आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
झूठा होश || आचार्य प्रशांत (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
16 मिनट
55 बार पढ़ा गया

प्रश्न : आचार्य जी, ‘झूठा होश’ का क्या अर्थ होता है?

आचार्य प्रशांत : हम जिसको ‘होश’ कहते हैं वो क्या है? आप जब कहते हो कि आप ‘होश’ में आ गए, तो आप किस स्थिति की बात कर रहे होते हो? रात में आप सो रहे हो । जब आप सो रहे हो तो आपका दावा नहीं है कि आप ‘होश’ में हो । सुबह आँख खुलती है और आप कहते हो? कि मैं ‘होश’ में आया । ये सुबह आँख का खुलना आपको किस स्थिति में ले आता है? क्या शुरू हो जाता है आपके साथ?

श्रोता : हम देख सकते हैं, महसूस कर सकते हैं ।

आचार्य जी: आप देख सकते हो, महसूस कर सकते हो, और आपकी नियमित दिनचर्या शुरू हो जाती है । कैसी है वो दिनचर्या? कैसी है वो दिनचर्या? समझ बूझ से भरी हुई है? उसमें कृष्णों की वाणी है? उसमें बुद्ध की आज़ादी है? मीरा का नृत्य है उसमें? जिसे आप अपनी ‘होश’ से भरी दिनचर्या बोलते हो, वो कैसी है? आँख खुलने के बाद आपकी जो स्थिति हो जाती है वो कैसी है? आपके मन में अनहद गूंजता है या आपके मन में तमाम तरीके के भय, शंकाएँ और व्यर्थ विचार उठते हैं ? सुबह उठने के बाद क्या होता है आपको? उठ कर के अपूर्व शान्ति में जीते हो? या उठते ही याद आता है कि फलाना काम बाकी है, फलानी चीज़ छिनी जा रही है, यहाँ भागना है, वहाँ जाना है ।

बोलो?

क्या होते हो? हम जिसे ‘होश’ कहते हैं वो चीज़ क्या है?

हम जिसे ‘होश’ कहते हैं, वो हमारे लिए बहुत बड़ा बोझ है । वही दुश्मन है हमारा । और यही कारण है कि जब थक जाते हो तो पुनः सोने चले जाते हो । क्योंकि जिसे तुम ‘होश’ कहते हो वो तुम्हें थकाता है ।

फिर उस ‘होश’ से परेशान हो कर तुम कहते हो इससे भली तो बेहोशी है, फिर तुम सोने चले जाते हो । देखा है, तनाव जब बढ़ जाता है तो क्या करते हो?

सोने चले जाते हो, और फिर शान्ति मिलती है । तुम जिसे ‘होश’ कह रहे हो, वो ‘होश’ है ही नहीं । तो इसलिए अच्छा ही है कि भजन तुम्हें बे-होश कर दे । आपकी ‘होश’ की परिभाषा ही विरूपित है । हम जिसे अपनी साधारण ‘होश’ भरी चेतना कहते हैं, उसमें कहाँ है ‘होश’?

सड़क पर चलते आम आदमी को देखो ना, अपनी दृष्टि में वो होशमंद है, पर वो क्या कर रहा है? कहाँ जा रहा है? वो हिंसा से भरा हुआ है, उसकी आँखों पर जाले हैं, उसकी चाल लड़खड़ाई हुई है, उसे तुम होशमंद कहोगे? और अगर वो होशमंद है, तो बुद्ध क्या थे? और

अगर ‘होश’ इतनी सस्ती चीज़ है कि आँख खोलते ही सुबह मिल जाती है, तो उन ऋषियों का क्या हुआ जिन्होंने फिर अथक अनंत साधना करी, ‘होश’ पाने के लिए ।

‘होश’ अगर ऐसी चीज़ होती कि प्रातः आँख खोलने भर से प्रकट हो जाती, तो इसी गंगा के तट पर ऋषियों को क्यों अथक साधना करनी पड़ी ‘होश’ पाने के लिए?

बोलो?

क्योंकि उन्हें दिखा था, हम जिसे ‘होश’ बोल रहे हैं, उसमें कहीं ‘होश’ नहीं है ।

‘होश’ का अर्थ होता है बोध, जागृति । हम इतने बेहोश हैं कि बेहोशी को ‘होश’ कह रहे हैं ।

इतने बेहोश हैं !

ऋषियों की बेहोशी ज़रा कम हुई थी, उन्होंने कहा था ‘बेहोशी,’ बेहोशी है । अब ‘होश’ चाहिए । जो कह दे ‘बेहोशी’ बेहोशी है, वो ‘होश’ के लिए प्रयत्नशील हो जाएगा और जो कहे कि बेहोशी ‘होश’ है, वो क्यों कोई प्रयत्न करेगा? वो क्यों पिंजरा तोड़ना चाहेगा?

आप बेहोशी माँगो ! लेकिन वो बेहोशी जो आपके ‘झूठे होश’ को तोड़े और ‘सच्चे होश’ की ओर ले जाए ।

हम सब अपने ‘होश’ से उकताए हुए हैं । क्यूँकि ये ‘होश’ है ही नहीं ।

यहाँ ऋषिकेश में हो । यहाँ लोग आते हैं योग के लिए, शिव के लिए, साधना के लिए, आध्यात्म के लिए, और यहाँ से ज्यादा, गाँजा, भाँग, अफीम, धतूरा, कहीं नहीं चलता ।

लोग यहाँ ‘होश’ के लिए आते हैं, पर देखो कि पहला काम तो वो ये करना चाहते हैं कि जिस ‘होश’ में जी रहे हैं उससे तो आज़ाद हो जाएँ? जैसे तुम थक कर भागते हो नींद की तरफ, उसी तरीके से भटका हुआ साधक ‘झूठे होश’ से घबरा कर भागता है, मादक द्रव्यों की तरफ । इसलिए तो इतना ज़्यादा नशे का सेवन होता है । नशे का सेवन होता ही इसलिए है क्योंकि हमारा होश झूठा है, और शराबी कहता है कि ऐसे होश से तो भला है? ‘नशा’ ।

अगर हमारा ‘होश’ सच्चा होता तो क्यों दुनिया में इतने शराबी होते? अगर हमारा होश सच्चा होता तो क्यों इतने लोग चिलम फूँक रहे होते ऋषिकेश में? हम इतने परेशान हैं इस ‘झूठे होश’ से कि कहते हैं, ‘सच्चा होश’ ना मिले तो गाँजा सही; लेकिन हमारी इस अवस्था से मुक्ति तो दो ! आज़ादी तो मिले, उस चेतना से जिसमें हम क़ैद हैं ।

‘सच्ची आज़ादी’ होती समाधि,

‘सच्ची आज़ादी’ अगर नहीं मिल पा रही तो झूठी आज़ादी दे दो । आज़ादी नहीं तो अफीम सही । लेकिन वैसे नहीं जीना है जैसे आम आदमी जी रहा है, चेतना के उस तल पर नहीं जीना है ।

इसलिए साधक अकसर जब ‘सत्य’ को नहीं पाता तो नशे की ओर मुड़ जाता है । क्योंकि ‘सत्य’ और नशा, दोनों ही एक साझा प्रभाव तो छोड़ते ही हैं, क्या? कि जिस हालत में तुम अभी हो तुम्हें इस हालत से निकाल देते हैं ।

तुम जिस हालत में हो, जैसा तुम दिन बिताते हो, समाधि उस हालत को तोड़ती है । और तुम जिस हालत में हो, भाँग, धतूरा भी उस हालत को तोड़ते हैं । अंतर बस इतना है कि समाधि अटूट होती है, अनंत होती है, मिल गयी तो छिनेगी नहीं, दुखदायी नहीं होती; और नशा रातभर का होता है ।

रातभर के लिए तुम्हें लगता है कि दुःख से आज़ादी मिल गयी, फिर नशा उतरता है तुम पाते हो कि दुःख उतना ही है बल्कि और गहरा गया है ।

और जानते हो, कितना ज़्यादा हम परेशान हैं अपने ‘होश’ से? हम इतना परेशान हैं कि हम तमाम तरीके के मनोरंजन ढूँढ़ते हैं । तमाम तरीके के अड्डे ढूँढ़ते हैं जहाँ पर किसी तरीके से हमें अपनी वर्तमान मनोस्थिति से छुटकारा मिल सके ।

रोमांचक खेल क्या हैं? एडवेंचर स्पोर्ट्स क्या हैं? सप्ताह के अंत होने पर बाहर घूमने की ललक क्या है? ये सब क्या हैं? टीवी क्या है? फिल्म क्या है? *ये सब कुछ साधन हैं, अपने ‘होश को भुलाने के’ । *

बात समझ रहे हो?

होश माने, अपनी चेतना ही साधारण अवस्था ।

तुम उसको भुलाना चाहते हो । इसके लिए तुम पचास तरह के आयोजन करते हो । इतना परेशान हो तुम अपने ‘होश’ से ! डिस्कोथिक पर नाचते लोगों को देखा है? कितना तेज़ संगीत होता है? और साथ में शराब का नशा । और रौशनी बिलकुल कम कर दी जाती है, और शनिवार की रात है और वो छह छह घंटे नाच रहे हैं, नाच रहे हैं । तुम्हें क्या लगता है वो क्या कर रहे हैं? गौर से देखो ! वो क्या कर रहे हैं? वो भूलना चाहते हैं उन्होंने हफ्ते भर जो भी किया । तुम इतना परेशान हो अपने होश से ।

नींद, नशा, एडवेंचर, डिस्को, फिल्म, सेक्स, उपभोक्तावाद, ये सब क्या हैं? दिख नहीं रहा ये सब क्या हैं? क्या हैं? ये सब हमारी कोशिशें हैं कि किसी तरीके से ये जो मन में चलता रहता है इससे? मुक्ति मिले ! हम इतना परेशान हैं अपने होश की साधारण अवस्था से । हम जीना ही नहीं चाहते इसके (दिमाग की ओर इशारा करते हुए) साथ । नींद तात्कालिक राहत देती है । लेकिन क्या करें? चौबीस घंटे सो भी नहीं सकते । सो जाते हैं तो भूल जाते हैं, आँख खुलती है तो फिर वही विचार घूमने लगते हैं, फिर संसार घूमने लगता है, फिर डर, आशा, निराशा, दुराग्रह, पुराने चक्र सक्रिय हो जाते हैं ।

श्रोता : आचार्य जी, जैसे आपने कहा कि ऋषियों ने इतनी साधनायें, बुद्ध ने इतनी साधना करी, महावीर ने इतनी करी, तो इन साधनाओं की ज़रुरत क्या थी?

आचार्य जी : हम परेशान हैं । बस कुछ लोग होते हैं जो परेशानी को सतही चिकित्सा दे कर के संतुष्ट हो जाते हैं । और कुछ लोग होते हैं, बड़े ज़िद्दी, सच के प्रति बड़े आग्रही । वो कहते हैं परेशानी यदि को आमूलचूल समाधान नहीं दिया तो कोई समाधान नहीं दिया । आप परेशान हुए, आपने दो पेग लगाए और इतने में आपका काम चल गया, आपने कहा परेशानी दूर हो गयी । बुद्ध को इतने से संतुष्टि नहीं थी, बुद्ध ने कहा, ना ! परेशानी का जब तक पूर्ण निदान और पूर्ण समाधान नहीं होता तब तक मैं चैन नहीं पाऊँगा।

आप परेशान हुए आपने टीवी चला दिया, आप परेशान हुए आप गए कहीं बाहर, कहीं पैसा खर्च कर के, खाना खा के आ गए । घूम के आ गए । देखा है ना परेशानी दूर करने के हमारे पास कैसे-कैसे साधन होते हैं? चलो डिनर कर आते हैं बाहर कहीं! कुछ खरीद लिया, परेशान थे नयी शर्ट खरीद ली । शरीर का प्रयोग कर लिया । सेक्स हमारे लिए और क्या है? दिन भर जितना कष्ट झेला होता है, लगता है दो पल के लिए उससे आज़ादी मिल जाएगी ।

बुद्धों को ये मंज़ूर नहीं था । उन्होंने कहा, ये तो बड़ी दयनीय स्थिति में जीना हो गया । उन्होंने कहा, अगर जीना ही है तो ऐसे क्यों जियें? जाते हैं, पक्का हल ढूँढ कर लाएँगे । ये थोड़े ही है कि दिन रात की मगजमारी में जिए जा रहे हो, जिए जा रहे हो । एक परेशानी से बचने के लिए दूसरी परेशानी में डूबते जा रहे हो । जानते हो मर्द इधर से उधर भागता क्यों है और क्यों भागता है? जब एक परेशानी बहुत बड़ी हो जाती है तो वो कहता है जो अपेक्षतया छोटी है उसकी ओर चले चलते हैं । जैसे फुटबॉल, जिधर भी जाए, पाती तो लात है । ऐसी हमारी हालत है । हाँ, जो जितनी ज़ोर से लात मार देता है उससे हम उतनी ज़ोर से दूर भागते हैं, जैसे फुटबॉल । फुटबॉल को जो जितनी ज़ोर से लात मारता है, फुटबॉल क्या करती है? उतनी ज़ोर से उससे भागती है । तो वैसे ही हम भागते हैं । अभी अभी पिटे हैं, जिससे पिटे हैं उससे बहुत तेज़ी से दूर तक भागेंगे और ये भूल जायेंगे कि हम जिस के पास जा रहे हैं, पीटेगा तो वो भी ।

आप जिसके पास जा रहे हो, वो गले थोड़े ही लगा लेगा? उठा के चूम थोड़े ही लेगा? फाऊल हो जाता है, हैंड करना । तुम्हें तो लात ही पड़नी है ! तो ऐसे जीव विचार से विचार, परिस्थिति से परिस्थिति, भागा-भागा फिरता है, राहत की तलाश में जो उसे कभी मिलती ही नहीं ।

बुद्धों ने कहा, ना बाबा ना ! फुटबॉल का जनम लिया है क्या? आदमी पैदा हुए हो, आदमी हैं यदि तो कुछ गरिमा होनी चाहिए जीवन में ! हमें नहीं पिटना ।

देखते हो ना कैसे पिट जाते हो? दफ्तर में पिटे, सड़क पर पिटे । पिटने का अर्थ होता है चोट खाना; अगर अपने प्रति संवेदनशील हो जाओ और एक सूची बनाओ, कि किसी भी आम दिन तुम कितनी जगह चोट खाये, कितनी बार आहत हुए, तो तुम पगला जाओगे ।

हर चीज़ तुम्हें आहत कर रही है । हाँ, इतना पिटे हो कि तुमने अब गौर करना छोड़ दिया है, तुमने अंकित करना छोड़ दिया है कि तुम कितना पिटे हो ।

बुद्धों की संवेदनशीलता अभी ज़रा हरी थी, वो गौर करते थे । वो अवहेलना नहीं कर देते थे अपने ही दर्द की ! वो अनदेखा नहीं कर देते थे अपने ही घावों को । वो देखते थे, कहते थे, आज यहाँ चोट लगी, यहाँ चोट लगी, यहाँ चोट लगी, और रोज़ चोट लग रही है और चारों तरफ लग रही है । ये चलेगा नहीं बाबा ! ऐसे नहीं जीना है ।

हम तो अपनी चोटें गिनना भी भूल गए हैं । हमें तो अगर चोट ना लगे तो हम परेशान हो जाएँ । हमारे लिए चोट अब साधारण बात हो गयी । नार्मल (साधारण) बोलते हैं उसको ।

उसको तुम नार्मल मत बना लो ।

नॉर्म (चलन) में, और नेचर (स्वभाव) में अंतर होता है । नॉर्म(चलन) माने वो जो चारों तरफ हो रहा है, नेचर (स्वभाव) माने वो जो भीतर है । तुम नॉर्म (चलन) के साथ नहीं चलो, तुम? नेचर (स्वभाव) के साथ चलो ।

समाज के साथ नहीं, स्वभाव के साथ चलो ।

श्रोता : आचार्य जी, अपने स्वभाव को कैसे और अच्छे से जान सकते हैं?

आचार्य जी: जो पूछा सवाल इसमें क्यों कह रहे हो कि जानना है?

तुमने कहा स्वभाव को और अच्छे से कैसे जान सकते हैं? ये सवाल ही स्वभाव का प्रदर्शन है । स्वभाव है “जानना” । सवाल इसलिए पूछ रहे हो ना कि जानना है? यही स्वभाव है ।

जानो । यूँ ही किसी भी चीज़ को स्वीकार ना कर लो, मान ना लो, सिर्फ इसलिए कि वो सर्वव्यापक है ।

ये देखिए ! (पीछे दूर से आती हुई शोर से भरी आवाज़ों की ओर इशारा करते हुए)

आपको क्या लग रहा है, ये उत्सव है? ये क्रंदन है । ये पीड़ा की आहत आवाज़ें हैं । ये सब दुखी मन हैं, जो अपने दुःख से भाग कर नशे की ओर आये हैं । नशे की और जाने का और कोई कारण होता ही नहीं है । एक ही कारण होता है, दुःख । सुनते नहीं हो, पीने वाले क्या कहते हैं? ज़रा ग़म गलत कर लें । ग़म गलत करना, ग़म के अलावा कोई वजह ही नहीं है के तुम नशे की और जाओ । और नशा बहुत तरह का होता है । जो शराब ना लेते हों, ड्रग्स ना लेते हों, वो ये ना सोचें कि वो नशेड़ी नहीं हैं । तुम्हें दूसरी तरह का नशा होगा ।

श्रोता : जैसे कि?

आचार्य जी: जैसे कि ज्ञान का नशा, प्रसिद्धि का नशा ।

जो भी चीज़ तुम्हारे मन में घूम रही है, जो कुछ भी तुम्हारी चेतना का विषय है, वही ‘नशा’ है । वास्तविक ‘होश’ का अर्थ होता है, ‘मन का खाली हो जाना’ ।

वो चेतना की ‘शून्य’ और ‘निर्मल’ स्थिति है । तुम्हारे मन में तो सदा कुछ घूमता रहता है ना? कुछ न कुछ चढ़ा रहता है ना मन पर? कोई न कोई विषय सदा उपस्थित रहता है ना? उसी को ‘नशा’ कहता हैं । जो कुछ भी तुम्हारे मन से उतरने का ही नाम नहीं ले रहा, उसी का तुमने इस्तेमाल कर लिया है, ‘नशे’ की तरह । शराबी के सर पर दिखाई दे जाता है कि शराब चढ़ गयी है । तुम प्रेम में हो, तुम्हारे दिमाग पर चढ़ गया है कोई; ‘नशा’ ही है । बस तुम उसे नाम नहीं देते ‘नशे’ का । तुम कह देते हो प्रेम है । कुछ भी मिल गया हो तुम्हें, मानसिक तौर पर उलझे रहने के लिए – बही खाते का मिलान नहीं हो रहा, बेटे की पढ़ाई ठीक नहीं चल रही, पत्नी खफा है, शरीर में बीमारी है, पड़ोसी ने दो कड़वी बातें बोल दी हैं; कुछ न कुछ चलता रहता है ना मन में? ये सब ‘नशे’ हैं । “जो मन से ना उतरे माया कहिये सोय” ।

श्रोता : आचार्य जी, खाली दिमाग क्या करेगा अगर ये सब सोचेगा नहीं तो?

आचार्य जी: देखो अभी भी खाली दिमाग के नाम पर तुम दिमाग चला रहे हो, कि खाली दिमाग क्या करेगा? इतना डरते हो खाली दिमाग से । खाली दिमाग क्या करेगा वो खाली दिमाग का काम है । तुम भरा दिमाग ले कर के खाली दिमाग की कल्पना कर रहे हो? तुम्हें और कुछ नहीं मिला तो तुमने खाली दिमाग की कल्पना पकड़ ली, है ना? खाली दिमाग की बात कर के भी, तुम्हारा इरादा बस एक है, दिमाग को भर लेना, किस चीज़ से? खाली दिमाग की कल्पना से !

बात कर रहे हो खाली होने की, और छुप कर के क्या कर रहे हो? दिमाग को? भर रहे हो । हाँ, भर किस चीज़ से रहे हो? खाली दिमाग की कल्पना से । इतना डरे हुए हो ! कुछ न कुछ चाहिए पकड़ने के लिए, कुछ न कुछ चाहिए सोचने के लिए, कल्पने के लिए । असल मे ‘कल्पने’ और ‘कलपने’ में बहुत कम अंतर होता है । जो ‘कलप’ रहा है वही कल्पेगा ।

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें