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लेख
हमें इस धरती पर किसने भेजा, और क्यों? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2022)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
16 मिनट
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प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी! मैं डॉक्टर आनंद राय, फाइनेंस (वित्त) का प्रोफेसर हूँ। यहाँ पर मेरा सवाल मूल रूप से ज़िंदगी और मौत के बीच का जो यात्रा है, उसके ऊपर है। जन्म जो हमारे नियंत्रण में नहीं है, इसका मतलब है कि मुझे इस धरती पर किसी ने भेजा है शायद। और उसका कुछ उद्देश्य होगा भेजने का। उसको बिना जाने, और हम अपना उद्देश्य ढूँढने की कोशिश करते हैं कि हमारा एक उद्देश्य क्या होना चाहिए इस ज़िंदगी में। और मैं लॉन्गटर्म बर्थ (दीर्घकालिक जन्म) से लेकर डेथ (मृत्यु) तक के, ज़िंदगी के अंत तक के ऑब्जेक्टिव परपज़ (वस्तुगत उद्देश्य) की बात कर रहा हूँ। तो एक तो यह कि क्यों भेजा गया और उसमें क्या हमें अपना परपज़ (उद्देश्य) ढूँढना चाहिए? क्योंकि यह जो यात्रा है, इसमें कुछ भाग हमारे नियंत्रण में है, कुछ भाग प्रिडिटरमाइंड (पूर्वनिर्धारित) है या पहले से ही निश्चित है, ऐसा मेरा मानना है। उस पर मैं आपसे जानना चाहता हूँ कि क्या हमें किसी परपज़ (उद्देश्य) से भेजा गया है, उसको जानने की ज़रूरत है या अपना क्या परपज़ होना चाहिए उसको पता लगाने की ज़रूरत है? धन्यवाद।

आचार्य प्रशांत: नहीं, भेजा वग़ैरा तो क्या ही गया है! असल में क्या होता है कि जिस चीज़ को हम पैराफिज़िकल, मैटेफिज़िकल, पराभौतिक भी कहते हैं, हम उसको भी एंथ्रोपॉमोरफाइज़ (मानवीकरण) कर देते हैं। जैसे बच्चों की कॉमिक्स होती हैं, आपने देखी होंगी, उनमें आप क्या पाते हैं, हाथी और मगरमच्छ आपस में बात कर रहे हैं। हाथी और मगरमच्छ आपस में इंसानों की भाषा में बात कर रहे हैं। और वह उन्हीं मुद्दों पर बात कर रहे हैं जो इंसानों के मुद्दे हैं। जैसे हाथी कह रहा है कि तुमने मुझसे पैसे उधार लिए हैं, मगरमच्छ कह रहा है कि भई मैंने तो उधार नहीं लिए। या हाथी कह रहा है कि मेरी फ़लानी किताब है और तुम उसे पढ़ कर बताओ कि कैसी लिखी है मैंने।

अब यह हम क्या कर रहे हैं? हम जैसे हैं, इंसान जैसा है, हम जानवरों को भी उसी रूप में चित्रित कर देते हैं, कल्पित कर लेते हैं, कर लेते हैं न? तो हम कहने लग जाते हैं कि खरगोश भी बात कर रहा है, या पेड़ बात कर रहा है। या मगरमच्छ का भी करियर (पेशे) को लेकर के कोई उद्देश्य है, कि मगरमच्छ कह रहा है कि मुझे नौकरी चाहिए, मुझे नौकरी नहीं मिल रही, मैं नौकरी को लेकर के बहुत उदास हूँ। यह हम मगरमच्छ के बारे में क्यों कह देते हैं? क्योंकि हमें नौकरी चाहिए होती है। या हम रुपये-पैसे की बात खरगोश पर या हाथी पर क्यों आरोपित कर देते हैं? क्योंकि रुपया-पैसा हमारे लिए महत्वपूर्ण होता है।

तो हम अपनेआप को केंद्र में रखकर के, पूरी दुनिया के बारे में कल्पना कर लेते हैं, यही कर लेते हैं न हम? हम अपनेआप को केंद्र में रखते हैं और अपने अनुसार पूरी दुनिया की कल्पना कर लेते हैं, हम जो कुछ भी जानते हैं। इसको कहते हैं अहंकार। अहंकार इसी को कहते हैं, मैं ही अपनी दुनिया के केंद्र में हूँ और बाक़ी सबकुछ मेरी कल्पना के अनुसार चलेगा। और 'मेरी कल्पना,' जैसा मैं उसके बारे में सोचूँगा।

