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लेख
कुछ बच्चे इतना डरते क्यों हैं? || (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अभी डर की बात हो रही है। मेरा बच्चा चार साल का है। अभी कुछ समय से वो किसी अँधेरे कमरे में जाने से, या अँधेरा हो जाने पर, बहुत डरने लगा है। कोई वजह नहीं बताता है, पर बहुत डरने लगा है।

ऐसा क्यों?

आचार्य प्रशांत: वो पुराना डर है। एक लाख साल पहले का। हम जंगल में रहते थे न, हमारी आँखें रात में नहीं देख सकतीं। और रात के जो शिकारी होते हैं, उनकी आँखें रात में…

प्र: देख सकती हैं।

आचार्य: तो जब हम जंगल में रहते थे, रात में हमारा शिकार हो जाता था। और वो शिकार हमारा लाखों साल तक ऐसे ही होता रहा। चीता कब शिकार करता है? बाघ कब शिकार करता है? रात में। बहुत सारे हिंसक पशु हैं, जो रात में शिकार करते हैं, और आदमी को रात में छुपना पड़ता है। इसीलिए आदमी के लिए रात हमेशा से ही खौफ़नाक रही है। और वो डर आदमी के साथ लाखों साल रहा। लाखों साल तक हमारी यही दुर्दशा होती रही, कि रात में हमारा शिकार होता था।

तो हमारे शरीर के भीतर समा गया है वो डर। वो डर हमारे मस्तिष्क में बैठ गया है, वो डर हमारी कोशिकाओं में बैठ गया है। हम हार्डवायर्ड हो गए हैं। अभी भी, और हज़ार, दो-हज़ार साल बाद भी जो बच्चा पैदा होगा, वो अँधेरे से घबराएगा। आप उसे अँधेरे को लेकर कोई शिक्षा मत दो, तब भी वो घबराएगा। कोई भूल नहीं है। लड़का हो लड़की हो, भारत में हो, यूरोप में हो, अँधेरे से घबराएगा-ही-घबराएगा।

प्र: पहले नहीं घबराता था। लेकिन आजकल ऐसा हो रहा है।

आचार्य: पुरानी वृत्तियाँ सदा सक्रिय नहीं रहतीं। उदाहरण के लिए – कामुकता पुरानी-से-पुरानी वृत्ति है। पर वो प्रकट कब होती है? बारह-चौदह की उम्र के बाद। बहुत छोटा बच्चा जो होता है, अगर वो दो महीने, चार महीने का है, ऐसा संभव है कि उसे अँधेरे से कम डर लगे, या लगे ही ना। पर ज्यों ही वो बच्चा दो साल, या चार साल का होगा, आप पाएँगे कि वो अँधेरे से डरने लग गया है। फिर वो थोड़ा और बड़ा होगा, तो आप पाएँगे कि उसमें ईर्ष्या भी प्रकट होने लग गई है।

वो सारे बीज हमारी देह में मौजूद हैं, अलग-अलग समय में उनमें फल लगते हैं। क्योंकि हम इस बात को भूल जाते हैं, तो हम सोचते हैं कि वो फल हमारी ही देह में मौजूद हैं। तो हम कई बार सोचते हैं कि वो फल किसी सामाजिक कारण से लगे हैं। वो किसी सामाजिक कारण से नहीं लगे। अब उदाहरण के लिए, हो सकता है कि किसी को क्रोध एक उम्र तक कम आता हो। एक उम्र के बाद, वो बड़ा गुस्सा दिखाना शुरु कर दे। और फिर वो कहे, “नहीं, मैं तो गुस्सैल था ही नहीं। गुस्सैल तो मुझे दुनिया ने बना दिया।” तो वो झूठ बोल रहा है। वो बात को समझ ही नहीं रहा।

गुस्से के बीज, तुम्हारी देह में बचपन से मौजूद थे। उन्होंने एक उम्र में आकर प्रकट होना शुरु किया।

