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लेख
जगत तरैया भोर की || आचार्य प्रशांत, सहजोबाई पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
11 मिनट
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जगत तरैया भोर की, सहजो ठहरत नाहि। जैसे मोती ओस की, पानी अंजुली माहि।। – सहजो बाई

वक्ता: अभी कबीर को पढ़ रहे थे तो लिखा था कि राम नहीं है, साधु ही है, जगत ही है। और यहाँ सहजो क्या कह रहीं हैं? कि जगत है जैसे भोर का तारा। कैसा होता है भोर का तारा? अभी है, अभी नहीं है। जैसे ओस की बूंद। कैसी होती है? अभी है, अभी नहीं है। और जैसे पानी अंजुली में भरा हुआ। कैसा होता है? अभी है, अभी नहीं है। कैसे साथ बैठाइयेगा इन दोनों बातों को? कबीर कह रहे हैं कि जो बैकुंठ है, सो नकली है। सहजो कह रहीं हैं कि ये संसार जो है तुम्हारा, ये फिसलता हुआ है, ये नकली है।

श्रोता १: लेकिन सर, दोनों में से किसी ने भी ये तो नहीं कहा है कि साधु नहीं है। साधु तो तब भी था, और इस जगत में भी है।

वक्ता: क्यों किसी साधु से आज मिलो, और फ़िर से कल मिलने जाओ, तो हो सकता है कि मरा पड़ा हो।

श्रोता १: साधु मात्र किसी शरीर का नाम थोड़ी ही है।

वक्ता: तो फिर किसका नाम है? कबीर नहीं खुश होंगे ये बात सुनकर। अगर साधु शरीर का नाम नहीं है, तो फ़िर क्या है? फिर तो तुमने साधु को वही बना दिया; अदृश्य, निराकार, अनिर्वचनीय।

श्रोता १: क़िताबें भी साधु का रूप होतीं हैं।

वक्ता: किताब जल गई, तो जल गई किताब। जैसे साधु है, वैसे ही किताब है। दोनों ही तो दहरूप हैं, जल गए। साधु कहाँ से आया? कबीर कह रहे हैं कि जो कुछ भी असली है, वो इसी संसार में है, साधु रूप में है, सत्संग रूप में है। ठीक? और सहजो कह रहीं हैं कि ये संसार तुम्हारा पूरा ही नकली है। तो इन दोनों बातों को कैसे साथ रखोगे? कबीर बैकुंठ को नकार रहे हैं, सहजो संसार को नकार रहीं हैं। अब तुम जाओगे तो जाओगे कहाँ?

श्रोता ३: सर अभी आपने कहा था कि तथ्य ही सत्य का द्वार है। ये जो सहजो कह रहीं हैं, ये उस मन के लिए है जो तथ्य को सत्य नहीं जान रहा है। जिसे भोर के तारे में कुछ ऐसा चाहिए जो निरंतर हो, जो ये चाहता है, जो ये सोचता है, कि मेरा मन जो है वो सब कुछ है। जो ये चाहता है कि ये ओस का मोती कितनी सुंदर है और ये रह जाए मेरे पास, ये उस मन के लिए है। तो इस सत्य को यदि तथ्य जान लिया जाए तो फिर…

वक्ता: तो फिर साधु कौन हुआ?

श्रोता ३: जो इस तथ्य से अवगत कराए।

वक्ता: बढ़िया। ठीक? जगत क्षण-भंगुर है। कोई संदेह नहीं है, “जगत तरैया भोर की”। “भोर की तरैया” मात्र है ये जगत। पर हमारी कामना क्या है? कि बना रहे, बचा रहे, स्थायित्व रहे, निरंतर रहे। तो साधु कौन?

जो बता दे कि ये सब असत है, सब अनित्य है। और इसकी अनित्यता को जिसने जाना, जिसने स्वीकार कर लिया, वो किस में प्रवेश कर गया? नित्य में। ये बड़ी मज़ेदार बात है। संसार की निसारता को जिसने निर्भय होकर स्वीकार कर लिया, वो अमर हो गया। अमरता और कुछ नहीं है।

संसार मर्त्य है इस बात से जिसने डरना छोड़ दिया, वो अमर हो गया। इसी को और तुम्हारे करीब लाकर कहूँ, तो जिसने इस बात से डरना छोड़ दिया कि ‘मैं मरूँगा’ और सहज स्वीकार कर लिया कि ‘मैं मरूँगा’, और जिसके मन में अब कोई उद्वेग नहीं उठते जब मरने का विचार आता है, या मरने की ख़बर आती है, वो अमर है। अमर और कोई नहीं है।

फिर से समझिये कि साधु कौन है। साधु इसी संसार का है। जो इस संसार का होकर, संसार के पार का सेतु बन जाए, सो साधु। और सो ही गुरु। जो है तो इसी संसार का, पर पुल की तरह है। जो तुमको इस संसार के मूल में प्रवेश करा दे, सो साधु है। समझ में आ रही है बात?

