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लेख
कामवासना माने क्या?
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
16 मिनट
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प्रश्नकर्ता: सर, पूछने में शर्म आ रही है पर पूछना ये चाहता हूँ कि कामवासना बहुत परेशान करती है। क्या करूँ?

आचार्य प्रशांत: ये शर्म ही परेशानी है। तुम्हारी जो हालत है, उस बर्तन की तरह है जिसे नीचे से आँच दी जा रही है और ऊपर से बिल्कुल ढँककर रख दिया गया है। तो उसके भीतर दबाव बढ़ता ही जा रहा है, बढ़ता ही जा रहा है, तो विस्फोट तो होगा। यही परेशानी है तुम्हारी।

नीचे से जो आँच दे रहा है, उसी ने तुम्हें ऊपर से ढँककर भी रख दिया है, और तुम पके जा रहे हो। जो तुम्हें उत्तेजना दे रहा है, उसी ने तुम्हें शर्म का भाव भी दे रखा है। यही कह रहे हो ना, "सर, शर्म आ रही है पुछने में पर उत्तेजना बहुत है।" ये शर्म और उत्तेजना अलग-अलग नहीं हैं; ये दोनों एक ही जगह से आ रहे हैं। तुम देख भी नहीं पाते कि तुम किस तरह इनका शिकार हो जाते हो।

तुम जानते हो कि ये दुनिया, ये समाज, ये बाज़ार तुम्हारे साथ क्या करता है? एक तरफ तो ये तुम्हें उत्तेजित करके रखता है। कामवासना का अर्थ उसकी पूर्णता में लेना सिर्फ यही नहीं है कि किसी औरत या मर्द का शरीर चाहिए; कामवासना का अर्थ है चाहिए, और चाहिए

एक तरफ तो तुम्हारे भीतर वो ही एक आग लगाकर रखता है कि तुम्हें चाहिए, तुम्हें चाहिए, तुम्हें मिले। तुम्हें दिनरात उत्तेजना की सामग्री परोसी जाती है। और दूसरी ओर तुम्हारे सर पर नैतिकता का बोझ लाद दिया जाता है कि अगर तुम ये करोगे तो गलत करोगे। एक तरफ तो बाकायदा लाइसेंस (अनुज्ञा) देकर शराबखाने खोले जाते हैं। और दूसरी ओर तुम्हारे भीतर ये भाव भी बिठाया जाता है कि शराब पीना गलत बात है। यदि शराब पीना गलत बात है, तो बाकायदा लाइसेंसशुदा शराबखाने कैसे खुले हुए हैं? उन्हें खुलने कैसे दिया गया?

एक ओर तो तुम्हें ये पढ़ाया जाता है कि "देखो, संतों ने समझाया है कि वासना नर्क का द्वार है।" और दूसरी ओर तुम्हारा पूरा मीडिया, इंटरनेट, टेलीविजन, मूवी, अखबार, संगीत तुम उठाओ, वो सबकुछ वासना से ही पटा पड़ा है।

तो तुम्हें नीचे से गर्म किया जा रहा है, खौलाया जा रहा है, और ऊपर से तुम्हें दबा दिया गया है। तुम्हारे भीतर प्रेशर (दबाव) बनता रहता है। कुकर बिचारे के पास तो सिटी होती है। वो सिटी मार लेता है, तो कुछ दबाव कम होता है। तुम्हारे पास तो सिटी भी नहीं है।

तुम्हें दोनों से बचना होगा। याद रखना, दोनों से एक साथ। तुम्हें बाज़ार को ये अनुमति बिल्कुल नहीं देनी होगी कि वो तुम्हें उत्तेजित कर पाए। तुम्हें अपने-आपको प्रतिपल सजगता के साथ पकड़ना होगा कि किस-किस तरीकों से ये मेरे मन पर कौन-कौन-सी उत्तेजनाओं का फंदा फेंकते हैं। तुमने देखा है, वो तो तुम्हें अगर शेविंग क्रीम भी बेचना चाहते हैं तो पहले तुम्हें एक मादक शरीर दिखाएँगे। अब मर्द को दाढ़ी बनानी है, उसके विज्ञापन में नंगी औरत का क्या स्थान है?