तो अब हमारी दुनिया में क्या होता है? हमारी दुनिया में यह होता है कि अगर यह है (पानी का ग्लास उठाकर दिखाते हुए) तो इसे किसी ने बनाया होगा। यह हमारी दुनिया में होता है न। ऐसे हम हैं, हम कहते हैं, ‘अगर यह होता है तो इसे बनाने वाला भी होता है और जो बनाने वाला होता है उसका कोई उद्देश्य होता है।’ पर ऐसा हमारी दुनिया में होता है। ऐसे हम हैं कि हम कुछ भी करते हैं तो किसी उद्देश्य से ही करते हैं।

पर अहंकार इसमें होता है कि हम सोचते हैं कि अगर कोई ईश्वर या भगवान है तो वह भी हमारे ही जैसा है, तो उसने भी कुछ करा है तो किसी उद्देश्य से ही तो करा होगा। इतना ही नहीं, हम कहते हैं कि अगर इस दुनिया में यह (ग्लास) है, तो इसे कोई बनाने वाला भी होगा, उसी बात को आगे बढ़ाकर हम कह देते हैं कि फिर तो यह जो समूची दुनिया है, इसको भी कोई बनाने वाला होगा; यह अहंकार है। हम कह रहे हैं कि हम जैसे हैं वैसे ही वह भी होगा जो हमसे आगे का है।

और यह बात तमाम विचारधाराओं में पायी जाती है, लगभग सब धर्मों में पायी जाती है। हर धर्म इस बात की कोई कल्पना करना चाहता है कि इस दुनिया को किसी ने रचा। भाई, ये तुम्हारे अनुभव की बात है कि जो भी कुछ होता है उसे तुमने रचा होता है। लेकिन इसका मतलब यह थोड़े ही है कि इस पूरी दुनिया को भी कोई रचेगा। तुम अपनी बात को उधर क्यों लगा रहे हो?

आप कहीं भी चलते हैं तो किसी उद्देश्य से चलते हैं, है न? बिना उद्देश्य के चल नहीं पाते हैं। और उद्देश्य का मतलब होता है लाभ, मुनाफा। यही तो उद्देश्य होता है? आप कहीं भी जा रहे हैं तो उसमें से कुछ लाभ पाना होता है तभी जाते हैं। तो फिर हम सोचते हैं कि हमें भी अगर इस दुनिया में भेजा गया है तो कोई उद्देश्य होगा। ले-देकर आपने यह करा कि जो बनाने वाला है उसको आपने अपने जैसा ही मान लिया।

आपने कहा, ‘मैं कुछ भी करता हूँ तो कोई उद्देश्य होता है, तो वह भी कुछ करता होगा तो कोई उद्देश्य होगा।’ यह अहंकार है। आप देख रहे हैं आप किन दो चीज़ों में बराबरी बैठा रहे हैं? ‘मैं कुछ भी करता हूँ तो उसमें कोई उद्देश्य होता है, तो उसने भी कुछ करा है तो कोई उद्देश्य होगा।’

पहली बात, वह है या नहीं, इसकी कल्पना भी आप अपने अनुसार कर रहे हैं। आप कहते हैं ‘मेरी दुनिया में अगर कोई भी निर्मित चीज़ होती है तो कोई निर्माता भी होता है। तो फिर इस संसार का भी कोई निर्माता होगा।’ यह आपने पहली कल्पना कर डाली। फिर दूसरी कल्पना आपने यह करी कि मैं इस दुनिया में कोई भी निर्माण करता हूँ तो उसके पीछे कोई उद्देश्य होता है तो वह जो निर्माता है, बड़ा वाला, उसने भी अगर यह दुनिया बनायी है तो तो उसका भी कोई उद्देश्य होगा। यह तो सब आपकी कल्पना ही है न? अपने ही केंद्र से, अपनी ही अहंता से, यदि कोई बनाने वाला है तो उसको आप अपने जैसा ही मानकर कल्पना करे जा रहे हैं। यह क्या उचित है? यह क्या उचित है? नहीं।

वेदान्त इससे बिलकुल भिन्न बात करता है। वेदान्त कहता है, 'यह बात बाद में करेंगे कि आपको भेजा गया है या नहीं भेजा गया है इत्यादि, यह बिलकुल बाद की बात है। पहले तो हम यह बात करेंगे कि आप हैं भी क्या।' आप होंगे तब न आपको भेजा जाएगा! नहीं तो बात ऐसी हो जाएगी कि आपके घर के बाहर कोई आये, घंटी बजा दे, मान लीजिए ज़ोमैटो वाला है, और वह कहता है ‘खाने का बिल दीजिए।’ आप कहेंगे, ‘खाना कहाँ है?’ वह कहेगा, ‘खाने का पता नहीं, बिल दीजिए।’ यह अजीब बात हो जाएगी न? या कि आप घर में हों और आप ऐसे बैठे हैं खाने की मेज़ पर और आपसे पूछा जाए, ‘बताओ खाना कैसा है?’ आप कहेंगे, ‘होगा तो न बताऊँगा कैसा है!’

