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लेख
क्या कबीर साहब ने वेद-पुराणों की निंदा की है? || आचार्य प्रशांत (2016)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कबीर साहब ने बहुत बार वेदों और पुराणों की निंदा क्यों की है?

आचार्य प्रशांत: उनको वेद-पुराण की न निंदा करनी थी, न स्तुति करनी थी। जिस जगह जो बात ठीक लगी, उसको कहा 'ठीक;' जिस जगह जो बात ठीक नहीं लगी, उसको कहा 'नहीं ठीक।' उन्हें किसी से कोई दुश्मनी नहीं थी — “ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।”

आप यह भी कह सकते हो, उन्होंने वेदों की निंदा की है या यह भी देख सकते हो कि कबीर की बात, उपनिषदों की वाणी है, एक ही बात है।

एक चीज़ और है, जो मैं चाहता था कि आप देखें, जो कुछ भी वह कह रहे हैं, वह किताबी नहीं है। एक-एक उदाहरण, एक-एक प्रतीक रोज़मर्रा की ज़िंदगी से उठाया हुआ है। ज़रा देखिए और उदाहरण दीजिए कि कैसे रोज़ की ज़िंदगी की बातें की गई हैं।

श्रोता: घड़े वाला उदाहरण।

आचार्य: घड़ा ले लेंगे।

श्रोता: टूटा हुआ बर्तन।

आचार्य: टूटे हुए बर्तन का अध्यात्म से क्या लेना-देना! टूटे हुए बर्तन को भी जब उनकी दृष्टि देखती है तो उसमें कुछ अनूठा देख लेती है, कुछ ऐसा जो बिलकुल पार का है। फिर वह साधारण टूटा हुआ बर्तन नहीं रह जाता।

इसका मतलब समझते हैं क्या है? इसका मतलब है कि टूटे हुए बर्तन को देखते समय भी सजग हैं वह। टूटे हुए बर्तन को भी बहुत इज़्ज़त दे रहे हैं। इज़्ज़त का अर्थ समझते हैं? ध्यान। उतना ध्यान न दो तो उसमें पार को नहीं देख पाओगे। तो बात भले ही परमात्मा की करते हैं लेकिन गहराई से संसार के जीव हैं। नहीं तो बर्तन, धागा, मिट्टी, कुर्सी, मेज़, दर्पण इनको प्रतीक कैसे बना पाते? संसार में जी रहे हैं पूरे तरीक़े से। संसार के प्रति आँखें खुली हुई हैं।

और यह बड़े काम का सूत्र है, संसार की तरफ़ आँखें खोल लो, संसार के पार का दिख जाएगा। आँखें खोल के संसार को देखो, संसार के पार का दिखने लगेगा। यह ‘साफ़ नज़र' करती है। ईमानदार नज़र ऐसी ही होती है।

पढ़िए। देखिए।

श्रोता: "पानी मिले न आपको, औरन बकसत छीर। आपन मन निहचल नहीं और बंधावत धीर।।"

आचार्य: और कितने साधारण तरीक़े से पानी और खीर का उदाहरण ले लिया है! ऐसा उदाहरण जो कोई साधारण गृहस्थ, कोई साधारण गृहिणी भी ले लेगी। घर में भी तो यही सब चलता रहता है – दूध, तेल, नमक, लकड़ी। और उसी पानी और खीर की बात यहाँ पर की गई है। पर वह बात फिर दूर तक जाती है। मैं समझा पा रहा हूँ? (श्रोतागण सहमति दर्शाते हैं)

प्र: खांड और विष के बारे में भी दिया है।

आचार्य: खांड, विष सबकुछ वही है — लकड़ी, पानी, मछली — वही सबकुछ जो आप रोज़ देखते हैं। बिलकुल वही वह देख रहे हैं, जो आप देखते हैं, पर कुछ और देख ले रहे हैं। कहीं और नहीं जा रहे हैं, इसी दुनिया में रह रहे हैं। ऐसे ही घर में रह रहे हैं, ऐसे ही कोई काम-धंधा कर रहे हैं। देख वही सब कुछ रहे हैं जो हम देखते हैं। उन्हें भी वह दिख रहा है जो हमें दिख रहा है, पर हमसे कुछ ज़्यादा भी दिख रहा है। वह तो उन्हें दिखता ही है जो हमें दिखता है; साथ में कुछ और भी है।

श्रोता: पहाड़ चढ़ने का द्योतक भी इस्तेमाल किया है। पहाड़ चढ़ना।

आचार्य: पहाड़ चढ़ने का है — सब कुछ होगा — गड्ढे में गिरने का है, अंधे का है, सूप का है, छलनी का है।

प्र: सर, इसमें कई दोहों को पढ़ते हुए, काफ़ी बार आया कि ‘वह’ आपके पास ही है। कई ऐसे कोट्स (उक्तियाँ) भी सुने हैं जिसमें यह लिखा रहता है कि ही इज़ क्लोज़र टू यू दैन योर जग्यूलर वेन (वह आपके कंठ की नस से भी अधिक क़रीब है आपके)। तो इसमें काफ़ी बार आया कि 'वह’ आपके काफ़ी क़रीब है, पास है, दिल के क़रीब है। उसे वहाँ ढूँढो। तो यह बात न पचती है और न समझ में आती है।

और आमतौर पर जब यह कहा जाता है कि 'वह’ आपके पास ही है, आप परफ़ैक्ट हो तो जो नॉर्मल डेली लाइफ़ (सामान्य प्रतिदिन का जीवन) में आपके इम्परफेक्शन्स (दोष) होते हैं, वह सामने आते हैं और बताते हैं की नहीं हम पर्फ़ेक्ट नहीं हैं। वह तो ठीक है, आप सुधर सकते हैं।