तुम्हें अपने-आपसे ये वादा करना होगा कि "मैं इन चक्करों में पड़ूँगा ही नहीं। तुम लाख कोशिश कर लो, मैं तुम्हारे फ़रेब में आऊँगा ही नहीं।" और बात, जैसा मैने शुरू में ही कहा था, सिर्फ शरीर तक सीमित नहीं है; उत्तेजित तुम्हें हज़ार तरीकों से किया जाता है। कुछ भी आकर्षक, चिकना, जो इन्द्रियों को पसंद आए, वो तुम्हें दिखा दिया जाता है, और तुम खिंचे चले जाते हो। तुम्हें पता भी होता है कि फ़रेब है, तब भी तुम खिंचे चले जाते हो। तो एक सिरे पर ये भूल कर रहे होते हो कि वो जितने भी तरीकों से तुम्हें आकर्षण दे रहे होते हैं, तुम उन आकर्षणों के साथ हो लेते हो।

तुमसे किसने कहा कि दिनरात टीवी देखो? तुमसे किसने कहा कि सड़क पर चल भी रहे हो, तो ये बगल में जितने होर्डिंग लगे हैं और बिलबोर्ड लगे हैं और विज्ञापन लगे हैं, तुम सबको देखो? तुमसे किसने कहा है कि तुम बोरियत मिटाने के लिए बाज़ार घूमने जाओ, और वहाँ पे जितनी भी नयनाभिराम छवियाँ हैं उनको भोगो? तुमसे किसने कहा है?

एक सिरे पर ये गलती, और दूसरे सिरे पे क्या गलती? वही लोग जो तुम्हें ललचाते हैं, ठीक वही लोग, तुम्हें ये नसीहत भी देने आ जाते हैं कि "देखो बेटा, ब्रह्मचर्य साधो। देखो बेटा, भोग बुरी बात। देखो बेटा, कम में गुज़ारा करना चाहिए।" और तुम यहाँ भी उनकी सुन लेते हो।

तुम एक नहीं दोनों तरीकों से फँसते हो। तुम्हारा डब्बा तो दोनों ओर से बंद है ना। नीचे से बंद है, वहाँ से आग ले रहा है; ऊपर से बंद है, वहाँ से दबाव बन रहा है। तुम्हारी हालत ऐसी है कि तुम्हें दिनरात गरम किया जा रहा है, और गर्मी निकालने का कोई ज़रिया भी नहीं दिया जा रहा, तो अंदर ही अंदर फुल-पिचक रहे हो।

फटोगे, और क्या होगा?

और अगर फट भी गए होते, तो भी तुम्हारा काम हो जाता। हालत तो वो है कि:

मरना हो मार जाइए, छूट जाए संसार।

ऐसी मरनी क्यों मरे, दिन में सौ-सौ बार?

~ कबीर साहब

तुम्हारे लिए उपयुक्त ये है:

फटना हो फट जाइए, छूट जाए जंजाल।

ऐसी फटनी क्यों फटे, दिन में सौ-सौ बार?

(श्रोतागण हँसते हैं)

दिन में सौ-सौ बार इधर-उधर, दाएँ-बाएँ, छोटे-मोटे विस्फोट होते रहते हैं। पूरा फटते भी तो नहीं हो कि फट ही जाएँ। कोने-कतरे जाकर विस्फोट करके फिर आ जाते हो। दोनों से बचो। ना उन्हें ये अनुमति दो कि वो तुम्हें आग दे पाए। ये अन्याय है तुम्हारे साथ, कोई आकर तुम्हारी शांति में विघ्न डाल रहा है। कोई आ करके तुम्हारे मन पर कब्ज़ा करके, तुम्हें उत्तेजित कर रहा है, तुम्हारे भीतर लालच और कामना उठा रहा है। ये अनुमति मत दो उन्हें। विज्ञापन मनोरंजन नहीं है। विज्ञापन जाल है, फंदा है, फ़रेब है। विज्ञापनों को मनोरंजन की तरह मत देखते रहा करो; जब विज्ञापन अाए तो तुरंत सतर्क हो जाओ कि मेरी गुलामी का आयोजन हो रहा है।

बाज़ार की रौनक, रौनक नहीं है, वो पंछी को डाला गया दाना है, वो चूहे के लिए सजाया गया पिंजड़ा है। चले जाते हो बाज़ार कि "क्या करने जा रहे हैं?" "बाज़ार की रौनक देखने जा रहे हैं।" इन बेवकूफियों से बाज़ आओ बिल्कुल। और दूसरे सिरे पर इस बेवकूफी से भी बाज़ आओ कि कोई तुम्हें आकर फ़िज़ूल सबक पढ़ा रहा है कि "देखो, ये नहीं करना चाहिए और वो नहीं करना चाहिए," नैतिकता सीखा रहा है। कौन होते हैं ये आकर तुम्हें दमन सिखाएँ?

नीचे से दमा-दम, ऊपर से दमन। ये चल क्या रहा है? इससे इतना ही होता है बस कि तुम्हारे भीतर ग्लानि और कुंठा पैदा होती है। तुम्हारे भीतर ये भाव पैदा होता है कि मैं ही नाकारा हूँ। बात समझ में आ रही है?

जीवन के सहज बहाव में कोई अपराध नहीं है। उसमें कोई ग्लानि की बात नहीं है, कोई कुंठा की बात नहीं है। तुमने कोई जुर्म नहीं कर दिया। शरीर अपराध नहीं है, लेकिन शरीर के ऊपर जब समाज का कब्ज़ा हो जाए, तब अपराध ज़रूर है। शरीर की जो सहज गति है वो अपराध नहीं हो सकती। अगर शरीर की सहज गति अपराध है, तो फिर तो पूरा अस्तित्व अपराधमय ही है। फिर तो फूलों का खिलना भी अपराध है क्योंकि फूल भी खिलता इसीलिए है ताकि नया पौधा पैदा हो सके। फिर तो पक्षियों का गाना भी अपराध है क्योंकि पक्षी भी इसीलिए गाते हैं ताकि दूसरे पक्षियों को आमंत्रित कर सकें। फिर तो मोर का नाचना भी अपराध है क्योंकि मोर भी इसीलिए नाचता है ताकि अपने साथी को आमंत्रित कर सके।

शरीर अपराध नहीं हो गया। हाँ, समाज जो खिचड़ी पकाता है तुम्हारे मन के साथ, वो ज़रूर अपराध है। वो मत होने देना।

तुम दुनिया को देखो ना। वो सबकुछ जिसको तुम प्रकृति में सुंदर बोलते हो, वहाँ रास ही तो है। पसंद आएँगे तुम्हें बंजर पहाड़? पहाड़ों पर क्या है? प्रकृति का नाच। तुम्हें ये जो नदी इतनी प्यारी लगती है, खेलती-कूदती, वो नदी क्या कर रही है? वो तेज़ी से भाग रही है समुद्र से मिलने के लिए। ये तुम्हें तितलियाँ और भँवरे इतने अच्छे लगते हैं। तितली क्या कर रही है? तितली पराग इकट्ठा कर रही है। ये जो भँवरा गुंजन कर रहा है, ये भी रास है। फूल-पत्ती-टेहनी, सब क्या हैं? इनमें क्या अपराध है?

फिर तो यमुना किनारे कृष्ण जो कर रहे थे वो तो महापराध हो गया। उसमें कोई अपराध नहीं है, लेकिन हम जिस तरीके का रुख रखते हैं शरीर के प्रति, वासना के प्रति, वो ज़रूर घटिया और टुच्चा है, उससे बचो। उसके बाद, उस सफाई के बाद, शरीर जो भी करे वही ठीक है। अपने-आपको पूरी अनुमति देना।

अभी हम लोग जो ये उबलते रहते हैं वासना में, वो कोई प्राकृतिक चीज़ थोड़ी ही है। वो सब तो हमारी परिस्थितियों की और माहौल की देन है। कोई ये ना समझे कि ये कोई बहुत प्राकृतिक बात है कि हर समय आप समागम के लिए ही आतुर रहते हो। इसमें कुछ प्राकृतिक नहीं है। ये तो बस इतनी-सी बात है कि तुम ईमेल खोलते हो, तो वहाँ भी वही बैठा हुआ है, फोन खोलते हो, तो वहाँ भी वही बैठा हुआ है।

तो तुम करो क्या?