किसी चीज़ की गुणवत्ता बताने के लिए, किसी भी चीज़ के विषय में कोई टिप्पणी करने के लिए, पहले उस चीज़ को होना चाहिए। वेदान्त कहता है पहले अपनेआप से पूछो, ‘तुम हो भी?’ तुम हो ही नहीं तो तुम्हारा बिल कैसा चुकाया जाए। तुम हो ही नहीं तो तुम्हारा रूप-रंग, स्वाद, तुम्हारा निर्माता, तुम्हारे गुण-दोष, कुछ भी कैसे बोला जाए तुम्हारे बारे में। अब यहाँ हम फँस जाते हैं। हम कहते हैं, ‘यह कैसी बात हो गयी कि हम हैं या नहीं हैं! अरे हम हैं न, देखो (अपनी ओर इशारा करते हुए) ये रहे, ये रहे, ये रहे। हम हैं। अगर हम नहीं हैं तो कुर्सी पर कौन बैठा है!’

वेदान्त कहता है कि तुम्हें कैसे पता कि कुर्सी है। तुम कह रहे हो, ‘मैं वह हूँ जो कुर्सी पर बैठा है।’ वेदान्त कहता है कि तुम्हारे पास प्रमाण क्या है कि कुर्सी है। फिर कहते हो कि चलो यार कुर्सी का कोई प्रमाण नहीं है, पर इस देह का तो प्रमाण है न, यह रही देह। वेदान्त कहता है, ‘क्या प्रमाण है?’ कहते हो, ‘अनुभव हो रही है।’ वेदान्त कहता है, 'अनुभव किसको हो रहा है, तुम्हीं को हो रहा है। तो तुम ख़ुद अपने प्रमाण हो? तुम से बाहर भी कोई प्रमाण है?’

यह तो ऐसी बात हो गयी कि बच्चो, अपनी-अपनी परीक्षा ख़ुद लिखो और ख़ुद को ही नम्बर दे लो। भाई, आप हैं या नहीं इसका कोई आपसे अलग भी तो प्रमाण होना चाहिए न? तो आप कह देंगे ‘नहीं, जो मेरे बगल में बैठा है वह भी कह रहा है कि मैं हूँ।’ आपको कैसे पता आपके बगल में कोई बैठा है? आप कहेंगे, ‘उसका प्रमाण मैं हूँ।’

तो ले-देकर अभी भी आप अपने प्रमाण स्वयं रहें और आपके अतिरिक्त आपका कोई प्रमाण नहीं है। आपको किसने भेजा, आपको क्यों भेजा, यह प्रश्न तो तब जायज़ होगा न कि पहले यह साबित हो जाए कि आप हैं भी। वेदान्त पूछता है कि आओ पहले जाँच लें कि आप हैं भी क्या।

आपकी इंद्रियों और आपके मन के अतिरिक्त, कहीं कोई प्रमाण है कि आप हैं? एक बात बताइए, आप ऐसे हो जाएँ कि आप दिखाई न देते हों, आप स्पर्श में न आ सकें, आप सुनाई भी न देते हों, तो क्या आप कहेंगे कि आप हैं। माने आँख, कान, नाक और त्वचा, इसके अतिरिक्त आपका कोई प्रमाण नहीं है आपकी हस्ती का; और ये सारे प्रमाण आपके अंदर ही बैठे हैं। आपसे बाहर कोई प्रमाणकर्ता, कोई एजेंसी नहीं बैठी हुई है जो सर्टिफाई (प्रमाणित) कर दे, जो सत्यापित कर दे कि आप हैं। वेदान्त आपको यहाँ पकड़ लेता है।

वेदान्त कहता है, ये सबकुछ जो तुमको दिख रहा है न, सिर्फ़ वो तुम्हारी अपनी दुनिया है, उसको सत्य मत मान लेना। सत्य वह है जो तुम पर निर्भर ही नहीं करता। तुम्हारी अपनी हस्ती और तुम्हारी इस दुनिया की हस्ती तो तुम पर निर्भर करती है। यह दीवार तुम कहते हो कि है, सिर्फ़ इसलिए कि तुमको दिख रही है। अगर सबको दिखनी बंद हो जाए और सब को स्पर्श में आनी बंद हो जाए, तो क्या तब भी कहोगे कि यह दीवार है?

