आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
कुछ भी बर्दाश्त कर लेना, पर ये नहीं || आचार्य प्रशांत (2023)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
51 मिनट
60 बार पढ़ा गया

आचार्य प्रशांत: जैसे पात गिरे तरुवर से, मिलना बहुत दुहेला। न जाने किधर गिरेगा, लगया पवन का रेला।। ~ कबीर साहब

बहुत क्षणिक अवसर है ये और इस अवसर के अलावा आपके पास कोई सहारा नहीं है। बीता पल लौटकर नहीं आता। और उस बीते पल को आपने मुक्ति की तरफ़ नहीं लगाया तो एक पल और आपने दुख तैयार कर लिया। साधारणतया कोई दुखी आदमी हो तो वो बाक़ी अपनी सब धारणाएँ, कामनाएँ छोड़कर हर पल बस एक ही माँग करेगा — दुख समाप्त हो। उसके भीतर कोई विकल्प नहीं बचेगा। एक ही चीख, एक ही पुकार रहेगी लगातार, क्या? ये मेरी जैसी अभी स्थिति है, ये समाप्त हो। एक-एक बीतता पल उसको भारी पड़ेगा, नहीं पड़ेगा?

सिरदर्द भी ज़ोर का हो जाए तो घड़ी चलना बन्द कर देती है। एक-एक पल भारी पड़ता है। ज़ोर का सिरदर्द हो, आप कोशिश करते हैं कई बार कि नींद आ जाए। और सिरदर्द ही सोने नहीं देता, करवटें बदल रहे हैं। कैसी तड़प की स्थिति हो जाती है! उस समय पर कुछ भी और याद आता है? बस क्या माँगते हैं? अब फट रहा है सिर, कैसे भी दर्द समाप्त हो जाए।

हमारा जीवन उतना ही फटा हुआ है। लेकिन हमने अपने यथार्थ का क्या कर दिया है? दमन। सिरदर्द का दमन आसानी से नहीं हो सकता, हालाँकि अब चिकित्सा-विज्ञान उसका भी दमन कर देता है, ये लो एनेलजेसिक (दर्द निवारक दवा)। पर जीवन का जो दर्द है, उसको तो हम सफलतापूर्वक दबा ही देते हैं। तो पल-पल लगातार एक ही नहीं पुकार रह जाती कि मुक्ति मिले, शान्ति मिले।

जो हम कहते हैं न, 'तथ्य ही सत्य का द्वार है’, उसको ऐसे पढ़िएगा, 'दुख ही सत्य का द्वार है’, क्योंकि जो तथ्य का दर्शन करेगा, वो एक ही तथ्य पाएगा कि दुख है। दमन नहीं कर रहे हो अगर तथ्य का, तो दुख तो है ही। और दुख का दमन करने के तरीक़े हज़ार होते हैं। नयी शर्ट ख़रीद लाओ। नयी आती है तो उसमें एक कवर होगा, एक रैपर होगा, और चीज़ें लगी होती हैं, एक प्राइस टैग भी लगा होगा। और जिस दुकान से खरीदते हो, वहाँ रोशनियाँ खूब होती हैं, तो एक साधारण शर्ट भी ऐसे चमकती है कि लगता है क्या बात है! उतनी देर के लिए दुख दमित हो जाता है। पर उतने पल व्यर्थ चले गये, क्योंकि वो जो पल थे, वो बन्धन को हटाने में लग सकते थे, लगे नहीं। उनका कोई बहुत-बहुत सार्थक उपयोग हो सकता था, हुआ नहीं।

भूलिएगा नहीं कि जो आपकी अन्तिम सम्भावना है, वो मात्र दुख से मुक्ति की नहीं है। हालाँकि बुद्ध आदि ज्ञानी वहीं पर जाकर रुक गये हैं। उन्होंने कहा, ‘दुख से मुक्ति हो जाए, इतना पर्याप्त है।’ वेदान्त और आगे गया है, वेदान्त ने कहा है 'आनन्द’। आप ऐसे भी कह सकते हैं कि जिसको बुद्ध बस कहते हैं कि दुख से मुक्ति, उसी को वेदान्त आनन्द कहता है। बुद्ध का पहला सत्य है दुख। और जो आख़िरी बात वो कहते हैं, ‘दुख से मुक्ति सम्भव है अष्टांग मार्ग का अनुसरण करके।’ वेदान्त कहता है कि आख़िरी बात है आनन्द।

हर पल जो आप बन्धन से मुक्त होने में नहीं बिता रहे, उसमें आप अपनेआप को आनन्द से वंचित कर दे रहे हो। दुख तो रह ही गया और आनन्द से चूक भी गये। बहुत गड़बड़ कर दी न। और ये गड़बड़ के ऊपर की हुई गड़बड़ है कि पहले तो बन बैठे अहम्। अहम् बन बैठे तो सामने एक बड़ा भारी पर्दा तैयार कर लिया — संसार। उस पर्दे पर मेला चल रहा है। और अब उसी पर्दे का उपयोग करके जो यथार्थ जाना जा सकता है संसार का, वो भी नहीं कर रहे।

ऐसी सी बात है कि आपकी परीक्षा हो, लेकिन आपको बताया गया है कि एक बहुत अच्छी मूवी आयी है, देखकर आओ। और पिक्चर हो सकता है सचमुच अच्छी हो। करना तो ये चाहिए था कि आप परीक्षा की तैयारी करते। पर चलो कोई बात नहीं, अब एक फ़ैसला कर लिया है कि पिक्चर देखनी है, नहीं करनी परीक्षा की तैयारी। उठकर चले गये हैं पिक्चर देखने। कुल मिलाकर आना-जाना, बैठना, सब मिलाकर चार घंटा लगाने वाले हैं।

पिक्चर देखने गये हैं, पिक्चर वास्तव में अच्छी है। किसी फ़िल्मकार ने बड़े दिल से बनायी है और उसने बहुत प्यारा सन्देश भी देने की कोशिश की है। लेकिन उसको अच्छे से पता है कि अगर बिलकुल मैं अर्थपूर्ण ही फ़िल्म बना दूँगा तो वो चलेगी नहीं। लोग कहेंगे, ‘क्या दिखा दिया तुमने ये! ये डॉक्यूमेंटरी (वृत्तचित्र) बनायी है क्या?’ तो वो चलेगी नहीं। तो उसने पिक्चर में और भी चीज़ें रख दी हैं माल-मसाला। क्या? आठ गाने हैं, मुख्य चरित्रों के अलावा आठ-दस फ़ालतू चरित्र हैं। एक का काम है हँसाओ, एक का काम है कुछ और करो, कुछ वाहियात हरकत चल रही है, कुछ भी चल रहा है। गाड़ियाँ उछल रही हैं, बम फट रहे हैं, ये सब भी हो रहा है उसमें। अब ये सब पर्दे पर चल रहा है।

लेकिन उस कहानी में छुपा हुआ एक गूढ़ सन्देश भी है जो फ़िल्मकार आपको दिखाना चाहता था, पर वो नहीं दिखा सकता सिर्फ़ वो सन्देश, अन्यथा आप देखने नहीं जाओगे, हॉल खाली पड़ा रहेगा। तो उसने बिलकुल ताज़ी, स्वादिष्ट और पौष्टिक चीज़ को भी मसाले में लपेटकर तल दिया है। तो आप वहाँ बैठे पिक्चर देखने, वहाँ भी आपने क्या देखा? गाना बहुत बढ़िया था, और गाने में भी चार आइटम नम्बर हैं, आप बिलकुल थिरक गये, मज़ा आ गया! फूहड़ कॉमेडी चल रही है अश्लील, उसमें बड़ा आनन्द आ गया। और कुछ भावनात्मक दृश्य हैं जहाँ पर हीरो की माँ है, वो बहुत रो रही है बुरे तरीक़े से, क्योंकि हीरो रोज़ नहाकर अपनी बनियान नहीं बदलता। वहाँ आपकी आँखों में आँसू आ गये, कि क्या ममता है।

(श्रोतागण हँसते हैं)

और ये सबकुछ वहाँ ले लिया और साथ बैठकर इतना सारा पॉपकॉर्न खा लिया। आप वहाँ बैठे हो, चार बार आकर पूछ रहा है आपसे, ‘और भी कुछ खाएँगे?’ पहले नहीं होता था, पहले बाहर जाकर लेना पड़ता था काउंटर पर। अब वो अन्दर आ जाते हैं और आपको कहते हैं ये लो मेन्यू। खूब सारा वहाँ खा भी लिया, शोर मचा लिया, सब कर लिया।

तो एक तो ग़लती ये करी कि परीक्षा छोड़कर इधर आये, और दूसरा, जहाँ आये वहाँ भी कुछ पा सकते थे, वो भी नहीं पाया, भूल पर भूल। अहम् बने, पहली भूल तो ये करी। और अहम् बनकर जो सम्भावना मिली थी कि अब जगत के माध्यम से ही तुम सत्य का दर्शन कर लो, उस सम्भावना को भी नहीं साकार किया। अहम् बनकर क्या किया बस? बहुत सारा पॉपकॉर्न , बहुत सारा। हर तरीक़े से मारे गये न।

जो पहली भूल है, उसको पलट नहीं सकते हम। जीव हैं, शरीरी हैं, वो तो हम बन ही गये। लेकिन दूसरी भूल के मध्य से गुज़र रहे हैं हम, इस दूसरी भूल को पलटा जा सकता है। जिस समय जहाँ भी हैं और जो भी अनुभव हो रहा है, उसको अवसर जानिए।

“मिलना बहुत दुहेला” — एक दुष्प्राप्य अवसर है, मुश्किल से मिला है, दोबारा नहीं मिलेगा। जिस वक़्त जो भी हो रहा है, वो कभी भी दोबारा हुआ है क्या? क्या बस कुछ ख़ास पल ही होते हैं जो लौटकर नहीं आते या कोई भी पल लौटकर नहीं आता?

