आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
क्या मित्रता या प्रेम के लिए विचारों का मिलना ज़रूरी है?
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
39 मिनट
134 बार पढ़ा गया

प्रश्नकर्ता: मैंने ये अक्सर पाया है कि मेरी सोच जो है, न घर में पत्नी और माँ के साथ मेल खाती है, और न ही काम पर बॉस और सहकर्मियों के साथ मेल खाती है। उस चक्कर में वाद-विवाद हो जाता है, या फ़िर मैं एक सुनिश्चित सी दूरी बना कर बैठ जाता हूँ। तो होता क्या है कि फ़िर मैं उनके साथ ज़्यादा घुलमिल नहीं पाता, साथ काम नहीं कर पाता। वो जो साथ काम करने का जो एक मौज है वो मैं खो देता हूँ। ये मेरी एक समस्या है।

आचार्य प्रशांत: सवाल को सब ध्यान से समझेंगे, इसके जो दो पक्ष हैं उनको देखेंगे। क्या दो पक्ष हैं? पहला पक्ष ये कहा कि, घर पर पत्नी हैं, माँ हैं उनके साथ सोच मेल नहीं खाती, और जब बाहर जाते हैं अपने व्यवसाय में, दफ़्तर में तो वहाँ जो सहकर्मी हैं, या जो वरिष्ठ बॉस इत्यादि हैं, उनके साथ सोच नहीं मिलती। तो नतीजे में क्या मिलती है? दूरी। और ये दूरी बनाने के तो हम सभी लोग अभ्यस्त हैं, इसी दूरी को तो हम कहते हैं कि सबकी अलग-अलग सोच है, और सबका अपना-अपना व्यक्तिगत क्षेत्र है। जिसको हम कहते हैं प्राइवेट स्पेस , *पर्सनल एरिया*। और उस व्यक्तिगत क्षेत्र के तुम बादशाह हो, वहाँ किसी को उल्लंघन नहीं करना चाहिए। वहाँ पर किसी का भी प्रवेश नहीं होना चाहिए। है न ?

तो हर आदमी को हक़ है अपनी सोच रखने का। जैसे ही हम ये कहते हैं हर आदमी को हक़ है अपनी सोच रखने का, वैसे ही हम ये भी तय कर देते हैं कि सबके अपने-अपने सुनिश्चित दायरे होंगे।

इन दोनों बातों का सम्बन्ध आप देख पा रहे हैं? तो (एक श्रोता की ओर बताते हुए) इनको हक़ है अपनी सोच रखने का, और उस सोच के केंद्र पर आप बैठे हैं। ऐसे समझ लीजिए कि नीचे चादर पर एक वृत्त, एक घेरा बना दिया जाए, उस घेरे के केंद्र पर कौन है? अखिल हैं। उस घेरे के राजा कौन हैं?

प्र: अखिल हैं।

आचार्य: और अखिल कहेंगे, “इसमें कोई प्रवेश न करे, भाई ऐसा मैं सोचता हूँ।” और ना ही अखिल चाहेंगे कि वो किसी और के घेरे में प्रवेश करें। वो कहेंगे, “भाई वो तुम्हारा व्यक्तिगत क्षेत्र है, वो तुम्हारा पर्सनल एरिया है, और हम दोनों सभ्य नागरिक हैं।” और सभ्य नागरिक होने का तकाज़ा ये है कि?

प्र: पर्सनल स्पेस (निजी दायरा)।

आचार्य: मैं अपने पर्सनल स्पेस में हूँ, तुम अपने पर्सनल स्पेस में हो, और कभी-कभार हम अपने-अपने क्षेत्रों की सीमाओं पर आकर हाथ मिला लिया करेंगे। जैसे भारत-पाकिस्तान के बॉर्डर पर, सीमा पर, दो सैनिक आ करके हाथ मिलाएँ। वो कहने को तो मिल रहे हैं लेकिन हैं वो अपने-अपने क्षेत्र में ही। कहने को तो वो हाथ मिला रहे हैं लेकिन वो हैं अपने-अपने क्षेत्र में ही। जैसे बाघा बॉर्डर है। तो रेखा खींची हुई है, एक अपने क्षेत्र में है, दूसरा अपने क्षेत्र में है और हाथ फिर भी मिला रहे हैं।

इसको ये भी कह सकते हो कि ये माँ-बेटे का सम्बन्ध है, पति-पत्नी का सम्बन्ध है, दोस्तों का सम्बन्ध है, वरिष्ठ का और कनिष्ठ का सम्बन्ध है, नियोक्ता और कर्मचारी का सम्बन्ध है, दुकानदार और ग्राहक का सम्बन्ध है।

हैं दोनों अपने अपने क्षेत्र में लेकिन फिर भी रिश्ता बाँध लिया है। और वो रिश्ता कैसा है? बस हाथ मिलाने जैसा है, उसमें तो गले मिलना भी बड़ा मुश्किल है दिल क्या मिलेंगे। सीमा के इस पार हम और सीमा के उस पार तुम, उसमें तो गले मिलना भी ज़रा कसरत जैसी बात हो जाएगी। गले मिलते हुए भी यह पूरा ख़याल है कि कहीं सीमा का उल्लंघन न हो जाए। और गले मिलने में ज़रा मदहोशी छा गई, सीमाओं को भूल बैठे तो तुरंत फायरिंग शुरू हो जानी है। हो जाती है न?

देखा है कि फायरिंग अक्सर तभी शुरू होती है जब मदहोशी चढ़ती है। ज़रा उद्द्वेग चढ़ा नहीं कि सीमाओं का अतिक्रमण हो जाता है, और सीमाओं का अतिक्रमण हुआ और उधर छूटी गोली, धायँ।

गोली छूटी तभी याद आया कि कुछ ग़लत कर दिया मैंने। मैं अपने हिसाब से जियूँगा तुम अपने हिसाब से जियो, और हमारे हिसाबों में जहाँ थोड़ा ताल-मेल बैठता हो वहाँ पर हम बीच-बीच में आकर के हाथ मिला लिया करेंगे, कुछ सौदा कर लिया करेंगे। ऐसे ही चलता है न घर, समाज, व्यापार सब कुछ? ऐसे ही तो चलता है। सुनने में अच्छा नहीं लग रहा पर ऐसे ही चलता है।

अब ये जो कारोबार चल रहा है इसमें प्रश्नकर्ता को दुःख ये है, खेद ये है कि दूरी बनती रहती है। बोल रहे हैं, एक दूरी रहती है। और दूरी का कारण वो बता रहे हैं विचारों में ताल-मेल का अभाव। कह रहे हैं विचार मेल नहीं खाते, तो इसलिए दूरी बनी हुई है।

क्या आपमें से मुझे कोई बताएगा कि इन्होंने जो प्रश्न पूछा उसमें मूल मान्यता क्या है? मैं दोहराए देता हूँ, आपके लिए आसान हो जाएगा। कह रहे हैं कि विचारों में तालमेल नहीं बैठता इसलिए दूरी है, इसलिए सीमाए हैं। तो किस मान्यता के आधार पर ये बात कह रहे हैं? असम्प्शन (धारणा) क्या है ?