और, जैसे कि एक यह भी है, कि योर एवरी डिज़ायर इज़ द डिज़ायर ऑफ़ अल्टीमेट (आपकी प्रत्येक इच्छा परम की इच्छा है)। तो यह बात बड़ी खटकती है कि वह आपके बहुत क़रीब है, उसे वहाँ ढूँढो।

आचार्य: तुम इसको ऐसे कह दो कि तुम्हारे बहुत क़रीब कुछ है — असल में बहुत क़रीब हो सकता है — पर बहुत क़रीब जब तुम किसी छवि को ढूँढने लग जाओगे तो मिलेगी नहीं न! तुम्हारे बहुत क़रीब तुम्हें मिल भी जाए तो तुम कहोगे, ‘यह वह नहीं है।’ क्योंकि तुम कुछ और ढूँढ रहे थे। तो तुम यह हटाओ कि ‘वह' तुम्हारे बहुत क़रीब है। तुम यह कहो,’मेरे बहुत क़रीब ‘कुछ' है’ और उसमें भी ज़ोर जो रखो वह ‘बहुत क़रीब’ पर रखो। 'बहुत क़रीब' का मतलब समझते हो? यहाँ और अभी; रोज़ की ज़िंदगी।

सुबह और शाम, खाना-पीना, सोना-जगनाइस सबमें ही कुछ है। इन सब में ही कुछ है, इन सब में ही, इन सब में ही, इन सब में ही, ताकि यह ख़याल बिलकुल भाग जाए कि कहीं और पहुँचना है। भविष्य बिलकुल गायब हो जाए, कल्पनाएँ बिलकुल गिर जाएँ।इन सब में ही, इन सब में ही, यहीं, यहीं, यहीं। ज्यों ही भविष्य हटता है, कल्पनाएँ हटती हैं त्यों ही तुम पूरी तरह मौजूद हो जाते हो। फिर यही क्षण एकदम ख़ास हो जाता है। फिर यह रोशनियाँ वास्तव में जल उठती हैं। फिर यही वैसा नहीं रह जाता, जैसा आमतौर पर ढ़र्रे में लगता है। यहीं बैठे-बैठे लगता है जैसे कि दमक उठे, ऐसे ही। यही कुर्सी, यही ज़मीन, यही काग़ज़, यही कलम, यही खाना-पानी।

जब कहा जाए कि ही इज़ क्लोज़र टू यू दैन योर जग्यूलर वेन (वह आपके कंठ की नस से भी अधिक क़रीब है आपके) तो सिर्फ़ तुम उसमें एक शब्द याद रखो। क्या?

श्रोतागण: क्लोज़र (क़रीब)।

आचार्य: क्लोज़र। क्लोज़, क्लोज , यहीं, यहीं, यहीं; मंत्र है जैसे यह। यह दिमाग़ से सारा कूड़ा-करकट हटा देगा। यह जो पूरी बेहोशी है न, कि चल यहाँ रहे हो और आँखें कहीं और देख रही हैं और झूमते, शराबी सी चाल,ठीक कर देगा। फिर कह रहा हूँ, महत्व किस शब्द का है?

श्रोतागण: क्लोज़र।

आचार्य: यहीं, यहीं, यहीं। यहीं माने? यहीं, यहीं, यहीं।

इशावास्यं इदं सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत। तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा: मा गृध: कस्य स्विद् धनम्।।१।। ~ ईशावास्य उपनिषद

प्र: आचार्य जी, ‘इदं सर्वं' का क्या अर्थ है?

आचार्य: ‘सर्वं’, तुम्हारे लिए वह सब कुछ जो तुम्हारी दुनिया है, वह भी फिर यही हुआ,’यही’।

प्र: हिअर एंड नाउ।

आचार्य: हाँ। एक छोटे-से बच्चे से कहो,‘सर्वं माने क्या?’ खेल का मैदान, स्कूल, मम्मी, खाना, दुद्धू, बिस्तर, सो जाना। और क्या है सर्वं!

कहते हैं ‘ईशावास्यम इदं सर्वं', तो सर्वं माने क्या? जो तुम, वह तुम्हारे लिए ‘सर्वं'! माने तुम्हारा संसार। तुम्हारा संसार क्या होता है? वही जो तुम्हारे खोपड़े में चल रहा होता है; और कौनसा संसार!

कोई धर्मग्रंथ तुमको कहीं और जाने के लिए नहीं बोलेगा। कहीं और जाने के लिए तो यह संसार बोलता है। यह कहता है कि अपने से पार पहुँचा दूँगा और पार पहुँचाने का वादा करके अपने में उलझाये रखता है। संसार कहता है कि मैं पार लगा दूँगा, सारी तकलीफ़ें मिटा दूँगा; आओ, मेरे पास आओ। पास बुलाता है और उलझा लेता है। पार कभी जाने ही नहीं देता।

यह एक ऐसा पुल है जो फ़ेविकोल का बना हुआ है! चूहों को पकड़ने के लिए ग्लू ट्रैप्स आते हैं, जानते हैं? (श्रोतागण सहमति दर्शाते हैं) तो समझ लीजिए, संसार एक पुल है जो ग्लू (गोंद) का बना हुआ है, कहता है, ’आओ, आओ! मैं पार लगा दूँगा!’ और तुम उसमें कदम रखते हो और, कदम?

श्रोतागण: चिपक जाते हैं।

आचार्य: वहीं चिपक जाते हैं। पार जाने ही नहीं देता। है पुल कि पार चले जाओगे।

पार नहीं जाना है। तुमको अब पार जाना ही नहीं। कौनसा पार! कैसा पार! जो है, सो यहीं। कहीं जाना ही नहीं है। कुछ पाना ही नहीं है। जो है, सो यही,यही।

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