘घड़ी टिक-टिक कर रही है भाई, समय कम है। जवान आदमी समय बर्बाद कर सकता है, उसको छूट है, उसको लग रहा है कि उसके पास बहुत ज़िंदगी है। हमारे पास बहुत ज़िंदगी नहीं है, हमारे पास थोड़ा सा समय है। हम सत्तर साल के हैं, हम तो एक पल भी अब बर्बाद नहीं कर सकते, किसी दिन बुलावा आ सकता है।‘

जब समय कम हो, तो और लगन के साथ जुटो न! रोना थोड़े ही है, क्योंकि अब तो रोने की भी गुंजाइश नहीं है। एकदम ही निश्चित हो गया हो — मान लो फाँसी होने वाली है, जहाँ एकदम तय है कि इस दिन इतने बजे, इतने मिनट पर फाँसी हो जाएगी — तब तो एकदम पल-पल की योजना बनाकर के एक समय-सारणी, टाइम टेबल के मुताबिक काम करना चाहिए।

कितने ही क्रांतिकारी ऐसे हुए हैं, उनको भोर में फाँसी होनी थी, वो रात भर अपना काम निपटाते रहे। मेरे ख़याल से, आप लोग परख लीजिएगा, शायद राजगुरु के जीवन से है। उनको फाँसी होनी थी, वो गीता पढ़ते रहे रात भर, और जिस अध्याय में, जिस पृष्ठ पर पहुँचे थे, उसको थोड़ा मोड़ दिया उन्होंने। तो उनको फाँसी के लिए ले जाने आये, बोले, ‘मोड़ क्यों दिया है?’ बोले, ‘अभी यहाँ पर रुक गया हूँ न।‘ वो ये भी नहीं कह रहे हैं, ‘अब मर जाऊँगा, क्या होगा,’ बोले, ‘मोड़ कर रख दिया है।‘

सुबह तो मर ही जाना है, अब तीन-चार घंटे हैं, गीता अभी पूरी करी नहीं, जल्दी से पूरा करो भई! मातम थोड़े ही मनाना है, काम पूरा करना है।

‘लेकिन उससे मिलेगा क्या, सुबह तो मर गये!‘

यही अंतर होता है आध्यात्मिक आदमी में और साधारण संसारी में - आध्यात्मिक आदमी ये नहीं देखता कि कल क्या होगा, वो ये देखता है कि ये जो पल है इसमें आनंद कहाँ पर है; वो उस कल की चिंता करता है, ये इस पल में जीता है।

धर्म हमेशा कल की बात करता है, पाप और पुण्य की बात करता है, स्वर्ग और नर्क की बात करता है, अगले जन्म की बात करता है, ये धर्म का काम है। ‘पुण्य इकठ्ठा करो, कल लाभ होगा। अच्छे कर्म करो, कल अच्छा उसका कर्मफल मिलेगा।‘ अध्यात्म कल की बात ही नहीं करता। निष्काम कर्म का मतलब ही यही है - ‘कल की चिंता नहीं करनी है, क्या अंजाम आएगा सोचना ही नहीं है। आज जो सही है वो करो, इस पल में ठीक जियो।‘ ये अध्यात्म है। धर्म तो पूरा भविष्योन्मुखी रहता है। ‘भविष्य, भविष्य, भविष्य' - ये धर्म का काम है।

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