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लेख
जीवात्मा को आत्मा मत समझ लेना || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2021)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
14 मिनट
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आचार्य प्रशांत: जीवात्मा क्या है? जीव जिसको ‘आत्म’ या ‘आत्मा’ अर्थात ‘मैं’ कहता है, वो जीवात्मा है। जो जीव का ‘आत्म' है, वो जीवात्मा है। जो जीव के केंद्र पर है, वो जीवात्मा है। जीव का जीवत्व जिससे है, वो जीवात्मा है। जीव जिसे आत्मा समझे या जो जीव की आत्मा है, जो जीव का ‘मैं’ है, वो जीवात्मा है। हमेशा के लिए स्पष्ट रखना कि जीवात्मा, आत्मा नहीं है।

वास्तव में दुनिया में किसी से भी सिर्फ़ एक ही भूल होती है। जिस भी व्यक्ति ने आज तक भूल करी है, उसने कभी कोई दूसरी भूल करी ही नहीं। सदा भूल करने वाला एक ही जगह भूल करता है, गच्चा खाता है, वो यह है कि वो अहम् को आत्मा और आत्मा को अहम् समझ लेता है।

सच को झूठ समझना, झूठ को सच समझना और कुछ नहीं है, अहम् को आत्मा और आत्मा को अहम् समझने के अलावा। इसीलिए भारत में यह बड़ी दुखद बात रही है कि हमने जीवात्मा को आत्मा समझ लिया। और भारत ने जीवात्मा को आत्मा समझने की बड़ी भारी कीमत चुकायी है। जीवात्मा को आत्मा समझना बिलकुल वैसा ही है, जैसा अहंकार को आत्मा समझ लेना, सच को झूठ समझ लेना, झूठ को सच समझ लेना, मिथ्या को मर्म समझ लेना। समझ में आ रही है बात?

फिर जब आप जीवात्मा को ही आत्मा बोलना शुरू कर देते हो, जब आपके लिए जीवात्मा और आत्मा में कोई भेद ही नहीं रह जाता, तो जो बात जीवात्मा माने अहंकार के लिए कही जानी चाहिए थी, वही बात आप आत्मा के लिए बोलनी शुरू कर देते हो। फिर आप आत्मा को लेकर कैसे-कैसे संबोधन करने लगते हो! ‘मेरी आत्मा बेचैन है! भगवान उनकी आत्मा को शांति दे! प्यार दो आत्माओं का मिलन होता है!' यह सब सुनी है न बातें? यही वो सब बातें हैं जो मूल झूठ हैं।

अध्यात्म होता ही इसीलिए है ताकि आप आत्मा को पहचान सको, ताकि आप आत्मा को अहंकार से अलग कर सको, ताकि अहंकार को लेकर हमारे मन में जो निजता का भाव रहता है कि ‘यही तो मैं हूँ, यही तो मैं हूँ’, वो टूट सके। अध्यात्म है ही इसीलिए।

लेकिन हमने बड़ा अपना बेड़ा गर्क कर डाला। हमने जीवात्मा को ही आत्मा बना दिया! और ऐसी बातें हमने बोलनी शुरू कर दीं कि ‘आत्मा एक शरीर से निकलकर दूसरे शरीर में पलायन करती है।' यह बात अगर कही जाए तो किसके लिए उचित है? जीवात्मा के लिए। जीवात्मा के लिए आप बिलकुल कह सकते हैं, जैसा कि प्रस्तुत श्लोक में कहा गया है। क्या? कि जीवात्मा योनि-दर-योनि भ्रमण करता है। कभी वो कुछ बना बैठा है और कभी वो कुछ बना बैठा है। कभी इससे उसका संबंध है, कभी उससे उसका तादात्म्य है। यह बात आप निश्चित रूप से जीवात्मा के लिए बोल सकते हो, बोलनी चाहिए, क्योंकि ऐसा ही है। ‘मन के बहुतक रंग हैं, छिन-छिन बदले सोए।'

