आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
जवान आदमी को ऐसी कमज़ोर बातें शोभा नहीं देतीं || आचार्य प्रशांत (2023)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
25 मिनट
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, समय को लेकर संघर्ष लगता है, जैसे कि सबके पास चौबीस घंटे होते हैं तो मेरे पास भी चौबीस घंटे ही हैं, लेकिन जब कुछ काम करने जाता हूँ तो उसमें एक बार मन कहता है, ‘कोई बात नहीं, आराम करो।’ और जब समय निकल जाता है तो पीछे से डंडा पड़ता है।

जैसे कि सत्र लेना है और आज मुझे कोई काम नहीं है, तो मैं आराम से सत्र ले सकता हूँ, लेकिन जब बाहर से कोई रिश्तेदार मुझे बोल रहा है, ‘चलो यार! कहीं चलते हैं!’ तो एक अवरोध सा रहता है मन में। मतलब जब तक कोई बाहर से परेशान नहीं कर रहा है, तब तक तो ठीक है। क्षमा चाहूँगा, मैं थोड़ा सा घबरा रहा हूँ अभी आपके सामने।

आचार्य प्रशांत: नहीं, मेरे ही सामने नहीं घबरा रहे न आप, रिश्तेदारों के सामने भी घबराये हुए हो।

देखो, थोड़ा सा मामला मेरे लिए असहज हो जाता है जब कोई बेवजह की लाचारगी ज़ाहिर करता है। अब जवान आदमी हो और बैठकर के बोल रहे हो रिलेटिव्स आ जाते हैं डिस्टर्ब (परेशान) कर देते हैं। न बच्चे हो, न कि बूढ़े हो गये कि आश्रित हैं अब तो हम, दूसरे लोग देखभाल करेंगे। उसके बाद आकर के अपनी बेचारगी ज़ाहिर कर रहे हो, जैसे ही ऐसा कर देते हो मैं उसी समय उखड़ जाता हूँ।

कोई लाचार हो नहीं, लाचार बना बैठा हो, उसका क्या कोई उपचार कर देगा! ‘मैं दीन हूँ, मैं दुर्बल हूँ!’ तो हो फिर, जाओ, मैं क्या करूँ? ‘मैंने सोचा था आज सत्र में बैठूँगा पर रिलेटिव आ गया, उसने बोला कचौड़ी खाऍंगे, मैं चला गया।’ मैं क्या करूँ अब इसमें? खाओ कचौड़ी! मैं भी चला जाऊँ कचौड़ी खाने, फिर? मेरे भी हैं रिलेटिव्स , ऐसे मैं आसमान से थोड़े ही टपका था। (श्रोता हॅंसते हुए)

दिसम्बर, जनवरी, फरवरी (वर्ष दो-हज़ार-तेईस), मेरे पिता थे, वो वेंटीलेटर पर रहे, अस्पताल में रहे। फिर मृत्यु भी हुई, फिर उसके बाद के जितने कामकाज होते हैं, वो भी हुए, कोई एक भी सत्र हिला क्या यहाँ पर? कोविड में सत्रह दिन मेरा छोटा भाई वेंटिलेटर पर था, जवान, मैं यहाँ पर सत्र ले रहा था।

तुम बोलते हो, ‘रिलेटिव कचौड़ी के लिए ले गया।’ इसका कोई इलाज नहीं है। मुँह से ‘न’ नहीं निकलता क्या? ज़बान ऐंठ जाती है, क्या हो जाता है? कुछ भी नहीं है, स्वार्थ पर चोट पड़ती है। रिलेटिव बाहर ले जाकर कचौड़ी भी खिला देता होगा, एक शर्ट ख़रीद देता होगा, उतने में अघा गये कि शर्ट मिल गयी न, अब ‘न’ कैसे बोलें। ‘पिछली बार उसने शर्ट ख़रीद दी थी अगली बार कैसे उसको ‘न’ बोल दें!’ तो मत स्वीकार करो न शर्ट, फटी शर्ट पहन लो।

ऐसे थोड़े ही किसी से दब जाते हो, उससे कुछ मिल रहा होता है तभी तो दबते हो। फ़ालतू कौन किससे दबता है? इसलिए निष्कामता श्रीकृष्ण सिखाते हैं न कि संसार से रिश्ता ही नहीं रखना है कि तेरे से कुछ चाहिए। इससे कुछ लेंगे, ये मेरे कान उमेठेगा, कलाई उमेठेगा, जितना देगा उससे सौ गुना उगाहेगा। मुझे चाहिए ही नहीं तुझसे कुछ, मैं अपने में ठीक हूँ। ‘अपने में ठीक हूँ’, इसी भाव को आत्मा कहते हैं। मैं अपने में पूर्ण हूँ — यही आत्मा है।