श्रोतागण: कोई भी पल लौटकर नहीं आता।

आचार्य: तो सिर्फ़ कुछ पलों को ख़ास कैसे कह दोगे, बोलो? सिर्फ़ कुछ पलों को ख़ास तो हमारी भोग-वृत्ति बोलती है, 'कोई पल ख़ास इसलिए था क्योंकि उस पल इतना पॉपकॉर्न मिल गया था।' लेकिन पल तो सभी ख़ास हैं, क्योंकि कोई भी पल लौटकर नहीं आएगा। तो पल और पल में क्या अन्तर है?

“जैसे पात गिरे तरुवर से।” कौनसा पत्ता है जो तरुवर को दोबारा लग जाएगा? कौनसा पल है जो समय में वापस आ जाएगा? न टूटा पत्ता कभी पेड़ में दोबारा लगता है, न टूटा पल कभी समय की धार में दोबारा लगता है।

समझ में आ रही है बात ये?

उठकर आ गये हो वहाँ से जहाँ से कभी उठकर नहीं आना चाहिए था। अब कुछ कर नहीं सकते, हो गया, जन्म तो ले लिया। किसने कहा था कि जन्म लो? अब ले लिया जन्म। अब जन्म लेने के बाद जैसे कहते हैं न, ‘कोढ़ में खाज या खाज में कोढ़!’ एक भूल के ऊपर दूसरी भूल, करेला नीम चढ़ा! वो तो मत करो।

ये संसार इसलिए नहीं है कि यहाँ मौज मारो। मैं नैतिक आधार पर नहीं कह रहा हूँ कि मौज मारना बुरी बात है। मैं कह रहा हूँ कि यहाँ मौज मारी जा नहीं सकती। मैं नियम के आधार पर बोल रहा हूँ, नैतिकता के आधार पर नहीं। और जिन्होंने उस नियम को जाना है, उन्होंने कहा है कि तुम्हें लगता है कि तुम जगत को भोग रहे हो, तुम जगत को नहीं भोग रहे हो, जगत तुम्हें भोग रहा है। तो ये नियम है कि यहाँ भोग हो नहीं सकता, सम्भावना नहीं है। यहाँ जो हो सकता है, उसका प्रयास कर लो। योग हो सकता है यहाँ।

हमारी शिक्षा हमें यही मूल बात नहीं बताती, बाक़ी बहुत सारी बातें बता देती है। हमें ये कभी नहीं बताया जाता कि हम कौन हैं और हम हैं ही क्यों। बाक़ी बहुत सारी बातें बतायी जाती हैं। वो सारी बातें किसको बतायी जा रही हैं, ये कभी नहीं बताया जाता। अंकों का गणित बता देते हैं, जीवन का गणित नहीं बताते। सब भाषाएँ सिखा देते हैं, मौन नहीं सिखाते। भारत का और दुनिया भर के संविधान सिखा देते हैं, जीवन के नियम नहीं सिखाते।

क्या करोगे दुनिया भर के नियम जानकर अगर मन के नियम नहीं जानते तो? शरीर कैसे चलता है, ये बता देंगे। शरीर चलता ही क्यों है, ये नहीं बताएँगे। अर्थ नहीं देती शिक्षा। आप जाइए, किसी बड़े-से-बड़े शोधकर्ता से पूछिए, चिकित्सक से पूछिए कि ये शरीर चल ही क्यों रहा है, कोई उत्तर नहीं होगा। अर्थ नहीं है।

बात समझ रहे हैं?

आप यूँही नहीं हैं, आप सोद्देश्य हैं भाई। लोग ढूँढते रहते हैं कि जीवन का क्या लक्ष्य हो, पर्पस ऑफ़ लाइफ़ क्या हो। द पर्पस ऑफ़ लाइफ़ इज़ लिबरेशन एव्री मोमेंट, दैट्स ऑल (जीवन का उद्देश्य है हर क्षण मुक्ति, बस)। इतना क्या उसमें घबराने की और संशय की बात है?

'इफ़ द पर्पस ऑफ़ लाइफ़ इज़ लिबरेशन, डज़ लाइफ़ एंड एट लिबरेशन (यदि जीवन का उद्देश्य मुक्ति है तो क्या मुक्ति पाने के साथ ही जीवन ख़त्म हो जाता है)?'

'नो, इट बिगिन्स विद लिबरेशन, बिफ़ोर दैट देयर इज़ ओनली डेथ (नहीं, जीवन शुरू ही मुक्ति के साथ होता है, उसके पहले तो सिर्फ़ मृत्यु है)।’

मुक्ति से पहले मौत है सिर्फ़। मुक्ति के बाद क्या है? मौज। जीवन का उद्देश्य क्या है? मौत से मौज तक की यात्रा। मरे हुए को सिर्फ़ जिलाना नहीं है, उसे मौज करानी है। निष्कंटक मौज, जिसमें ये भाव नहीं है कि अब छः बज जाएगा तो पीछे से मम्मी आकर घर में वापस खींच लेगी। ये मम्मी (महा माँ) द्वारा दी गयी मौज है। नवरात्रि चल रहे हैं, किन मम्मी की बात हो रही है, समझ जाइए। बड़ी मम्मी। मम्मी की मम्मी की मम्मी की मम्मी की मम्मी, उनकी मम्मी। महा-माँ। ये वो मौज है जो कभी ख़त्म नहीं होती।

मैं छोटा था, एक विज्ञापन आया करता था। तब बम्बई में एक नया-नया खुला था 'एस्सेल वर्ल्ड’। पता नहीं अब है या नहीं है, या बम्बई में ही था या कहीं और था। तो उसका विज्ञापन आये, और उसमें कुछ बात थी। बोलता है, 'एस्सेल वर्ल्ड में रहूँगा मैं, घर नहीं जाऊँगा मैं।' समझ रहे हैं? वो वाली मौज। कहीं अब लौटकर नहीं जाना है, वहीं रहो।

“कहें कबीर सत्य वो पथ है, जहाँ फिर आना और जाना नहीं।”

अब ये नहीं कि शर्तें लगी हुई हैं, सीमाएँ बँधी हुई हैं, छः बज जाएगा तो घर में वापस जाना पड़ेगा। कहीं नहीं वापस जाना। 'एस्सेल वर्ल्ड में रहूँगा मैं, घर नहीं जाऊँगा मैं।' और भी आगे आता था। 'यहाँ-वहाँ खेलूँगा मैं, पानी में कूदूँगा मैं, घर नहीं जाऊँगा मैं’, कुछ ऐसा करके था।

वो मौज तभी मिल सकती है जब जीवन का सार्थक उपयोग किया जाए। दर्शन, श्रवण, अध्यात्म, आत्मज्ञान — वही सार्थक उपयोग है। जो भी आपके संसाधन हैं, जो भी आपको शिक्षा मिली है, वो सब इसीलिए है ताकि आप उस मौज तक जा सको। और वहाँ तक नहीं जा पा रहे तो जो मिला है, सब एकदम व्यर्थ गया है। सिनेमा हॉल पॉपकॉर्न खाने के लिए नहीं होता। सिनेमा हॉल सिर्फ़ पिक्चर को ऐसे देखने के लिए भी नहीं होता कि कुछ हो रहा है। वो पर्दा होता है ताकि आप पर्दे के पार के फ़िल्मकार को देख सकें।

फ़िल्म क्या है? फ़िल्म सबसे पहले एक भाव है। भाव से मेरा अर्थ इमोशन (भावना) नहीं है, वो सन्देश है जो फ़िल्मकार आपको देना चाहता है। पहले वो सन्देश आया है, फिर उस सन्देश को उसने विस्तार दिया, विकसित किया, एक पटकथा लिखी, फिर उसने अन्य तरीक़े की बहुत चीज़ें जोड़ीं, मसाले डाले। फिर उसने जाकर कहीं से एक निर्देशक पकड़ा होगा, कोरियोग्राफ़र (नृत्य-निर्देशक) भी ले आया होगा। नृत्य-निर्देशक हो गया, अभिनेता-अभिनेत्री हो गये। एक बहुत बड़ी मंडली होती है जो लगती है एक पिक्चर को बनाने में।

पर सबसे पहले क्या आता है? कुछ है जो बताना है। अगर फ़िल्म अच्छी है। नहीं तो फिर तो ये भी हो सकता है कि इधर की ईंट उधर का रोड़ा, कुछ भी ले आओ, एक के बाद एक कुछ दिखा दो, दो घंटे तो बीत ही जाते हैं।

इसीलिए जो कॉनोज़ियर्स (विशेष जानकार) होते हैं, फ़िल्मों के भी जो पारखी होते हैं, उनको आप पाएँगे कि वो अभिनेताओं से पहले बात करते हैं निर्देशकों की। और जो अनाड़ी लोग होते हैं, वो बस यही बात करते जाते हैं वहाँ पर कि वाह! अजय देवगन ने क्या घूँसा मारा था। उनको अभिनेता से आगे कुछ दिखाई नहीं देता, क्योंकि अभिनेता वहाँ पटल पर है, अभिनेता दृश्य है। वो बस वही बात करते हैं।