प्र: दोनों ओर से अहम् का टकराना।

आचार्य: नहीं-नहीं। मूल सिद्धांत क्या है? प्रीमाइस (आधार) क्या है?

प्र२: मैं तो सही हूँ।

प्र३: सभी को एक जैसा सहमत होना चाहिए।

प्र४: पास आने के लिए विचारों का तालमेल होना ज़रूरी है।

आचार्य: ये, बढिया बात। तो जो प्रीमाइस है वो समझे आप क्या है? वो ये है कि दो लोग करीब तब आते हैं जब उनके विचारों में तालमेल बैठ जाता है। इस मान्यता, इस धारणा पर प्रश्न पूछा है।

आप कह रहे हैं कि दो लोग करीब तब आते हैं जब उनके विचारों में तालमेल बैठ जाता है। फिर इसीलिए मुझसे कह रहे हैं कि पत्नी के साथ विचारों में तालमेल नहीं बैठता, तो दूरी-सी रहती है। ठीक, आगे बढ़ रहे हैं ?

कहीं यहीं तो गड़बड़ नहीं हो रही है? कहीं ऐसा तो नहीं कि करीब आने के लिए विचारों का तालमेल आवश्यक होता ही न हो, कुछ और आवश्यक होता हो और उसकी कमी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि विचारों का मेल खाना कोई बहुत अच्छी या अद्भुत बात हो ही न?

ये भी नाज़ी आप भी नाज़ी, दोनों के विचार खूब मेल खाएँगे। तो क्या हो गया? कुछ हुआ? ये भी सपना देख रही हैं, वो भी सपना देख रहे हैं और क्या पता दोनों एक सा ही सपना देख रहे हों, कुछ हो गया क्या? कुछ हुआ? विचारों के तालमेल से कुछ हुआ क्या?

विचार तो खुद कोई बहुत बड़ी बात नहीं हैं, तो विचारों के तालमेल से कौन सी बड़ी बात मिल जानी है? लेकिन हम इसी मान्यता को पकड़े रहते हैं। हम कहते हैं यारों के ख़यालात मिलने चाहिए। और ख़याल नहीं मिलते तो हम लड़ भी लेते हैं।

अरे बाबा हीर और राँझा के ख़यालात मिलते थे? सोनी-महिवाल की कहानी सुनते हो तो उसमें ये है कि आमने सामने बैठ कर विचार विमर्श करते थे, और निकल के आता था कि दोनों एक ही जगह वोट डालने वाले हैं? (व्यंग्य करते हुए) राजनैतिक विचार एक से हैं, फिर दोनों ने बातचीत करी तो पता चला कि दोनों मार्क्स के समर्थक हैं। तो उनका बढ़िया, तुम भी साम्यवादी, हम भी साम्यवादी। सोनी-महिवाल की कहानी में कुछ इस तरह का पढ़ा है क्या?

या लैला-मजनू दोनों इस बात पर सहमत थे कि रिज़र्व बैंक को किस प्रकार कि नीतियाँ चलानी चाहिए? दोनों का ही मानना था कि इनकम टैक्स ख़राब चीज़ है, इसको बंद करो? और इसी आधार पर दोनों की प्रेम कहानी आगे बढ़ी?

विचार मिलने से कुछ होता है? कभी आपने सोचा नहीं कि हमे तो कभी बताया ही नहीं गया कि राधा-कृष्ण के विचार मिलते थे। बताया गया कभी? विचारों के आधार पर थी क्या सारी बात? आप क्यों विचारों को आधार बना कर उसपर घर, और रिश्ता, और कारोबार खड़ा करना चाहते हो?

विचार के आधार पर प्रेम करोगे? विचार के आधार पर पत्नी से सम्बन्ध रखोगे? फिर तो चल चुका काम। फिर तो पत्नी पति को छूट नहीं देगी, कि तुम कांग्रेस को वोट डाल आओ। पति पत्नी को छूट नहीं देगा, कि तुम भाजपा को वोट डाल आओ। कहेंगे विचार मिलने चाहिए, इधर उधर अगर विचार हुए तो अभी तलाक। विचार मिलने चाहिए, बाप बेटे को छूट नहीं देगा।

विचारों का मिलना क्यों आपको लगता है कि मूलभूत शर्त है सुन्दर, सम्यक, प्रेमपूर्ण रिश्ते की? क्योंकि हम विचारों को ही केंद्र बना कर जीते हैं। जो चीज़ हमारे लिए कीमती है फिर वही हम दूसरों में ढूँढते हैं। ह्रदय से नहीं जीते, मन से जीते हैं, विचारों से जीते हैं। तो इसीलिए फिर दूसरों से रिश्ता भी बनाना चाहते हैं विचारों के आधार पर। और वो बनेगा नहीं, क्योंकि दूसरे ने कोई ठेका तो नहीं ले रखा आपके विचारों से सहमत होने का। सहमत हो भी गया तो कौन सी बड़ी बात है?

दूसरे से जो रिश्ता बनता है वो तो किसी और आधार पर बनता है। इस बात को पी जाइए, गटक जाइए बिलकुल। जल्दी से गटक जाइए कहीं ऐसा न हो कि गिलास गिर जाए। क्योंकि रिश्ता हमने जाना ही है बस एक: ‘ वी थिंक अलाइक ' (हम एक ही तरह सोचते हैं)। ‘ व्हाई आर वी टुगेदर? वी थिंक अलाइक ' (हम साथ क्यों है?, क्योंकि हम एकसा सोचते हैं)। और इसीलिए, देखा है आपने, दुनिया के कितने बड़े-से-बड़े युद्ध विचार धारा के आधार पर हुए।

विश्व को मिटा देने वाला था कोल्ड वॉर , और वो कोल्ड वॉर क्या था? विचारों का द्वन्द। दुनिया के सामने कोल्ड वॉर से ज्यादा भीषण, और लम्बा संकट नहीं खड़ा हुआ कभी। चालीस वर्ष से ज़्यादा समय तक, चार दशक से ज़्यादा समय तक, दुनिया धुक-धुकी बाँधे खड़ी थी, कि किसी भी पल खबर आ सकती है कि तृतीय विश्व युद्ध शुरू हो गया। कम-से-कम चार दफ़े ऐसा हुआ कि न्यूक्लिअर बटन दबने ही वाला था। और ये चार दफ़े मैं वो बता रहा हूँ, जो पब्लिक डोमेन (सार्वजनिक पटल) में ज्ञात बातें हैं। बहुत कुछ तो अभी क्लासिफाइड (गोपनीय) होगा। हमे पता ही नहीं कि क्या हुआ। चार बार हमको पता है कि न्यूक्लिअर बटन बस दबने ही वाला था।

और वो क्या था? अमेरिका और रूस पड़ोसी नहीं, अमेरिका और रूस में ज़मीन का कोई विवाद नहीं, अमेरिका और रूस में कोई ऐतिहासिक द्वन्द नहीं, अमेरिका और रूस में कोई धार्मिक संघर्ष नहीं। तो पूरा घर्षण किस चीज़ को लेकर था? विचारों को। तुम कह रहे हो पूँजीवाद, हम कह रहे हैं साम्यवाद। दोनों यही कह रहे थे, विचार मेल नहीं खाते न, तो लड़ बैठेंगे।