तो इस दीवार को, हमारी देह को, हमारी हस्ती को, वेदान्त कहता है कि ऐसे ही कामचलाऊ बात है, व्यावहारिक बात है, इसको सत्य नहीं मानते । अब एक बार आप कामचलाऊ हो गए, उसके बाद यह प्रश्न ही पीछे छूट जाता है कि मुझे किसने भेजा।

अब फिर क्या प्रश्न बचता है? फिर प्रश्न यह बचता है कि अगर मैं बस व्यावहारिक हूँ, अगर मैं सत्य नहीं हूँ, अगर मैं अनुभव मात्र हूँ, सत्य नहीं हूँ, बस मेरा अनुभव भर होता है, प्रतीति हूँ मैं, तो मैं ज़िंदगी इस बात को याद रखते हुए कैसे जिऊँ कि मेरे ‘इस’ अस्तित्व में सच्चाई नहीं है, सत्य कुछ और है।

इसीलिए वेदान्त में ईश्वर या भगवान के लिए कोई जगह नहीं है। ईश्वर या भगवान की ज़रूरत तो तब पड़े न जब पहले ये सब सच हो। जैसे ही आप ये सब सच मानते हैं, फिर आप कहते हैं, 'अगर यह दुनिया है तो दुनिया को बनाने वाला भी कोई होगा।' वेदान्त कहता है कि दुनिया ही नहीं है, जगत मिथ्या। यह दुनिया भी बस तुम्हें अनुभव में आते स्वप्न की भाँति है। अभी प्रतीत हो रही है, अभी प्रतीत नहीं होगी। आज ऐसी है, कल वैसी हो जाएगी। एक ही चीज़ एक को एक जैसी दिखती है और दूसरे को दूसरे जैसी दिखाई देती है।

मैं एक घंटे से आपसे बात कर रहा हूँ, क्या सबने एक ही बात सुनी? क्या सबने एक ही बात सुनी? अभी आपसे कहा जाए एक कागज़ पर लिख दीजिए मैंने क्या कहा, आप सब अलग-अलग बातें लिख देंगे। तो बताओ, जो सुना जाता है उसे सत्य कैसे मान लें, जो अनुभव में आता है उसको सत्य कैसे मान लें? वह तो किसी के लिए कुछ है, किसी के लिए कुछ है, किसी के लिए कुछ है; वह तो एक चीज़ ही नहीं है।

जो आज आपको प्राणों से प्यारा लगता था, कल आप उसके कट्टर दुश्मन हो जाते हैं, बताओ सत्य किसको मानें? जो आज जी रहा है, कल राख हो जाता है, बताओ सत्य किसको मानें? तो वेदान्त कहता है, ‘ये सब बच्चों वाले सवाल छोड़ो कि भगवान कहाँ है, ईश्वर क्या है, देवता-देवी।’ वेदान्त इन सब की कोई बात नहीं करता, कहता है, ‘हटाओ ये सब तुम्हारी बच्चों की कल्पनाएँ।’

वेदान्त कहता है, 'अब ज़रा बड़ों के सवालों पर ग़ौर करें?' और बड़ों का सवाल यह है कि यह जो दिन-प्रतिदिन मुझे धोखा होता है, कि यह (दृश्य संसार) भी सच है, मैं भी सच हूँ, मैं इस धोखे को कैसे अलग करूँ। इस धोखे के लिए वेदान्त में नाम है — माया। कहता है, यह धोखा है और यह धोखा मुझे बहुत दुख देता है, क्योंकि मैं ऐसी चीज़ों पर यकीन करना शुरू कर देता हूँ जिनमें कोई दम नहीं है; फिर चोट लगती है, फिर आँसू गिरते हैं। वह इसीलिए गिर रहे हैं क्योंकि मैंने अनुभव को ही सत्य मान लिया है। और अनुभव का क्या भरोसा, अनुभव तो किसी को कुछ भी कराया जा सकता है, मृग मरीचिका जानते हो।

अपनी ज़िंदगी से भी जानते हो कि कितनी तरह के अनुभव हुए जो झूठ थे। लेकिन जब वो अनुभव हो रहे थे तो लग रहा था सब सच है। अनुभव को सच नहीं मान लेना, यह वेदान्त की सीख है। कोई चीज़ सिर्फ़ इसलिए सच्ची नहीं हो जाती कि तुमने देख ली। दुनिया कहती है, ‘आँखों देखी बात है सच तो होगी ही।’ वेदान्त कहता है, ‘अगर आँखों देखी बात है तो पक्की झूठ है।’ इसका मतलब यह नहीं है कि अगर कल्पना करी हुई बात है तो वह सच हो गई। जैसे कल्पना झूठी है वैसे ही जो आँखों से दिख रहा है वह भी झूठा है, जो कानों से सुनाई दे रहा है वह भी सत्य नहीं है।

लेकिन हमें तो जीना इसी में है, आँखों से देखते हैं, कानों से सुनते हैं, हाथों से छूते हैं, जीना तो इसी में है। तो वेदान्त कहता है आओ फिर जीने का सही तरीक़ा सीखें, जिसमें झूठ के बीचों-बीच रहते हुए भी ज़िंदगी सच्ची हो सके, ताकि धोखा न मिले, दुख न हो, दिल न टूटे; बल्कि मौज रहे, आनंद रहे।

अब खेद की बात यह है कि वेदान्त का आम चेतना में बहुत प्रचार हो नहीं पाया कभी। तो हमारी आम चेतना इन्हीं सब चीज़ों से भरी हुई है कि ईश्वर ने एक दिन बैठकर के पृथ्वी की रचना करी। वेदान्त कहता है कि यह बच्चों की परी कथाएँ हैं, हमारा इसमें कोई किसी तरह का लेना-देना नहीं। आपका मस्तिष्क जैसा है वैसा न होता, तो यह दुनिया आपको जैसी दिख रही है वैसे ही नहीं दिख रही होती। आप देखते नहीं हैं, आप ज़रा सी शराब पी लेते हैं, दुनिया डोलने लग जाती है। तो दुनिया सच है या झूठ है, वह तो आपके मस्तिष्क पर निर्भर करता है; मस्तिष्क डोलने लग गया, दुनिया डोलने लग जाती है।

जानवरों को दुनिया वैसी नहीं दिखती जैसी आपको दिख रही है। अब बताइए किसको सच मानें किसको झूठ मानें। आपको ही दुनिया वैसी नहीं दिखती आज, जैसी कल दिख रही थी, सब बदल जाता है। आप कहीं घूम-फिर आइए चार-पाँच दिन, फिर अपने घर में आइए, घर आपको अलग लगेगा। एक प्रयोग करके देखिएगा, आपके घर में किसी कमरे में बहुत समय से अगर पीली लाईटें लगी हुई हैं, उसकी जगह सफ़ेद लगवा दीजिए। आपको लगेगा कमरा ही बदल गया, मैं नये कमरे में आ गया हूँ। अनुभव का क्या भरोसा! मन को तो कुछ भी करके धोखा दिया जा सकता है और उसे धोखा ही होता है हर समय, छोटी-छोटी बातों पर धोखा होता है।

वेदान्त कहता है, ‘धोखे से कैसे बचें। मूल प्रश्न यह नहीं है कि ईश्वर कौन है और उसने हमें क्यों बनाया, मूल प्रश्न यह है कि ज़िंदगी बिना दुख के कैसे जिया जाए।’ मैं कौन हूँ? मैं वह हूँ जो धोखे में रहता है हर समय। वेदान्त अहम् की यह परिभाषा देता है। अहम् की क्या परिभाषा, मैं कौन हूँ? वह जो हर समय धोखे में जी रहा है। धोखे में जी रहा है इसीलिए दुखी है। उद्देश्य क्या है पूरे वेदान्त का — दुख से मुक्ति। और दुख से मुक्ति तभी होगी जब भ्रम से मुक्ति होगी। भ्रम से मुक्ति।

यही प्रश्न है और हमें इसी पर विचार करना है कि धोखे से कैसे बचें। धोखा क्या है, इसको अच्छे से समझें, यह असली प्रश्न है। ये सब कोई प्रश्न नहीं हैं कि फिर उसने उससे क्या कहा, फिर कितने लोक हैं और किस लोक में कौन से देवता का निवास है, फिर फ़लाने ऋषि ने जाकर फ़लाने मुनि को क्या श्राप दिया। वेदान्त इन सब में ज़रा भी रुचि नहीं दिखाता, कहता है, ‘ये सब तो ऐसे ही हैं, कहानियाँ।’

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