मन और जीवात्मा एक ही तल की चीज़ें हैं, बहुत निकट की। तो जीवात्मा के लिए बिलकुल बोला जा सकता है कि कभी उसका एक रूप, कभी एक आकार, कभी वो कुछ, कभी कुछ है। लगातार वो समय के प्रवाह में, लगातार वो परिवर्तन की धारा में है। यह बात जीवात्मा के लिए निसन्देह उचित है पर यह बात हमने किसके लिए बोलनी शुरू कर दी? हमने यह बात आत्मा के लिए बोलनी शुरू कर दी।

आत्मा शब्द का भी प्रयोग बहुत सावधानी से करिए! पहली बात तो आत्मा किसी शब्द में समाती नहीं। यह भी एक तल पर धृष्टता ही है कि आत्मा को इंगित करने वाले किसी शब्द का भी आविष्कार किया जाए, आत्मा के लिए तो वास्तव में कोई शब्द भी नहीं होना चाहिए। आत्मा के निकटतम अगर कुछ है तो मौन है, चुप ही हो जाओ। लेकिन चलो, काम चलाने के लिए, व्यवहारिक उपयोग के लिए आपने कह दिया ‘आत्मा’। इतना ही कहना बहुत बड़ी धृष्टता थी, हम उससे आगे न जाएँ, यही अच्छा है। हम आत्मा को लेकर कोई बात न करें क्योंकि आत्मा सब बातों से परे है।

अच्छे से समझ लीजिए! आत्मा न आती है, न जाती है, न गर्भ में प्रवेश करती है, न शरीर छोड़ती है। आत्मा न संकुचित होती है, न हर्षित होती है। आत्मा न दुख की भोक्ता है, न सुख की आकांक्षी है। आत्मा को लेकर आपने आज तक जो कुछ भी बोला, सब ग़लत है। क्योंकि आत्मा किसी भी प्रकार के वर्णन, चित्रण, उल्लेख से परे है। आत्मा को लेकर कोई किस्सा, कहानी, आख्यान सर्वथा अनुचित है, कुछ मत कहिए आत्मा के बारे में। और अगर कहीं आप पाएँ कि संतों ने भी आत्मा को लेकर कुछ बोल दिया है, तो समझ लीजिए कि वो बात वास्तव में किसकी कर रहे हैं? जीवात्मा की कर रहे हैं। कबीर साहब एक जगह कहते हैं-

कबीर बादल प्रेम का हमपर बरसा आई । हर्षित भई आत्मा, हरी भई बनराई।।

~ कबीर साहब

किसकी बात कर रहे हैं वो? यह जीवात्मा की बात हो रही है, आत्मा नहीं हर्षित होती। प्रेम का बादल आत्मा पर बरस ही नहीं सकता क्योंकि आत्मा की आत्मा को चाहिए ही नहीं। प्रेम का आकांक्षी कौन है? मन है। अहंकार को प्रेम चाहिए, अहंकार को आत्मा से प्रेम होता है। आत्मा नहीं प्रेम करती, न आत्मा हर्षा सकती है, न आत्मा मुरझा सकती है।

‘हरि भई बनराई’ ये जिस बनराई, जिस वन, जिस हरियाली, जिस जंगल की बात हो रही है, वो किसका है? किसका है? कहाँ पत्ते झड़ते हैं? कहाँ पतझड़ आता है? फिर कहाँ बहार आती है, बसंत आता है? कहाँ हरियाली फिर पाँव पसारती है? मन में, आत्मा में नहीं। आत्मा आकाश है। आकाश में न तो पतझड़ होता है, न कोंपलें फूटती हैं। आकाश के अंदर सबकुछ हो रहा है, पर आकाश के पत्ते कभी नहीं झड़ते, न आकाश में कभी पुष्प लगते हैं। बात समझ में आ रही है?