तुम्हारे दिमाग में जो ख्याल नहीं भी आना है, वो ख्याल घुसेड़ा जा रहा है। कोई ये ना सोचे कि ये तो प्राकृतिक बात है, ये तो तुम्हारे साथ दुर्व्यवहार किया गया है। ये होने मत दो अपने साथ। और ये मत सोचना, ये बात मैं तीसरी बार बोल रहा हूँ, कि बात सिर्फ शरीर की है। तुम जाकर किसी चमकदार रेस्तराँ में खा रहे हो। भले वहाँ पर एक भी औरत ना हो, लेकिन तुममें कामवासना उठेगी क्योंकि जो पूरा माहौल है, वो सेंशुअल (कामुक) है। वो इसलिए बनाया ही गया है कि तुम्हें उत्तेजना मिले। वो जो खाना तुम्हें परोसा जा रहा है, वो है हो ऐसा जो आँखों को भी उत्तेजित कर दे, ज़बान को भी उत्तेजित कर दे, और मन को भी उत्तेजित कर दे। जब सबकुछ उत्तेजित है, तो साधारण-सी बात है कि तुमको और क्या याद आएगा?

वासना बीमारी बन गई है, ये हमारे जीने के तरीकों का फल है। हर चीज़ में तो तुम्हें चिकना-चिकना चाहिए ना? जैसे तुम कपड़े पहनते हो, जैसे तुम जूते पहनते हो, जैसे तुम घर खरीदते हो, हर जगह तुम वासना की ही तो तैयारी कर रहे हो। इन तरीकों पर चलते हुए, ऐसे उपभोक्ता बनते हुए तुम्हारा मन अगर असंतुलित और बीमार हो जाए, तो अब ताज्जुब क्या है?

देखो, बाज़ार चाहता है कि तुम खरीदो। मन के इस तथ्य पर गौर करना: बाज़ार चाहता है तुम खरीदो। बाज़ार का बस चले तो तुम्हें पकड़कर कहे कि "खरीदो, तुम्हारे लिए अनिवार्य है खरीदना।" और तुम्हें पकड़ने का, तुम पे कब्ज़ा करने का बाज़ार के पास जो सबसे मज़बूत साधन है, वो है कामवासना।

दिल्ली में इन्हीं जाड़ों में ऑटो-एक्सपो (वाहन प्रदर्शनी) लगा करता है जिसमें कारों की नुमाइश होती है। तुम जाकर देखो वहाँ पर कार खड़ी होगी, उसके बगल में नंगी लड़की खड़ी होगी। तुम्हें समझ में नहीं आ रहा कि बाज़ार तुम्हारी जेब में हाथ डालने के लिए तुम्हारी सेक्शुऐलिटी (कामुकता) को इस्तेमाल कर रही है।

तुम पर कब्ज़ा करने के लिए वो तुम्हारी कामुकता का इस्तेमाल कर रहे हैं, और तुम खुश हो जाते हो। तो अब तुम्हारी उम्र के सब पूरे लगे रहते हैं, वहाँ घुसने को नहीं मिलता। अपनी मौत का इंतज़ाम खुद कर रहे हो और फिर भुगतते हो, कष्ट में रहते हो। तुम्हें गरम तो कर दिया जाता है, पूरे तरीके से। कार भी दिखा दी, लड़की भी दिखा दी, और तुम पूरे तरीके से अब उत्तेजित हो गए हो, गरम हो गए हो। पर लड़की को छू के दिखाओ ज़रा। अब वहाँ नैतिकता और मर्यादा आ जाएगी, पीट दिए जाओगे।

ये क्या बात है?

अब जब दिखाई है, तो दो भी थोड़ा। कम-से-कम १०-१५ मिनट को तो दे दो। अब ये हो रहा है, एक तरफ से तुम्हें गरम करते हैं, दूसरी तरफ से ढक्कन लगा देते हैं। अगर दे नहीं सकते थे तो दिखाई काहे को?

और यही खेल है तुम पर कब्ज़ा करने का: दिखाओ, पर दो नहीं। महिलाएँ इस मंत्र को बखूबी जानती हैं। मामला ज़रा आँच पर रहे, जैसे दूध खौलाया जाता है। खौले तो, पर खौलकर छलक न जाए।

तुम इतने बुद्धु हो, तुम्हें दिखाई नहीं देता? वो खौला रहे हैं, तुम खौल रहे हो। खौल ही जाओ या तो, फिर खोया बन जाता है दूध का। रबड़ी बनोगे?

कितना आनंद आता है, आहाहा! मेट्रोपोलिटन (महानगर), क्या बात है! कोस्मोपोलिटन (विश्वजनीन), वाह-वाह-वाह!

छोटा शहर छोड़कर दिल्ली में मरने आये हो। फिर कहते हो, "दिल्ली उत्तेजित तो करती है पर वहीं पर लाकर रोक देती है।"

कोल्हू का बैल देखा है? वो यूँ गोल-गोल घूमता रहता है। उसके आगे लटका देते हैं, उसको पाने के लिए गोल-गोल घूमता रहता है।

वही हालत है। तुम्हारे आगे एक चीज़ लटका दी गई है जो तुम्हारी वासना को भाती है। और उसको पाने के लिए तुम अपने सारे सामाजिक दायित्वों की पूर्ति करे जा रहे हो। पिताजी ने तुम्हें अच्छे से जोत रखा है कि "लगे रहो, लगे रहो"। और तुम उनके सारे आदेशों की पूर्ति करोगे, क्यों? क्योंकि शादी तो पिताजी ही कराएँगे। तो अपना एक गाजर उन्होंने लटका दी है। जहाँ दिखाई पड़ता है कि तुम विद्रोह करने वाले हो तहाँ, "ज़रा ये फोटो देखना। वो पांडेजी की लड़की का आया है रिश्ता।"

अब उबलता हुआ दूध बिल्कुल भस्स।

(श्रोतागण हँसते हैं)

कौन-सा विद्रोह, कैसा विद्रोह?

मैं फिर कह रहा हूँ, ये जो ज़बरदस्त रूप से खौलती कामुकता है, ये शारीरिक नहीं मानसिक बीमारी है। शरीर बहुत स्वस्थ, साधारण, सीधी-साधी इकाई है। शरीर नहीं बीमार हो जाता है; शरीर अपनी हदें जानता है, शरीर सब अच्छे से जानता है। शरीर एक बहुत ज़बरदस्त मशीन है। उसे सब पता है क्या कैसे करना है। ये जो बीमारियाँ आती हैं न, ये मानसिक हैं। ये तुम्हारे दिमाग में आरोपित की जाती हैं। दिमाग ठीक रखो, सब ठीक रहेगा।

प्र: सर, मैं अभी जयपुर से लौट रहा था, और ऐसी ही बात हुई कि आँखें खुली रहती हैं और बाहर देखते रहते हैं, लगातार ही। गाड़ी में ओशो को सुन हूँ लेकिन, जैसे बार-बार देखे जा रहा हूँ, तो कुछ-ना-कुछ विचार आता है। आँखें बंद नहीं की जाती कि रास्ता भी देखना है कि कहाँ से जाना है, कहाँ से नहीं जाना। तो बाहर देखें, तो कुछ-ना-कुछ विचार आता ही रहता है। आँखें भी तो बंद तो नहीं कर पाएँगे, बाहर देखना ही है... ` आचार्य: बाहर देखो, पर बाहर कैसे देखो?

एक हलवाई की दुकान होती है, वहाँ पर एक लालची आदमी, चटोरा—जिसकी ज़बान, कहते हैं ना स्वीट टूथ , ऐसी है—वो वहाँ जाता है तो मिठाइयों को कैसे देखता है? और वहीं पर कोई आता है फूड इंस्पेक्शन (खाद्य निरीक्षण) के लिए, तो वो कैसे देखता है?

