आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
जब किसी को खोना पड़े || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: नमस्ते गुरुजी। मेरा नाम चिराग है। मैं इक्कीस साल का हूँ। दिल्ली शहर का निवासी हूँ और बहुत सौभाग्यशाली ख़ुद को महसूस कर रहा हूँ, आपको अपने सामने देखकर और आपकी मेरे जीवन में क्या भूमिका रही है, इसका मेरा यहाँ जीवित खड़ा होना स्वयं प्रमाण है। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? आप मेरे को तब मिले थे जब मेरा ब्रेकअप हुआ था और उस टाइम पर अपनेआप को बहुत ज़्यादा बिखरा हुआ, संसार का दुखी व्यक्ति महसूस कर रहा था। पर आपकी बातें सुनने के बाद समझ में आया कितनी बेवकूफ़ी कर रहा था और आपका बहुत योगदान था, जिस वजह से अपनेआप को ओवरकम कर पाया उस चीज़ से।

इस चीज़ के सिर्फ़ दो महीने बाद ही मेरा बचपन का दोस्त जिसके साथ मैं खेला हूँ, कूदा हूँ, सबकुछ मौज-मस्ती करी है, उसकी एक कार एक्सीडेंट में आकस्मिक मृत्यु हो गयी। इससे जूझ ही रहा था कि अगले दो महीने बाद मेरी माता जी की हार्ट अटैक से मृत्यु हो गयी। मेरे पिताजी, जब मैं दस साल का था तब उनकी मृत्यु हो गयी थी और उसके बाद से मेरी माँ ने मुझे पढ़ाया-लिखाया, सबकुछ करा। माँ की मृत्यु के बाद मैं बहुत ज़्यादा बिखर गया था, बहुत ही ज़्यादा। आप थे जिसके सहारे से कहीं-न-कहीं ख़ुद को खड़ा करने में मैं सामर्थ्य हासिल कर पाया। अपनेआप को गिरने नहीं देता।

फिर पिछले महीने जून में मेरा एक और दोस्त जो डिप्रेशन से जूझ रहा था। रात को तीन बजे मेरी उससे फ़ोन पर बात हो रही है और उसकी आवाज़ बहुत नम हो रखी है फ़ोन पर, उसको समझा रहा हूँ कि सब ठीक हो जाएगा, पर सुबह ग्यारह बजे उसने फाँसी लगा ली।

इन बीते सात महीनों में मैंने लगभग अपने जीवन में क़रीबी चार लोगों को खो दिया। मेरा आपसे दो सवाल है। एक जब इस तरीक़े से अकेलापन हमको पकड़ लेता है और अपनों की यादें, क्योंकि उनके जो डेड फेसेस (मृत चेहरे) मैंने देखे हैं, जब मेरे सामने मौज-मस्ती करते थे, हँसते थे, मुस्कुराते थे, वो चेहरे मुझे याद हैं, उनके मृत चेहरे मुझे याद हैं। तो वो जो मंजर मेरी आँखों के सामने आते हैं, तो मैं बहुत बेबस हो जाता हूँ, बहुत ही ज़्यादा।

दूसरा सवाल मेरा ये है, मैं अपने जीवन को अब किस तरफ़ और कैसे लेकर जाऊँ, मैं उसमें आपका मार्गदर्शन चाहता हूँ। मेरे अन्दर क्षमता भी है, बल भी है, कमी है तो सिर्फ़ बुद्धि की और ज्ञान की। और मेहनत करने की पूरी नीयत है। आपके चरणों में अपनेआप को निछावर करके मैं ज्ञान माँगता हूँ। कृपया मुझे ज्ञान दीजिए, गुरुजी।

आचार्य प्रशांत: देखो, हम जितने भी भ्रमों में जीते हैं, जो भी हमने तमाम तरह की कल्पनाएँ, आशाएँ, सिद्धानत सच मान लिये होते हैं, जो सपने हमें वास्तविक लग रहे होते हैं, उनका सबका सबसे बड़ा और आख़िरी काट तो मौत ही होती है। बहुत दर्दनाक काट है मौत।

लेकिन इतना ज़रूर है कि जो कुछ मिथ्या था उसका खोखलापन, उसकी बेबसी, उसका झूठ, मौत एक झटके में स्पष्ट कर देती है, बड़ी तकलीफ़ देकर। जो बचे होते हैं, उनको बहुत दुख देकर। लेकिन फिर भी बहुत आगे चलकर, बहुत बाद में, जब होश थोड़े स्थिर हो जाएँ, तब कभी शायद समझ में आता है कि मौत ने काटा उसी चीज़ को जो स्वप्नवत ही थी।

तो इस तरीक़े से अगर देखना चाहो, समझना चाहो तो हमारे जितने प्रियजन होते हैं, जो चले गये, जिनकी स्मृतियाँ, जिनके चेहरे हमें पीड़ा से भर देते हैं, वो एक तरह से हम पर एहसान करते हैं। उनकी आख़िरी स्मृतियाँ, उनके सोते हुए चेहरे, जैसे विदाई में दी गयी उनकी भेंट है। ख़ुद जाकर वो हमें कुछ सिखाना चाहते थे या उनके माध्यम से जीवन हमें कुछ सिखाना चाहता था। और बहुत बड़ी चीज़ सीखने को तैयार पड़ी रहती है, हम उसे सीखते नहीं। एहसान उन लोगों का जो हमें सिखा गये, भले ही विदा होकर।

तुम एक बार को उनके विषय में सोचो, जो इसी कल्पना में जिये जा रहे हैं कि जो दिख रहा है वही सच है। खेल जैसा अभी चल रहा है, चलता रहेगा। मैं व्यक्ति हूँ, सामने भी एक व्यक्ति है, ये संसार है, इसमें रिश्ते होते हैं, रिश्तों में मोह होता है, सुख होता है और यही सबकुछ तो सच्चाई है बस। इसी में जीना है, इसी में सुबह होनी है, इसी में रात ढ़ल जानी है। ऐसे ही हमारा जीवन बीतता है न? और ये सपना चलता रहता है।

इस सपने को खंडित करने वाला, नींद से हमें जगाने वाला कोई आता नहीं, कुछ होता नहीं। बीस-बीस, चालीस-चालीस साल ऐसा सपना चल सकता है। कुछ अभागे ऐसे भी होते हैं जिनके लिए ये सपना उनकी उम्र के अधिकांश समय ही चलता रहे। उनका क्या होता है? वो हमेशा के लिए सच्चाई से वंचित रह जाते हैं। आप कह सकते हो, 'तो क्या हर्ज हो गया, सच नहीं मिला, सुख तो मिला?' अब ये आप पर निर्भर करता है कि आप मूल्य किसको ज़्यादा देते हो, सच को या सुख को।

दूसरी ओर इनसे बिलकुल विपरीत वो लोग हैं जिनके सुखों पर ज़िन्दगी वज्र-प्रहार कर देती है और एक बार नहीं, कई-कई बार, जल्दी-जल्दी, एक श्रृंखला में ही। उनके सुख तार-तार हो जाते हैं, स्वप्न सारे धुआँ हो जाते हैं। कल्पनाओं के महल, जैसे शीशे का बुत खड़ा कर दिया हो, छनछनाकर बिलकुल टूट जाते हैं। निश्चित सी बात है कि सुख तो उनके सारे ही ध्वस्त हो गये। ज़िन्दगी ने बड़ी पीड़ा दे दी।

पर वो पीड़ा तो अब मिल गयी है न। और थोड़ी सी अगर गहराई और श्रद्धा के साथ समझना चाहोगे तो पाओगे कि वो पीड़ा बेसबब नहीं है। और समझ सको इसीलिए मैं उसको इस रूप में कह रहा था कि जैसे जाने वाले अपनी विदाई के माध्यम से तुम्हें कोई बड़ी सीख देना चाहते हों। ऐसी सीख जो साधारण-सामान्य ज़िन्दगी, सुख और सपने तुमको कभी दे ही नहीं सकते थे।

तुम अस्सी साल एक सामान्य, औसत ज़िन्दगी जीकर के मर जाते, तुम उस सबक और सच्चाई के आसपास भी नहीं आ पाते, जो एक हृदय-विदारक घटना तुमको दे देती है। मुझे मालूम है इस बात से सहमत होना आसान नहीं होगा, भीतर से तुरन्त प्रतिवाद उठेगा। हम कहेंगे, 'भाड़ में जाए ऐसी सीख, ऐसा सबक! जिनसे हमारी ज़िन्दगी चलती है, हमारे प्रियजन, हमारे अभिभावक, हमारे दोस्त, अगर उनकी क़ीमत पर सबक मिलता है तो नहीं चाहिए।' उठेगा न भीतर से तुरन्त?

और अगर अभी चुनाव करने को कह दिया जाए कि क्या चुनोगे, एक सामान्य नियमित ज़िन्दगी या जीवन के गूढ़ रहस्य, ज्ञान, सच्चाइयाँ। तो हम सभी, कमोबेश हम सभी, जानते-बूझते किसी मार्मिक दुख का चयन तो नहीं करने वाले। है न? तो माने हमारे ऊपर अगर छोड़ दिया जाए तो हम जानने की अपेक्षा सपनों को ही हमेशा प्राथमिकता देंगे। है न?

ये बात जैसे जाने वाले भी जानते थे, जैसे हर व्यक्ति के भीतर जो परम ऊँचाई बैठी है, छुपी हुई सी, शान्त, मौन, जैसे उसने कहा हो कि एक ही तरीक़ा है अपने बच्चे के, अपने दोस्त के भ्रमों को तोड़ने का और वो तरीक़ा यही है कि हम भले ही विदा हो जाएँ पर इसको सच मिल जाए, इसको जीवन मिल जाए, क्योंकि सत्य ही तो जीवन है न। हमारी मृत्यु से भी यदि इसको जीवन मिलता हो तो हमारी मृत्यु ठीक है। और तुम वो सबक सीख लो, यही जाने वाले के प्रति श्रद्धांजलि भी है सच्ची।

देखो, ये दर्द तो रहेगा, आज भी है, आज से बीस साल बाद भी रहेगा। जो उनके साथ जीवन बिताया, जितनी स्मृतियाँ हैं, आख़िरी बातें, आख़िरी मुलाकातें, फिर उनकी मूँद गयी पलकें। इंसान हो, नहीं भूल पाओगे। प्रश्न ये है कि इस पीड़ा का, दिल की इस मरोड़ का तुमने किया क्या। मैं कह रहा हूँ, जिनसे स्नेह के रिश्ते रहे हों, तुम अपनी ओर से उनको यही श्रद्धांजलि दो — आपकी मृत्यु ने मुझे जीवन सिखा दिया। इसके अतिरिक्त जो चले गये उनको प्रेम की और कोई भेंट दी नहीं जा सकती। न गये होते, वो जीवित होते तो तुम्हारे लिए जो अच्छे-से-अच्छा और ऊँचे-से-ऊँचा है, यही तो चाहते अपनी समझ से। तो वो जो चाहते, उसको साकार करके दिखाओ।

इस बात को हमें बहुत ग़ौर से समझना होगा। मौत हमें जो सिखा सकती है वो साधारण जीवन कभी नहीं सिखाएगा। बस सीखने के लिए बहुत देर मत कर दीजिएगा। सबसे ज़्यादा देर वो कर देते हैं जो अपनी ही मौत की प्रतीक्षा में रह जाते हैं। मर ही गये तो सीखोगे कब? फिर उन्होंने भी देर कर दी जो तभी सीखते हैं जब संयोगवश कोई प्रियजन चला जाता है। वो भी देर ही हो गयी और इतना बड़ा दुख क्यों आमन्त्रित करना चाहते हो सीखने के लिए?

सबसे विवेकी वो होते हैं जो शारीरिक मृत्यु के अनुभव के बग़ैर भी प्रति पल जीवन में ही मृत्यु को देख लेते हैं। उनको फिर ज़रूरत नहीं पड़ती कि ज़िन्दगी उन्हें मौत समान बड़े झटके दे तब वो कुछ सीखना शुरू करेंगे। वो यहाँ बैठे होंगे इसी भवन में और जहाँ आपको जीवन दिखता है, वहाँ उनको मृत्यु दिख जाएगी। बार-बार कह रहा हूँ, 'जीवन जो नहीं सिखा सकता, वो मृत्यु सिखाकर जाएगी।'

जीवन भी सार्थक तभी होता है जब उसके साथ सदा मृत्यु को जोड़कर देखो। जो जीवन का तो अनुभव कर रहा है, जीवन की तो कल्पना कर रहा है, जीवन को लेकर के विचार और दर्शन और सिद्धान्त और आशा वगैरह बना रहा है और इस पूरी प्रक्रिया में उसने मृत्यु को केन्द्रीय स्थान ही नहीं दिया है, जीवन के विषय में उसकी सब मान्यताएँ झूठी हैं। ये काँच का, रेत का महल है बल्कि, इसे तो भरभराकर गिरने के लिए पत्थर भी नहीं चाहिए होगा, हवा ही काफ़ी होगी। तो काश! कि ऐसा न हो कि हमें इतने बड़े झटकों की, ऐसे सदमों की ज़रूरत पड़े।

काश! कि हम ऐसे हों कि इशारे से ही सीख जाएँ और मौत के इशारे चप्पे-चप्पे पर बिखरे हुए हैं। पर हमारी आँख कुछ ऐसी सोयी हुई है, अहंकार मिट जाने से कुछ इतना डरता है, भयाक्रान्त है कि मिट जाने के प्रमाण कितने भी प्रत्यक्ष हों, वो उनको स्वीकार नहीं करता। कहता है, 'मैंने तो देखा ही नहीं।' लोग तो ऐसे भी होते हैं कि श्मशान के बगल से उनकी गाड़ी निकल रही हो तो मुँह फेर लेते हैं दूसरी ओर, 'मैंने तो देखा ही नहीं।' बहुत समय तक हमने बनाये रखा कि महिलाएँ श्मशान जाएँगी ही नहीं, 'उन्होंने तो देखा ही नहीं।'

जो मृत्यु को देख लेता है वो मुक्त हो जाता है। उसके बाद उसको बन्धन में रखना बड़ा मुश्किल हो जाता है।

जो गये हैं, उनकी मृत्यु को अपने लिए मुक्ति का तोहफ़ा बना लो, उनकी विदाई सार्थक हो जाएगी। कहते हुए मुझे भी पीड़ा होती है कि ये पीड़ा असाध्य है। छोटी चोटें ही कहाँ आसानी से भुलती हैं? जिसके साथ ज़िन्दगी के तार बिलकुल गुत्थम-गुत्था रहे हों, जिनके साथ उठना-बैठना, खाना-पीना रहा हो, मन की सारी बातें बाँटी हों, अनन्त पल जिनके साथ गुज़ारे हों, अगर उनके न रहने पर आपको पीड़ा नहीं होती, तो फिर आप इंसान ही नहीं हैं। बात आध्यात्मिक होने या न होने की नहीं है, देह तो है न! जो मनुष्य किसी प्रियजन के न रहने पर दो आँसू भी न रो पाये वो आध्यात्मिक नहीं है फिर वो पशु है।

ये घाव तो बना ही रहेगा। जब भर भी जाएगा तो भी उसके निशान बाक़ी रह जाएँगे। उसका बस सार्थक उपयोग कर लो। उनके जाने का नतीजा ये नहीं होना चाहिए कि तुम टूट गये। उनके जाने का नतीजा ये होना चाहिए कि तुम मुट्ठी भींचकर एक मज़बूत जीवन जीने में जुट गये। तुमने कहा कि जो मुझे इतना प्यारा था, जब उसके बग़ैर जी सकता हूँ तो क्या इन चिन्दी-चिन्दी कमज़ोरियों के बग़ैर नहीं जी सकता। जिसके बग़ैर जीने की कल्पना नहीं की जा सकती थी, जब उसके बग़ैर जिये जा रहा हूँ तो क्या अपनी कमज़ोरियों के बग़ैर नहीं जी सकता। आग लगा दूँगा इनको!

जिनसे गहरे नाते थे, जब उनका टूटना बर्दाश्त कर सकता हूँ तो अपने भ्रम का, अपने विकारों का और अपने अहंकार का टूटना बर्दाश्त नहीं कर सकता? जो बड़े-से-बड़ा दुख था वो तो झेल लिया, अब छोटे दुख से क्यों मुँह चुराऊँ? मेरे भ्रम टूटेंगे तो दुख होगा लेकिन उससे बड़ा दुख तो मैं पहले ही झेल चुका हूँ। और सहृदय धन्यवाद उनका जिन्होंने मुझे वो दुख दिया क्योंकि वो दुख पाने के बाद अब छोटे-मोटे दुख मेरे लिए बेअसर हो गये। दुनिया जिन चीज़ों से घबराती है, अब मुझे उन चीज़ों से फ़र्क ही नहीं पड़ता। तुम्हें छोटी सी चोट लग जाती है, तुम रो पड़ते हो। हम ऐसी चोट के साथ जी रहे हैं जैसे हाथ-पाँव सब कट गये हों, शरीर का अंग-अंग छिन्न-भिन्न हो गया हो। जब मैं ऐसे दर्द के साथ जी सकता हूँ तो फिर सही जीवन जीने में जो दर्द मिलता है वो दर्द तो मज़े में बर्दाश्त कर लूँगा न, कि नहीं?

कबीर साहब का योद्धा याद करो, जो रणक्षेत्र में उतरता है सिर पहले अपना काटकर के। वो लड़ाई में जाने से पहले ही अपना सिर काट देता है और फिर उतरता है लड़ाई करने। प्रतीक है, अर्थ समझना। वो कहता है, जो मेरे साथ बुरे-से-बुरा हो सकता था वो हो गया, अब मुझे कौन हरा सकता है, बताओ! एक योद्धा के साथ इससे बुरा क्या होगा कि उसका सिर कट जाए, वो मैंने पहले ही झेल लिया। एक योद्धा हारता भी इसी डर में है कि कहीं सिर न कट जाए, मेरा तो सिर पहले ही नहीं रहा, अब मुझे डर किस बात का!

जो बड़े-से-बड़े दुख से गुज़र लेता है वो अजेय हो जाता है। अब उसे तुम कौनसे दुख की धमकी देकर डराओगे, बताओ तो! कोई धमकी उस पर काम करेगी? क्या बोलोगे? उसका तो सिर कट चुका है, उसका दिल छलनी हो चुका है। तुम उससे कुछ छीन नहीं सकते, उसका सब छिन चुका है, वो खाली है भीतर से।

जीवन जो साधारण तरीक़े के सुख आदि दिया करता था, वो सब जीवन ने वापस ही नोच लिये, खाली हो गया। जो खाली हो गया, उसको अब किसी तरह की सुरक्षा की ज़रूरत बची? कुछ है ही नहीं भीतर, अब किसको सुरक्षित रखें। घर खाली है, ताला लगाने का कोई अर्थ? और जिसका घर खाली हो जाता है वो बड़ा निडर और बेधड़क हो जाता है, उसको अब आप रोक नहीं सकते। अब संसार में कुछ नहीं है जो उसे बाँधकर रखे।

बड़ा उपकार किया जीवन ने, सारे तार काट डाले स्वयं ही। मार ही डाला ज़िन्दगी ने, क्योंकि इसी को तो हम जीवन बोलते हैं, रिश्ते-नाते। जब रिश्ते-नाते ही नहीं हैं तो फिर जीवन ने मार ही डाला। और फिर जो मर कर जीता है उसी को अध्यात्म में कहते हैं कि अमर हो गया अब ये। उसे जीवित मृतक कहते हैं, भीतर से मर चुका है, बाहर से चल रहा है। ये व्यक्ति अब बहुत आगे निकल गया। और तुलना करो उसकी उनसे जो बाहर-बाहर से तो सामान्य, सुख भरा जीवन जी रहे हैं — सुख-दुख दोनों होते हैं उसमें, खिचड़ी सा — बाहर-बाहर से तो सामान्य जीवन उनका चल रहा है और भीतर से मरे हुए हैं, क्योंकि भीतर क्या है? यही मोह-भ्रम, उनको कहना चाहिए वो मृतक जीव हैं।

ठीक वैसे जैसे पृथ्वी को कहते हैं मृत्युलोक है। बाहर से तो लग रहे हैं कि ज़िन्दा हैं, जैसे कि सब लोग होते हैं, भीतर से मरे हुए हैं। क्योंकि जीवन तो सच ही हो सकता है, अगर भीतर झूठ से भरे हुए हो, भ्रम से भरे हो तो भीतर से तो मुर्दा हो। उससे कहीं-कहीं बेहतर वो होता है जिसको पीड़ा भले ही बहुत मिली, पर जिसके भीतर का सारा झूठ चिता में राख हो गया। अब वो भीतर किसी झूठ को रखे हुए नहीं है। समझ रहे हो बात को?

तुम कह सकते हो कि तुम बड़े अभागे हो, तुम ये भी कह सकते हो कि तुम विशिष्ट हो। बताने की ज़रूरत नहीं कि मैं क्या चाहूँगा। भीतर से भाव बार-बार और दर्द यही उठेगा कि मेरे ही साथ क्यों हुआ, मेरा ही ऐसा दुर्भाग्य क्यों! पर उस भीतरी आवाज़ को मान मत लेना, दुर्भाग्य नहीं है। सौभाग्य भी नहीं है। जो भी है, बस है। अब सही जीवन जीकर दिखाओ। जो घटनाएँ घटी हैं, भले ही कितनी भी दुखद थीं, उनमें अर्थ भरकर दिखाओ। जो गये हैं अभी उनके पास भी जीवन था, वो और जी सकते थे, उनके शेष जीवन को तुम जी कर दिखाओ। नहीं तो मृत्यु भी बेवजह ही चली जाएगी न।

इंतज़ार मत करिए कि काल का प्रहार पड़े, उससे पहले ही सीख लीजिए, क्योंकि वो तो आएगा। वो तो घड़ी की टिक-टिक में ही बैठा हुआ है, वो तो आएगा। मरने के लिए ही पैदा होते हैं। उसके आने से पहले जो अवसर मिला है, कुछ उसका कर लीजिए। बड़ा बुरा सा होगा वरना कि आख़िर में ख़याल आये कि ज़िन्दगी व्यर्थ गँवायी। चेत उठने के इतने मौक़े थे, हर पल एक मौक़ा था, पर न जाने कौनसा नशा था जिसने आँखें खुलने ही नहीं दीं। अच्छा लगेगा ऐसा होना, लगेगा?

मृत्यु की उपेक्षा मत करिए। सहम ही बस मत जाया करिए, सीखा करिए उससे। वो डराने-धमकाने भर के लिए नहीं है, उससे बेहतर शिक्षिका दूसरी नहीं हो सकती। हम भारत में देवी की पूजा करते हैं, उन्हीं का एक नाम 'महामृत्यु' भी है। कोई बात रही होगी, जानने वालों ने कोई राज़ देखा होगा जो उन्होंने कहा कि मृत्यु की भी पूजा करनी है। हम मृत्यु को माँ कहकर पूजते हैं। कितनी अजीब बात है! माँ तो जन्म देती है, हम मृत्यु को माँ कह कर पूजते हैं, कोई तो बात होगी न? मृत्यु से डरो नहीं, मृत्यु के निकट जाओ, उसको समझो, मृत्यु ही जन्म दे देगी आपको। इसलिए मृत्यु को माँ कहकर पूजते हैं। मृत्यु माँ बन जाएगी। मृत्यु आपको जन्म दे देगी।

हमने अपनेआप को भीतरी प्रशिक्षण दे रखा होता है दुख से बचने का। है न? जैसे ही कोई दुखद विचार आता है या कोई डरावना तथ्य सामने आता है हम तत्काल मुँह मोड़ लेते हैं। करते हैं न? हमारा सारा भीतरी प्रशिक्षण सुखवादी है। आपसे कहा जाए यहाँ दो दरवाज़े हैं, उधर एक है, उधर एक है, दोनों पर लिखा है निकास। एक पर लिख दिया जाए 'दुख', एक पर लिख दी जाए 'सुख'। सारी भीड़ किधर को जाएगी? लेकिन जो बिरला हिम्मत दिखाएगा वो दूसरा दरवाज़ा खोलने की वो जी उठेगा। कितनी विचित्र बात है! जो मौत का दरवाज़ा खोलेगा उसे जीवन मिल जाएगा। लेकिन जाएगा कोई नहीं उस दरवाज़े पर, सब उधर को निकलेंगे।

लिखा दोनों पर एक ही बात है — निकास, एग्ज़िट। लेकिन एग्जिट शब्द के अर्थ बहुत अलग-अलग होते हैं। जब आप सुख के दरवाज़े से एग्जिट करते हो तो उसका अर्थ होता है कि आपने जीवन से ही एग्ज़िट कर दी। और जब आपकी विदाई, आपकी एग्ज़िट मृत्यु के दरवाज़े से होती है, जब आप जानते-बूझते अपने विवेक में उसका वरण करते हो तो उसका अर्थ होता है आपने मृत्यु से ही एग्ज़िट कर दी। आपने मृत्यु से ही विदाई ले ली। उसके पास जाइए।

अमरता आसान है, दिक्क़त बस ये है कि वो मौत से होकर गुज़रती है, तो दर्द बड़ा अनुभव होता है। सामान्यत: हम स्वयं उस दर्द को नहीं चुनने वाले, नहीं चुनेंगे न? लेकिन जिनको आपदावश, दुर्घटनावश वो दर्द मिल ही गया है, मैं उनसे कह रहा हूँ, अपनेआप को अभागा ही भर मत मान लेना, इसमें दुर्भाग्य होगा तो होगा, इसमें अवसर बहुत बड़ा है। दर्द तो मिल ही गया, अब उससे जो बड़े-से-बड़ा लाभ हो सकता है उससे मत चूक जाना।

जब मृत्यु को हम पास से देख लेते हैं न, तो छोटे-छोटे, छिछले-उथले सुखों के प्रति एक तिरस्कार का भाव पैदा हो जाता है। जो हल्के क़िस्म का जीवन होता है, लम्पट क़िस्म की हँसी होती है, उसको दर्द से गुज़रा हुआ हृदय बिलकुल अस्वीकार करने लग जाता है। तुम्हें भाएगी ही नहीं, तुम्हें उसमें कुछ आकर्षण ही नहीं दिखेगा। दूसरे लोग पचास तरह की छोटी-छोटी चीज़ों के पीछे भाग रहे होंगे, तुम्हें वो व्यर्थ दिख रही होंगी। अब बताओ, ये दुर्भाग्य है क्या? दुर्भाग्य है या जाने वाले ने जैसे तुमको प्रसाद ही दे दिया है, उपहार भी क्यों कहें।

देखिए, आज जो हम महाविनाश के इतने निकट खड़े हैं, उसका एक कारण ये भी है कि हमने शारीरिक मृत्यु को स्वयं से बहुत दूर कर दिया है। आज दुनिया में जो औसत अवधि है जीने की, वो जितनी है उतनी पहले कभी नहीं थी और लगातार कोशिश चल रही है उसको और बढ़ाने की।

दुनिया की जनसंख्या में नब्बे से ऊपर की उम्र के लोगों का जो अनुपात आज है, इतना इतिहास में कभी नहीं रहा और कई देश तो ऐसे हैं जहाँ अब सैकड़ों लोग हैं सौ से अधिक की उम्र के। दवाइयाँ हैं, चिकित्सा सुविधाएँ हैं, तमाम तरह के सुरक्षातन्त्र हैं। तो एक ओर हम मृत्यु के तथ्य को अपने से दूर धकेलते जा रहे हैं और दूसरी ओर हम भीतर-ही-भीतर जीवन से बिलकुल हीन होते जा रहे हैं। ये दोनों बातें एक साथ चल रही हैं। समझिएगा।

शरीर से हम मरते नहीं, भीतर से हम जीते नहीं। कहने का आशय ये बिलकुल भी नहीं है कि महामारी फैलना या महायुद्ध होना या महामृत्यु का मंजर आवश्यक है आन्तरिक प्रगति के लिए। लेकिन इतना ज़रूर है कि अगर आपकी रोज़ की गणनाओं में, अगर आपके विचारों में मृत्यु आती ही नहीं है तो आपका जीवन बेमतलब ही बीत रहा होगा।

महात्मा बुद्ध हों, सम्राट अशोक हों, मृत्यु का दृश्य था जिसने उनका जीवन ही बिलकुल बदलकर रख दिया। बुढ़ापा, बीमारी, मौत, सिद्धार्थ गौतम को दिख गये थे। हमने उन्हें अपने जीवन से वर्जित कर दिया है, देखना ही नहीं चाहते।

ज़बरदस्त क़िस्म का शोध चल रहा है कि किस तरीक़े से शरीर को अमर ही बना दिया जाए। वो कहते हैं कोशिकाओं का जो पुनर्निर्माण होता है, एक कोशिका से दूसरी कोशिका बनती है, रिजेनरेशन। अगर उसमें कोशिकीय सामग्री का क्षय कम-से-कम कर दिया जाए तो इंसान बूढ़ा होगा ही नहीं। उस पर भी वैज्ञानिकों के दो मत हैं। एक है जो कहता है कि शरीर को अमर ही बनाया जा सकता है, मृत्यु कभी न हो। हाँ, दुर्घटना हो जाए, सिर ही कट जाए तो अलग बात है, अन्यथा सामान्यत: मृत्यु कभी हो नहीं। मनुष्य को अमर बनाया जा सकता है, शोध चल रहा है।

दूसरी ओर वैज्ञानिक हैं जो कह रहे हैं कि नहीं, अमर तो नहीं होगा लेकिन बहुत-बहुत लम्बे समय तक जी सकता है, डेढ़ सौ, दो सौ, और भी ज़्यादा, सैकड़ों साल तक। और मैं आश्चर्य करता हूँ, 'करोगे क्या! मौत माँगोगे, डेढ़ सौ साल के हो जाओगे, पाँच सौ साल के हो जाओगे, तड़पोगे कि मृत्यु मिले।'

ज़रा भी नहीं समझे क्या जीवन को? देह को ज़रा भी नहीं जाने? देह इसलिए है कि उसे अनन्त समय तक ढोते रहो? जीवन क्या अपना आशय स्वयं है, जीवन क्या अपना ही उद्देश्य है? नहीं, जीवन का उद्देश्य जीवन मात्र नहीं है। जीवन का उद्देश्य मुक्ति है। साँस लेते जाना, लिये ही जाना, इसके लिए थोड़े ही ज़िन्दगी मिलती है? जीवन होता है कि जल्दी-से-जल्दी साँसों के इस आवागमन से मुक्त ही हो जाओ। मैं शारीरिक नहीं, भीतरी मृत्यु की बात कर रहा हूँ। जीवन होता है कि इससे पहले कि शरीर मरे, तुम भीतर से मुक्त हो जाओ।

तो एक अवधि मिल जाती है कि हाँ भई, जीने के लिए बहुत हुआ तो अस्सी, सौ साल हैं। उससे पहले भीतर का काम निपटा लो। लेकिन ये बात हम समझते नहीं हैं। हमें लगता है ज़िन्दगी तो बस ज़िन्दगी के लिए ही है। करोगे क्या जीकर? क्यों उठोगे सुबह बिस्तर से रोज़, काहे के लिए?

कोई उद्देश्य होता है तो एक स्फुरणा होती है। निरुद्देश्य, यूँही? निरुद्देश्य यूँ नहीं हो गये कि जो आख़िरी उद्देश्य था वो पूर्ण हो गया है, अतः निरुद्देश्य, न। निरुद्देश्य इसलिए हैं क्योंकि आख़िरी उद्देश्य का कुछ पता ही नहीं, इसलिए निरुद्देश्य हैं। ऐसी निरुद्देश्यता तो बस आत्महत्या की ओर भेजेगी, युथनेजिया की माँग करोगे। जो चले गये हैं, उनसे अपनेआप को भिन्न मत मानो। उसी कतार में हो, कोई थोड़ा आगे है, कोई थोड़ा पीछे है। दुख-सदमा ठीक है, जो हुआ है उसको जान लो कि वास्तव में क्या है, उससे सीख लो।

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