और मैं अपूर्ण नहीं हूँ और मैं उधर जाकर के किसी से शर्ट खाली, कचौड़ी ले ली, मतलब शर्ट ले ली, कचौड़ी खा ली, जो भी करा। हम कुछ भी कर सकते हैं, शर्ट खा सकते हैं कचौड़ी पहन सकते हैं, और चटनी का तेल लगा सकते हैं सिर पर, शर्ट पहनकर के। (श्रोता हॅंसते हुए)

कोई कुछ भी सिखा देगा, हम कुछ भी करेंगे, हमारे कहाँ कोई आत्मा जैसा तो कुछ है ही नहीं। आत्मा माने ‘मैं’, मेरी निजता, मेरा बोध, मेरा होना, हम होते थोड़े ही हैं। तुम्हें आज के समय में कौन है जो बैठकर के गीता पढ़ा रहा है सचमुच? अपने मुँह मियाँ-मिट्ठू नहीं बन रहा हूँ। आज हमने जो भजन का अर्थ करा, ये तो छोड़ दो कि भजन का ये अर्थ तुमको कौन बता रहा है, ये भजन भी तुम तक कौन पँहुचा रहा है, अर्थ के बिना भी ये भजन भी तुम तक कौन पहुँचा रहा है?

दुनिया में ये एकदम एक अनूठा काम हो रहा है जो कहीं नहीं हो रहा है और इस अनूठे काम में भी सत्रों में जो उपस्थिति रहती है, अटेंडेंस , वो कभी भी सत्तर-पचत्तर प्रतिशत से ऊपर नहीं जाती है। पच्चीस-तीस प्रतिशत लोग हमेशा यहाँ पर ग़ायब मिलेंगे और कुछ पूछो तो बहाना बता देंगे, ‘नींद आ गयी थी, पराठा ज़्यादा खा लिया था, रविवार था।’ हाँ तो?

रविवार था — बस यही तर्क है, रविवार था। वो तो रखा ही रविवार को इसीलिए है कि तुम उसको सुनो। ‘नहीं, रविवार था इसलिए नहीं सुना।’ क्यों नहीं सुना? ‘हम वो रिकॉर्डिंग सुन लेंगे इसलिए नहीं सुना।’ क्यों नहीं सुना? ‘पिछले तीन नहीं सुने थे इसलिए चौथा भी नहीं सुना, हमारी वो टूट गयी न’, क्या? ‘हाँ, हमारी रिदम (लय) टूट गयी।’

ये बहुतों का तर्क रहता है, ‘पिछले तीन नहीं सुने इसलिए चौथा भी नहीं सुनूँगा।’ तुम पागल आदमी हो? माने पिछले तीन दिन खाना नहीं खाये थे तो चौथे दिन भी नहीं खाओगे? ये सब कमज़ोरी के तर्क हैं। और इसे तुम मेरी व्यक्तिगत कमज़ोरी कह लो, मुझे सबसे ज़्यादा चीज़ जो नापसन्द है वो कमज़ोरी है।

सबसे खूबसूरत दृश्य होता है जब एक आदमी अपनी तमाम कमज़ोरियों के बावजूद खड़ा हो जाता है, कहकर, ‘मैं मज़बूत हूँ।’ और जब तुम घोषणा कर देते हो न, ‘मैं मज़बूत हूँ, तो मज़बूत हो भी जाते हो।’ बाहर की माँसपेशियाँ बनती हैं अभ्यास से और भीतर की माँसपेशियाँ बनती हैं उद्घोष से, डिक्लेयरेशन (घोषणा)।

बाहर मज़बूत होने के लिए क्या करना पड़ता है? डम्बल उठाकर के उससे अभ्यास कर रहे हो, है न? वैसे ही भीतर से मज़बूत होने के लिए बार-बार उद्घोष करना पड़ता है, ‘मैं मज़बूत हूँ, मैं कमज़ोर नहीं हूँ।’ और उसका उल्टा अगर बोलोगे तो फिर उल्टा भी हो जाएगा। उपनिषद् कहते है न, ‘मुक्ति का तुम यदि मान रखोगे तो तुम मुक्त हो और बन्ध का मान रखोगे तो बन्धन में हो।‘

और इतना और बता देता हूँ — कमज़ोरी पकड़कर रखोगे तो इतना ही नहीं होगा कि एक दिन यहाँ से छिटक जाओगे, एक दिन ये होगा कि मेरे धुर-विरोधी बन जाओगे। आज जो लोग मुझसे सबसे ज़्यादा नफ़रत करते हैं, ये वो लोग हैं जो अपनी कमज़ोरियाँ नहीं छोड़ पा रहे। ये चूँकि अपनी कमज़ोरियाँ नहीं छोड़ पा रहे इसलिए ये अपनेआप से नफ़रत करते हैं। ये मुझसे थोड़े ही नफ़रत कर रहे हैं, इनकी नफ़रत अपनेआप से है।