जब तक आपके पास कुछ ऐसा नहीं है जो सब तरह के परिवर्तनों और आवागमन से परे है, मुक्त है, तब तक आप परेशान ही रहेंगे। इसलिए बहुत ज़रूरी है कि आत्मा को ज़रा दूर रखा जाए। ससम्मान, उसको अपने स्पर्श से हम बचाकर रखें। पर हम ऐसा करते नहीं। और यह बड़े अहंकार की बात है कि आप जीवात्मा को ही क्या बोलना शुरू कर दें? आत्मा। इसमें देख रहे हो कितना अहंकार निहित है! क्या अहंकार निहित है? कि ‘साहब! मेरा जो अहंकार है, वही आत्मा बराबर है।' तो मैं जीवात्मा को ही क्या बोलूँगा? आत्मा। और अहंकार और चाहता क्या है, वो यही तो चाहता है कि मुझे ही सत्य मान लो, मुझे ही आत्मा मान लो। भीतर-ही-भीतर काँपा रहता है कि 'मैं झूठ हूँ!' तो उसकी उम्मीद क्या रहती है? मुझे सच बोल दो कोई। और जैसे ही आपने जीवात्मा को आत्मा बोला, जीवात्मा बोलती है, ‘ये! मज़ा आ गया! क्या बात है! यही तो हम चाहते थे!’

अब यह मत कहिएगा कि कबीर साहब ने भी तो यही करा है कि…। उन्होंने बस यह करा है कि जो प्रचलित शब्दावली थी, उसी का जनमानस के साधारण उपयोग के लिए उन्होंने…। हर कोई बोल रहा है, अहंकार को ही आत्मा, तो उन्होंने उसी तर्ज़ में अपनी बात कह दी। लेकिन आपको सावधान रहना होगा। अंग्रेज़ी में जिसको सोल कहते हैं, वो सत्य नहीं है। सोल आत्मा नहीं है, सोल मन है, सोल अधिक-से-अधिक जीवात्मा है। समझ में आ रही है बात?

वो सबकुछ जो आपका है, वो वास्तव में सत्य नहीं है। हम चाहते यही हैं मानना कि हम ही सत्य हैं। उसमें क्या दिक्कत है? तुम अगर सत्य हो तो तुम आख़िरी हो। सत्य अपनेआप को बोलकर तुमने अपने लिए ही झंझट पैदा करा। क्या पैदा करा? सत्य कभी बदल नहीं सकता। सत्य के साथ एक मज़बूरी है कि वो बदल नहीं सकता। अब तुम कहो कि तुम ही सच हो तो तुम फँस गए। क्यों? क्योंकि अब बदल नहीं पाओगे। जैसी हालत तुम्हारी है, इसी में फँस जाओगे, बदल नहीं पाओगे। इसीलिए भूलकर भी अपनेआप को सच मत बोल देना। जिस किसी को ज़िंदगी में आगे बढ़ना हो, वो अपनेआप को सच बोलने से बहुत कतराए। और जिस किसी को आगे न बढ़ना हो, बस अपनी घिसी-पिटी हालत में ही अहंकार का झंडा बुलंद रखना हो, वो निस्संदेह बोले कि ‘मैं ही सच हूँ, मैं ही आख़िरी हूँ, मैं ही अपरिवर्तनीय हूँ।'

जैसे ही तुमने अपनेआप को सच बोला, तुमने एक तरीक़े से अपनी मौत कर ली। मौत कर लेने का मतलब समझते हो? अब कोई बेहतरी नहीं हो सकती, अब कोई तरक्की नहीं हो सकती। जिन्हें बेहतरी चाहिए, वो अपनेआप को क्या बोलें? मैं तो झूठ हूँ। झूठ बोलते ही अब आपको आज़ादी मिल जाती है बदलने की, बेहतर होने की। क्योंकि झूठ के साथ आपके ऊपर झूठ के संरक्षण का अब कोई कर्तव्य नहीं बचता। समझ रहे हो बात को?