तो संसार में जो कुछ है, उसको मोटे तौर पर विभाजित करो तो दो किस्म मिलेंगी, और दोनों संसार की ही हैं, दोनो संसार में ही हैं। एक वो जो संसार में है, और तुम्हें और ज़्यादा गहराई से संसार से ही बांधती है। और दूसरी वो जो संसार में ही है, और तुम्हें संसार से मुक्त कर देती है।

तो संसारी तुम्हें संसार से ही और गहराई से बांध देता है। गुरु भी संसार का ही होता है, लेकिन वो तुम्हें संसार से मुक्त कर देता है, और अंततः अपने से भी मुक्त कर देता है। यही पहचान है गुरु की। संसारी कौन? वो जो अपने से बांधे। गुरु कौन? जो संसार से मुक्त कर दे, और अंत में अपने से भी मुक्त करा दे। यहाँ पर सहजो क्या हैं? गुरु। क्यों? क्योंकि वो संसार से मुक्त कर रहीं है।

जो भी तुम्हें संसार से मुक्त करे, सो ही गुरु है।

बात समझ में आ रही है? और गुरु किसी आसमान से नहीं उतर रहा है। वो भी यहीं, सामने ही है। कोई भी माहौल, व्यक्ति, वस्तु, जो भी तुम्हें तथ्य के करीब ले जाए, बन्धनों से मुक्त कराए, वही साधु है। बस यही देख लेना कि ये व्यक्ति तुम्हें और बांध देता है, या मुक्त कर देता है।

“जब इसके समीप होता हूँ, तो और जकड़न अनुभव करता हूँ, या मुक्त अनुभव करता हूँ?” जिन भी व्यक्तियों के करीब रहने पर तुम बंधा-बंधा अनुभव करते हो, बस वही शत्रु हैं तुम्हारे, और कोई शत्रु नहीं होता। और जिसकी ही निकटता मे तुम पाओ कि पंख लग गए, एक हल्कापन आ गया मन में, वही तुम्हारा मित्र है। मित्र, गुरु, साधु, सब एक हैं, कोई अंतर नहीं है इनमें।

इसका बोझ हो चाहे उसका बोझ हो, पत्थर का बोझ हो चाहे हीरे का बोझ हो, लोहे का बोझ हो या पानी का बोझ हो, बोझ तो बोझ है ना? और तुम अच्छे से जानते हो जब मन पर बोझ रहता है। जिसके करीब रहने से बोझ बढ़ जाए, वो तुम्हारा शत्रु है।

श्रोता ५: साधु के साथ रहने से भी तो यही होता है कि एक असहजता-सी महसूस होती है।

वक्ता: बिल्कुल नहीं। तुम स्वीकार ना करो इस बात को कि तुम हल्के हो रहे हो, तो ये तुम्हारी बीमारी है। असहजता बस इस बात की होती है कि हम हल्के क्यों हो रहे हैं? पर हल्के तो हो ही रहे हो। तो इसीलिए, इतना उसको गूढ़ बनाने की ज़रूरत ही नहीं है। बात बहुत सीधी है। हल्के हो रहे हो, बात ख़त्म। लेकिन जब तुमने ये मान रखा हो कि मेरा बोझ मेरा हीरे-मोती है, तो क्या तुम हल्का होना चाहोगे? हल्का नहीं होना चाहोगे ना। हल्के तो होओगे, इसमें कोई संदेह ही नहीं है, बोझ बढ़ेगा नहीं , हल्का ही होगा। हाँ, उस हल्का होने से तुम्हें तकलीफ़ हो सकती है।

श्रोता ५: तो क्या इसका और कोई तरीका नहीं है। हल्के हो रहे हैं, और मान लिया कि हल्के हो रहे हैं, बस बात ही ख़त्म गई?

वक्ता: बस और कोई तरीका नहीं है, और कोई तरीका नहीं है।उसकी बात करके तुम उसे मान्यता देते हो। जो बीमारी है नही, बार-बार यदि उसकी बात करो, तो तुम क्या कर रहे हो? उसको मान्यता दे रहे हो। बात इतनी सीधी है कि… हल्के हो रहे हो ना, बात ख़त्म हो गई। अब उसके आगे बात ही मत करो, चर्चा मत करो। ये चर्चा ही तो बोझ है। क्यों करनी है चर्चा? चर्चा जहाँ रुकी, वहाँ काम हो गया। देखो, जब भी तुम चर्चा करोगे तुम क्या करोगे? तुम कारण दोगे। कारण ही तो दोगे ना?

आज तुम्हारा मित्र आया था, वो बोध-शिविर में नहीं आ पा रहा है। मैंने उससे कहा कि कारण मत बताना। तुम नहीं जा रहे हो, इतना काफी है, कारण मत बताना। तुम्हारे पास कारण होंगे। माया क्या कभी ये कहकर आती है कि मैं अकारण आ रही हूँ? माया तो कारण ही लेकर के आती है ना। आप जब भी कुछ भी करते हो तो आप क्या बोलते हो? “मेरे पास ये करने का वाजिब कारण है।” तो कारण मत बताओ। कारण होगा तुम्हारे पास।

माया कारण ही तो लेकर आती है। नहीं जा रहे हैं, कारण तो होगा ही। थोड़ी-सी ईमानदारी के साथ देख लेते अगर कि कितनी बईमानी है अपनी, कि कारण तो होगा ही, तो कारणों की चर्चा नहीं करते। बात जो सीधी-सी है, जब उसका विश्लेषण शुरू हो जाता है, जब उसकी नुक्ता-चीनी शुरू हो जाती है, जब उसके हिस्से, पूर्जे, खोल दिए जाते हैं, तो वो माया बन जाती है।

सरल चित्त का क्या अर्थ होता है? सरल चित्त का यही अर्थ होता है कि जो है सो है। ना हम कारण जानना चाहते हैं, ना इधर- उधर की बात करना चाहते हैं। भारी हो? हैं। जहाँ तुमने अपने भारी होने के कारणों की चर्चा की, वहाँ तुमने अपने भारी होने को वैधता दे दी। एक बात है उसको ज़रा ध्यान से समझ लीजिये। “हर कारण का एक छिपा हुआ औचित्य है- एवरी रीज़न इज़ अ हिडन जस्टिफिकेशन।” आप कारण नहीं बताते, आप उसको वैध ठहराते हो, आप उसका औचित्य सिद्ध करते हो। तो कारण कभी ना पूछो। जो उचित था क्या वो हुआ? नहीं हुआ ना, बात ख़त्म, कारण मत बताना।

श्रोता ६: सर हल्का होने का भी क्या कारण है?

वक्ता: आप इतने दिनों से आ रहे हो, सोचो ज़रा। भारी होने के तो कारण होते हैं। हल्का होने का कोई कारण होता है क्या?

श्रोता ७: क्या कारण का हट जाना ही हल्का होना है?

वक्ता: हल्का होने का कोई कारण होता है क्या? ये वैसा ही सवाल है कि कौन सा बोझ लूँ जो मुझे हल्का कर दे। कि कोई आदमी है, वो अपने सिर पर पचास किलो का बोझ ले कर जा रहा है, और सलाह क्या मांग रहा है? कि ज़रा बताइयेगा कौन-सा बोझ उठाऊँ जो मुझे हल्का कर दे। बोझ उठा-उठा कर हल्का हुआ जाता है क्या? कारण मांग-मांग के हल्के हो जाओगे? कारण ही तो बोझ है।

सरल चित्त वो जो हल्का है, तो हल्का है और भारी है तो, भारी है, बात ख़त्म। और वो ये बात सीधे स्वीकार करे। कुटिल मन कौन-सा है? ग्रंथि-युक्त मन कौन-सा है? जो ये कहे, “सर, बात तो आप ठीक कह रहे हैं, लेकिन…।” जहाँ ये ‘लेकिन’ आ गया वहीं समझ लो कि चालाकी छुपी हुई है। ‘लेकिन’ है ना लेकिन, यही कुटिलता है। अगर बात ठीक है, तो ‘लेकिन’ का कोई सवाल नहीं पैदा होता।

अगर कह रहे हो कि बात ठीक है, तो करो। अब ‘लेकिन’ जैसी कोई चीज़ बीच में नहीं आनी चाहिए। या तो कह दो कि बात ठीक नहीं है। ठीक है, तो ‘लेकिन’ नहीं। सारा खेल इस ‘लेकिन’ ने ख़राब कर रखा है। अगर ये कहते कि ठीक नहीं है बात, तो ठीक था। “लेकिन…, ” अब ‘लेकिन’ के आगे तुम कुछ भी जोड़ लो फ़र्क नहीं पड़ता, वो बस कोई कारण होगा।

ब्रह्मसूत्र एक बड़ा सारयुक्त सूत्र देते है। वो कहते हैं कि किसी तर्क की, किसी कारण की कोई मान्यता नहीं है क्योंकि हर तर्क के पीछे कामना छुपी हुई है। वो कहते हैं कि किसी तर्क के सत्य के अनुसंधान की वैधता नहीं हो सकती, क्योंकि हर तर्क के पीछे कामना है। हर तर्क किसी कामना से ही निकलता है। कामना पहले आती है, तर्क बाद में आता है। तो कारण ना बताओ।

कारणों से तो तुम इतना ही बता रहे हो कि तुम अभी कामना के ही गुलाम हो।

– ‘बोध-सत्र’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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