इस वक़्त भी जिसको हम कहते हैं रिलीजियस एक्सट्रीमिस्म , धर्मान्धता, वो धर्मान्धता वास्तव में धर्म से सम्बंधित है ही नहीं। उसका लेना देना भी विचारों से ही है, वो भी विचारधारा का ही टकराव है। धर्म तो आपस में टकरा नहीं सकते न कभी। तुम भी धार्मिक, मैं भी धार्मिक, हमारी लड़ाई कैसे हो जाएगी आपस में? द्वन्द तो हमेशा विचारों में होता है, विचार धाराएँ टकराती हैं।

हंटिंग्टन का जो ‘ क्लैश ऑफ़ सिविलाइज़ेशन्स '(सभ्यता की लड़ाई) है, वो भी क्लैश ऑफ़ सिविलाइज़ेशन्स थोड़े ही है। सभ्यताएँ थोड़े ही एक दूसरे से लड़ने जाती हैं, सभ्य होने का तो मतलब ही है कि लड़ने से बचो। तो क्लैश ऑफ़ सिविलाइज़ेशन्स क्या! वो भी क्लैश ऑफ़ आइडियोलॉजी (विचारों की लड़ाई) ही है।

विचारों को जीवन का केंद्र बना कर जियोगे तो पत्नी से क्या, और बॉस से क्या, अपने-आप से भी लड़े बैठे ही रहोगे। क्योंकि तुम्हारे भी विचार कौन से एक सार ही हैं। अभी ऐसे बह रहे हैं (दाएँ से बाएँ) थोड़ी देर में ऐसे बहते हैं (बाएँ से दाएँ)। अपने भीतर ही द्वन्द मचा रहेगा। विचार तो विचार से ही लड़ जाता है एक मनुष्य के भीतर भी, तो वो एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य की सहमति कैसे करवा देगा भाई?

तुम्हारा विचार क्या एक-सा रहता है? सारी समस्या ही यही रहती है न कि अभी ये सोचा, अभी वो सोचा, और फिर समझ में ही नहीं आया कि जाएँ तो जाएँ कहाँ। दस तरह की सोच उठती रहती है। अपने ही भीतर लड़े बैठे रहते हो तो दूसरे से कैसे तुम प्रेम बना लोगे विचार के आधार पर? तो विचार के आधार पर तो यही (लड़ाई) होना है। टकराओगे।

मैं यहाँ तक कहने का जोख़म उठा रहा हूँ, कि दुनिया में जहाँ भी दो लोगों को टकराते देखना, तो समझ जाना कि बात वृत्तियों और विचारों की ही है अन्यथा टकराने का कोई कारण नहीं। भले वो ये कह रहे हों कि हम इसलिए टकरा रहे हैं, क्योंकि बात धर्म की है। भले वो ये कह रहे हों कि, हम इसलिए टकरा रहे हैं कि बात दिल की है। भले वो ये कह रहे हों कि, हम इसलिए टकरा रहे हैं क्योंकि बात कर्तव्य की है। टकराने के कारण उर्फ़ बहाने हम सौ बता सकते हैं, लेकिन टकराने की मूल वजह एक ही होती है, विचार।

अह्म चूँकि विचार को आधार बना कर जीता है, तो इसीलिए वो बड़ा शंकित रहता है कि दूसरे मेरे जैसा सोच रहे हैं या नहीं सोच रहे हैं। अह्म माने एक मूल असुरक्षा, एक इन्सेक्युरिटी , और अह्म जुड़ा हुआ है विचारों से, क्यों? क्योंकि आप जानवर नहीं हैं आप तो मनुष्य हैं, आप विचारशील हैं। तो जहाँ तक आप अपने-आप को नहीं जानते, आपके जीवन का केंद्र है वृत्ति। और जहाँ तक आप अपने-आपको जानते हैं, अर्थात चैतन्य रूप से जानते हैं, वहाँ आपके जीवन का केंद्र है विचार। इन्हीं दो आधारों पर हम जीते हैं: वृत्ति और विचार।

और साथ-ही-साथ हमने कहा कि अह्म रहता है सदा डरा हुआ। वो डरा हुआ है और आश्रित किस पर है? विचार पर। तो वो इसीलिए लगातार भयाक्रांत नज़रों से इधर-उधर देखता रहता है: "सब मेरे ही जैसा सोच रहे हैं न, सब मेरे ही जैसा सोच रहे हैं न?" क्योंकि अगर सब मेरे जैसा नहीं सोच रहे तो कहीं मेरा विचार खंडित न हो जाए। और मैं कौन हूँ? मैं हूँ विचारवान, विचार खंडित हुआ तो कौन खंडित हो जायेगा? मैं।

तो इसीलिए हम विचार की सुरक्षा को लेकर के इतने सतर्क, इतने आशंकित रहते हैं। और जैसे ही हमें कोई मिल जाता है जो हमारी तरह नहीं सोचता, हम तुरंत तनाव में आ जाते हैं और उसको अपना दुश्मन बना लेते हैं। दूसरे आपकी तरह ही सोचें, ये भाव ही असुरक्षा से उठता है।

अब आपको ये भी समझ में आएगा, कि क्यों विचारधारा पर चलने वाले लोग अपनी संख्याओं में इज़ाफ़ा करने को लेकर के बड़े पागल रहते हैं। वो लगातार गिनती करते रहते हैं कि, "अब कितने देश हैं जो साम्यवादी हो गए? अब दुनिया के कितने देश हैं जो इस्लाम के आधार पर चल रहे हैं? अब विश्व भर में हिन्दुओं की संख्या कितनी हो गई?" क्योंकि उन्हें अपने ऊपर भरोसा नहीं है न, तो संख्याओं पर आश्रित रहते हैं, उन्हें अच्छा लगता है। वो कहते हैं इतने लोग अगर मेरे ही जैसा सोच रहे हैं तो फिर मेरी सोच ठीक ही होगी।

जिसे अपने पर भरोसा होगा, वो ये क्यों चाहेगा कि कोई और उसकी तरह सोचे? पर जब अपने पर भरोसा नहीं होता तो हमारे लिए बहुत आवश्यक हो जाता है कि दस हमारी तरह सोचें, दस लाख हमारी तरह सोचें, दस करोड़ हमारी तरह सोचें।

तो जो काम कोई प्रचारक धर्म के क्षेत्र में कर रहा होता है, या आर्थिक जगत में किसी सिद्धांत को प्रचारित करने में कर रहा होता है, वही काम घर में पति-पत्नी कर रहे होते हैं अपने बच्चों के साथ। एक मिशनरी है जो कहीं पर जा कर कुछ लोगों का धर्म परिवर्तन करा रहा है। वो क्या कर रहा है? वो अपने विचार को बढ़ावा दे रहा है। वो ये मानेगा नहीं कि ये विचार को बढ़ावा है, वो कहेगा मैं सत्य को बढ़ावा दे रहा हूँ। वो कहेगा, ‘ आइ एम द लाइट ऑफ़ द ट्रुथ, आइ एम स्प्रेडिंग द वर्ड ऑफ़ द ट्रुथ '(मैं सत्य का प्रकाश हूँ, मैं सत्य की आवाज सब तक पहुँचा रहा हूँ)।