सुनिएगा ऐसी बातें, ‘वो हेमा मालिनी का एक गाना है।’ हेमा मालिनी ने तो कभी कोई गाना गाया नहीं! पर उनको पता भी नहीं होगा कि उसको गाने वाला सचमुच कौन है। आप नहीं करते हो क्या ऐसे? आप चले जाइएगा, आपको सीडीज़ मिल जाएँगी, 'फ़िफ़्टीन सूपरहिट सॉन्ग्स ऑफ़ अमिताभ बच्चन’। अमिताभ बच्चन के गाने? अमिताभ बच्चन ने तो कुल पाँच गाने गाये होंगे ज़िन्दगी में। वो जितने गाने हैं, वो किसके हैं? वो कोई किशोर कुमार का है, कोई मोहम्मद रफ़ी का है। पर हमें ये तक नहीं दिखाई देता कि वो अभिनेता सिर्फ़ होंठ चला रहे हैं।

तो क्या आपको पता है कि आपके दृश्यों के पीछे बोलने वाला सचमुच कौन है? या आप भी ऐसे ही बोलते हो कि भाई, हेमा मालिनी का गाना बहुत अच्छा था आज? हेमा मालिनी ने गाना तो छोड़ दो, बोला तक नहीं है उसमें कुछ भी। और बोल देती तो गड़बड़ हो जाती। पर्दे के पीछे की लता मंगेशकर का कुछ पता है? इसको श्रवण कहते हैं।

वो कौन है जो पर्दे के पीछे से नचा रहा है? आपको ये तो दिखाई देता है कि बढ़िया दोनों नाचे हीरो-हिरोइन , उन्हें नचाने वाला कौन है, उसका नाम कुछ पता है? 'भाई, बहुत सही डायलॉग मारा है नाना पाटेकर ने।' वो अब उसका डायलॉग था? किसका था, कुछ पता है? आपके सारे शब्दों के पीछे कौन बोल रहा है, कुछ पता है?

जीवन इसीलिए है, पर्दे के पीछे झाँकना है। पर्दे पर जो है, उसको कड़ाई से बोलोगे तो झूठ है, और थोड़ा लोच से बोलोगे तो बस एक सम्भावना है सत्य को जानने की। मैं कह रहा हूँ कि उसको ऐसे ही देखिए। सब दृश्य दर्शन की सम्भावना मात्र हैं। सब शब्द इसलिए हैं ताकि श्रवण हो सके।

तो सन्त ऐसे बोलते हैं, “सब धरती तीरथ भई, और पत्थर शालिग्राम।” सारी धरती ही इसीलिए है कि एक-एक इंच भूमि आपके लिए बन जाए तीर्थ। तीर्थ कौनसी जगह होती है? जहाँ सत्य प्रकट हो जाए आपके लिए, उसे तीर्थ बोलते हैं। तो कहते हैं, 'सब धरती तीरथ भई और सब नदियाँ गंगा भईं।' नदियाँ ही नहीं, पानी की एक-एक बूँद गंगा हो गयी।

ये है जीवन जीने का तरीक़ा — जो कुछ भी दिख रहा है, उसके पार दिख गया। और पार ऐसे नहीं देखा जाता कि जो दिख रहा है उसकी उपेक्षा कर दी और पार देखने की कोशिश कर रहे हैं। पिक्चर देखने गये, बोले, ‘बोले थे कि पर्दे के पार देखना है’, तो सीट से उठकर पीछे की ओर निकल गये और वहाँ ढूँढ रहे हैं, यहाँ पर कौन है बताओ।

पहले होता था, गाँव-गाँव में ले जाकर, तब रेडियो नहीं होते थे, ट्रांज़िस्टर होते थे इतने बड़े (हाथों के इशारों से आकार बताते हुए)। जो एकदम पहले-पहले आये थे न, वो इतने बड़े होते थे, ये जो मेज़ है इतनी बड़ी। और ये बड़ी! तो वहाँ ग्रामीणों के सामने लगा दीजिए, उसमें से गाना आने लगता था। वो एकदम तुरन्त उठकर आते थे, पीछे खोजने लगते थे, और कोई उसके अन्दर झाँके। उन्हें यक़ीन ही नहीं होता था कि आवाज़ आ सकती है यहाँ।

तो ये नहीं करना है कि वहाँ पीछे जाकर देखो, उसी को ध्यान से देखना है। जो दिख रहा है, उसी को ध्यान से देखो, उसके पीछे का दिख जाएगा। और ध्यान से आप देख लोगे, मुश्किल नहीं है, वृत्ति भोग की न रहे तो। इस कामना के साथ न देखो कि भोगना है। उस कामना को हटा नहीं सकते तो थोड़ी देर को स्थगित कर दो, सस्पेंड कर दो थोड़ी देर को।

सामने कोई चीज़ रखी है, ललचा रही है कि भोगना है इसको। भोग लेना चलो। मन को ये मत बोलो कि नहीं भोगना है, ऐसे बोल दोगे तो विद्रोह करता है। ऐसे कहो, ‘दो मिनट बाद भोगना है।’

‘दो मिनट मिलेंगे साहब, दो मिनट।’

‘हाँ, ठीक है, दो मिनट ले लो।’

दो मिनट में कामना हटाकर उसको ध्यान से देख लो कि ये क्या है, दर्शन हो जाएँगे।

“जैसे पात गिरे तरुवर से, मिलना बहुत दुहेला।” उसी क्षण जिस क्षण — और ये जो पत्ते का गिरना है न पेड़ से, इसको लेकर बहुत कहानियाँ हैं। भारत में भी हैं, सूफ़ियों में भी हैं और ज़ेन दिशा (जापान में बौद्ध की एक धारा) में भी हैं। वो खड़ा हुआ है भिक्षुक, और तभी उसके सामने पेड़ से पीला पत्ता गिरता है और निर्वाण! बस वो क्षण था, और आख़िरी क्षण था वो। उसे फिर कुछ और समझने की ज़रूरत नहीं पड़ी, सब समझ में आ गया। और वो बहुत-बहुत सालों से साधना कर रहा था, पढ़ रहा था, पर कुछ था जो अटक जाता था, मुक्त नहीं हो पा रहा था। और एक दिन ऐसे ही अनायास खड़ा हुआ था पेड़ के सामने और देखा कि एक पत्ता टूटकर गिरता है। कहते हैं कि वो क्षण उसका आख़िरी क्षण था।

इतनी साधारण कोई घटना, पेड़ से पत्ता गिरा, ये पर्याप्त हो सकती है, आपको दर्शन हो गये। बड़े-से-बड़े मन्दिर में जो दर्शन नहीं हो सकते थे, वो एक साधारण से पेड़ के सामने टूटते पत्ते को देखने से हो गये।

आप अपने बच्चे को सुलाकर आये। बाहर की तरफ़ आये अपने गैराज में, वहाँ आपकी गाड़ी खड़ी है। आप वहाँ आये, वहाँ अन्धेरा था, आपने लाइट जलायी। वहाँ लाइट जलते ही एक बिल्ली एकदम अचकचाकर कोने में हो गयी, अपना छोटा बच्चा लिये हुए थी। आपने बिल्ली को देखा, बिल्ली ठीक आपकी आँखों में देख रही थी। वो एक पल पर्याप्त हो सकता है। भीतर संवेदनशीलता विकसित करिए, वो एक पल पर्याप्त हो जाएगा। आपको उसके बच्चे की आँखों में अपना बच्चा दिखाई दे जाएगा और वो बिल्ली आप हैं। विचार और धारणा को बीच में मत आने दीजिएगा। वो पल प्रयाप्त है।

“जैसे पात गिरे तरुवर से।” एक पल में दिख जाएगा सब। हम कौन हैं, हमारा यथार्थ क्या है, सब स्पष्ट हो जाएगा। “मिलना बहुत दुहेला।” नहीं आएगा, दोबारा नहीं आएगा।

“न जाने किधर गिरेगा, लगया पवन का रेला।” संयोग है, पवन पर आपका नहीं बस है। पत्ते को हवाओं में संयोग से बहते देखकर जिसको ये न दिखाई दे कि उसका जीवन भी मात्र संयोगों की श्रृंखला रहा है, वो अन्धा ही होगा, उसे क्या दर्शन होंगे। पत्ता हवा में बहता है तो हम बोल देते हैं कि बस बह ही तो रहा है, कुछ कर थोड़ी रहा है। अपने जीवन को देखकर ये क्यों नहीं कह पाते आप? क्योंकि अहम् स्वयं को देखने की क्षमता नहीं रखता। क्षमता तो वो संसार को देखने की भी नहीं रखता, पर फिर ध्यान किसलिए है? ध्यान गहराये तो संसार को देख सकता है, ध्यान और बढ़ जाए तो फिर वो स्वयं को भी देख सकता है।

एक बहते पत्ते के अलावा आपकी कहानी और क्या है? पत्ता न अपनी मर्ज़ी से पेड़ पर लगा, न बड़ा हुआ, न पीला हुआ, न टूटा, न बहा, न फिर किसी के पाँव तले कुचला गया। जो भी कुछ हुआ, बस संयोग से हुआ। और जिसने इस संयोग के तथ्य को पूरी तरह स्वीकार कर लिया, वो अहम् से मुक्त हो जाता है। क्योंकि अहम् संयोग थोड़ी मानता है, अहम् तो कर्तृत्व पर चलता है। कहता है, ‘मैंने किया। हुआ थोड़ी था, मैंने किया था।’ दिख जाए कि कुछ नहीं किया, बस हो रहा है, मुक्ति मिल गयी न?