सबसे अच्छा प्रमाण तो इस बात का, कामुकता है ही। पाँच की उम्र में आप कामुक नहीं होते, चौदह-पंद्रह की उम्र में आप कामुक हो जाते हैं। इसका ये मतलब थोड़े ही है कि दुनिया ने आपको कामुक बना दिया। आप दुनिया को थोड़े ही दोष दोगे कि – “अरे! पता है मैं जब पैदा हुआ था, मुझमें एक पाई की कामुकता नहीं थी। मुझे ज़ालिम ज़माने ने कामुक बना दिया।” ज़माने ने नहीं बना दिया, आपकी देह ने किया है। ये ऐसी ही बात है कि कोई बोले कि – “दुनिया ने मेरी दाढ़ी उगा दी। क्योंकि मैं पैदा हुआ था, तब मेरी दाढ़ी थोड़े ही थी।”

और करना क्या है? बच्चा जो कहता है उसका पालन करिए। वो कहता है, “नहीं जाऊँगा अँधेरे कमरे में”, तो मत भेजिए फिर। वो कहता है, “पहले बत्ती जलाओ, फिर जाऊँगा”, तो बोलो, “बत्ती जलाने के लिए हमारे साथ-साथ चलो।” थोड़ा उपाय करिए। बड़ी वाली बत्ती मत जलाइए, पहले छोटी वाली जलाइए। ऐसे धीरे-धीरे करके, उसको फिर कुछ यकीन बनेगा।

प्र२: आचार्य जी, ‘आत्म -ज्ञान’ का क्या अर्थ है?

आचार्य:

‘आत्म-ज्ञान’ का अर्थ है – शांति इतनी प्यारी है, कि भीतर कोई खटका भी हो, भीतर ज़रा-सी भी आवाज़ हो, तो वो अंकित हो जाए। ‘आत्म-ज्ञान’ का अर्थ होता है कि – पता रहे कि क्या चल रहा है। और जो कुछ भी चल रहा होता है, वो एक विक्षेप ही होता है, एक डिस्टर्बेंस ही होता है।

जिन्हें विक्षिप्त, * डिस्टर्ब्ड * रहने की आदत हो गयी हो, उन्हें डिस्टर्बेंस का पता भी नहीं चलता। पर जिन्हें शांति प्यारी होती है, उन्हें सुईं के गिरने की आवाज़ का भी पता चल जाता है। ये ही ‘आत्म-ज्ञान’ है। मन में ज़रा-सी हलचल मचेगी, हम चौंक जाएँगे। हम कहेंगे, “ये क्या होने लग गया? चुप थे, मौन थे, ये क्या होने लग गया?” ये ‘आत्म -ज्ञान’।

‘आत्म-ज्ञान’ माने – मन का ज्ञान। आत्मा का ज्ञान नहीं।

प्र२: मन तो फिर उछलता रहेगा?

आचार्य:

‘आत्म-ज्ञान’ में शक्ति होती है कि – बेवकूफियाँ नियंत्रित हो जाती हैं। मन उछलता है, तो फिर किसी उद्देश्य से। मन का उद्देश्य है – शांति। ‘आत्म-ज्ञान’ का अर्थ है – मन द्वारा ही, मन को देखना। मन ने देखा, “मैं जो कुछ कर रहा हूँ, उससे वो मिल ही नहीं रहा, जो मुझे चाहिए।” अब उसकी उछलने की वृत्ति ज़रा कम रहेगी।

शराबी भी अगर चार बार गड्ढे में गिर जाता है, तो थोड़ा सतर्क हो जाता है। अपनी स्थिति का, अपनी हरकत का अगर अंजाम पता लगने लग जाए, तो परिवर्तन आ ही जाता है। यही ‘आत्म-ज्ञान’ है।

प्र२: उसमें अगर नुकसान के बाद समझ में आए तो?

आचार्य: तो बेहतर है अगर नुकसान से पहले ज्ञान आ जाए। या तो नुकसान खाकर जगोगे, या जग जाओ, ताकि नुकसान ना हो। वास्तव में नुकसान होता ही इसीलिए है, ताकि जग सको।

नुकसान व्यर्थ चीज़ नहीं होती। नुकसान के लाभ हैं। नुकसान ना हुआ होता, तो और बड़ा नुकसान हो जाता, इसीलिए नुकसान भली बात है। हर नुकसान छोटा है, क्योंकि उसके आगे और बड़ा नुकसान है। जब भी नुकसान हो, और धन्यवाद दो।

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