वो मानेगा नहीं कि वो कुछ नहीं कर रहा, बस एक विचार का प्रसार कर रहा है, पर हकीकत तो ये है कि तुम एक विचारधारा ही फैला रहे हो न। बिलीव इन डी क्रिस्चियन डोग्मा, बिलीव इन द फ़ादर, द सन, एंड द होली स्पिरिट (ईसाई सिद्धांत पर विश्वास रखो, पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा पर विश्वास रखो)। ये बिलीफ वाली सारी चीज़ तो विचार की ही है, कि हाँ ऐसा सोचो, हम ऐसा सोचते हैं, *दिस इस द वे आइ थिंक*।

और वही काम घर में माँ-बाप करते हैं बच्चों के साथ, तुम भी मेरी तरह सोचो। और बड़ा अफ़सोस सा होता है अगर बच्चा माँ-बाप की तरह न सोचता हो। आप कितने भी खुले दिल वाले हों पर अगर आपके घर वाले आपके विपरीत सोचते हैं, तो एक काँटा सा तो चुभा ही रहता है। है न? क्यों? क्योंकि हम विचारों पर जीने वाले लोग हैं, हम अह्म पर चलते हैं, और असुरक्षित लोग हैं। आत्मा को केंद्र बना कर हम नहीं जीते। हमारे पास ख़याल है, हमारे पास, याद करिये, सत्य नहीं है, हमारे पास विचार है। तो इसीलिए हम उखड़ भी जल्दी जाते हैं, हमें क्रोध भी जल्दी आ जाता है। किसी ने हमारे विचारों के विपरीत कुछ कहा नहीं कि हमें लगता है हमारे ही विपरीत कह दिया। बात को समझो।

बच्चा माँ-बाप की विचारधारा के विपरीत जा रहा हो तो माँ-बाप कहते हैं हमारे विपरीत जा रहा है। क्यों? इस वाक्य से ही समझ लो न, कि चल क्या रहा है। पत्नी पति की विचार धारा के ख़िलाफ़ जा रही हो तो पति कहता है मेरे ख़िलाफ़ जा रही है। आपके ख़िलाफ़ नहीं जा रही, आपके विचारों के ख़िलाफ़ जा रही है। दिक्कत ये है कि आपने ये मान लिया है कि, आप विचार ही हो। आपने तादात्म्य कर लिया है विचार से। तो कोई आपके विचार के ख़िलाफ़ जाता है, आपको लगता है आपके ख़िलाफ़ चला गया। आत्मस्थ नहीं हो आप, मनस्थ हो, वृत्ति और विचार में जी रहे हो।

विचारों पर आधारित जो रिश्ता बनाओगे, उसके तो मूल में ही भ्रम है। भ्रम उसका मूल है और द्वन्द उसका फल है।

फिर प्रेमपूर्ण रिश्ता कैसे बने? अगर विचारों के आधार पर नहीं बनना है तो फिर किस आधार पर बनेगा वो? दूसरे के विचार बदलने की कोशिश नहीं करनी है, दूसरे को सद्गति देने की कोशिश करनी है। विचार तो बाहरी होते हैं , आपने विचार किसी के बदल भी दिए तो क्या हो गया? उसका केंद्र थोड़े ही बदल जाएगा।

खलील जिब्रान की एक बड़ी छोटी सी कहानी है। किसी गाँव में एक आस्तिक और एक नास्तिक रहा करते थे। एक दिन दोनों पहाड़ के ऊपर चढ़ गए और दोनों में बड़ी बहस हुई, और दोनों ने अपनी-अपनी विचारधारा का ज़ोरदार, ज़बरदस्त प्रतिपादन किया। इसने अपनी बात कही, उसने अपनी बात कही, जान लगाकर शास्त्रार्थ किया। और उस शास्त्रार्थ के बाद देखा गया कि जो आस्तिक था उसने अपनी सारी किताबें फाड़ दीं, और जो नास्तिक था उसने मूर्तिपूजन शुरू कर दिया।

कुछ बदला क्या? ऊपर-ऊपर से देखने पर लगता है सब बदल गया, आस्तिक नास्तिक हो गया, नास्तिक आस्तिक हो गया। बदला कुछ नहीं है। दोनों पहले भी किसी चीज़ में विश्वास करते थे, दोनों अभी भी किसी चीज़ में विश्वास कर रहे हैं। दोनों पहले भी जिस चीज़ में विश्वास करते थे, उसे समझते नहीं थे। दोनों आज भी जिस चीज़ में विश्वास कर रहे हैं उसे समझते नहीं हैं।

आपने किसी के विचार बदल भी दिए तो उसको आपने बदला नहीं, उसका केंद्र वही है। नास्तिक आस्तिक हो जाए बड़ी बात नहीं, आस्तिक नास्तिक हो जाए बड़ी बात नहीं है, क्योंकि नास्तिक को नास्तिकता का कुछ पता नहीं, आस्तिक को आस्तिकता का कुछ पता नहीं, ऊपर से ओढ़ी हुई बात है। आस्तिकता भी नकली है और नास्तिकता भी नकली है, दोनों गहराई में गए ही नहीं हैं।

दूसरे के विचार परिवर्तित करने की कोशिश न करें, अगर वास्तव में प्रेम है दूसरे से, तो प्रयास करें कि वो आत्मा के केंद्र से जिए। और आत्मा के केंद्र से जीते हुए फिर उसके जो भी विचार हों, वो रहने दें, उनका सम्मान करें।

प्रेम का अर्थ ये नहीं होता, कि मेरे तुम्हारे विचार मिलते हैं, प्रेम का अर्थ ये होता है कि मैं तुम्हारे हित के लिए उत्सुक हूँ, आतुर हूँ।

विचारों के आधार पर रिश्ता बहुत दूर तक नहीं ले जा पाएँगे, प्रेम बिलकुल दूसरी चीज़ होती है। पर दूसरे का हित आपको पता हो इसके लिए पहले, हित चीज़ क्या है ये तो आपको पता हो। हित चीज़ क्या है ये आपको पता हो तो सबसे पहले आप अपना हित करेंगे।

ये अंतर समझ में आ रहा है? प्यार माने ये नहीं होता कि हम दोनों बिलकुल एक जैसे हैं, *सेम टू सेम*। पति-पत्नी दोनों एक जैसी टी-शर्ट और जीन्स पहन कर घूमते हैं। नहीं ऐसा भी करते हैं इसलिए। ये प्रेम नहीं है, ये तो ऐसा है जैसे एक फोल्डर की दूसरी कॉपी बना दी।