और मैं उनके लिए इसलिए बुरा हूँ क्योंकि मैं उन्हें दिखा दे रहा हूँ कि तुम कमज़ोर हो और तुम नाहक कमज़ोर हो, ये तुम्हारा स्वार्थ है कि तुम कमज़ोर बने हुए हो। एक दिन तुम ही होगे जो कहीं पर जाकर के कुछ मेरे ख़िलाफ़ कुछ उल्टा-पुल्टा कर रहे होगे। यहाँ बहुत हुए हैं जो कभी इस कमरे में होते थे और आज ख़तरनाक दुश्मनी कर रहे हैं।

या तो इस स्क्रीन पर होने के लायक़ बनो, या तो इन कुर्सियों पर बैठने के क़ाबिल बनो, नहीं तो मुझसे आप सिर्फ़ दूर नहीं होओगे, मैं बार-बार बोल रहा हूँ, आप मेरे भयानक विरोधी बनोगे। भयानक माने अपनी नज़र में भयानक, मुझे कौनसा फ़र्क पड़ना है आप क्या कर रहे हो।

चार बार यहाँ नहीं आओगे तो ये थोड़े ही बोलोगे उसके बाद कि मैं नालायक़ था इसलिए मैंने कोर्स छोड़ दिया। कोई ये बोलता है? चार बार यहाँ नहीं आओगे उसके बाद बोलोगे, ‘अरे! ये आचार्य जी फ़ालतू बातें करते थे इसलिए मैंने छोड़ दिया, आज से मैं इनका विरोधी हूँ।’

चार बार यहाँ नहीं हो, उसके बाद छोड़ दोगे। कोई पूछेगा, ‘आप क्यों नहीं हो वहाँ पर?’ तो ये बोलोगे क्या कि तुमने इसलिए छोड़ा क्योंकि तुम नालायक़ थे, बोलो? कोई ये स्वीकार करता है? चार बार नहीं आओगे उसके बाद कहोगे, ‘अरे! मैंने छोड़ दिया क्योंकि बेकार की बातें, समय ख़राब करते थे, पैसा लूटते थे, मैंने इसलिए छोड़ दिया।’ मज़बूरी बन जाएगी तुम्हारी कि विरोध ही करो।

कमज़ोरी बहुत बड़ा गुनाह होती है, बिना बात की कमज़ोरी। क्या? रिलेटिव्स आकर बोल गये। उससे पहले वाले क्या बोले थे, क्या हो गया था? बॉस आकर के बोल जाते हैं, पुरानी बातें याद दिला जाते हैं, बॉस भी नहीं कलीग्स (सहकर्मी)। क्या चल रहा है ये? जैसे चेहरा होता है न, चेहरा बता देता है कि करुणा है चेहरे पर और वो चेहरा पशु भी समझ जाते हैं।

आप आनन्दित हैं और आप ऐसे व्यक्ति हैं जो प्रेम रखता है, तो आप पाऍंगे पशु भी आपकी ओर ज़्यादा आते हैं। वैसे ही चेहरे पर ये भी लिखा जा सकता है यहाँ (माथे) पर, नो नॉनसेंस , मेरे साथ बकवास नहीं। उसके बाद कुछ बातचीत की ज़रूरत नहीं पड़ती, आपकी आँखें ही काफ़ी होती हैं। ये मेरी माँ ने सिखाया था मुझे। सार्वजनिक जगहों पर मुझे कुछ बोलती नहीं थी, बस मुझे देख देती थीं ऐसे (ऑंखों से फटकारने की मुद्रा में देखते हुए)। मैं समझ जाता था कि बेटा!

तुम्हारे पास आँखें नहीं हैं क्या? कोई आये उल्टी-पुल्टी बात करे, बस उसको देख दो और आँख में वो आग होनी चाहिए न कि बस भस्म ही हो जाए वो। जिम (व्यायामशाला) जाते हो?

प्र: जिम शुरू तो किया था तीन महीने के लिए।

आचार्य: फिर रिलेटिव्स आ गये?

प्र: फिर तबीयत ख़राब हो गयी तो फिर मैंने छोड़ दिया।

आचार्य: इसलिए पूछ रहा हूँ कि ये तुम्हारे कन्धे दिख रहे हैं और ये जवान आदमी के कन्धे नहीं हैं।

प्र: फिर वो ड्यूटीज़ (कर्तव्य) ऐसी होने लगीं कि वापसी करने को ही नहीं मिला।

आचार्य: क्या नहीं मिला?

प्र: जिम जाने का मौक़ा।

आचार्य: मौक़ा नहीं मिला?