तुम फूड इंस्पेक्टर (खाद्य निरीक्षक) की तरह देखो। "अच्छा, यहाँ भी गड़बड़ है। ऐसे फँसा रहा था।"

देखो ना! बड़ी कला है उसमें। देखो कैसे-कैसे तरीके से फँसाया जाता है। देखो किन शब्दों को उछाला जाता है। देखो रंगों का कैसा खेल रचा जाता है। मन को, संसार को, और कैसे समझोगे? ऐसे ही। "अच्छा, इस तरीके से मुझपर कब्ज़ा करने की कोशिश की जा रही थी। ऐसे की जा रही थी।" बहुत अच्छा खेले है ये।

कभी जाना ऑटो-एक्सपो तो ध्यान से देखना। "अच्छा, तो लाल रंग की गाड़ी है, और उसके बगल में लाल रंग की गोरी खड़ी है। ये क्या कॉम्बिनेशन (मेल) है? गाड़ी की ऊँचाई ज़्यादा है, तो महोदया की भी ऊँचाई ज़्यादा रखी गई है।"

और ये सब बिल्कुल फाइन आर्ट (ललित कला) होती हैं। इसके पीछे जो लोग बैठे हैं वो बड़े शातिर होते हैं। तुम्हें क्या लगता है, ये सब ऐसे ही हो जाता है? इसके पीछे बैठकर दिनों, हफ्तों तक दिमाग लगाया जाता है कि कैसे किसको फँसाया जाएगा? क्या देखकर कौन फँसेगा? वो तुम्हें फँसा रहे हैं; तुम उनके खेल को समझो, पकड़ो, मज़ा आएगा। फँस मत जाओ।

प्र: सर, कल मैं एक कॉलेज में था, तो अपॉइंटमेंट था ६ बजे से तो मैं बैठा हुआ था। मेरे बाद एक महिला आईं जिन्होंने इतनी मोटी और इतनी बड़ी हील पहनी थी, एकदम पतली-सी। और वो अपनी जगह पर अगर हिल भी रही थीं, तो भी आवाज़ आ रही थी; चलने पर तो आ ही रही थी।

फिर मेरी बारी आई। मैने सोचा, "अब तो मैं अंदर जाऊँगा।" रिसेप्शनिस्ट ने उस महिला को कहा, "आप जाइए।" तो मैने पूछा, "क्यों, मतलब कैसे? मैं आया था, मेरा अपॉइंटमेंट था।" उन्होंने कहा, "वो थोड़ा ज़्यादा ज़रूरी है।" फिर वो अंदर गईं, फिर संयोग से मेरी उनसे मुलाकात हुई फिर उसके बाद। तो बात-बात में यही आ गया कि हम रिझाते कैसे हैं एक-दूसरे को। तो मैं जानबूझकर नहीं मगर उदाहरण वही निकल गया। उन्हें लगा होगा कि ये तो कमेंट (टिप्पणी) कर रहा है।

आचार्य: अब से सिर्फ देखो ना कि रिझाए जा रहे हो। तो खुश मत हो जाया करो जल्दी से। ये बेवकूफी है कि कोई तुम्हें रिझा रहा है, और तुम रीझ गए। जब दिखाई दे कि रिझाए जा रहे हो, तो उसको जाल की तरह, फ़रेब की तरह, और धोखे की तरह ही लेना। धोखा हो रहा है। और समझना कि किन-किन अस्त्र-शास्त्रों का, विधियों का इस्तेमाल करके तुमको फँसाया जा रहा है। प्रेम में सरलता होती है, डायरेक्टनेस (सादगी) होती है; जाल-फ़रेब नहीं होता, तीखी-चितवन नहीं होती, इशारेबाज़ी नहीं होती। वहाँ जो होता है, सीधा-सीधा और खुला होता है। जहाँ पर ये सब चल रहे हो दंड-फंद, समझ लेना मामला टेढ़ा है। और इसमें प्रेम-वेम नहीं है। सब तो चालबाज़ियाँ हैं।

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