कितनी ही कहानियाँ होती हैं। राजा जंगल में शिकार करने गया था, ठीक उसी समय उधर से एक मुनि आन गुज़रे। अब शिकार करने गये, किसी अगले दिन भी जा सकते थे। और चौबीस घंटे थे, मुनि को उसी पल वहाँ से क्यों गुज़रना था? ये सब क्या है? संयोग। बाद में हो सकता है कि मुनि से राजा को महाज्ञान मिल गया हो। वो भी क्या है? संयोग। बाद में ये भी हो सकता है कि मुनि ने अपनी कन्या से राजा का विवाह कर दिया हो। ये भी क्या हो सकता है? संयोग।

पूरा जो कुरु वंश ही था, वो कहाँ से आ रहा था? राजा गये, वहाँ वो नहा रही थी, और बोले कि यही चाहिए। न वो उनको नहाते हुए दिखती, न भीष्म को प्रतिज्ञा करनी पड़ती, न पैदा होते ये सब। वो न दिखती नहाते हुए, सत्यवती, तो फिर तो जो औलादें होतीं, वो सब भीष्म की होतीं। भीष्म बेचारे तो फँस गये, क्योंकि पिताजी को कोई और पसन्द आ गयी। वो जो पसन्द आ गयी, बोली, ‘मुझसे शादी करके क्या होगा, ये इतना बड़ा आपका धुरन्धर बेटा है, राज्य तो इसकी सन्तानों को मिलेगा।’ पिताजी गये — ये देखो संयोग क्या कराते हैं — इतना बड़ा जवान बेटा है, पिताजी जाकर उससे बोल रहे हैं, ‘बेटा, मुझे शादी करनी है।’ बोला, ‘ठीक है पिताजी, आप शादी कर लो, मैं संन्यासी हो जाता हूँ।’ यही भीष्म-प्रतिज्ञा कहलाती है। ‘पिताजी, आप ब्याह कर लो, मैं संन्यासी हो जाता हूँ।’ और सब कुल मिलाकर क्यों? क्योंकि पिताजी गये थे जंगल और नहाते हुए दिख गयी, पिताजी बोले कि चाहिए।

“जैसे पात गिरे तरुवर से, लगया पवन का रेला।” उसी पल वो घटना न घटी होती तो कितना कुछ है जो न घटा होता। और जो घटना घटी, वो किसके घटाये घटी? हटाओ कि भाग्य पूर्वलिखित है, कि सबकुछ पूर्व-नियोजित है। संयोग है बस। बहुत लोग आएँगे, कहेंगे, ‘अरे! ये तो विधान है जो पहले ही लिखा गया था, इसीलिए उस पल हुआ।’ किसी ने कुछ नहीं लिखा है, प्रकृति संयोगों पर आश्रित है। हाँ, उन संयोगों को ही ईश्वर बोलना है तो हम बोल सकते हैं। यदि ये जितने संयोग घटित हो रहे हैं, इन्हीं का नाम ईश्वर है तो ठीक है, अन्यथा प्रकृति बोलना पर्याप्त है।

वेदान्त कहता है प्रकृति। बस समाप्त। आगे की कोई बात नहीं। अहम् है, प्रकृति है और सत्य है। प्रकृति को चलाने वाला जैसा कोई नहीं, कि कोई है जो संसार को चला रहा है। न, न, वो सब कोई खेल नहीं। संयोग है, बस संयोग!

लोग कहते हैं, ‘प्रकृति को चलाने वाला कोई और है, हम तो बस कठपुतलियाँ हैं।’ वेदान्त उतना भी स्वीकार नहीं करता। ये कठपुतली की भी तो कोई हस्ती होती है, तो कहता है, ‘नहीं।’ लोग कहते हैं, ‘चलाने वाला कोई और है, हम तो उसके नौकर हैं, सेवक हैं।’ वेदान्त कहता है, ‘सेवक तो बहुत बड़ी तुमने अपने लिए हस्ती बना ली, कोई सेवक भी नहीं हो तुम। तुम सेवक भी नहीं हो। तुम तो हो ही नहीं।’ संयोगों से घटी घटना को कैसे कह दें कि हुई? उसको क्या हम कोई व्यक्तिगत हस्ती, कोई व्यक्तिगत उपाधि दे दें? कैसे दे दें? बोलो।

जो संयोगवश नहीं है, गीता में उसको कृष्ण कहते हैं। बस वही हैं जो संयोगवश नहीं हैं, बाक़ी तो सब संयोग के मारे हैं। तो कृष्ण कहते हैं, ‘मैं अकर्ता हूँ और मात्र मुझे अधिकार है अपनेआप को कर्ता बोलने का। तुम सब झूठमूठ ही अपनेआप को कर्ता समझते हो। तुमने कुछ किया है आज तक? तुम्हारे साथ तो बस हुआ है, तुमने कुछ नहीं किया आज तक। तुम्हारे साथ चीज़ें होती रहती हैं, तुम्हें लगता है कि तुमने किया है।’

पत्ते में भी हमारी तरह अहंकार होता तो बोलता कि बस वो अभी-अभी मैंने तय किया कि वृक्ष का साथ अब छोड़ दूँगा, ब्रेक अप किया है। ये बहुत अकड़ता था, मैंने कहा, ‘ ब्रेक अप! आई विल फ़्लाइ फ़्री (मैं स्वतन्त्र उड़ूँगा)।’ न तू अपनी स्वेच्छा से वृक्ष पर लगा था, न वृक्ष से विलग हुआ।

ये जो आपके बड़े-बड़े यार होंगे, दोस्त होंगे, ये ज़्यादातर स्कूल-कॉलेज के ही होंगे? आप सिक्स-ए में थे, वो सिक्स-सी में होता तो? और सिक्स-ए वालों की यारी तो सिक्स-ए से ही हो सकती है, सिक्स-सी से बड़ा मुश्किल है। उनकी क्लास अलग, उनके पीरियड्स अलग। अधिक-से-अधिक छुट्टी के बाद मिल लोगे या कि रिसेस (लंच ब्रेक) में मिल लोगे। सुबह की प्रार्थना में भी उनकी कतार अलग, कहाँ जाओगे घुसने। और वही फिर आगे कहने लग जाते हो कि ये तो मेरा बिलकुल जानी दोस्त है। कैसे जानी दोस्त बन गया? क्योंकि पहली बात तो सिक्स-ए और दूसरी बात तुम्हारा नाम आदर्श और उसका नाम अखिलेश, तो दोनों को बिलकुल अगल-बगल बैठा दिया गया रोल नम्बर के हिसाब से। और ये भी संयोग की बात है कि वहाँ रोल नम्बर नाम के हिसाब से तय किये गए थे। कोई जगह हो सकती है जहाँ रोल नम्बर किसी और आधार पर बना दिये जाएँ, फिर इतनी यारी नहीं होती।

“लगया पवन का रेला।” और पवन का रेला लग जाए, आदर्श भाई को उठाकर सिक्स-ई में फेंक दिया जाए, आ गया पवन का झोंका। पवन का झोंका यही था कि दोनों ख़ुराफ़ात कर रहे थे, तभी प्रिंसिपल ने देख लिया तो एक को उठाकर सिक्स-ई में डाल दिया। प्रिंसिपल का नाम पवन मल्होत्रा था। कसमें-वादे-प्यार-वफ़ा का क्या हुआ? सब समाप्त!

जब होवे उमर पूरी, तब छूटेगा हुकम हुज़ूरी। यम के दूत बड़े मज़बूत, यम से पड़ा झमेला।। ~ कबीर साहब

तुम बस दासता का जीवन बिता रहे हो। और ये उस दिन तक बिताते रहोगे, जिस दिन तक प्राण हैं। जो जीवन हो सकता था मुक्ति की ख़ातिर, दर्शन की ख़ातिर, हम उस जीवन को इस्तेमाल कर रहे हैं बस दासता की ख़ातिर। आनन्द बस मुक्ति में है। मुक्ति को ही सन्तों ने मालकियत कहा है। और दुख दासता में है। हमारा जीवन दासता का है। इसीलिए सन्तों को कहा गया बादशाह। हम दास हैं, वो बादशाह हैं, वो मुक्त हैं। जो मुक्त है, वो बादशाह है, मालिक है।

उस दिन तक चलेगा ये हुकुम हुज़ूरी जिस दिन तक साँस ले रहे हो। कड़वी बातें हैं, मृत्यु का तथ्य है, दासता का तथ्य है। सन्त हमें लेकिन चेताते हैं, क्योंकि ये बातें हम स्वयं याद नहीं रख पाते हैं। हम इन बातों का क्या करते हैं? दमन कर देते हैं। हम अपनेआप को यूँ दिखाते हैं जैसे सब ठीक है।

पुलिसवाले भी, ये जो ट्रैफ़िक पुलिस के होते हैं, ये भी गाड़ी देखकर व्यवहार करते हैं। बड़ी गाड़ियाँ हैं, उनको ज़्यादा नहीं रोकेंगे, और रोकेंगे भी तो उनके साथ थोड़ा सलीक़े से पेश आएँगे। तो एक बार कॉलेज के समय की बात है। वहीं चौराहा था, एक क्रॉसिंग थी, वहाँ पर एक जूसवाले की दुकान थी। मैं वहाँ खड़ा था, जूस पी रहा था। वहीं चौराहे पर ट्रैफ़िक वाले थे, उन्होंने एक ऑटो को रोका। तो ऑटोवाला नीचे उतरा। और कुछ उसने गड़बड़ कर ही रखी थी, तभी उसको रोका था। तो वो उनके पास जाता है और बिलकुल दाँत फाड़ रखे हैं उसने, और बेवजह हे-हे कर रहा है, मुस्कुरा रहा है।

और वो उनके पास जाता है तो उसको एक डंडा लगाते हैं। उससे पहले उन्होंने उसके ऑटो पर भी डंडे लगाये थे, उसको रोका ही था डंडे लगाकर। ऑटो भी ऐसे नहीं रुका था। वो वहाँ पर ऐसे खड़े हुए थे कि जहाँ पर मुड़ते हैं आप, मोड़ पर खड़े थे, तो वहाँ पर आपको गति तो अपनी कम करनी पड़ेगी न, तो जैसे ही गति कम की उसने तो डंडा मारकर उसको बोला रुक-रुक-रुक-रुक। तो वो रुका। तो फिर रुक रहा है और लगभग हँस रहा है वो, इतनी ज़्यादा उसने चौड़ी मुस्कान दिखा रखी है। और हँसते हुए उनके पास जाता है, उसको भी डंडा लगाया। और डंडा लगाया तो फिर जो भी हुआ होगा, उसका अपना हुआ।

उस पूरी प्रक्रिया में वो हँसे ही जा रहा था, उसकी हँसी ख़ुशामद की थी। वो वहाँ से छूटता है पाँच-सात मिनट बाद डंडे खाकर, और जो भी उसने चुकाना था चुकाकर। तो वो वहाँ से चलता है, तो इधर ही साथ में कोई खड़ा था जूस शॉप पर, उसने उसको बोला, ‘ऑटो’, तो वो वहाँ से बढ़ता है और वहाँ जूस की दुकान पर आकर रुक जाता है। मुझे लगा कि ये अपने दाँत दिखा रहा था उन पुलिसवालों को खुश करने के लिए, अब वो पुलिसवाले नहीं हैं तो कम-से-कम अब इसको अपनी दासता की और मजबूरी की हालत का एहसास होगा और उसके चेहरे पर वो दर्द दिखाई देगा। और मुझे झटका लग गया! मुझे दर्शन हो गया!

अब पुलिसवाले नहीं हैं, पुलिसवालों को वो लगभग पचास मीटर पीछे छोड़ आया है। अब पुलिसवाले नहीं हैं, वो अभी भी हँसे ही जा रहा था। और उसकी हँसी कोई ज्ञानियों की हँसी नहीं थी कि उसको यथार्थ दिख गया जगत का, इसीलिए वो बौद्ध धर्म की तरह अट्टहास कर रहा है, कुछ नहीं। उसने गहरा अभ्यास कर लिया है डंडे खाकर हँसने का। वो हम हैं। हम हर पल डंडे खा रहे हैं और यहाँ पर चिपका रखी है हँसी।

और वो पल बहुत ख़ास था मेरे लिए। मेरे भाव कहाँ से शुरू हुए थे, कहाँ पहुँच गये थे उस एक प्रकरण में। शुरू यहाँ से हुए थे कि ये ग़लत हो रहा है, तुमने उसके ऑटो पर डंडा क्यों मारा। रोकने का कोई नियमबद्ध, कोई सरकारी तरीक़ा होगा न? ये किसने सिखाया तुमको कि तुम किसी की गाड़ी को रोक लोगे? उसकी गाड़ी है वो भाई! मर्सिडीज़ गाड़ी हो, तभी गाड़ी कही जाएगी? वो उसकी गाड़ी है। तुमने उसकी गाड़ी पर डंडे क्यों मारे? और गाड़ी का कुछ शीशा-वीशा टूट जाए तो तुम भुगतान करोगे? फिर वो उतरकर आया तो तुमने उसको डंडा क्यों मारा? अगर वो कोई नियम तोड़ भी रहा था तो उसका चालान काटिए आप। जो नियम है, उसका पालन करिए। आप उसको डंडा क्यों मारे? उसको डंडा मारा।

अब मैं देख रहा हूँ कि वो हँस रहा है। अब ये मेरे लिए ताज्जुब की बात कि ये हँस क्यों रहा है, इसे क्रोध क्यों नहीं आ रहा। मुझे क्रोध बहुत आता था। मुझे अभी भी आता है, नहीं आना चाहिए। तो मैं वहाँ खड़ा हुआ था। अब जूस है, मैं पी भी नहीं रहा था जूस को, मैं बस देख रहा था कि ये क्या हो रहा है। मैं कह रहा हूँ, ‘इसको गुस्सा क्यों नहीं आ रहा है?’ फिर मैंने सोचा, ‘ग़रीब ऑटोवाला है, क्या गुस्सा करेगा!’

और उसके बाद जो हुआ, वो तो एपिफ़निक (आविर्भाव) था, रेवेलेशन (रहस्योद्घाटन)! जैसे कहते हैं न, ऊपर से कुछ उतरा। कुछ उतर आया। मैं देख रहा हूँ कि वो वहाँ से आ गया है, अब यहाँ खड़ा हो गया है। और यहाँ पुलिसवाले पीछे हैं, उसकी पीठ के पीछे हैं। उनको दिखाने के लिए तो नहीं हँस रहा है ये, तो हँस क्यों रहा है अभी भी? इसकी आदत हो गयी है पिटने की और हँसने की। इसकी आदत हो गयी है, क्या? पिटूँगा और हँसूँगा।

वो जो उसके चेहरे पर मुस्कुराहट आयी थी पुलिसवालों को देखकर, वो नकली नहीं थी, वो असली थी। वो ऐसे ही मुस्कुराता है। उसको सचमुच लग रहा था कि वो जो पुलिसवाले हैं, वो उसके ताऊजी लोग हैं। उसने अभिनय भी नहीं किया था, वो अभिनय अब उसका जीवन बन चुका है। उसने अभिनय नहीं किया, वो ऐसा हो चुका है। वो जब पाता है कि पिटने जा रहा है तो उसको मज़ा आने लगता है।

मैं बहुत समय तक उलझन में रहा वो देखने के बाद। अगर वो वहाँ पिटने के बाद यहाँ आकर मुझे दुखी, क्षुब्ध या क्रोधित दिखता तो वो बात ठीक रहती। मुझे लगता साधारण बात है। वहाँ पर बेचारे ने मजबूरी में अभिनय कर दिया, पर अब यहाँ अभिनय की ज़रूरत नहीं है तो ये अपना असल भाव व्यक्त कर रहा है। पर वो वहाँ भी बैठा हुआ है तो अभी भी हँस ही रहा है।

हम ऐसे हो गये हैं। हमारी दासता किसी एक प्रकरण या पल की नहीं है, वो अब निरन्तर हो चुकी है। और अब वो तभी मिटेगी जब हम मिटेंगे। “जब होवेगी उमर पूरी, तब छूटेगा हुकम हुज़ूरी।” तुम्हारे बचने का अब कोई उपाय नहीं रहा। अब तो यही है कि मर ही जाओ।

ऐसा नहीं कि हम बस समाज के सामने दास हैं, हम अपने अकेलेपन में भी दास हैं। ये नहीं कि जब हमारे सामने कोई आता है तो हमारी रीढ़ ऐसे झुक जाती है, हमारे सामने अब कोई न हो तो भी हम कुबड़े हो चुके हैं। हमारा ये जो सिर है, अब तनकर खड़ा हो ही नहीं पाता। ये ऐसे चिन-अप जिसको कहते हो, हमारा नहीं हो पाता अब। अब ऐसे हो चुके हैं (सिर नीचे झुकाकर बताते हुए)। अब कोई सामने न हो तो भी सिर झुका ही रहता है। अकड़ गया, अकड़ गया (रीढ़ की ओर इशारा करते हुए)। ऐसे ही रहो तो क्या होगा? यहाँ (रीढ़ का) क्या हो जाएगा? अकड़ जाओगे न। फिर ये सिर उठाओगे भी तो नहीं उठेगा, उठाओगे तो दर्द होगा। ‘हमें यहाँ (रीढ़ में) बहुत दर्द होता है सिर को उठाने में। अकड़ गया है, स्टिफ़ !’

कबीर साहब यहाँ फ़िज़ियोथेरेपिस्ट (भौतिक चिकित्सक) हैं। कह रहे हैं, ‘धीरे-धीरे करके अभ्यास करो।’ धीरे-धीरे करो, करो। बहुत समय लगेगा, क्योंकि पूरी ज़िन्दगी का अभ्यास है तुम्हारी ये। बहुत समय लगेगा उसको अब पलटने में, पर हो जाएगा। तीस साल, पचास साल से तुमने एक ही अभ्यास किया है, क्या? सिर झुकाने का। तो कम-से-कम तीन या पाँच साल तो लगेंगे न इसको दोबारा ठीक करने में।

इसीलिए तो हम सेशन (सत्र) बोलते हैं इनको। थेरेपिस्ट (चिकित्सक) आता है तो आप क्या बोला करते हो? सेशन। साइकैट्रिस्ट (मनोचिकित्सक) के पास भी जाते हो तो क्या बोलते हो? सेशन। तो हम ऐसे ही थोड़ी इसको सेशन बोलते हैं।

उस ऑटोवाले की सोचो, मुझे लग रहा है कि उसको और मारते तो वो अट्टहास करने लगता। वो अपनेआप को ये दिखाना चाहता था कि मैं पिटा ही नहीं हूँ, ये तो मेरे घर के लोग हैं जिन्होंने मुझे मज़ाक में मारा है। वो एक डिफ़ेंस मैकेनिज़्म (सुरक्षा तन्त्र) था, साइकोलॉजी (मनोविज्ञान) की भाषा में। वो अपनेआप को ये जताना चाहता था, क्योंकि अगर वो ये स्वीकार कर ले कि वो अपमान की ज़िन्दगी जी रहा है, लानत की ज़िन्दगी जी रहा है, तो उसे बदलना पड़ेगा, क्रान्ति करनी पड़ेगी। और वो नहीं कर सकता, क्योंकि उसने अब घर में चार बच्चे कर लिये हैं। वो कुछ नहीं कर सकता अब। तो वो अपनेआप को जताता है कि मैं पिटा थोड़ी हूँ, ये तो मेरे प्यारे ताऊजी लोग हैं जिन्होंने मुझे ऐसे ही मज़ाक में मार दिया है। तो वो ऐसे दिखा रहा था जैसे हँसी-खेल चल रहा है। और मैं दहल गया था भीतर से बिलकुल! 'ये मैं पिटा थोड़ी जा रहा हूँ, मुझे प्यार किया जा रहा है।’

