आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
झूठ नहीं है संसार || (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम, कभी-कभार संसार निरर्थक लगता है लेकिन ज़्यादा समय संसार ही सच लगता है। दिल है कि मानता नहीं, क्या करें? आपके चरणो में आश्रय दो।

आचार्य प्रशांत: संसार सच लगता है तो कोई ग़लती नहीं हो गई। झूठ भी नहीं है संसार। बात सच-झूठ की नहीं है, लेनदेन की है। आप और हम बैठे हैं, यह भी संसार ही है। क्या करेंगे इसको झूठ ठहरा कर? अब इस दिए की लौ को देख रहा हूँ, उसको बचाना चाहता हूँ (दिए को संभालते हुए)। क्या करेंगे यह साबित करके कि ना कोई दिया है, ना उसकी कोई लौ है, झूठ है सब? संसार झूठ है, दिया झूठ है, इसकी लौ झूठ है, तो फिर ये कागज़ भी झूठ है जिस पर प्रश्न लिखा हुआ है, फिर आप और मैं भी झूठ हैं।

मैंने कहा बात लेनदेन की है, संबंध क्या है संसार से। यह एक जगह है, भवन है, (दीवारों की ओर इशारा करते हुए) यह दीवारें हैं उसकी, इनसे हमारा संबंध क्या है? हमारे मन पर चढ़कर तो नहीं बैठ गईं दीवारें, हमारा सपना तो नहीं बन गईं, हमारी ज़िंदगी तो नहीं बन गईं? दीवार जब तक दीवार है तो कह लीजिए कि सच है, और दीवार जब मन बन जाए तो कह लीजिए कि झूठ है। दीवार दीवार मात्र हो और तब भी आप उसे कहें कि झूठ है, तो यह आपने अतिशयोक्ति कर दी; तो इस बात को आपने ज़रा ज़्यादा ही खींच दिया। दीवार मात्र को ही अगर झूठ ठहरा देंगे, फिर तो इस हाड़-माँस को भी झूठ कहना पड़ेगा न। तो आप इतना तय कर लीजिए कि संसार को संसार ही रहने दें। इतने कायल ना हो जाएँ संसार के कि संसार से तमाम तरह की माँगे रखें और माँगे ना पूरी हों तो रो पड़ें। दुनिया जब तक दुनिया है, कोई बात नहीं, दुनिया जब हवस बन गई तो आप नहीं।

आपने कहा संसार कभी-कभार निरर्थक लगता है। इतना अर्थपूर्ण बस नहीं लगना चाहिए कि आपका मालिक हो जाए, कि आपका केंद्र बन जाए। रहा आए यह संसार। जिस दिन जीव होकर जन्म लिया था, उसी दिन तय हो गया था कि संसार आपके लिए होगा। संसार अगर झूठ है तो आपने जन्म कहाँ लिया? रहा आए संसार, बस आपका मालिक ना बन जाए।

संसार के प्रति एक विवेकपूर्ण उपेक्षा का भाव हो। मैंने कहा, विवेकपूर्ण उपेक्षा, ऐसी उपेक्षा नहीं कि पीछे से ट्रक चला आ रहा है और आपने कहा कि "झूठ है, जगत मिथ्या! जब जगत मिथ्या तो ट्रक भी मिथ्या।" ऐसा नहीं, विवेकपूर्ण उपेक्षा। ट्रक शरीर की तरफ आ रहा है, शरीर उसके सामने से हट गया, ट्रक मन पर नहीं चढ़ गया। यह तो आवश्यक है ही कि ट्रक शरीर पर ना चढ़े, उतना ही आवश्यक है कि ट्रक मन पर ना चढ़े। क्योंकि यह भी संभव है कि आप शरीर को तो बचा ले जाएँ और मन में ट्रक प्रवेश भी कर जाए और पार्क भी हो जाए। बल्कि शरीर को बचाने से ज़रा सा ज़्यादा ही ज़रूरी है मन को बचाना। दोनों ज़रूरी हैं, पर दोनों में से चुनना पड़े तो मन को चुनिएगा। बाहर-बाहर संसार रहे, भीतर-भीतर कुछ नहीं।

दोनों ग़लतियाँ हैं — संसार को भीतर प्रवेश दे देना भी ग़लती है, और यह खोखला दावा करना कि बाहर भी अब संसार नहीं है, यह भी ग़लती है। बाहर संसार, भीतर मात्र सार। कबीर साहब की बात है, चक्की को देख रहे थे चलता हुआ, बोलते हैं, “क्या तुम ये चलती हुई चक्की की ही बात करते रहते हो, ये जो उसके बीच में तीली है, जो धुरी है, उसकी बात क्यों नहीं करते?”

"चाकी चाकी सब कहे, तीली कहे न कोए। जो तीली से लाग रहे, बाल न बांका होय।।" ~ गुरु कबीर

पर बच्चे जैसी तुम्हारी आँखें, चलती हुई चीज़ दिखी नहीं कि आकर्षित हो गए। थमी हुई चीज़ आकर्षित ज़रा कम करती है न। कुछ चल रहा हो तो बच्चा उसकी ओर दौड़ता है, कीड़ा चल रहा है कि चींटी चल रही है, पंखा चल रहा है, कुछ हो रहा है, *हैपनिंग*। संसार का लक्षण है चाल, वहाँ हमेशा कुछ हो रहा होता है न। तो ‘चाकी चाकी सब कहें’, कुछ चल रहा है, क्या चल रहा है? दूसरे से कई दिन बाद मिलते हो तो यह थोड़े ही पूछते हो कि क्या नहीं हुआ, क्या पूछते हो? "क्या चल रहा है, क्या हुआ?" दृष्टि सदैव उस पर ही है जो परिवर्तनीय है, जिसकी गति है, चाल है।

और समझाने वाले कह गए — उसको कब देखोगे जो बीच में है, धुरी, केंद्रीय, जिसके मत्थे सारी चाल है? जो सबको चलाता है, ख़ुद नहीं चलता। तो चक्की भी है, तीली भी है, बात इसकी है कि आपकी दृष्टि कहाँ है। धुरी पर स्थित रहोगे तो मौज में रहोगे, पूरे-पूरे रहोगे। और नज़र अगर लगातार चक्की पर है तो भूखे-भूखे रहोगे, रिश्ता लेनदेन का रहेगा। भिखारी जैसे, कि कुछ मिल जाए चक्की से तो भूख मिटे।

झूठ नहीं है संसार, बस तुम्हारी केंद्रीय माँग को पूरा करने में अक्षम है, नाकाबिल है।

वह ख़ुद भूखा है, तुम्हारी भूख कैसे मिटाएगा? और भूख भी तुम्हें अनुभव तब ही होगी जब तुम संसार का हिस्सा बन जाओगे, क्योंकि संसार में तो जो कुछ है सब भूखा है। समझो, तुम संसार का हिस्सा हो गए, तुम भूख का हिस्सा हो गए। तुम ना सिर्फ़ भूख का हिस्सा हो गए, अब तुम यह चाह रहे हो कि भूख ही तुम्हारी भूख मिटा दे। संसार से उम्मीद रखना कि तुम्हारी भूख मिटाएगा, भूख से भूख मिटाने की उम्मीद है। ये उम्मीद ज़ाहिर है कि कभी पूरी तो होगी नहीं।

बहुत कुछ है जो चलता रहता है, तुम काहे परेशान हो रहे हो? वो ख़ुद ही कहीं को भाग रहा है, तुम्हें क्या स्थिरता देगा। और भाग तुम इसीलिए रहे हो कि स्थिरता चाहिए, तो भाई जब स्थिरता ही चाहिए तो जो स्थिर है उससे प्रेम रखो न। नहीं तो बड़ी तुमने गज़ब चाल चली कि चाहिए स्थिरता, लेकिन चाल के माध्यम से; थमना है दौड़-दौड़ कर।

दुनिया से कुछ माँगने जाओगे तो बड़ी मार पड़ेगी। वो तुम्हें ललचाती है यह कह कर कि तुम्हारी सब माँगें पूरी कर देंगे और जब तुम ललच कर पहुँच जाते हो उसके सामने, तो तुम्हारे गले में डाल देती है पट्टा। माँग तो कोई पूरी होती नहीं, मार और पड़ती है, यह दुनिया का रिवाज़ है। और उसी दुनिया के रंग-ढंग को, उसकी चाल को शांत रहकर देख जाओ तो एक अर्थ में दुनिया के मालिक हो जाते हो। जो कुछ तुम्हें प्रभावित करने में अक्षम हो गया, वह तुम्हारा मालिक नहीं हो पाया, तुम उसके मालिक हो गए। और जो कुछ तुम्हें गले में पट्टा डाल के खींच ले गया, वो तुम्हारा राजा हो गया।

जब भी दिखाई दे कि कोई भी चीज़, व्यक्ति, वस्तु, विचार बड़ा हावी हुआ जा रहा है, तभी समझ लेना कि गले में पट्टा डल रहा है। और हावी कोई धौंस या डर दिखाकर ही नहीं होता, कुछ बहुत मीठा लग रहा हो तो वह भी तो हावी ही हो रहा है। और कोई तुम्हें धौंस दिखाए, डर दिखाए तो उसका तो फिर भी विरोध करोगे, जब कुछ मीठा लगता है तो उसका तो और स्वागत होता है जैसे कोई अपने दुश्मन के लिए ही सब दरवाज़े खोल दे और आरती उतारे, आओ।

तो ले-देकर बात यह है कि जीव पैदा हुए हो तो यह उम्मीद तो रखो ही मत कि दुनिया तुम्हारे लिए अदृश्य हो जाएगी, दुनिया के अनुभव से तुम अछूते रह जाओगे। स्पर्श माने दुनिया, श्रवण माने दुनिया, दृश्य माने दुनिया, स्वाद माने दुनिया, विचार माने दुनिया, अतीत माने दुनिया, भविष्य माने दुनिया, देह माने दुनिया, तो यह सब तो है। यह उम्मीद मत रखना कि दुनिया नहीं होगी। दुनिया को बस अपना मालिक मत होने देना और उसकी एक ही विधि है — मालिक की गद्दी पर मालिक रहे, दुनिया फिर दूर-दूर रहेगी।

सीट खाली होती है उसी पर तो इधर उधर के लोग आकर बैठते हैं। कोई ना बैठे तुम्हारी गद्दी पर, तुम्हारी जगह पर, उसका सबसे सरल और प्रभावी तरीका क्या होता है? वहाँ वह बैठा हो जिसे बैठना चाहिए, अब उसे हटाकर थोड़े ही कोई बैठेगा। खाली हो गई जगह तो फिर कुछ पता नहीं, कोई भी चढ़ बैठे। जब भी कभी देखो कि दुनिया चढ़ बैठी है तुम्हारे ऊपर तो जान लेना कि पहली भूल तुमने करी है। तुमने दुनिया को एक खाली जगह दिखाई है। जगह खाली ना होती तो दुनिया आगे ना बढ़ती। दुनिया के ख़िलाफ़ शिकायत मत करना, कि दर-दीवार तोड़ कर के घुस आई मेरे घर में। ना, संसार भी एक तहज़ीब का पालन करता है, उसकी भी एक मर्यादा है। भरी जगह से किसी को उठाता नहीं, और खाली जगह को छोड़ता नहीं। जगह खाली मत छोड़ो। जो स्थान मुक्ति का है वहाँ मुक्ति ही विराजे, जो जगह पवित्रता की है वहाँ पवित्रतम का ही वास रहे।

बात जगह को खाली रखने कि नहीं, जगह को भरने की है। जगह को भरा रखो न। लड़ने की ज़रूरत ही तभी पड़ती है जब जगह पर किसी का नाज़ायज कब्ज़ा हो जाए, फिर तुम उससे आकर लड़ोगे, बहस-बाजी करोगे कि, “उठ, यह जगह तेरी नहीं है, तू क्यों बैठ गया?” तुम यह नौबत ही क्यों आने देते हो? जगह खाली छोड़ो मत। रिक्तता की बात मत करो, पूर्णता की बात करो।

हो दुनिया में दम तो दिखा दे मीरा के मन में सेंध लगाकर। दुनिया मीरा के मन में सेंध क्यों नहीं लगा सकती? भीतर कृष्ण बैठे हैं, जगह भरी हुई है। दुनिया ने कोशिश भी की भीतर घुसने की तो मीरा को कुछ नहीं करना है, जो करना है, कृष्ण को करना है, भीतर वह बैठे हैं।

खाली जगह तो बड़ा लुभाती है, आमंत्रित करती है। वहाँ तो घुसने के लिए सब चले आते हैं न। भीतर कृष्ण हों तो कचरा कैसे आएगा? हाँ, सफाई की भी, विद्रोह की भी आवश्यकता पड़ती है। पर तब पड़ती है जब तुमने बहुत सारा कचरा भर लिया हो। जब बहुत सारा कचरा भर लिया हो तो कचरा हटाना पड़ता है, जलाना पड़ता है। पर यह तो बीमारी के बाद की हालत है न कि भीतर जो रुग्णता प्रवेश कर गई उसको हटाओ, जलाओ। बात ये है कि बीमारी शुरु ही क्यों हो। क्यों इस झंझट में पड़ो कि पहले तो जिसको भीतर जगह नहीं देनी चाहिए थी उसको जगह दी और उसके बाद अब जगह साफ़ करने में लगे हैं, धोने में लगे हैं। जो घुसा भीतर वो बिलकुल चिपक कर बैठ गया था। इतना आसान थोड़े ही होता है अतिक्रमण हटाना। एक बार किसी ने तुम्हारी ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर लिया, फिर हटता है वो आसानी से? तो इससे अच्छा ज़मीन खुली मत छोड़ो, वहाँ मंदिर बना दो, कचरा अपने-आप नहीं आएगा।

देखा ही होगा तुमने शहरों, गाँव में कि जो जगह प्रसिद्ध हो जाती हैं कचरा डालने के लिए फिर उनको साफ़ करना कितना मुश्किल होता है। तुम एक बार साफ़ कर भी दो, तो पूरे टोले की आदत लग चुकी है कचरा तो यहीं डालना है। वह भी बेबस, डाले तो कहाँ डालें? अब एक ढर्रा बन गया है, एक सुविधा बन गई है कि लेकर आओ सारा कचरा यहीं डाल दो। सफाई अभियान चलता है हर महीने, दो दिन के लिए जगह साफ़ कर दी जाती है, तीसरे दिन तुम फिर पाते हो कोई चला आ रहा है झोला लटकाए, पॉलिथीन , वहीं खाली करके चला गया। तुम उसको भगाते भी हो कि क्या कर रहा है, तो फिर वो रात में आता है, छुप कर आता है। उसकी भी मजबूरी, कचरा डाले तो कहाँ डाले? इससे अच्छा है कि जगह को साफ़ रखो।

कभी देखा है कि किसी सुंदर उद्यान में कोई कचरा डाल रहा है? ख़ुद ही उसका मन ना करे। कभी देखा है कि कोई मंदिर आकर कचरा डाल रहा है? गंदगी गंदगी को आकर्षित करती है, शुरुआत ही मत होने दो। इतना अच्छे से समझ लो कि गंदी जगह को साफ़ करना ज़्यादा दुष्कर है, और सफ़ाई के प्रति प्रेम रखना सुंदर है, सरल है। चुन लो कौन सा रास्ता चुनना है।

‘हो गई मैली मोरी चुनरिया’, उसके बाद तो संत भी गाते हैं, ‘लागा चुनरी में दाग, हटाऊँ कैसे’। उनको भी युक्ति नहीं पता है कि अब गंदा हो गया है तो साफ़ कैसे करूँ, तो तुम क्या करोगे? उससे कहीं बेहतर है कि गंदा होने मत दो।

बहकने के पल दो-चार ही होते हैं, उनसे पार पा जाओ, हो गया। संसार भी इतना संग्रामी नहीं है कि आमने-सामने की लड़ाई करे और सतत् युद्ध करे। इतना दम नहीं है उसमें। वो गोरिल्ला युद्ध करता है, गोरिल्ला युद्ध समझते हो? छुप कर, घात लगाकर अचानक हमला करना और फिर भाग जाना। आमने-सामने की लंबी लड़ाई लड़ने का दम, स्टेमिना नहीं है संसार में। वो थोड़ी देर के लिए पूरी जान लगा कर तुमको बहकाता है। दो मिनट, पाँच मिनट, आधा घण्टा, एक घण्टा, और उस काल को अगर तुम झेल ले गए तो बच गए। जितनी बार झेलते जाओगे उतनी बार आगे झेलने के लिए और मजबूत होते जाओगे।

जब चिल्लाने का मन करे, तुम संयम धारण करे रहे। जब विवेक तोड़ने का मन करे, तुम विवेक में बने रहे। जब प्रेम तोड़ने का मन करे, तुम प्रेम में बने रहे। क्रोध उठे, भय उठे तुम अडिग रहे, लहर को गुज़र जाने दिया। लहरें ही तो आती हैं न संसार की; आई, आई, आई, प्रहार किया बस तुम पाँव उखड़ने मत देना, झटका झेल जाओ।

प्र२: आचार्य जी, जब हमारे पास खाली समय होता है तब मन में बहुत विचार चलते हैं। तो क्या ऐसे समय में साँसों पर ध्यान देना इत्यादि विधियाँ सहायक हो सकती हैं?

आचार्य: अगर तुम्हारे लिए वह सफल होते हों तो सब कुछ ठीक है। शांति इतना बड़ा लक्ष्य है कि उस तक जो कुछ भी ले जाता हो, सब ठीक है। नहीं तो कुछ सुन लो, कुछ पढ़ लो, विचार जब पता ही है कि आने हैं तो सुविचार आएँ। ऐसे विचार आएँ जो सत्य की ओर इशारा करते हों। संत, ज्ञानी, विद्वान अपने पीछे इतनी बातें, इतने गीत, इतना साहित्य क्यों छोड़ कर गए हैं? तुम्हारी मदद के लिए ही न। जब लगे कि दुनिया मन पर कब्ज़ा कर रही है तो संतो के पास चले जाओ, खोल लो किताबें, पढ़ डालो कुछ।

मैंने देखा था एक कुत्ता छोटा सा, रहा होगा किसी का पालतू, तो वो कभी-कभार अपने घर से बाहर निकल आए। दरवाज़ा खुला पा जाए, ज़रा छूट मिल जाए तो अपने घर से बाहर आ जाए। और बाहर सड़क पर क्या मिल जाए उसको? सड़क वाले कुत्ते। सड़क वाले कुत्ते को पालतू कुत्ते ज़रा कम पसंद होते हैं। तो कुछ देर तक तो यह सड़क पर मौज में घूमे, फिर सड़क वाले कुत्ते इन महाशय को घेर लें और दौड़ाए जा रहे हैं। घटना सीधी सी है, आप सबने देखी होगी। तो जब ये दौड़ाए जाएँ तो ये भागकर बड़ी तेजी से आएँ और अपने घर में वापस घुस जाएँ। और वापस घुसने के बाद लोहे के दरवाज़े के पीछे से अब यह शेर की तरह गरजें। और सड़क पर भागा था दुम दबाकर, वहाँ कूँ-कूँ भी नहीं हो रही थी, अभी बब्बर शेर।

तो कुत्ते को भी पता होता है कि घर में रहने का फायदा क्या है। वह भी जानता है कि जब दुनिया सताए, तो भाग कर घर में आए। उसके बाद दस गुंडे कुत्ते बाहर हैं और यह एक ज़रा से पामेरियन अंदर हैं, अब सब का मुकाबला किए ले रहे हैं। होता भी यही था, अंतत: यह अंदर से इतना भौकें, इतना भौकें कि सड़क वाले सब कुत्तों को निराश होकर के और कुंठित होकर के वापस जाना पड़े। वो यह बोलकर जाएँ कि, "बेटा! तू एक बार बाहर आ फिर बताते हैं।"

कुत्ते को भी इतना पता है कि घर में हूँ तो सुरक्षित हूँ, अब ज़माना कुछ नहीं बिगाड़ सकता मेरा; इंसान को ही नहीं पता। इंसान ही अपना घर छोड़-छोड़ कर भागता है और सड़क पर लुटता है, पिटता है। ख़ैर कुत्ते के लिए आसान भी है क्योंकि कुत्ते का घर भौतिक है, कुत्ता अपनी टाँगों से भाग करके अपने भौतिक घर में प्रवेश कर जाता है। आदमी का घर अभौतिक है, अलौकिक है, आत्मा है। आदमी इतनी आसानी से अपने घर में प्रवेश नहीं कर पाता, वह बाहर ही भटकता रहता है।

तो कुत्ते से सीख लो, जब दुनिया दौड़ाए, तो सही उपाय? घर में आएँ। लेकिन यह मत समझना कि हर बार यह विधि कारगर हो जाएगी। दुनिया भी ताक में है। तुम सोचो कि बार-बार बाहर निकलेंगे, मटरगश्ती करेंगे, बाहर के भी मज़े लूट लेंगे और कोई ख़तरा उठेगा तो होशियारी दिखाकर के जल्दी से वापस भी आ जाएँगे, तो यह विधि बार-बार सफल नहीं होने वाली। एक दिन तो ऐसा आएगा कि बाहर धर लिए जाओगे। तो सबसे अच्छा यह है कि अंदर ही रहो। बाहर ज़्यादा भटकोगे तो एक दिन सड़क के कुत्ते ही बन जाओगे। वह अब ऐसे हैं कि उन्हें कोई घर मिलना नहीं और जिनके पास घर है उनसे उनको चिढ़ है। ऐसा होना है? ऐसे बहुत हैं।

जिसके जीवन में भगवत्ता नहीं, जिसके पास शांति नहीं, जिसके पास श्रद्धा नहीं, वह किसी भी चीज़ की उपेक्षा कर सकता है, वह कुछ भी अनदेखा कर सकता है, कुछ भी बर्दाश्त कर सकता है पर वह किसी शांत, श्रद्धालु, सरल मन को बर्दाश्त नहीं कर सकता। जिसने अश्रद्धा को और पदार्थ को ही ज़िंदगी बना लिया हो, वह बहुत चिढ़ता है जब अलौकिक सत्ता का श्रद्धालु उसके सामने आता है। वैसा हो जाना है? कि फिर सच्चाई को देखकर प्रेम की जगह चिढ़ उठे, ऐसे भी बहुत हैं।

प्र३: आचार्य जी, जब विचारों में खोए रहते हैं तब मन बिलकुल अंदर की ओर ही देखता है, बिलकुल उलझ जाता है। ऐसे समय में बाहर को कैसे देखें?

आचार्य: उसके लिए या तो ख़ुद अभ्यास इतना कड़ा हो कि मन एक सीमा से आगे तनाव को बर्दाश्त ही ना करे। प्रेशर कुकर होता है न, वो एक सीमा से आगे दबाव को बर्दाश्त ही नहीं करता, क्या होता है? सीटी बज जाती है। मन ऐसा ही होना चाहिए। दबाव बढ़ रहा है, बढ़ रहा है, बढ़ रहा है, ज़्यादा बढ़ गया तो सीटी बजा दो और भाग जाओ। "बहुत हो गया भैया, इससे ज़्यादा नहीं झेलते हम।" जो होगा सो होगा, मारो जोर से सीटी और लगा दो दौड़।

तो या तो मन को ऐसा प्रशिक्षित करो, प्रेशर कुकर मन, या फिर संगत अच्छी रखो। कि जैसे ही कोई तुम्हारा साथी देखे कि तुम्हारे भीतर दबाव बहुत बड़ रहा है, विचार ज़्यादा ही उपद्रव कर रहे हैं, तो वो आकर तुम्हारी मदद कर दे, ढक्कन उठा दे, भाप उड़ जाने दे फिर दबाव, तनाव कम हो जाएँगे। या तो अपना जो भीतरी डिज़ाइन है उसको कर दो प्रेशर कुकर जैसा या किसी ऐसे की संगत कर दो जो तुम्हारी मदद कर दिया करे और तो कोई तीसरा तरीका होता नहीं; या तो अभ्यास या फिर संगति।

नई गाड़ियाँ आती हैं, वो सड़क पर चल रही हैं, रौशनी कम हो गई, बत्ती अपने-आप जल जाएगी। वह सड़क पर चल रही हैं बारिश होने लगी, वाइपर अपने-आप चल जाएगा। इन सब को वो कहते हैं आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (कृत्रिम बुद्धि)। तुम्हारे पास तो असली इंटेलिजेंस है। तुम क्यों नहीं एक भीतरी डिज़ाइन ऐसा तैयार कर सकते कि अँधेरा हुआ नहीं कि रौशनी अपने-आप आ जाएगी। कर लो ऐसा।

रौशनी के प्रति प्यार होना चाहिए न। जब रौशनी के प्रति प्यार हो तो अँधेरा ही ट्रिगर बन जाता है रौशनी का। यह बात! अब अँधेरा कैसे जीतेगा? अँधेरा खुद पैगाम ले आया रौशनी का। अँधेरा बढ़ा नहीं कि रौशनी आ जाएगी। अँधेरे ने ही मदद कर दी अँधेरे के ख़िलाफ़, अब जीत गए तुम, अब कोई नहीं हरा सकता। अब तो माया भी तुम्हारे पक्ष में हो गई। तनाव ही शांति को खींच लाएगा। तनाव इतना बढ़ गया कि तुमने कहा, “इससे ज़्यादा हम झेलते नहीं, इससे ज़्यादा तनाव हुआ नहीं कि शांति को बुलाओ।”

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