प्र: मतलब मेरे लिए ऐसा हो जाता है कि ड्यूटी के बाद या तो मैं सेशन (सत्र) ले पाऊॅंगा या फिर मैं जिम कर पाऊँगा, तो फिर मैं सेशन देख लेता हूँ।

आचार्य: क्यूट लग रहे हो काफ़ी। (व्यंग्य करते हुए)

ये मुस्कुराने की बात नहीं है बेटा, आप ज़िन्दगी ख़राब कर रहे हो। मन की कमज़ोरी, तन की कमज़ोरी, कहाँ जाओगे? ड्यूटी कितने से कितने घंटे की होती है?

प्र: नौ से चार की होती है।

आचार्य: अरे यार! पूरा दिन ले गयी ड्यूटी। ये ग़ज़ब मेहनत करते हैं, संस्था वाले तो इनकी तुलना में ऐश करते हैं। पूरे चार बजे तक काम करना पड़ता है, हम संस्था के लोग, हम तो, दो बजे हमारा काम ख़त्म हो जाता है। (व्यंग्यात्मक लहज़े में)

कहाँ गए चचा? क्या चचा, कितने से कितने बजे तक तुम्हारी ड्यूटी होती है? (आचार्य जी एक स्वयंसेवी से पूछते हुए)

स्वयंसेवी: सुबह आठ बजे से लेकर…(स्वयंसेवी बोलते हुए सोच में पड़ जाते हैं)

आचार्य: लेकर… अन्त बता नहीं पा रहे हैं। लेकर… (श्रोता हॅंसते हुए)। अगर सोने की मोहलत मिल गयी तो ठीक है। सुबह कब शुरू होगी ये तय है — आठ बजे। आठ बजे भी शुरू कैसे होती है, बताओ।

स्वयंसेवी: सर, शुरआत तो ब्रॉडकास्ट से होती है, बाक़ी लोगों को जगाने..

आचार्य: नहीं, ब्रॉडकास्ट तो तब होगा न जब तुम जगोगे, दूसरे तब जगेंगे। तुम्हें जगाया कैसे जाता है, पहले वो तो बताओ!

हमारे यहाँ पर हैं एक स्वयंसेवक महाराज, उनका काम यही है कि सुबह इनको सबको जाकर बिस्तरों से नीचे फेंकें, उसके बाद वो करते हैं ताला बन्द सबके कमरों का ताकि कोई वापस घुस भी न जाये। उसके बाद वो ले जाकर चाबियाँ रख देते हैं और चाबियों की फ़ोटो खींचकर डाल देते हैं ग्रुप (समूह) पर कि अब ये तय हो गया है कि अब ये अपने कमरे में सो तो नहीं रहे हैं और ये काम सुबह आठ बजे हो जाता है।

उसके बाद से इनका दिन शुरू होता है और ख़त्म होने का कोई ठिकाना नहीं है। तुम बोल रहे हो, ‘नौ से चार ड्यूटी होती है, उसके बाद मुझे टाइम नहीं मिलता।‘

छुट्टी कितने दिन की मिलती है, एक दिन या दो दिन?

प्र: हर संडे (रविवार) को मिलती है।

आचार्य: हर संडे को मिलती है। संस्था में संडे का क्या मतलब होता है?

स्वयंसेवी: आज तक तो दिखा नहीं कुछ।

आचार्य: मुझे पिछले दस साल में याद नहीं आता कि संडे जैसी कोई चीज़ यहाँ हुई हो। बल्कि संडे का ये मतलब होता है कि आप लोग खाली होंगे तो हम लोगों को और ज़्यादा काम करना है। अब उसके बाद तुम कमज़ोरी बताओगे तो तुमसे कैसे सहानुभूति रखें?

अज्ञान से भी बड़ी समस्या है दुर्बलता। क्योंकि दुर्बलता न अपना ही कॉन्सेप्ट (अवधारणा) है, मैं दुर्बल हूँ। यहाँ (बाज़ुओं) से थोड़ी न दुर्बल होता है आदमी, पहले यहाँ (भीतर) से दुर्बल होता है।

इसलिए बोला न भीतर से, यहाँ छाती से उद्घोष चाहिए होता है, ‘नहीं स्वीकार है दुर्बलता।‘ वो अस्वीकार जब तक नहीं आएगा, विद्रोह तब तक कुछ नहीं हो सकता बेटा! मुँह लटकाये, कमज़ोर बने घूमने का तो कोई इलाज नहीं है। बल्कि उस कमज़ोरी के फ़ायदे भी बहुत हैं। तुम जितने कमज़ोर रहोगे, तुम्हें इधर-उधर से आकर के सहायताएँ मिलने लगेगी। बहुत सारी मिल रही है न? सहायता योजनाऍं चलती हैं। परिवार में भी चलती हैं, समाज में भी चलती हैं, सरकारी भी चलती हैं कि दुर्बलों के लिए सहायता योजना।