सच को तो बचाना पड़ता है न! आप कहेंगे, ‘सच को क्यों बचाना पड़ता है, सच तो अखंड है, अटूट है, सच को रक्षा चाहिए?’ (मुस्कुराकर) सच को रक्षा चाहिए! सच को नहीं, ‘हमारे’ सच को, ‘हमारे लिए’ सच को। सच के साथ हमारे रिश्ते को रक्षा चाहिए। सच को रक्षा नहीं चाहिए, किसको रक्षा चाहिए? सच के साथ हमारा जो रिश्ता है। सच तो कभी नहीं टूटेगा, अटूट है पर सच से हमारा जो रिश्ता है वो ज़रुर टूट सकता है। तो उस रिश्ते को बचाओ। उस रिश्ते को वैसे ही बचाओ जैसे एक छोटे बच्चे को बचाया जाता है। इसीलिए कई जगहों पर जानने वालों ने कहा है—भारत में भी कहा गया है, बाइबिल में भी कहा गया है—जैसे एक छोटा बच्चा हो, जैसे नाज़ुक-सी चीज़ हो, सच को वैसे बचाओ। स्मृतियों में भी कहा गया है कि जो धर्म को बचाते हैं, धर्म उनको बचाता है।

कहेंगे, ‘धर्म को बचाते हैं! धर्म को बचाने की ज़रूरत पड़ेगी?’ बिलकुल पड़ेगी। जब कहा जाता है कि धर्म को बचाने की ज़रूरत पड़ेगी तो उसका मतलब क्या है? तुम्हारा जो धर्म से रिश्ता है, उसको बचाना पड़ेगा। कुछ लोग खड़े हो जाते हैं, कहते हैं, ‘अजी साहब! आप धर्म की रक्षा की क्या बात कर रहे हैं, धर्म में अगर दम होगा तो बचा रहेगा न, आप कौन होते हैं धर्म को बचाने वाले?'

साहब! धर्म तो बचा रहेगा, आपका धर्म नहीं बचा रहेगा, आप बर्बाद हो जाएँगे। (आचार्य जी मुस्कुराते हैं) सच तो अमिट है पर आप तो मिटने वाले हैं न? आपका सच मिट जाएगा। तो जहाँ कहीं भी कुछ ग़लत हो रहा हो और उसकी रक्षा के लिए तुम आगे बढ़ो और कोई आकर तुम्हें यह ताना मारे कि 'नहीं, तुम इतनी-सी बात पर क्यों उत्तेजित हुए जा रहे हो? किसी ने अगर थोड़ी धर्म की हानि कर दी है, तो इसमें प्रतिक्रिया करने की क्या ज़रूरत है? धर्म तो बड़ी चीज़ होती है न! धर्म की कौन हानि कर लेगा? और तुम कौन होते हो जाकर के धर्म को बचाने वाले?’

तो उन नासमझों को यही बताना, ‘धर्म की हानि नहीं होगी, मेरी हानि होगी। मैं अपनी हानि बचाना चाहता हूँ।’ न सच मिट सकता है, न सत्य, न धर्म; लेकिन ‘मेरा सच’ मिट सकता है, ‘मेरा धर्म’ मिट सकता है। अंतर समझ पा रहे हो? सच रहा आएगा, तुम्हारे जीवन में नहीं रहेगा, तुम्हारा सच तो मिट गया न! सच तो अक्षुण्ण है, पर अगर तुम्हारी ज़िंदगी में नहीं है तो तुम्हारे लिए बचा क्या? तो तुम्हें बचाना है। ज़रूरी है उसको बचाना, अपने सच को बचाना। इसीलिए फिर धर्मयुद्ध लड़े जाते हैं।