प्रेम कुछ और होता है। “खुद को जानता हूँ इसीलिए तुझे भी जानता हूँ। अपने दुःख, अपने कष्ट, अपनी बेचैनी, और तड़प से वाकिफ़ हूँ, इसीलिए मुझे तेरे दंश, तेरे शूल का भी पता है। मैं भटका हूँ, मैं तड़पा हूँ, मैं रोया हूँ, इसलिए तेरी भी तड़प समझता हूँ। चूँकि बहुत दुःख झेला है मैंने इसीलिए, हर दुःखी का दुःख जानता हूँ।”

“सब दुःख मूल में एक हैं, तो तू मुझसे पराया कैसे हो गया भाई? जब तू मुझसे पराया नहीं तो फिर जैसे अपना दुःख दूर कर रहा हूँ, वैसे ही तेरा भी करूँगा।" और इस पूरे वक्तव्य में विचार नाम का शब्द आया कहीं? ये ऐसी ही बात है जैसे आप किसी को कहें, कि तू मेरा दोस्त तभी है जब तू मेरे जैसा हेयर कट लेकर आए। मैं मिलिट्री कट कटाता हूँ तू लम्बे बाल रख रहा है, हमारी दोस्ती कैसे चलेगी?

कोई अगर इस आधार पर दोस्ती तोड़े तो आप उसे क्या कहेंगें?

प्र: मतलबी।

आचार्य: मतलबी! मतलब उसे पता कहाँ है कुछ।

प्र: मूर्ख।

आचार्य: हाँ, मूर्ख। दो दोस्तों में लड़ाई हो रही है। उन्होंने अपनी दोस्ती इस आधार पर तोड़ दी, कि एक ने बाल छोटे-छोटे कटा रखे हैं, और दूसरे के हैं लम्बे। तो उन्होंने कहा, "नहीं, हमारी बन ही नहीं सकती!"

आप कहेंगे ये तो पागल है। बालों के आधार पर दोस्ती होती है क्या? तो विचार भी समझ लीजिए खोपड़े का बाल ही है, जहाँ खोपड़ा वहाँ बाल, जहाँ खोपड़ा वहाँ विचार। तो दूसरे से बाल नाप नाप कर प्यार करोगे क्या? “मेरे तेरे बाल *सेम टु सेम*।” ऐसा करोगे?

प्रेम समझ रहे हो क्या चीज़ है? प्रेम गहरी और आध्यात्मिक बात है। कोई राज़, कोई रहस्य नहीं है प्रेम में। बहुत लोग प्रेम से बचने का ये बहाना बता देते हैं कि, "प्यार क्या है ये तो आज तक बड़े-बड़े दार्शनिकों की समझ में नहीं आया, तो हम कौन होते हैं प्रेम की बात करने वाले।"

प्रेम बहुत सरल बात है, दार्शनिकों की नहीं समझ में आई, तो नहीं समझ में आई, दार्शनिक थे न। संतों को पता है प्रेम क्या है: ‘जा मारग साहब मिले, प्रेम कहावे सोए।'

खुद मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ना है, और जानना है कि दूसरा भी बिलकुल मेरे ही जैसा है। और गौर से, और करीब जा कर जानोगे तो कहोगे कि, मेरे जैसा नहीं है, मैं ही हूँ वो, बस शक्ल ज़रा दूसरी है। मुझमें और दूसरे में कोई अंतर ही नहीं, मैं डरता हूँ, तू डरता है, मैं खाता हूँ, तू खाता है, मैं जनमता हूँ, तू जनमता है, मैं मरता हूँ तू मरता है। आस निरास का खेल इधर भी है उधर भी है, साहब की दरकार मुझे भी है और तुझे भी है। और यही प्रेम है।

जैसे साहब की तलाश मुझे है, जैसे शांति के प्रति दीवानगी मुझमें है, वैसे ही तुझमें भी है, कहीं प्रकट होती है कहीं छुपी होती है। पर मौजूद तो तुझमें भी है जो मुझमें है। तो चल चलते हैं साथ में, जहाँ को मैं जा रहा हूँ तू भी चल। कोई बात नहीं टिकट एक ही है, सीट साझी कर लेंगे। सोने को नहीं मिलेगा तो जग के चले जाएँगे, आर.ए.सी मान लेंगे। ये प्रेम है।

इसमें मैंने कहीं विचार शब्द का इस्तेमाल किया? और अगर विचार मिला मिला कर ही प्रेम करना है, तो बाहर जो बेचारा कुत्ता ठंड में घूम रहा है और ठिठुर रहा है, उससे प्रेम कैसे करोगे? उसके विचारों का तो कुछ पता ही नहीं लगेगा। और जब उससे विचारों का मिलान नहीं होगा तो कहोगे, "इससे तो कोई प्रेम हो नहीं सकता, लाओ रे डंडा।"

अगर प्रेम की शर्त ही यही है कि विचार मेल खाएँ, तो छोटे बच्चे से कैसे प्रेम करोगे? आठ माह का है वो। और पौधों, और पक्षियों, और मछलियों, और वनस्पतियों से कैसे प्रेम करोगे? कैसे करोगे? कोई विक्षिप्त हो गया उससे कैसे प्रेम करोगे? गर विचार ही मिलने ज़रूरी हैं तो कैसे करोगे प्रेम?

पर अच्छा तो तभी लगता है जब कोई मिल जाए और कहे, ‘बिलकुल सही सोच रहे हैं आप'। अच्छा लगता है कि नहीं, ईमानदारी से बताओ? ‘बिलकुल सही सोचा आपने’। अहम को यही सही है; *लवली थॉट्स, हैप्पी थॉट्स*।

कौन चाहता है कि कोई आकर उससे कहे कि, "बड़े प्रेमी हैं आप"? उससे कहीं ज्यादा अच्छा लगेगा कि कोई आकर उपाधि दे, "अरे बहुत बड़े विचारक हैं"। अब प्रेमी तो कोई भी हो सकता है। लगता है कोई सत्रह साल का छोकरा घूम रहा हो, प्रेम प्रेम करता हुआ। प्रेमी तो कोई भी हो जाता है, विचार में एक दिव्यता है, विचार में एक भव्यता है, एक बड़प्पन है। तो हमें बड़ा अच्छा लगता है, कि कोई कहे कि फैब्युलस थिंकर (शानदार विचारक)।

प्रेम तो छोटी सी चीज़ है। इंडस्ट्री में अवार्ड भी कैसे दिए जाते हैं? इनोवेटिव थिंकर ऑफ़ द ईयर अवार्ड * । कभी * लवर ऑफ़ द ईयर अवार्ड तो सुना नहीं। तो आदमी कहता है हटाओ न, विचार ही बढ़िया बात है, प्रेम वगैरह में क्या रखा है। और प्रेम भी अगर होना है तो विचार के पीछे-पीछे हो, विचार के सेवक की तरह चले। प्रेम आगे नहीं चल सकता, प्रेम को पीछे ही चलना होगा, असली चीज़ तो विचार ही है।

कोई कहे आपसे यू आर अ थॉट लीडर ऑफ़ द हेल्थ इंडस्ट्री , कैसे छाती फूलेगी बिलकुल। थॉट लीडर इन माइ इंडस्ट्री , कितनी बड़ी बात बोल दी। और कोई आपका परिचय कराते हुए बोले कि “ये बड़े प्रेमी जीव हैं।” कहेंगे, “धत्, प्रेमी जीव हैं! ये कोई परिचय दिया? ऐसे किसी का इंट्रोडक्शन दिया जाता है?”

मुझे सवाल आते हैं यहाँ पर लिखकर, ‘आचार्य जी', फिर कुछ लिखेंगे आगे और कहेंगे, ‘*आइ वांट टु नो योर थॉट्स ऑन दिस*’ (इस पर मैं आपके विचार जानना चाहता हूँ)। अपने ही जैसा बना लिया है मुझे भी, *आई वांट टु नो योर थॉट्स ऑन दिस*। और वो मेरे विचार जानना नहीं चाहते, बस वो क्या करना चाहते हैं?

प्र: मिलाना।

आचार्य: हाँ। “आचार्य जी मेरी तरह सोचते हैं कि नहीं? और अगर नहीं सोचते तो, बेकार हैं।”

जो आदमी विचार को आधार बना कर जी रहा है, उसकी त्रासदी यही होगी कि बहुत कुछ मिलेगा जीवन में, एक छोटी सी चीज़ है जो नहीं मिलेगी कभी, क्या? प्रेम। वो नहीं मिलने का। और फिर ये विचारक साहब ये मानेंगे भी नहीं कि जीवन में प्रेम नहीं है, वो कहेंगे प्रेम ज़रा जटिल चीज़ होती है, आज तक तो कोई फिलॉसफर बता नहीं पाया कि प्रेम क्या है तो मुझे लग रहा है कि प्रेम कुछ होता ही नहीं। लेट्स जस्ट कीप द इशु असाइड, बिकॉस इट इज अनरिसॉल्व्ड (यह अनसुलझा मुद्दा है इसलिए इसे किनारे रखो)। ये नहीं मानेंगे कि जीवन बिलकुल बंजर, शुष्क, रेगिस्तान है।

प्रेम हमारी ज़िन्दगी में इसीलिए नहीं है क्योंकि हम अध्यात्म को और आत्मज्ञान को सम्मान नहीं देते। जहाँ आत्मज्ञान नहीं है वहाँ प्रेम नहीं हो सकता, रिश्ता सीधा है। आत्मज्ञान माने अपनी तड़प को जानना। जो अपनी तड़प को जान जाएगा, वो तड़प मिटाने के लिए भी आतुर हो जाएगा। इस आतुरता का ही नाम प्रेम है। वियोग के गीत सुनें है? उनमें आतुरता के अलावा और क्या होता है। (ऊपर देखकर फरियाद करते हुए) आन मिलो। हमारे पास कुछ नहीं है तुम्हें बताने के लिए, सुनाने के लिए, हमारी आहें है बस और आँसू हैं, आजाओ।

और जिसको आत्मज्ञान नहीं, उसे तो अपने दर्द का एहसास ही नहीं। जब दर्द का एहसास ही नहीं तो दर्द मिटाने की ललक कहाँ से पैदा होगी, तुम तो एनेस्थीसिया (बेहोशी) में हो। तो फिर न आँसू झरेंगे, न गीत उठेंगे, न प्रेम की विह्वलता रहेगी।

शेख़ फ़रीद कह गए हैं, ‘जिस तन बिरहा न उठे, सो तन जान मसान'। कहते हैं, जिस व्यक्ति के भीतर विरह नहीं उठ रही, वो आदमी नहीं है वो श्मशान है, मुर्दा है। जो कहे कि नहीं सब ठीक ही है, कोई कमी नहीं।

विरह का मतलब है एक बहुत बड़ी कमी को महसूस करना। छोटी-छोटी कमी को महसूस करने का नाम विरह नहीं है। जेब में रुपया नहीं है, ये अनुभव करना विरह नहीं है। पेट में दाना नहीं है, इसका अनुभव विरह नहीं है। विरह है ये अनुभव कि बहुत कुछ है फिर भी जीवन में बहुत बड़ा सूनापन है। साधारण कमी का नाम नहीं है विरह, आत्यंतिक कमी के अनुभव का नाम विरह है।

आत्मज्ञान की परिणीति होती है विरह के रूप में। जिसे आत्मज्ञान है उसे विरह उठेगी-ही-उठेगी। और विरह उठी नहीं कि अब तुम विचार इत्यादि की बात नहीं करोगे।

जो दिल पकड़ के रो रहा हो आशिक़ उससे तुम पूछो आपके ख़यालात क्या हैं? तो कहेगा, ‘हैं! क्या पूछा?', और तुम कहोगे, ‘नहीं, अपने विचार बताइए।’

विरह में सभी हैं, बस कुछ की विरह जागृत है, कुछ की प्रसुप्त है। संत कौन? जिसकी विरह जग गई। संसारी कौन? जो विरह में तो है पर उसकी विरह सोई पड़ी है।

प्रेम का अर्थ होता है विरह मिटाने को आतुर रहना। और विरह मिटेगी तो तब न जब पहले जगेगी। जिससे प्रेम हो उसमें विरह जगाओ।

और जब प्रेम उठेगा तो ये भी तुम्हारे लिए तय करना मुश्किल हो जाएगा कि मैं प्रेम करता किससे हूँ। क्यों? क्योंकि मूल रूप से तो प्रेम होता उसके (परमात्मा के) लिए है। और जब उसके लिए है तो यहाँ धरती पर किससे करूँ प्रेम? यहाँ तो सब एक समान हो गए, यहाँ तो सब मेरे ही जैसे हैं, सब विरही हैं। तो अब तुम्हारे प्रेम का दायरा भी सीमित संकुचित नहीं रह सकता, कि मुझे अगर भलाई करनी है तो अपने घर वालों की ही करनी है, या दोस्त यारों की ही करनी है।

प्रेमी का ये अनिवार्य लक्षण होता है कि वो सब जगत के प्रति प्रेम भाव से भर जाता है, वो फिर ये भेद नहीं करता कि मेरा कौन, पराया कौन। वो कहता है सब मेरे ही जैसे हैं, इसकी भी मदद करो उसकी भी मदद करो। अपने पराए का विचार नहीं करता।

विचार बाँटता है प्रेम एक करता है, तो विचार के आधार पर प्रेम कैसे होगा?