तो अच्छा लगता है, हम बीमार हैं, कमज़ोर हैं तो हमें कुछ-न-कुछ आप लोग सहायता, मुआवज़ा वगैरह दिया करिए, वो मिलता रहता है। घर में बच्चा बीमार हो जाता है, मान लो दो-तीन बच्चे हैं तो माँ जो बीमार वाला है, उसको दूसरों के हिस्से का भी थोड़ा खाना ज़्यादा दे देती है। बीमारी के बड़े फ़ायदे हैं, घर में कोई काम आता है जो बीमार है उसको दिया जाता है कभी? बीमारी के बड़े फ़ायदे हैं। तो अपनेआप को कमज़ोर घोषित करने के कितने ही तो लाभ है। किसी को कोई काम नहीं करना होता तो तुरन्त फ़ोन पर क्या बोलता है? ‘मैं तो बीमार हूँ।’

बीमारी कुछ भी हो सकती है कौन नापने जाएगा तुम्हारी बीमारी और कोई बीमारी नहीं पता नहीं तो यही बता दो सिरदर्द है। आज तक कोई मशीन ही बनी जो सिरदर्द नापती हो। वास्तव में दर्द नापने की मशीन तो कोई होती नहीं, कुछ भी बोल दो मेरी छाती में दर्द है, सिर में दर्द है, पीठ में दर्द है, पेट में दर्द है, कौन नाप सकता है कि दर्द है भी कि नहीं है? बोल दो दर्द है बस, काम चल गया।

बाहर जो कुछ भी है न उसके सामने कभी-न-कभी तो आँखें तरेरनी होती ही हैं। और ऐसे थोड़ा चौड़ी छाती के साथ खड़ा होना होता ही है। दुबककर, सहमकर तो… (आचार्य जी न में सिर हिलाते हुए)

पीछे हटना कभी एकाध किसी मौक़े की नीति हो सकती है, वो तुम्हारे जीवन का सूत्र थोड़े ही हो सकता है कि कुछ सामने आया, पीछे हट गये। पीछे हटा भी जाता है तो ऐसे हटा जाता है, बॉक्सिंग रिंग में देखा है? दो बॉक्सर्स होते हैं, उनमें से कई बार एक पीछे हटता है, हटता है, हटता है, पीछे हटते-हटते फिर अचानक वो क्या करता है? पट से मारता है। और पीछे हटता ही जाये, हटता ही जाये तो क्या करेगा? वो रस्सी है, रस्सी से कूद जा, नीचे गिर जा और चार लोगों से बोल, ‘मुझे टाँगकर ले चलो, मैं तो दुर्बल हूँ।’

(स्वयंसेवियों से) आगे भी जो प्रश्न हों न जो इसी थीम पर हों कि मैं क्या करूँ, मुझसे होता नहीं, वो सारे प्रश्न एक ही हैं। उन सब प्रश्नों को अलग-अलग लेने की कोई वजह नहीं है और दुर्बलता का कोई इलाज नहीं है। दुर्बलता तो अपने को ही बताया हुआ अपना ही कॉन्सेप्ट है और उसका इलाज तो स्वयं द्वारा ही की गयी घोषणा है, डिक्लेयरेशन है — ‘मुझे दुर्बल नहीं रहना।‘ बस बात ख़त्म!

और वो बार-बार करना पड़ता है। जैसे इसका (शारीरिक कसरत का) बार-बार अभ्यास करना पड़ता है न, वैसे ही इस आन्तरिक उद्घोष का भी बार-बार अभ्यास करना पड़ता है, ‘मैं कमज़ोर नहीं हूँ!’ और अपनेआप को परखना पड़ता है बार-बार कि मैं जो काम कर रहा हूँ, कहीं वो मेरी कमज़ोरी से तो नहीं आ रहा और अगर वो मेरी कमज़ोरी से आ रहा है तो वो मुझे और कमज़ोर कर देगा।

तो जो भी मेरे काम मेरे कमज़ोरी के भाव से आ रहे हैं, मुझे नहीं करना। कोई आपका बड़ा हितैषी हो प्यारा हो वो आपको सहारा दे भी न तो मना कर दिया करो, ख़ासतौर पर मैं महिलाओं से बोल रहा हूँ। ये समाज ने इस बात को एक बड़ी वर्च्यू (नैतिकता) बना दिया है कि महिलाओं के प्रति कैसा रहना चाहिए गैलेंट (बहादुर) सिविलरस (उदार) रहो, ये सब शब्द खूब सुने हैं कि नहीं सुने हैं? ये बड़ी भारी वाली मूर्खता है, मत लिया करिए। क्या है वो कि सज्जन वो है जो गाड़ी से उतरकर आपके लिए आपका दरवाज़ा खोले। काहे को, आपके हाथ नहीं हैं?

पहली बात तो वो गाड़ी चलाये फिर वो आकर आपका दरवाज़ा भी खोले, क्यों? ज़रूरत क्या है? मैं तो कह रहा हूँ, गाड़ी आप चलाओ, स्टेयरिंग आप पकड़ो। बात-बात में अपनी दुर्बलता को प्रश्रय मत दिया करो। छोटी-से-छोटी बात में, कुछ भी नहीं है, जा रहे हैं, ‘लाइए आंटी, मैं उठा लेता हूँ।’ काहे को उठा लेता हूँ, डाँट दो उसको। आ जाते हैं, ‘लाइए, मैं उठा लेता हूँ।’ अब कुछ भी नहीं है, वो होगा दो-ढाई किलो का मुश्किल से, आप नहीं उठा सकतीं क्या?

और भी बहुत सारी बातें — अब ये हो गया, ‘रात हो गयी है, चलो! मैं तुम्हें घर छोड़ आता हूँ।’ ‘काहे को? मैं छोड़ आती हूँ न तुझे तेरे घर। तुझे तेरी मम्मी को देकर आऊँगी पूरा।’ काहे को? फिर घर छोड़ने आएगा वहीं से घर के अन्दर भी घुसेगा, फिर मत चिल्लाना। जब तक एकदम ही ये न लगे कि अब कोई चारा ही नहीं बचा, मत लो किसी से सहायता। इसको जीने का एक तरीक़ा बनाओ, मुझे नहीं सहायता चाहिए।

उसमें कुछ नुक़सान भी होगा अपना, निसन्देह। निश्चित रूप से सहायता लेना बन्द करोगे तो दस में से दो-चार मौक़ों पर कुछ नुक़सान होगा। मैं कह रहा हूँ, आप उस नुक़सान को झेलिए। सहायता न लेने से जो नुक़सान होता है वो नुक़सान झेलना भी एक तरह का इन्वेस्टमेंट है, निवेश है। उसको नुक़सान नहीं मानना है, वो निवेश है।

ठीक है, नुक़सान हो गया कम-से-कम अब इससे हम सीखेंगे, आगे बढ़ेंगे। साइकिल चलाना शुरू करा था गिरोगे तो है ही, दो-चार बार घुटना छिलेगा, वो क्या है? उसको नुक़सान मानें क्या? वो निवेश है न, अब सीख लिया। नहीं तो ज़िन्दगी भर बैठो किसी की साइकिल पर पीछे।

बड़ा अच्छा लगता है वो पीछे बैठकर के मोटरसाइकिल, साइकिल कुछ भी है, पीछे बैठे हुए हैं और बड़ा आनन्द आ रहा है, क्या आनन्द? आनन्द नहीं, ग़ुलामी है ये। ज़िन्दगी की गाड़ी में भी फिर पीछे ही बैठे रह जाते हो। मनन करिएगा कि कैसे-कैसे आप वहाँ भी सहायता ले रहे हैं जहाँ आपको सहायता नहीं लेनी चाहिए। एकदम मत लीजिए। और जो सहायता देने आया हो उसके प्रति आदर व्यक्त करिए, कृतज्ञता दीजिए कि तेरा बड़ा एहसान, तूने आज तक सहायता दी आज भी देना चाहता है पर मेरे लिए अच्छा नहीं है कि मैं तुझसे अब और सहायता लूँ, बल्कि तेरा ऋण है मेरे ऊपर कभी हो सका तो मैं चुकाऊॅंगा भी।

और ये रवैया सिर्फ़ समाज के प्रति नहीं होना चाहिए, इन्होंने रिलेटिव्स कहा न, मैं कह रहा हूँ — ये रवैया तो माँ-बाप और पति-पत्नी के तरफ़ भी होना चाहिए। क्यों किसी से ले रहे हो कुछ? लेने का काम अहंकार का, आत्मा तो दाता होती है। जो सचमुच बेचारा सहारे की आवश्यकता में हो उसको देना सीखो। तुम कब तक सहारा लेते रहोगे दुनिया से? न बोलना सीखो। कोई दे भी रहा है तो कहो कि नहीं चाहिए।

इतनी नहीं बुरी हालत होती है भाई, किसी की भी नहीं होती कि नहीं लोगे तो मर जाओगे। हाँ, जब नहीं लेते तो भीतर कुछ एक नयी ताक़त ज़रूर जाग्रत होती है। यही चीज़ दवाइयों पर भी लागू होती है। जहाँ तक हो सके दवाइयों से बचा करो। मैं जानता हूँ कि शरीर की एक स्थिति आती है जब दवाइयाँ आवश्यक हो जाती हैं, लेकिन मैं ये भी जानता हूँ कि बहुत लोग दवाई तब भी ले लेते हैं जब ज़रूरत नहीं होती। दवाई भी एक तरह का सहारा है न? मत लो। क्यों लेनी है दवाई?