कोई न कहे कि ‘अरे साहब! धर्मों को धर्मयुद्ध की क्या ज़रूरत है?’ बहुत ज़रूरत है! बहुत ज़रूरत है! नहीं तो एक निर्वैयक्तिक-सा, निर्गुण-सा धर्म बचा रह जाएगा, वो तुम्हारे किस काम आएगा? बोलो, किस काम आएगा? वो धर्म फिर ऐसा होगा जैसे कि कोई नदी अब सतह के नीचे-नीचे बह रही हो। बहुत-सी नदियाँ जानते हो न, सतह के नीचे-नीचे बहती हैं। वो तुम्हारे किसी काम की रह जाती हैं? और बहुत सारी नदियाँ ऐसी हैं जो कई सौ मील तक सतह के नीचे चली जाती हैं—साल में कुछ दिनों के लिए, कुछ महीनों के लिए। तुम्हारे क्या काम की रह गईं? तुम्हें तो धर्म का वो रूप चाहिए जो तुम्हारे लिए हो, जो तुम्हारे उपयोग में आ सके। है न?

तुम्हें धर्म का वो रूप नहीं चाहिए जो सतह के नीचे बहता हो। तो धर्म तुम्हारे लिए उपयोगी बना रहे, इसके लिए ज़रूरी होता है, धर्म को सक्रिय रूप से बचाना, सत्य को सक्रिय रूप से बचाना। और सत्य को अगर सक्रिय रूप से बचाना है तो उसके लिए बहुत आवश्यक है कि सबसे पहले झूठ को सच का नाम ओढ़ने से रोका जाए। इसीलिए कह रहा हूँ कि जीवात्मा को आत्मा का चोगा पहनने से रोकना होगा। आत्मा का कुछ नहीं बिगड़ेगा, वो तो अविनाशी है पर अगर जीवात्मा आत्मा बन बैठी, तो हमारा बहुत कुछ बिगड़ जाएगा। अपने स्वार्थ के लिए, अपने लाभ के लिए, अपने हित के लिए आवश्यक है कि हम जीवात्मा और आत्मा में अंतर करना सीखें।

और आज जिस बात से शुरुआत की—दुहराता हूँ उसको—दुनिया में कभी किसी ने और कोई ग़लती करी नहीं है, मूल ग़लती एक ही है– नकली को असली, असली को नकली समझ लेना। जीवात्मा को आत्मा, आत्मा को जीवात्मा समझ लेना। अहम् को सत्य, सत्य को अहम् समझ लेना।

अहम् को सत्य कैसे समझा जाता है, यह बात तो आसान लगती होगी समझने में। आसान लगती है न कि अहम् को ही सत्य समझ लिया, मैं जो हूँ वही सत्य है। पर सत्य को अहम् कैसे समझ लेते हैं? सत्य को अहम् समझा जाता है, सत्य को अहम् के भीतर का ही एक विचार, एक धारणा, एक मान्यता बनाकर के। समझ रहे हैं बात को?

तुमने सत्य को क्या किया है? तुमने कहा, ‘मैं सत्य को जानता हूँ।’ सत्य क्या है? ‘सत्य एक चीज़ है।' किसकी वो चीज़ है (आचार्य जी मुस्कुराते हैं)? ‘मेरी, मेरे मन की, मेरे मस्तिष्क के भीतर की, मेरे विचारों के भीतर की एक चीज़ है सत्य।’ यह तुमने सत्य को अहम् बना दिया। और अहम् को सत्य कैसे बना दिया? तुमने कहा, ‘सत्य के बारे में मैं बता रहा हूँ न! इसलिए वो बात सत्य है।’ तो माने, ले-देकर के सत्य, सत्य क्यों है? क्योंकि 'मैं' कह रहा हूँ कि वो सत्य है। तो सत्य से भी बड़ा सत्य क्या हो गया? ‘मैं'। अहम् सत्य बन गया, सत्य अहम् बन गया! समझ में आ रही है बात?

इसके अलावा कोई दूसरी ग़लती नहीं होती। कोई दूसरी ग़लती नहीं होती! आप सब यहाँ बैठे हैं, सुन रहे हैं, आपने भी कभी-भी, जब भी ग़लती करी है तो यही करी है, कि असली को नकली माना, नकली को असली माना। नकली-असली बिलकुल वही हैं, जो जीवात्मा-आत्मा है। नकली जीवात्मा, असली आत्मा।

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