कहीं पर मैंने सर्वे (सर्वेक्षण) पढ़ा, राजस्थान में किया गया था। वहाँ महिलाएँ बोलीं कि अगर हमारा मर्द हमें मारता नहीं है तो माने हमें प्यार नहीं करता। हँस क्या रहे हो तुम? महिला बनो, पिटो, फिर पता चले! (एक श्रोता को सम्बोधित करते हुए)

वो रोज़ पिटती हैं। वो एक तरह की शारीरिक निकटता है। शारीरिक निकटता की शुरुआत ही यहाँ से है कि पहले तो पीटेगा न, फिर बिस्तर। उसके बाद काम शुरू होगा। और अभागी होती हैं वो जिनका मर्द उन्हें पीटता नहीं, इसका मतलब वो उन्हें चाहता नहीं है। वो बहुत प्रसन्न होती हैं पिटकर।

प्रसन्न होने के अलावा कोई विकल्प बचा नहीं है। नहीं होओगी प्रसन्न तो क्या करोगी? जब पिटना ही है तो वो कहती हैं कि हँस-हँसकर ही पिट लो, प्रसन्न होकर ही पिट लो, क्योंकि पिटना तो है ही। अब दुखी होकर पिटो, इससे अच्छा हँसकर पिटो। विद्रोह का कोई रास्ता तो बचा नहीं है। वही चार बच्चे! बचपन से ही स्वावलम्बन सीखा नहीं, शिक्षा ली नहीं, मन को विकसित किया नहीं। न कोई ज्ञान, न गुण, न धर्म, न कौशल, कुछ नहीं है। तो पिटने के अलावा क्या करेगी वो, पिटती है।

फिर हँसकर पिटती है, बाहर आकर बोलती है, ‘तुझे पता है, कल पिटी।' और वो पिटी नहीं थी दूसरी वाली, उसको ईर्ष्या हो जाती है, ‘हाय री! तू पिटी।’ तो फिर उस रात अपने घर में कुछ और ऐसा करती है कि ज़रूर पिटे। और अगले दिन वो आकर चौड़ से बताती है, ‘तुझे पता है, क्या? पिटी!’

अब ये मैंने पढ़ा नहीं था, ये मैं ख़ुद कर रहा हूँ। पर यही तो है, और क्या है? मैं अतिशयोक्ति कर रहा हूँ अधिक-से-अधिक, है यही लेकिन!

हमारा भी तो वही है, और क्या है? आपको बॉस के केबिन में बुलाया गया और वहाँ आप धुले अच्छे से। और बाहर निकलते हो, वहाँ बाक़ी सब लोगों के क्यूबिकल हैं, पचास जने बैठे हैं। बाहर निकलते हो तो मुँह कैसा करके निकलते हो, दिल से बताना? अन्दर से धुलकर आ रहे हो, और बाहर निकलने से पहले ही क्या कर लेते हो? सारी धुलाई पोंछ लेते हो। 'अरे! कुछ नहीं, डिस्कशन (बातचीत) था। ऑर्गनाइज़ेशन (संगठन) की फ़्यूचर स्ट्रैटेजी (भविष्य की रणनीति) हम दोनों आपस में बैठकर डिसाइड (निर्धारित) कर रहे थे। और मैंने उनको कहा कि देखिए, अगर आप चाहते हैं सचमुच कि चीज़ें आगे बढ़ें, तो मैं कुछ सलाह आपको दिये देता हूँ, आप सोच लीजिएगा। आमने-सामने बैठकर।' पन्द्रह मिनट तक खड़ा रखा है उस आदमी ने तुमको, और खड़े-खड़े धोया है, और बाहर आकर तुम कहते हो बातचीत था। लेकिन ऐसे ही है।

ख़ासतौर पर ये जो सज्जन, सुशिक्षित, संस्कारी एम्प्लॉई (कर्मचारी) होते हैं, इनके तो मुस्कान चिपक जाती है, ये विद्रोही होना कैसे स्वीकार करेंगे? फिर ये वीकेंड (सप्ताहांत) पर विद्रोह करते हैं। द वीकेंड रिबेल्स (सप्ताहांत विद्रोही)! ये बुलेट ख़रीदते हैं और पहाड़ पर जाते हैं, और अपनेआप को दिखाते हैं कि देखो हम भी कोई पालतू जानवर थोड़े ही हैं। हम भी अनटेम्ड (न दबनेवाला) और वाइल्ड (मनमौजी) हैं। कैसे? थोड़ी सी दाढ़ी बढ़ा लेंगे और बुलेट चलाकर पहाड़ पर चढ़ेंगे, उतना ही जितना कि वीकेंड पर चढ़ा जा सकता है। कितना चढ़ जाओगे तुम? शुक्रवार की रात यहाँ चल रहे हो, और मजाल नहीं तुम्हारी कि सोमवार सुबह नौ बजे दोबारा हाज़िरी न लगा दो। तो उतने में जितना चढ़ सकते हो पहाड़ पर, चढ़कर उतर लेना। पर उससे अपनेआप को ये बोलने का मिल जाता है कि हम भी कोई पालतू जानवर थोड़ी हैं, हम जंगल के शेर हैं। तुम सर्कस के शेर हो सकते हो अधिक-से-अधिक। और फिर अपनी फ़ोटो वगैरह चिपका देंगे और बताएँगे, ‘देखो मैंने ये किया, वो किया।’

द वीकेंड रिबेल्स ! और वीकेंड की स्पेलिंग है ‘डब्ल्यू ई ए के ई एन डी’। (आचार्य जी और श्रोतागण व्यंग्यपूर्ण हँसी हँसते हुए)

वो होता ही इसीलिए है। सप्ताहांत किसलिए होता है? ताकि पूरे हफ़्ते जो कुटाई हुई है, आप उसकी शर्म को किसी तरह धो सको।

मैं ग़लत हो सकता हूँ, पर पहले ये बहुत चलता था कि महिलाएँ बोलती ज़्यादा हैं, मुँह बहुत चलाती हैं। मैंने कहा, ‘हाथ नहीं चला सकती न इसलिए।’ सचमुच मुँह ज़्यादा चलाती हैं, क्योंकि हाथ नहीं चला सकतीं इसलिए। जो काम हाथों से करना चाहिए था, वो हाथ से तो हो ही नहीं सकता। ये जो चूड़ियाँ हैं इसीलिए तो होती हैं, हाथ ज़्यादा चलाओगी तो तुम्हारी ही चूड़ी तुम्हारे ही हाथ में धँस जाएगी। तो मुँह चलाकर क्षतिपूर्ति करती हैं। चलाना चाहिए था हाथ, नहीं चल सकता तो कुछ तो कॉम्पनसेशन (मुआवज़ा) चाहिए, तो मुँह चलता है फिर पक-पक-पक-पक!

आप बहुत मज़बूत लोगों को कभी देखिएगा नाटक में या फ़िल्म में भी, तो वहाँ जो आपको स्ट्रॉन्ग मैन (मज़बूत आदमी) दिखाई देगा, वो कैसा रहता है? वो चुप, शान्त खड़ा रहता है। बस जब ज़रूरत होती है तो एक लगाता है पड़ाक से। उसको कभी ये नहीं दिखाएँगे कि वो बैठकर गॉसिप (चुगली) कर रहा है। शारीरिक क्षमता की ही नहीं बात कर रहा हूँ मैं, मैं जीवन की बात कर रहा हूँ, मैं मानसिक बल की बात कर रहा हूँ।

हुकुम-हुज़ूरी, हुकुम-हुज़ूरी, हुकुम-हुज़ूरी! जी हुकुम, जी हुकुम, जी!

इनको (सन्तों को) 'जी' बोलना सीख लिया होता तो ज़िन्दगी में इतनी जगह 'जी' नहीं बोलने पड़ते न। जहाँ 'जी' बोलना सीखना चाहिए था, वहाँ तो बोला नहीं गया। जिनको इज़्ज़त देनी चाहिए थी, वहाँ तो इज़्ज़त देनी कभी सीखी नहीं। इज़्ज़त देने के नाम पर फ़िल्म में वो गाने बनाते हैं इस तरह से, 'ओ कबीरा मान जा, ओ फ़क़ीरा मान जा।' हिम्मत कैसे पड़ गयी ये लिखने की इस तरह से? तुम कौन हो? 'ओ कबीरा मान जा, ओ फ़क़ीरा मान जा।'

ऐसे ही अभी यूट्यूब पर देख रहा था, वो पता नहीं कौन है, उसका नाम मंजीरा होगा शायद। तो उसने वीडियो बनाया 'मंजीरा मीट्स कबीरा’। क्या मज़ाक है ये! तुम कौन हो? और फिर यही लोग हैं जिनको हुकुम-हुज़ूरी ज़िन्दगी भर करनी पड़ती है। सही जगह सिर नहीं झुकाते तो फिर एक-एक कुत्ते-बिल्ली के आगे सिर झुकाना पड़ता है इन्हें दुनिया में।

“जब होवे उमर पूरी, तब छूटेगा हुकुम हुज़ूरी।” बस ख़त्म! यही कुंडली है पूरी! जो चला रखा है हाल अपना और जो बने बैठे हो, उसमें और कोई आशा नहीं है।

आ रही है समझ में बात कुछ?