कौन हूँ मैं? मैं संसारी जो विचारों के दलदल में फँसा हुआ हूँ, उधर (परमात्मा की ओर) जाना है, उधर जहाँ कुछ साफ़ है, दलदल का कीचड़ नहीं है। तू कौन? तू भी संसारी जो विचारों के दलदल में फँसा हुआ है। मैं तेरा हाँथ पकड़ूँ, तू मेरा हाँथ पकड़े, आजा साथ चलें। किधर? एक दूसरे की तरफ नहीं, उधर (परमात्मा की ओर), क्योंकि एक दूसरे की तरफ़ तो जाकर भी मिलना क्या है।

मेरे पास मेरी वाली कीचड़ है, तेरे पास तेरी वाली कीचड़ है। तो विचारों के घमासान में अगर मैं जीत गया तो मैं और तू दोनों लथपथ पाए जाएँगे मेरी वाली कीचड़ में; मैं जीत गया, दोनों की विचारधारा मेरे जैसी हो गई। और विचारों के द्वन्द में अगर तू जीत गया तो दोनों लथपथ पाए जाएँगे तेरी वाली कीचड़ में। पर कीचड़ तो कीचड़ है, तो इसीलिए एक दूसरे का हाथ पकड़ कर एक दूसरे को अपनी ओर खींचना नहीं है। हाथ पकड़ना है ताकि हमसफ़र बन सकें, मंज़िल वो (परमात्मा) है।

न मुझे तुझसे जीतना है, न तुझे मुझसे जीतना है, हम दोनों को ही अपने-आप को जीतना है। न मुझे तुझे पाना है, न तुझे मुझे पाना है, हम दोनों को ही सब पाया हुआ गँवाना है। और पाया हुआ अगर गँवा सके, तो कहोगे कि सच पाया।

जैसे घने जंगल से दो लोग गुज़र रहे हों। साथ मिल जाए तो गुज़रना आसान हो जाता है। पर ये थोड़े ही करना है, कि दोनों को एक दूसरे का साथ इतना पसंद आ गया कि जंगल में ही रुक गए। कहे, चलो घर बना लेते हैं, पेड़ पर चढ़ जाते हैं घोसला यहीं बनाएँगे।

दुनिया में किसी का साथ करने का मतलब साफ़ समझ आ रहा है? साथ इसलिए नहीं करना कि दूसरे पर हावी हो जाना है, साथ इसलिए भी नहीं करना कि तेरा साथ मिल जाए, तो जहाँ हैं वहीं रुक जाएँ। साथ इसलिए करना है क्योंकि साथ रहेगा तो दोनों ज़रा आसानी से पहुँच पाएँगे। साथ इसलिए करना है क्योंकि जब तुझे देख रहा हूँ तो अपनी याद आ रही है। जिस जगह से और जिस नज़र से मैं देख रहा हूँ, मुझे तू बिलकुल अपने जैसा दिख रहा है। और अगर तू मेरे ही जैसा है, तो तुझे छोड़ कर आगे कैसे बढ़ जाऊँ?

इस जंगल में मैं भी डरा हुआ हूँ और तू भी डरा हुआ है, तो फिर तुझे यहीं छोड़ कर गुज़र कैसे जाऊँ? और अगर तुझे छोड़ कर गुज़र जाऊँगा तो डरा डरा ही गुजरूँगा। तो आजा साथ, और, और भी दो चार दिख रहे हों उनको भी बुला ले, एक से भले दो, कुछ घटा फ़ासला, और दो से बड़ा काफ़िला । आओ सब आओ, साथ आओ ।

प्र२: पहले प्रश्नकर्ता ने जो सवाल किया उसमें मैं अपने आप को भी देख पा रहा था। और आपने दिल को छूने वाली बात कही। फिर भी मन में एक संशय है जो आपसे क्लियर करना चाह रहा था। मान लीजिए जिस तरह से आपने बताया प्यार के बारे में, मैं उस तरह से किसी से प्रेम करता हूँ। हालाँकि हम विचारों के तल पर जुड़े हैं कुछ आदान प्रदान, बिज़नेस चल रहा है। बाद में पता चलता है कि मैं तो किसी से प्यार करता हूँ सच्चा पर सामने वाला एक्टिंग कर रहा था। और लोग करते हैं एक्टिंग प्यार की , इस सिचुएशन (स्थिति) में क्या करना चाहिए?

आचार्य: सब नाटक करते हैं बेटा, बस सबके नाटक के तल अलग हैं। जो नाटक कर रहा हो उसे अपने से अलग क्यों मानते हो? थोड़ा और जगोगे तो दिखाई देगा कि तुम भी नाटक ही कर रहे थे। थोड़ा और जगोगे तो दिखाई देगा कि जब तुम्हें लग रहा था कि तुम नाटक कर रहे थे, तब भी तुम नाटक ही कर रहे थे।

प्र२: माफ कीजिएगा, मैं नहीं समझा।

आचार्य: ऐसे समझ लो कि जैसे होश के तल होते हैं न, वैसे ही नाटक के भी तल होते हैं। नाटक माने क्या? जो छद्म हो, जो झूठा हो, छल हो।

जो नाटक कर रहा है उसे इतनी अक्ल ही होती, कि क्या पाने योग्य है तो नाटक क्यों करता। तो उसको बस यही कह दो कि छद्म है, भ्रामक चीज़ है। तुम हो कुछ और, और बने कुछ और बैठे हो, इसी को नाटक कहोगे न? अभिनय की यही परिभाषा। तुम कुछ और हो, और बन कुछ और गए हो, है न? तो वो तो हम सभी के साथ है, बस ये है कि कुछ का अभिनय बिलकुल निचले तलों पर है, कुछ का मझले तलों पर है, कुछ ऊँचे तल के अभिनेता होते हैं। तो नाटक तो सभी कर रहे हैं।

प्र२: पर जब वो उजागर होता है तो वो रिश्ता नहीं रहता।

आचार्य: वो इसलिए नहीं रहता क्योंकि तुम्हारे नाटक में तुम जो किरदार बने हो उस किरदार से तुम्हारा तादात्म्य हो गया है, तुम भी भूल गए हो कि तुम भी तो नाटक ही कर रहे हो।

प्र२: तो आप कह रहे हैं कि मैं झूठा हूँ।

आचार्य: सब सब।

प्र२: मुझे समझ नहीं आ रहा कि मैं क्या बोलूँ।

आचार्य: अभी बस यही समझ लो कि दूसरा जो कर रहा है, अगर वो आत्मज्ञानी होता तो भी क्या वही करता?

प्र२: बिलकुल नहीं।

आचार्य: फिर जो वो कर रहा है, उसे तुम उसकी मजबूरी जानो, कि ये जितनी बेहोशी में है, इस बेहोशी में इस छल के अलावा और कर क्या सकता था।

प्र२: तब भी प्रेम करें उससे?

आचार्य: पहले जानो। तेज़ी से निर्णय मत लो कि क्या प्रेम करना ही पड़ेगा। प्रेम कोई विवशता में या ज़बरदस्ती की जाने वाली चीज़ तो होती नहीं। कोई किसी को हुक्म दे दे प्यार करो, तो प्यार तो नहीं आ जाने वाला।

प्रेम तो बोध के साथ-साथ चलता है, कुछ समझोगे तो प्रेम होगा। और प्रेम ऊँचाइयों की बात है। जितनी ऊँचाई से देखोगे, प्रेम करना उतना आसान हो जाएगा।

तो क्राइस्ट को सूली पर लटका रहे हैं, जान ले रहे हैं, क्रॉस तैयार है, और हाथ में और पाँव में कीलें ठोंकी जा रही हैं। और कह क्या रहे हैं वो? “इन्हें माफ़ कर दो।” ये तो छोटी बात है, आगे क्या कहा? “इन्हें पता ही नहीं है ये कर क्या रहे हैं। ये पगले हैं, इनसे बदला क्या लूँ, इनका बुरा क्या माँगूँ, इनके लिए तो माफ़ी ही माँग सकता हूँ।"

अगर ये होश में होते तो जो ये कर रहे हैं क्या यही कर रहे होते? लेकिन ये बात तो जैसा तुमने कहा कि—अभी क्या कहा?

प्र२: उनकी लड़ाई बड़ी थी।

आचार्य: हाँ, ये बात बड़प्पन की है, अब बताओ बड़प्पन की बात करनी है या छुटपन की?

प्र२: जब पर्दाफाश हो जाता है तो दिल को...

आचार्य: पर्दा फाश तो हो ही गया था न, पूरा जेरूसेलम खड़ा है सामने और क्या बोल रहा है?

प्र२: (सांकेतिक रूप से कहते हुए) तो चढ़ जाऊँ सूली पर?

आचार्य: तुम चढ़ो तो सही (ऊपर) फिर पता चलेगा कि सूली के क्या मज़े हैं।

प्र२: ठीक है, मिल गया मुझे मेरा जवाब।

आचार्य: बेटा बहुत सामान्य लगता है नफ़रत करना। लेकिन अगर तुम करीब से देख पाते कि जो तुम्हें दुःख दे रहा है उसकी अपनी ज़िन्दगी कैसी है तो तुम अपने दुःख को भूल जाओगे। ये हो ही नहीं सकता कि कोई किसी के साथ धोखा करे, चालाकी करे, कपट करे, ठगे, और उसकी अपनी ज़िन्दगी बड़ी आनंद पूर्ण हो।

तो संतों ने कोई आदर्शवादी चरित्र नहीं दर्शाया था जब वो चोरों के पीछे भागते थे, कि “अरे तुम चुरा के भागे जा रहे हो, ये दो चार चीज़ें तुमने छोड़ दी हैं, लो ये भी ले जाओ।” सुनी है न ये कहानियाँ? कि फ़कीर सो रहा है, और उसके घर चोर आया और सब लेकर चला गया। थाली ले गया शायद चमचा छोड़ गया होगा। तो फ़कीर साहब की आँख खुली, बोले “अरे पागल! ये दो-चार तो छोटी-छोटी चीज़ें छोड़ ही गया।” वो उसके पीछे-पीछे भागे, “ले लो, ये भी ले लो।”

ये वो अपना चरित्र चमकाने के लिए नहीं कर रहे थे, न उनके पीछे-पीछे वीडियो कैमरा चल रहा था। कि ये कर दें और फिर इस चीज़ को प्रचारित करेंगे, और बड़ा नाम होगा।

अगर स्मृति साथ दे रही है तो शायद संत तुकाराम जी के जीवन से उल्लेख है। वो बड़ी मुश्किल से दो-चार रोटी-वोटी पाए थे, वो ले कर के बैठे थे, तो कुत्ता लेकर भाग गया।

तुकाराम साहब थे क्या?

प्र: नामदेव।

आचार्य: हाँ, नामदेव। गुरु-शिष्य की ही बात है भूल गया था। तो इतना (छोटा) सा उनको रोटी के साथ क्या मिला था? घी। तो कुत्ता जब रोटी ले कर भगा, तो वो कुत्ते के पीछे भगे। बोले, “अरे घी तो लगा लो रोटी में।”

अब ये एक बार हुआ कभी तो हमें पता लग गया। ऐसा तो उनके साथ न जाने कितनी मर्तबा होता होगा, हमें पता भी नहीं। ये तो किसी ने देख लिया तो कहानी चल निकली, वरना उनके लिए तो ये रोज़ की बात थी न कि कोई अगर इस तरह कर रहा है तो दे दिया। वो देख रहे हैं कि कुत्ते की हालत क्या होगी, रोटी ले कर भाग रहा है।

फ़कीर को पता है कि चोर फ़कीर के घर में घुसा है, तो बड़ा ही गया गुजरा चोर होगा। बात समझो, चोर भी कहाँ घुस रहा है? फ़कीर के घर में, तो इस चोर की कितनी हालत ख़राब होगी। तो वो उसके पीछे जा रहे हैं, कि “लो एक लोटा बच गया है, इसको भी ले कर जाओ।”

हम उल्टा करते हैं, हमारे साथ जब हमें लगता है कि कुछ गलत हुआ, तो हमें ये तुरंत भाव उठता है कि ग़लत करने वाला ज़रूर मज़े कर रहा है। हमें दुःख दे कर खुद बहुत सुख पा रहा है। और फिर आग, बड़ा धुआँ आता है, कि “मुझे दुःख दे करके, खुद सुख कर रहा है।”

प्र२: बदले की भावना उठती है।

आचार्य: हाँ, फिर इसीलिए बदला, कि “तेरा सुख मैं घटा दूँगा, मैं दुःख में हूँ तो तुझे भी दुःख में होना चाहिए।" तुम्हें उसका सुख घटाने की ज़रुरत ही नहीं है वो पहले ही दुःख में है। चूँकि वो दुःख में है इसीलिए तो दुनिया में दुःख फैला रहा है। तो हो सके तो उसका दुःख दूर करो, वो नहीं कर सकते तो उसकी उपेक्षा कर दो। पर कम-से-कम बदले इत्यादि का ख्याल तो मत रखो।

अगर इतना बड़प्पन दर्शा सकते हो कि उसका दुःख मिटाने ही चल दो तब तो क्या बात है, सुभान अल्लाह! और अगर ये नहीं कर सकते तो ये कर दो कि “चलो ठीक है, दिया, तूने लिया नहीं, हमने दिया, जा। होगी तेरी कोई मज़बूरी, होगा तेरा कोई नरक, चढ़े होंगे तुझपर कुछ कर्ज़े, कि तुझे लूटना पड़ा हमें। जा उतार ले अपने कर्ज़े।”

‘कबीरा आप ठगाइये आन न ठगिये कोय, आप ठगे सुख होत है आन ठगे दुःख होए।' तो नहीं कह रहे हैं साहब कि चतुर चालाक बन जाओ, और ऐसे हो जाओ कि आइंदा तुम्हें कोई ठग न सके। क्या ठग लेगा ठगने वाला।

‘जा ठग ने ठगनी ठगी, ता ठग को आदेश।' जो बड़े से बड़ा ठग है हम उसके हो गए अब हमें कौन ठगेगा।

‘माया तो ठगनी भई, ठगत फिरै सब देस। जा ठग ने ठगनी ठगी, ता ठग को आदेश॥' हम तो वो हो गए जिसे अब माया भी नहीं ठग सकती तो ये ज़मीन वाले लोग हमें क्या ठगेंगे। तो ये छोटी मोटी ठगी कर रहा है इसको करने दो, हमें फर्क नहीं पड़ता। ले गया हमारे सौ रुपये, ले जा, दिए। बस जो असली चीज़ है वो मत ले जाना। असली चीज़ वाकई असली है तो कौन ले जाएगा। जब ज़रुरत पड़े तब याद रखना।

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें