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लेख
जीना इसी का नाम है? || नीम लड्डू
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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यह कौन सी ज़िंदगी है कि सुबह उठे, नाश्ता किया, नहाए-धोए, चले गए। वापस आए फिर खाना खाया, टीवी देखा, इधर-उधर कहीं किसी को नोचा-खसोटा फिर सो गए। अगले दिन फिर यही।

कुल मिला कर इस पूरे महीने से निकला क्या? कुछ भी नहीं।

एक महीना बीतेगा, दूसरा शुरू हो जाएगा। एक साल बीतेगा, अगला लग जाएगा। तुम कभी जवान थे, तुम पाओगे तुम्हारे बाल सफ़ेद होने शुरू हो गए हैं। दाँत हिलने शुरू हो गए हैं। एक दिन पाओगे कि मौत सामने खड़ी है, तुम्हारे हाथ खाली हैं। तुमने कुछ कमाया नहीं, मौत भी तुम्हें देखकर हँसेगी।

“इतने साल तुझे दिए गए, तू जिया क्या? तूने किया क्या?” यह कहलाती है छोटी ज़िंदगी। यह हो सकता है अस्सी साल, नब्बे साल लंबी भी हो। लेकिन अस्सी-नब्बे साल लंबी हो करके भी यह ज़िंदगी है बहुत छोटी।

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