थोड़ा सा पाँव में तकलीफ़ हो गयी सीढ़ी चढ़ रहे हो, दो-तीन आ जाऍंगे, ‘आइए-आइए! मैं आपको चढ़ा देता हूँ!’ सबको ऐसे कर दो।(हाथ से हटाने का इशारा करते हुए।) धीरे-धीरे चढ़ेंगे लेकिन अपने दम पर चढ़ेंगे। लेकिन बड़ा अच्छा लगता है, ‘देखा! हम ज़रूर कुछ बहुत महत्वपूर्ण हैं और ख़ास हैं, तभी तो ये दो-तीन लोग आ गये कि चलिए, चलिए आंटी हम आपको सहारा दे देते हैं।‘ किसी को सहारा नहीं देना, भाग जाओ यहाँ से। सपोर्ट (सहारा) शब्द ही किस पर लागू होता है? अहंकार पर। भूलिएगा नहीं, जितना सहारा लोगे उतना अपने अहंकार को ही पुख़्ता करोगे।

वीकनेस, सपोर्ट, कमज़ोरी, सहारा ये शब्द सब अहंकार के क्षेत्र के हैं, क्योंकि किससे जुड़े हुए हैं? अपूर्णता से। जहाँ अपूर्णता है वहीं तो सहारे की ज़रूरत है और वहीं कमज़ोरी है। इन शब्दों को जीवन में ज़्यादा मत रखो। और रुपया-पैसा तो ख़ासतौर पर। मत करो ये सब। हाथ फैलाना बहुत बेकार बात है। पहली बात तो अपनी ज़रूरतें कम रखो कि हाथ न फैलाना पड़े और मेहनत ज़्यादा रखो कि जितनी भी हमारी कम ज़रूरतें हैं, उनके लिए तो हम ख़ुद ही प्रबन्ध कर लेंगे।

मेहनत ज़्यादा ज़रूरत कम, फिर हाथ नहीं फैलाना पड़ता। लेकिन अहंकार किस सूत्र पर चलता है? ज़रूरत ज़्यादा मेहनत कम। जब ज़रूरत ज़्यादा कर लोगे और मेहनत कम कर लोगे तो हाथ तो फैलाना पड़ेगा न? ज़िन्दगी ऐसी रखो जिसमें जब बुरी-से-बुरी हालत भी हो जाये तब भी हाथ न फैलाना पड़े। दाता बनो गिवर , दिल बड़ा रखो।

हमेशा देने का भाव रहे, लेने का ख़याल बिलकुल नहीं। लेने का ख़याल बहुत बड़ी ग़ुलामी होती है। जिससे लेने लग गये न फिर उससे दबना पड़ता है। जिससे लेने लग गये एक तरह से तुम उसके दुश्मन हो जाते हो, सोचना, सोचकर देखिएगा।

मैं इससे कुछ ले रहा हूँ (कलम कि ओर इशारा करते हुए), मान लो ये चेतन जीव हो और ये कह रहा है कि इसको जाना है, और मैं इससे कुछ लेता हूँ, मैं इसको जाने दूँगा क्या? बस यही बात है। आप जिससे लेने लग गये आपको उस पर बन्धन डालने ही पड़ेंगे, कहीं वो भाग गया तो? फिर आपको मिलना बन्द हो जाएगा न?

तो ये लेन-देन वाला नहीं। और जब दो भी तो किस भाव से देना है? निष्काम भाव से देना है, ‘नेकी कर दरिया में डाल।’ दे दिया गिनती नहीं रखी कितना दिया है। गिनती कर रहे हो तो ख़ुद भी बहुत-बहुत ग़लत कर रहे हो। पहली बात तो लेना नहीं है और जब देना है तो बिना गिनती के देना है, उसी को निष्कामता कहते हैं। ये नहीं सोचकर देना है कि दिया है अब कुछ मिलेगा। अरे! दे दिया तो अब, दे दिया माने दिमाग में भी क्यों है? अगर दे दिया तो अब दिमाग से भी दे दो, दिमाग में भी क्यों मौजूद है कि दिया था?

और आप किसी ऐसे से ले रहे हो जो दिमाग में रखता है कि दिया था, तब तो एकदम भी मत लेना। जो कोई पीछे से एक लेज़र लगाकर बैठा हो कि इस दिन इतना दिया, इस दिन इतना दिया, इस दिन वापस आया उससे तो एकदम ही मत लेना। भले ही वो अपने सगे-सम्बन्धी क्यों न हों, कुछ भी हों। समझ रहे हो बात को?

एक देवी जी का अभी हुआ। बोलीं, ‘संस्था को मैं इतना योगदान करती थी पर इस बार मना कर रहे हैं पतिदेव।’ तो ये (स्वयंसेवी) भाई मेरे पास आये। मैंने बोला, उनसे कह दो कि हमें कुछ भी नहीं चाहिए। हमारे लिए ये बड़ी, एक तरह से लज्जा की बात है कि आज तक आप अपनी कमाई की जगह इधर-उधर से लेकर के आते थे।

आप अपने पास से एक बटा दस रख दो, संस्था बहुत उससे आनन्दित रहेगी। पर माँगा हुआ यहाँ लाकर के रख रहे हो तो इससे कौनसी आपको गीता मिल जानी है? कृष्ण अर्जुन को ये सिखा रहे हैं कि जाकर दुर्योधन से माँग ले? या कह रहे हैं कि जो हक़ है उसके लिए मेहनत कर।

सबका काम चल जाता है कुछ नहीं हो जाता। जहाँ कहीं से भी तुम्हें जिस भी तरह का सहारा मिलता हो भावनात्मक सहारा, आर्थिक सहारा और कोई भौतिक सहारा जो भी तुम्हें सहारे मिलते हों, एक बार आज़मा कर देखो आप बहुत मज़बूत हो, आपका काम चलेगा उनके बिना।

और इतना ही नहीं है आप ऐसे हो जाओगे कि आप दूसरों को सहारा दे पाओगे। कमज़ोरी बस अपना कॉन्सेप्ट होती है, समझो इस बात को पाँचवी बार बोल रहा हूँ। मान्यता है कमज़ोरी, स्वयं का ही गढ़ा हुआ सिद्धान्त है कमज़ोरी। कमज़ोरी में कोई वस्तुता थोड़े ही होती है, फ़ैक्ट नहीं है कमज़ोरी। यहाँ (बाज़ुओं) की कमज़ोरी फ़ैक्ट हो सकती है, यहाँ (भीतर) की नहीं होती। यहाँ (भीतर) की अपने हाथ में बात होती है। मानोगे तो है और नहीं मानोगे तो नहीं है।

नौ से चार की जॉब, तुम तो एक मामले में कितने क़िस्मत वाले हो। इतनी किताबें तुमको बताया करते हैं इधर-उधर संस्था में कभी आता रहता है। किताबें पढ़ो भाई! घंटे, डेढ़ घंटे आराम से मेहनत करो, जिम जाओ। कहीं जा नहीं सकते तो घर में ही कर लो। दो डम्बल खरीद लाओ, घर में ही सबकुछ हो जाएगा। खेलो, जिस दिन सत्र हो सत्र में बैठो, मतलब पता नहीं क्या-क्या करा जा सकता है ज़िन्दगी में।

प्र: सोचने में ज़्यादा समय बीतता है।

आचार्य: क्या करने में?

प्र: करने से ज़्यादा सोचने में समय बीतता है।

आचार्य: क्या सोचते हो?

प्र: मतलब ये काम करना है, ये करना है फिर ये करना है, ऐसा। जैसे अभी जिम शुरु करता हूँ, करता हूँ और मेरे उस सोचने में मुझे छ: महीना हो गया, अभी तक मैंने शुरु नहीं किया। गिटार सीखना है तो गिटार लेकर आ गया लेकिन अभी तक मैंने कोचिंग जॉइन नहीं की। फिर दिमाग में आता है कि अब मेरे पास समय कहाँ है जो मैं गिटार भी सीख लूँगा।

आचार्य: कैसा लग रहा है ये सब बताते हुए?

प्र: वर्थलेस , कोई मतलब नहीं है।

आचार्य: तो ऐसे ही चलना है?

प्र: नहीं, ऐसे तो नहीं चलना है।

आचार्य: तो बदलेगा कौन?

प्र: ख़ुद को ही बदलना है।

आचार्य: तो बदल क्यों नहीं रहे? कब बदलोगे? कल मर जाओगे, सारी बातें न धरी-की-धरी रह जानी हैं। ऐसे ही मुँह लेकर, ऐसे ही शरीर लेकर, ऐसे ही बहाने लेकर।

प्र: प्रयास करूँगा आचार्य जी।

आचार्य: एक ही ज़िन्दगी है, इसको थोड़ा सा गर्म करो। दोबारा आओ एक महीने बाद स्क्रीन पर, और मुझे बदलाव देखना है। और जो बोलोगे उससे ज़्यादा बदलाव तुम्हारे इन कन्धों से दिख जाएगा, तो छुपा नहीं सकते।

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