“यम के दूत बड़े मज़बूत, यम से पड़ा झमेला।”

मृत्यु से बच नहीं पाओगे इतनी बार सिर झुकाकर भी। सारी अपनी पूँजी बेच डाली सिर्फ़ एक उम्मीद में कि बने रहो, बचे रहो। ये जो आप इतने दिन भर समझौते करते हो, क्यों करते हो? आपको कुछ मिल नहीं रहा होता उन समझौतों से, तो भी करते क्या? किसी आशा में ही तो इतना हुकुम-हुज़ूरी करते हो। साहब कह रहे हैं, ‘तुम कर लो जितनी हुकुम-हुज़ूरी करनी है, यम तो तुम्हें तब भी उठाकर ले जाएगा।’ तो यम जब तुम्हें ले ही जाएगा, तो क्या ज़रूरत है इतनी हुकुम-हुज़ूरी करने की?

यम के दूत बड़े मज़बूत! तुम उनको कितना भी सर्टिफ़िकेट (प्रमाण पत्र) दिखा लोगे कि देखो मैंने यहाँ पर इसकी चाकरी की, यहाँ इसकी दासता की, यहाँ इसकी ग़ुलामी की, यहाँ सिर झुकाया, यहाँ ख़ुद को बेच खाया, तुम उन्हें सारे प्रमाण पत्र दिखा लेना कि देखो मैं किस-किस तरीक़े से बिका ज़िन्दगी में। वो कहते हैं, ‘हटाओ ये सबकुछ, तुम खूब बिक लिये, वो तुम्हारी मूर्खता! हम तो तुम्हें तब भी ले जाएँगे, चल!’

“एक जात सिंहासन चढ़ि, एक बँधे ज़ंजीर।”

और काहे से बाँधा गया ज़ंजीर से, वो तो बताया ही नहीं। भैंसे से बँधे हो। लिटा दिया गया है भैंसे पर, और ये जाने को नहीं तैयार थे। जो ज़िन्दगी भर हुकुम-हुज़ूरी की थी, वही सोच रहे थे कि यम के दूत से भी कर लोगे। उसकी भी लल्लो-चप्पो!

‘जी, जी, जी ताऊजी, नहीं ताऊजी, डंडे लगा लीजिए ताऊजी, कोई बात नहीं।’

बोले, ‘ये कोई हमें पुलिसवाला समझ रखा है कि डंडे लगाकर छोड़ देंगे।’

‘अच्छा ताऊजी, थोड़ा सा कुछ ले लीजिए ताऊजी।' (रिश्वत देने का इशारा करते हुए)

कह रहे हैं, ‘हाथ अपना पीछे कर, हमें तेरा पूरा शरीर चाहिए।’

एक बँधे ज़ंजीर!

सोच पा रहे हो? बड़ा भारी उनका भैंसा! और उसमें आपको क्या किया गया है? पिलियन राइडिंग (पीछे बैठकर सवारी) के लिए सख़्त ज़ंजीरों से बाँधा गया। और वहाँ पर बाँध दिया गया है और आर्तनाद कर रहे हो हाय-हाय-हाय! आर्तनाद करते वक़्त भी मुस्कुरा तो रहे हो, वो नहीं गयी अभी भी।

दुनिया के आगे अपना विद्रोही क्या, हम दुखी चेहरा भी कहाँ दिखाते हैं? दुनिया के आगे तो हम कैसे रहते हैं, मालिकों के आगे? बनाओ, बनाओ, शक्ल बनाओ (श्रोता से कहते हुए)। ये देखो।

बॉस जब ज़ोर से डाँटता है, तब कैसे करते हो? ‘अरे सर! आप कितने फ़न-लविंग (मज़ाकिया) हो।’ करते हो कि नहीं करते हो? बॉस जब ज़ोर से डाँटता है तो क्या करते हो, पलटकर आँख दिखाते हो उसको? या सवाल भी पूछ पाते हो? ‘डाँट ले लूँगा, समझा दीजिए क्यों डाँटा है। बात सही होगी आपकी तो आपकी डाँट भी सही है फिर। समझा दीजिए क्यों डाँटा है।’ ये भी कह पाते हो क्या? और जो जितना मजबूर होता है, वो उतना झुकता है।

मेरा आइआइटी का बैच विलक्षण रहा है एक मामले में। इसमें भरे हुए हैं सब ऑन्ट्रप्रन्योर (उद्यमी) ही ऑन्ट्रप्रन्योर ! बहुत सारे दोस्त मेरे नोएडा में ही हैं। और जो बहुत सारे ब्रांड से आप परिचित भी हैं, वो सब मेरे बैच के क्या, मेरे हॉस्टल के, मेरे विंग के लोग हैं। यहाँ शार्क टैंक में आप जिनको देखते थे, वो बगल वाले कमरे का है। मेरे ही बैच का, मेरे ही हॉस्टल का।

तो इन लोगों से मुलाक़ात हो जाती है बीच-बीच में कभी, तो कहते हैं कि हम दो-तीन चीज़ें देखकर हायरिंग करते हैं। पहली बात, शादी-शुदा होना चाहिए। दूसरी बात, कम-से-कम दो-तीन मोटे-मोटे उसके ऊपर लोन होने चाहिए। बोलते हैं, ‘ये एकदम उपजाऊ गधा निकलते हैं। इनको जितनी लात लगाओ, सहते हैं, और इनका एट्रिशन (संघर्षण) सबसे कम रहता है। न ये सिर उठाकर बात कर सकते हैं, न पलटकर जवाब दे सकते हैं।’ हमें कौन नहीं चाहिए? बोले, ‘ये फ़्रेशर नहीं चाहिए।’ और फ़्रेशर से उनका आशय ये नहीं कि एक्सपीरियंस , अनुभव कम है, फ़्रेशर से आशय उनका ये है कि शादी-शुदा अगर नहीं है तो हायरिंग नहीं करेंगे, ये भाग जाएगा। ये ज़िल्लत नहीं सहते।

बोले, ‘हमारे ड्रीम-एम्प्लॉई (पसन्दीदा कर्मचारी) वो होते हैं जो घर के अकेले कमाऊ सदस्य हों, जिनके ऊपर चार-पाँच डिपेंडेंसीज़ (निर्भरताएँ) हों, दो-तीन बच्चे हों, तीन-चार लोन हों।’ बोले, ‘ऐसा अगर कैंडिडेट (आवेदक) मिला, एचआर उसको तुरन्त हायर करता है।’ कहते हैं, ‘अब इसके साथ कुछ भी कर लो, कोई विद्रोह नहीं होने वाला।’

हुकूम-हुज़ूरी!

आप अमेरिका जाएँगे, वहाँ पर ज़्यादा फ़्री मार्केट (मुक्त बाज़ार) है। भारत में भी ख़ैर वैसा ही है, अमेरिका के उदाहरण की ज़रूरत नहीं है। तो अगर आप वाहनों का उदाहरण लें, तो जो वाहन थोड़े जज़्बे वाले लोग और विद्रोही क़िस्म के लोग इस्तेमाल करते हैं, उन पर वेहिकल लोन (गाड़ी के लिए कर्ज़) का इंटरेस्ट रेट (ब्याज़ दर) ज़्यादा होता है। और जो गृहस्थ और सज्जन लोग वाहन लेते हैं, साधारण यही हैचबैक सिडेन — जैसे भारत में आप यही सब समझ लीजिए मारुति ह्युंडई, आइ टेन, आइ ट्वेंटी, ये सब — इन पर लीस्ट इंटरेस्ट रेट (न्यूनतम ब्याज़ दर) रहता है। (आचार्य जी मुस्कुराते हुए)

कह रहे हैं, ‘ये कहीं नहीं भागने वाला।’ क्योंकि इंटरेस्ट रेट रिस्क (जोख़िम) के साथ बढ़ता है न। भई, ये कहीं नहीं भागेगा। ये नहीं भागते। मारुति वाले नहीं भागते। ये क्या भागेगा, इसने तो फ़ैमिली कार ली है, फ़ैमिली लेकर भागेगा क्या? तो उन्हें सस्ती दरों पर दे दिया जाता है, रिस्क नहीं है उसमें। रिस्क और रेट एक साथ चलते हैं।

और जो उनको पता है कि ये तो ऑफ़रोडर और ये सब हैं, तो उनको पता होता है कि ये गाड़ी भी भिड़ाएगा तो इंश्योरेंस ज़्यादा देना पड़ सकता है, और दूसरी ओर ये कुछ भी कर सकता है, ये नहीं पकड़ में आएगा, तो उससे वो इंटरेस्ट ज़्यादा लेते हैं।

हुकूम-हुज़ूरी वालों का अच्छा है, उन्हें नौकरी भी आसानी से मिलती है, उन्हें लोन भी आसानी से मिलता है, उनको किराये का मकान भी आसानी से मिलता है। संस्था के लोगों से पूछो, इन बेचारों को किराये पर मकान नहीं देता कोई।

कोई तो आया था, बोले थे, ‘हम आपस में फ़ैमिली बनाकर खड़े हो जाएँ कि हम सब तो फ़ैमिली हैं, दे दो।’ तो मकान-मालिकों को जब इन्हें झाँसा देना होता है तो ये अपने माँ-बाप को लेकर आते हैं, उनके नाम पर किराये पर लेते हैं। माँ-बाप को खड़ा कर देंगे कि ये हैं, हम तो बच्चे हैं। डैडी जी का रहेगा किराये का, मैं तो आया हूँ साथ में रहने के लिए। तो इन्हें फिर मिल जाता है।

हुकूम-हुज़ूरी की दुनिया है। पर (पंख) वालों को और परवानों को ये नहीं बर्दाश्त करते। आपके पास अगर 'पर' हैं तो ये आपको कठिनाइयाँ देते हैं। और उन्हीं कठिनाइयों के कारण आप फिर और ज़्यादा करते हो हुकूम-हुज़ूरी।

साहब कह रहे हैं कि हुकूम-हुज़ूरी मत करो, कठिनाइयाँ झेल लो। क्योंकि जिस नाते तुम सिर अपना इतना झुकाते हो, उससे भी कुछ होगा नहीं, सिर तो कट ही जाना है — “यम के दूत, बड़े मज़बूत।” अगर ये सबकुछ करके यम से बच सकते तो करते, फिर ठीक था। पर ये सब करके भी यम से बच पाते हो क्या? मौत तो हर पल आ रही है।

“मौत का एक दिन मुकर्रर है, नींद क्यों रात भर नहीं आती?” ये जो रात भर नींद नहीं आ रही है, यही तो है मौत। अगर एक ही दिन जिसको मौत आये, वो तो क़िस्मत वाला होता है। हमारी तो प्रतिपल मौत आती है। जिसका सिर ऐसे झुक गया, उसका कट गया न सिर, मर गया।

यही वजह है कि आज़ादी की लड़ाई में भी अधिकांशतः जो क्रान्तिकारी थे, वो मूलत: आध्यात्मिक व्यक्तित्व थे। क्योंकि पहला विद्रोह तो अध्यात्म ही सिखाता है। जो आध्यात्मिक नहीं है, उसके लिए जगत में विद्रोह कर पाना बड़ा मुश्किल होगा। हाँ, ये हो सकता है कि वो व्यक्ति उस तरीक़े से आध्यात्मिक न हो जिस तरीक़े से सांसारिक अध्यात्म चलता है। लेकिन आध्यात्मिक वो फिर भी है। बिना अध्यात्म के कोई सच्चा विद्रोह हो ही नहीं सकता। और अगर कोई विद्रोही हुआ है तो विद्रोही होने भर से ही वो आध्यात्मिक हो गया। विद्रोही है माने आध्यात्मिक है।

संसारी कौन? जिसे विद्रोह करना ही नहीं है, जो चल रहा है चले। और उसी में थोड़ा-बहुत अपना भी भोगने का हिसाब ले लो, जैसे जेल के क़ैदी को भी थोड़ा तो दे ही दिया जाता है भोगने को। पिंजड़े की चिड़िया को कोई भूखा मारता है? थोड़ा तो उसको दिया ही जाता है, ‘तू ले खा, बढ़िया रह’, बल्कि खूब दिया जाता है। पेड़ की चिड़िया और खुले आकाश की चिड़िया तो हो सकता है फिर भी खाने को न पाये, हो सकता है, लेकिन पिंजड़े की चिड़िया खाने को न पाये, ऐसा नहीं होता। ये सब बातें विद्रोह का गला घोंट देती हैं।

हम बात कर रहे थे उनकी जिन्होंने अपना काम करना शुरू किया। अगर मैं बीस अच्छे या बड़े ऑन्ट्रप्रन्योर्स को जानता हूँ तो उसमें से दो-चार ही ऐसे होंगे जो सजे-सँवरे दिखाई देते हैं। बाक़ी जिसने अपना रास्ता बनाने की कोशिश की है, उसकी हालत बड़ी उजड़ी हुई रहती है। हो सकता है उसकी कम्पनी दो सौ करोड़ की हो गयी हो। हज़ार-हज़ार करोड़ पार कर जाते हैं ये, पर इनकी अपनी व्यक्तिगत हालत ख़राब रहती है, क्योंकि ये संघर्ष कर रहे हैं। ये विद्रोह है एक तरह का, कोई बहुत ऊँचे स्तर का विद्रोह नहीं है, है तो मुनाफ़े के लिए ही वो विद्रोह भी। पर फिर भी जैसा आम संसारी होता है, उससे तो ऊपर का ही काम है। कुछ तो विद्रोह किया है। तो इनकी हालत उजड़ी हुई रहती है।

जिनके पास करोड़ों हैं, मैंने उनको भी फटी चप्पल में घूमते देखा है। क्यों? बोले, ‘यार, चप्पल खरीदने का टाइम कहाँ है।’ ये सचमुच बोल रहा हूँ। उनको नहीं ध्यान होता कि उनके कपड़े कैसे सजे-सँवरे हैं, और ये और वो। और उन्हीं की कम्पनी में जो एम्प्लॉइज़ होते हैं वेल-पेड (अच्छा पैसे पाने वाले), वो सजे-सँवरे घूम रहे होते हैं। इसलिए विद्रोह नहीं होता न।

आप किसी स्टार्ट-अप में चले जाइएगा, अच्छी फ़ंडेड स्टार्ट-अप होनी चाहिए। और वहाँ पर आपको जो बढ़िया सजे-सँवरे और एकदम ऐसे हेल्दी लोग, अपने घने-काले बालों के साथ दिखाई दे रहे हों, वो पक्का वहाँ पर एम्प्लॉइज़ हैं। और वहाँ से कोई उजड़ा चमन बाहर निकले, तो वो फ़ाउंडर (संस्थापक) है। इसलिए विद्रोह नहीं होता। ग़ुलामी के दाम मिलते हैं।

आप प्रोफ़ेशनल (कामकाज़ी) महिलाओं को देखिएगा, वहाँ भी यही बात है। बीस में से पाँच ही होंगी जो अपनी काया का ख़याल रख पाती होंगी। जो मेहनतकश महिला होगी, जिसको बाहर अपना रोज़गार भी देखना है, काम देखना है, और फिर घर में भी उसे कुछ काम देखना ही होगा, उसको आप नहीं पाएँगे कि उसके पास बहुत समय रहा है कि वो जाकर हर हफ़्ते पार्लर में बैठे। उसको समय ही नहीं होता।

तो वो एक साधारण व्यक्तित्व लेकर घूम रही होगी, साधारण कपड़ों में, साधारण चेहरे के साथ, साधारण त्वचा के साथ। और जो ये सोने के पिंजड़े की चिड़िया होती हैं, इनको आप खूब सजा-सँवरा पाएँगे। इसलिए विद्रोह नहीं होता। सजना-सँवरना अपनेआप में एक टास्क (काम) होता है, बहुत समय लेता है। जिसके पास ज़िन्दगी में करने के लिए कोई काम है, वो कैसे जाकर दो घंटे अपने मुँह की पॉलिश कराये?

मुझे बाल कटाने थे, इन्होंने बुला लिया था, यहाँ पर वो नाई बैठा हुआ था। मैं बाल कटाऊँ कि आपसे बात करूँ? उसको वापस लौटा दिया। अभी की बोल रहा हूँ, एक घंटे पहले की बात है। समय ही नहीं है। बाल कटाने का समय नहीं है। अभी यहाँ बैठा था, वापस चला गया।

फ़िज़ियोथेरेपिस्ट को बुलाते हैं, आधे समय वो आता है, वापस चला जाता है। समय ही नहीं होता। मैं बोलता हूँ, 'और पन्द्रह मिनट बाद’, तब तक कोई और आता है, फिर कुछ और, फिर कुछ और। वो रात में साढ़े ग्यारह-ग्यारह बजे तक यहाँ बैठकर वापस लौट जाता है। उसके बाद अब उसको भी तो घर जाना है अपने। मेरे पास तो समय निकलता है रात के तीन बजे, सुबह चार बजे। कहो अब आ जाओ, तो अब कौन आएगा? इसलिए विद्रोह नहीं होता, दाम चुकाने पड़ते हैं।

शुभांकर (एक स्वयंसेवक) यहाँ होगा तो आपको बताएगा, जो मेरे व्यक्तिगत काम होते हैं, वो उसकी भी टू डू (करने वाले कार्यों की सूची) लिखकर रखता है। ये जो चश्मा है, इसका नम्बर कमज़ोर पड़ गया है। चश्मा बढ़िया है अभी भी। बिना चश्मे के देखने से तो बेहतर है चश्मा लगाकर देखो। लेकिन अभी भी इससे अगला नम्बर चाहिए। ये उसको लिखवा रखा है, पता नहीं कब से लिखवा रखा है। समय नहीं मिलता कि जाकर ले लूँ, क्योंकि जाना पड़ेगा, आँख की जाँच करानी पड़ेगी। अब उसके लिए सही जगह खोजनी पड़ती है। उल्टी-पुल्टी जगह घुस जाओ तो वहाँ कोई पकड़ लेता है। तो जगह खोजनी पड़ेगी, वहाँ पर उससे टाइम सेट करना पड़ेगा कि इतने बजे आएँगे। वहाँ जाओ, कराओ, फिर जाकर इसका फ़्रेम देखो कौनसा बैठ रहा है, फिर कराओ। कम-से-कम दो-घंटे का काम है।

इसलिए विद्रोह नहीं होता। मैं तो उनसे पूछ रहा हूँ जो विद्रोह नहीं करते, ‘तुम्हें यम के दूत नहीं उठाएँगे क्या?’ भगत सिंह चले गये। जो भगत सिंह नहीं हुए, वो अमर हैं? भगत सिंह चले गये। जो नहीं हुए भगत सिंह, वो अमर हो गये क्या? तो तुम क्या बचाये-बचाये घूम रहे हो? और अगर कृष्ण की मानो तो वो कहते हैं कि जो भगत सिंह नहीं हुए, वो ज़िन्दा ही नहीं हैं तो मरेंगे कैसे? “कल उन्हें क्या कष्ट हो, वो आज ही जब नष्ट हैं।”

अहंकार में, अन्धकार में, अज्ञान में मतिभ्रष्ट है। कल उन्हें क्या कष्ट हो, वो आज ही जब नष्ट हैं।। ~ श्रीमद्भगवद्गीता, श्लोक ३.३२

तुम्हें भविष्य क्या कष्ट देगा, तुम तो हो ही नहीं। और बुद्ध भी यही बोलते हैं, ‘तुम तो हो ही नहीं।’ होना तो बहुत जीवट (साहसी) का काम होता है। आप पैदा हुए हो पैदा होने के लिए। हो कहाँ पाते हैं हम?

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें