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लेख
हँसते हुए मुखौटे || (2016)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांत: एक आदमी था बड़ा भुल्लकड़। कोई एक चीज़ उसके साथ रहती थी, वो थी उसकी विस्मृतिशीलता। भूलता गया, भूलता गया, और एक दिन पाता है कि वो अपनी हँसी भी भूल गया; भूल ही गया कि हँसना कैसे है।

तो गया एक विशेषज्ञ के पास, कि, “हँसना भूल गया हूँ।“ उन्होंने कहा, “ये कौन-सी नई बात है? किसी किताब पर लिख लो कि रोज़ हँसना है। जब भी पढ़ोगे तो याद आ जाएगा कि रोज़ हँसना है।“ उसने कहा, “ठीक है।“

कुछ दिनों तक ठीक चलता रहा, वो अपने किताब के पन्ने पलटता तो उसे याद आ जाता कि हँसना है। लेकिन उसकी विस्मृतिशीलता गहराती ही जा रही थी। एक दिन ऐसा आया कि वो ये भी भूल गया कि किताब पढ़नी है। वो पुनः गया विशेषज्ञ के पास, उसने कहा, “अब ये स्थिति है कि किताब ही याद नहीं, तो अब हँसना कहाँ से याद रहेगा? बड़ी मुश्किल से तो आप तक पहुँचा हूँ, आपका पता भी याद नहीं था, पूछते-पाछते आया हूँ। अगली बार आ पाऊँगा या नहीं, पक्का नहीं है।“ उन्होंने कहा कि, “ऐसा करो, अपने कुछ दोस्तों पर ज़िम्मेदारी डाल दो, वो हँसने के लिए याद दिलाते रहेंगे। किताब तो मुर्दा होती है, वो तुम्हें याद दिलाने नहीं आएगी, दोस्त आ जाएँगे।“ उसने कहा, “ये आपने बढ़िया बात कही।“

तो दोस्तों के पास गया, उनसे अनुरोध किया कि आप लोग याद दिला दिया करिए। कुछ दिन तक ठीक भी चला, दोस्तों ने याद दिला दिया। एक दिन वो फिर मुँह लटकाए विशेषज्ञ के दरवाज़े पर खड़ा था। विशेषज्ञ ने कहा, “अब क्या हो गया?” उसने कहा, “पहले थोड़ा पानी-वानी पिलाइए। दो दिन तक भटकते-भटकते आप के यहाँ तक पहुँचा हूँ, नहीं तो पहुँच नहीं पाता। आपका ना नाम याद है, ना पता याद है।“ विशेषज्ञ ने पानी-वानी पिलाया और पूछा, “क्या है?” बोला, “दोस्तों को भूल गया। दोस्त ही नहीं रहे तो याद कौन दिलाएगा और हँसाएगा कौन?”

“बड़ी अजीब बात है, लेकिन फिर भी कोई बड़ा मसला नहीं है ये। चलो अपने घर ले चलो मुझे।“

वो अपने घर ले गया उसको। जहाँ वो रहता था वहाँ उन्होंने दीवार की एक-एक इंच पर लिख दिया — हँसो, हँसो, हँसो। उसके कपड़ों पर छाप दिया — हँसो, हँसो। खाने के बर्तनों पर छाप दिया— हँसो, हँसो। यहाँ तक कि ज़मीन और पेड़ों पर भी अंकित कर दिया— हँसना ज़रूरी है, हँसो। जहाँ-जहाँ वो नज़र दौड़ा सकता था, जहाँ-जहाँ वो देख सकता था, दीवारें, छत, ज़मीन, गाड़ी, कपड़े, पेड़-पौधे, यहाँ तक कि पड़ोसियों की दीवारें भी, हर जगह यही लिख दिया गया कि हँसो। पूरा माहौल ही हँसने के लिए प्रेरणास्पद, सुविधाजनक बना दिया गया। हो ही नहीं सकता था कि अब कोई आँख खोले और उसको हँसी का खयाल ना आ जाए। इंतज़ाम पूरा पक्का था, चूक की कोई संभावना नहीं थी।

उसके बाद एक दिन विशेषज्ञ के घर पर आधी रात को दस्तक होती है, वो दरवाज़ा खोलते हैं, देखते हैं ये आदमी नंगा खड़ा हुआ था। पूछते हैं, “क्या हो गया?” बोलता है, “मैं जानता नहीं हूँ कि आप कौन हैं, लेकिन यकीन करता हूँ कि आप ही वो विशेषज्ञ हैं जिन्होंने आज तक मुझे वो सलाह दी है। कुछ लोग मुझे आपके द्वार छोड़ गए हैं, ये कह कर कि आज तक आप मेरा उपचार करते आए हैं तो आज भी आप मुझे सलाह देंगे। जहाँ-जहाँ मेरी नज़र जाती है, सब-कुछ मुझसे यही कह रहा है कि हँसो। बाज़ार मुझसे कहता है हँसो, परिवार मुझसे कहता है कि हँसो, मेरे घर-द्वार, दरवाज़े, सब मुझसे कहते हैं कि हँसो, मेरे दोस्त कहते हैं हँसो। मैं रेडियो चलाता हूँ, मैं टीवी चलाता हूँ, सब कहते हैं मुझसे— हँसो। और मैं आभारी हूँ आपका, जो आपने इतना सुंदर प्रबंध किया। अपनी ओर से आपने कहीं कोई चूक छोड़ी नहीं थी, पूरी व्यवस्था ही आपने ऐसी निर्मित कर दी कि हँसे बिना कोई रह नहीं सकता; मुझे लगातार हँसने के लिए ही कहा जा रहा है।“

“लेकिन अब मेरी स्थिति ये है कि मुझे कपड़े पहनने का भी खयाल नहीं है, दीवारों को पढ़ने का भी खयाल नहीं है। और कभी अगर मैं उनको पढ़ भी लेता हूँ तो एक आख़िरी बात है जो मैं भूलता जा रहा हूँ, कि हँसना किसको है? कौन हँसे? याद तो दिला दिया जाता है कि हँसना है, पर हँसे कौन? कह तो दिया जाता है कि खुशी-ही-खुशी चारों ओर फैली हुई है, खुशी को अनुभव करो। पर खुश कौन हो? मैं उससे संपर्क में ही नहीं आ पा रहा जिसे खुशी अनुभव होती है। देखिए नंगा खड़ा हूँ आपके सामने। कपड़े तो कहते हैं हँसो, पर पहने कौन अब इन्हें?”

विशेषज्ञ ने कहा, “अब तुम्हारी बीमारी लाइलाज मालूम होती है। अब तुम हँस नहीं पाओगे, अब एक ही तरीका है तुम्हें हँसाने का।“ उन्होंने उसे बैठाया और भीतर से अनगिनत हँसते हुए मुखौटे लाकर के उसके चेहरे पर चढ़ा दिया। बोले, “अब कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम हँसो या नहीं हँसो, अब कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम हँसने वाले को जानोगे कि नहीं, अब तुम्हें फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम्हें याद रहेगा कि नहीं कि दोस्तों से पूछना है, कि किताबों से, कि दीवारों से। अब ज़िम्मेदारी तुम्हारी रही ही नहीं हँसने की, अब तुम्हारी जगह ये मुखौटे हँसेंगे।“

मैंने देखा है, वो आदमी आज भी वही मुखौटे पहन कर घूम रहा है, वो हमारे चारों ओर है; मुखौटे हँस रहे हैं, वो हम हैं। वही आपको सुबह-सुबह पार्कों में हँसता हुआ दिखाई देता है, वही आपको बाज़ारों में हँसता हुआ दिखाई देता है, वही आपको विज्ञापनों में हँसता हुआ दिखाई देता है, वही आपको अपने दफ़्तर, अपने परिवारों में हँसता हुआ दिखाई देता है; उन्हीं मुखौटों का साक्षात् आपने किया। हम हँसते नहीं हैं; हँसी हम पर आरोपित की जाती है, हँसी हम पर लाद दी जाती है। हँसना हमारी शिक्षा का अंग है, हँसना हमारी संस्कृति की अनिवार्यता है। आप हँसें ना तो आप समाज से बहिष्कृत हो जाएँगे; आप हँसें ना तो आपके संबंधों में दरार पड़ जाएगी; आप हँसें ना तो तमाम सुविधाओं में कमी आ जाएगी।

“हम हँसते हैं” या ये कहना “हम हँसते नहीं हैं”, इन दोनों में तो ऐसा लगता है जैसे हमारी कोई मुक्त इच्छा हो, ज्यों हम अपनी निजता में तय करते हों कि हँसना है कि नहीं हँसना है। पर ऐसा है क्या? वास्तव में हमें तय भी करना पड़ता है क्या? ना हँसने के लिए, ना रोने के लिए, दोनों ही स्थितियों में हमारी जगह, हमारे प्रतिनिधि के रूप में, हमारे बिहाफ़ पर कोई और ही है जो सारे निर्णय कर लेता है। सब पूर्व-नियोजित है, सब पहले से ही पता है, कि ऐसी घटना घटे, ऐसा मौका हो, ऐसा अवसर हो तो हँस लेना, और यदि इससे भिन्न कुछ हो तो रो लेना।

यही वजह है कि हँसी-हँसी में भी समाज के साथ, देश के साथ, समय के साथ, उम्र के साथ, अवसर के साथ बड़ी भिन्नता आ जाती है। अमेरिकी या रूसी या चीनी या पाकिस्तानी जिस बात पर हँसेगा, हो सकता है भारतीय लोगों को उस बात पर रोना आ जाए। आज से चार-सौ साल पहले का इंसान जिस बात पर रो देता था, हो सकता है उस बात पर आज हँस दिया जाए। एक उम्र के लोग जिस बात पर हँसेंगे, दूसरी उम्र के लोग पर उस बात का असर पड़ना नहीं है। एक सोच और विचारधारा के लोग जिस घटना को हास्यास्पद मानेंगे, दूसरी उम्र और तबके के लोगों पर उसका कोई प्रभाव नहीं होता, वो अनछुए रह जाएँगे।

हँसने की घटना तो घटती है, पर हम हँसते कहाँ हैं? घटना बाहर है, और हर घटना के समक्ष, हर घटना से मिलान करता हुआ एक मुखौटा है, जो हमारे चेहरे पर है। और सीधा-सीधा तारतम्य बैठता है; यदि ‘अ’ घटना घटेगी तो इधर ‘अ’ मुखौटा हँस देगा, यदि ‘ब’ घटना घटेगी तो इधर ‘ब’ मुखौटा रो देगा। बाहर घटने वाली प्रत्येक घटना के प्रति हमारे पास पहले से ही तयशुदा मुखौटा तैयार है। जो कहानी मैंने आपको सुनाई, वो अति प्राचीन है। वो कहानी उस दिन शुरू हुई थी जिस दिन समय शुरू हुआ था; वो धारा उस दिन उद्भूत हुई थी जिस दिन ये विश्व अस्तित्व में आया था। तब से अब तक उसने मुखौटे पहन ही रखे हैं; मुखौटों को ही चेहरा मानता है, मुखौटों की ही हँसी को हँसी मानता है, अपने-आप को पूरी तरह से भूल चुका है। आज यदि आप उससे कहें कि मुखौटों के पीछे तुम हो, तो वो कहेगा “कौन है? किसकी बात कर रहे हो?” और ये बात वो जिज्ञासा में नहीं पूछेगा, ये बात वो आक्षेप में और आक्रमण में कहेगा; ये प्रश्न उसकी जागरुकता से नहीं आएगा, ये प्रश्न उसके नकार से आएगा। वो कहेगा, “मूर्खता की बात करते हो। ये इतने सारे चेहरे तो मेरे पास हैं ही, और कौन-सा चेहरा होगा?”

इसके आगे की कहानी सुनना चाहेंगे? आगे की कहानी ये है कि उतर गए एक बार मुखौटे, तो उतर जाता है हँसने का प्रश्न भी; फिर ये मुद्दा ही नहीं बचता कि हँसना है कि रोना है, प्रश्न ही अर्थहीन हो जाता है। हँसने की ज़रूरत ही इसीलिए पड़ती है क्योंकि दुःख है। नकली होकर जीने से बड़ा कोई और दुःख होता नहीं; और जो नकली होकर हम जी रहे हैं, वो सुख की तलाश में ही जी रहे हैं। मुखौटे पहनते हैं हम, ताकि ये दिखा सकें कि हँस रहे हैं, इसी उम्मीद में कि कदाचित् इस हँसते मुखौटे से ही हमें भी किसी प्रकार के सुख का अनुभव हो जाए, हँसता मुखौटा कहीं हमें भी हँसा दे। लेकिन मुखौटा चाहे हँस रहा हो या रो रहा हो, मुखौटे को पहनना ही दुःख है; मुखौटा रो रहा है तो भी दुःख है, मुखौटा हँस रहा है तो भी दुःख ही है।

सारे मुखौटे जिस क्षण उतरते हैं, उस क्षण जो बचता है वो बुद्ध की झीनी मुस्कान है, वो अस्तित्व की सूक्ष्मतम अस्मिता है; ऐसी मुस्कुराहट जिसमें तनाव और उत्तेजना नहीं है, ऐसी मुस्कुराहट जो दुःख के फलस्वरूप नहीं आई। हमारी हँसी का तो कारण होता है; और हँसी का कारण हमेशा आँसू होते हैं। मुखौटा हँसेगा तभी, जब मुखौटे के पीछे वाला मुखौटा रो रहा हो; कारण है, सदा कारण है। जब मुखौटे उतर जाते हैं, तब जो मुस्कुराहट बचती है, वो अकारण होती है; वो अकारण होती है और शाश्वत होती है, उसके पास रुकने का या थमने का या थक जाने का कोई कारण नहीं होता। रोना तो थकान के चलते कभी-न-कभी थम ही जाता है और हँसना भी थकान के चलते कभी-न-कभी थम ही जाता है। आप निरंतर हँस नहीं सकते, जैसे कि आप निरंतर रो नहीं सकते, ये दोनों ही उत्तेजना भरे काम हैं। कोई बहुत रो रहा हो, आप उसे रोता छोड़ दें, वो स्वयं ही चुप हो जाएगा। कोई बहुत हँस रहा हो, उसे हँसता छोड़ दें, वो स्वयं ही थक जाएगा। हँसना, रोना, दोनों ही इतने उत्तेजना भरे काम हैं कि दोनों आपको सिर्फ़ थका ही नहीं सकते, मार भी सकते हैं। आप बहुत हँसें या आप बहुत रोएँ, चाहे बहुत सुख हो या चाहे बहुत दुःख हो, आप हृदयाघात से मर सकते हैं।

मुखौटों के जाने के बाद जो बचता है, उससे रुकने, थमने, थकने की ज़रूरत नहीं है। वो आपकी शाश्वत-स्थिति है, वो आपकी सहज नैसर्गिक स्थिति है, जिसमें आपको याद कुछ नहीं रखना पड़ता, जिसमें आपको किसी विशेषज्ञ के पास नहीं जाना होता, कि “हँसी भूल गया हूँ।“ वो अस्मिता कायम रहती है तब भी, जब आपको चैतन्य-रूप से पता भी ना हो कि आप मुस्कुरा रहे हैं। हो सकता है कोई और आकर आपसे पूछ दे — मुस्कुरा क्यों रहे हो? और आप कहेंगे — मैं मुस्कुरा कहाँ रहा हूँ? और इतनी तरल, इतनी महीन होती है वो मुस्कुराहट, कि उसको आम अर्थों में मुस्कुराहट कहना भी सही नहीं होगा। क्योंकि आमतौर पर तो जब हम मुस्कुराते हैं तो उसमें थोड़ा-सा तो श्रम ज़रूर निहित होता है; चेहरे की माँसपेशियाँ ज़रा खिंचती हैं, ज़रा संकुचित होती हैं, तब जाकर मुस्कुराने का एहसास होता है। एक भाव-भंगिमा है न चेहरे की? आप चाहे रोएँ, चाहे आप हँसें, चेहरे का भाव बदलता है; कुछ काम होता है, भावों का विस्थापन होता है, त्वचा, माँस खिंचते हैं, कुछ-न-कुछ स्थूल तौर पर होता है। मुखौटों के हट जाने के बाद जो मुस्कुराहट है, उसमें स्थूल तौर पर कुछ भी नहीं होता; क्योंकि हमारे लिए कुछ होने का अर्थ ही होता है बदलाव। आप अभी जैसे हैं, आपसे कहा जाए कि “मुस्कुराओ”, तो कुछ बदलेगा, कुछ होगा, कुछ खिंचेगा, कुछ सिकुड़ेगा। आप कहेंगे, “पहले मैं नहीं हँस रहा था, अब स्थिति बदली है, अब मैं हँस रहा हूँ, बदलाव आया है।“

जो नैसर्गिक मुस्कुराहट होती है उसमें कोई बदलाव नहीं होता, उसमें आप जैसे हैं हैं, और उसमें आपका वो होना ही मुस्कुराहट है, मुस्कुराने के लिए आप कोई यत्न, कोई श्रम कर नहीं रहे। आप खिले हुए फूल जैसे हैं; वो कुछ कर नहीं रहा है, वो है और उसके होने में ही मुस्कान है। चूँकि हमारे होने में मुस्कान नहीं होती, दुःख होता है, रुग्णता होती है, इसीलिए हमें बदलाव करना पड़ता है; इसीलिए हम कहते हैं, “हम अपनी स्थिति को अब अवसाद से बदल कर हास्य की तरफ़ ले जा रहे हैं।“ जो हमारा साधारण चेहरा है वो खिला हुआ नहीं है; वो दबा हुआ है। ना हँसने की जो हमारी स्थिति है, जैसे हम दिखते हैं, वो आनंद की नहीं, वो तनाव की और दुःख की है; इसीलिए हँसना फिर विशेष हो जाता है, ऐसा लगता है कुछ समय के लिए दुःख टला। और इसीलिए हमारी शिक्षा ने और सभ्यता और संस्कृति ने हँसने पर इतना ज़ोर डाला है। क्या ये स्पष्ट-सी बात नहीं है? हँसना सिर्फ़ तभी कीमती हो सकता है जब आप ना हँसने के पलों में बोझिल हों, दुखी हों या क्लान्त हों।

एक बुद्ध का चेहरा खाली और शून्य होता है, और वो शून्यता मुस्कुराती है। कृष्ण का चेहरा भरा है, पूर्ण है, और वो पूर्णता खिलखिलाती है। हमारा चेहरा ना खाली है, ना भरा है; बस आधा-अधूरा है। कभी खाली होने की कोशिश करता है, कभी पूरे होने की कयावद; ना खाली हो पाता है, ना पूरा हो पाता है। हर मुखौटा अधूरेपन की निशानी है; वो अधूरेपन का परिणाम तो है ही, अधूरेपन का सबसे बलिष्ठ प्रमाण भी है।

आपकी ज़िंदगी में यंत्रणा कितनी है, आंतरिक अधूरापन कितना है, इसका प्रमाण यही है कि आपको कितना नकली होना पड़ता है।

एक आख़िरी बात यदि हम समझ सकें -- वो सब-कुछ जो हम खुशी के लिए करते हैं वो दुःख-जनित ही होता है। हँसते हुए मुखौटे न सिर्फ़ दुःख से उठते हैं, बल्कि दुःख को और आगे बढ़ाते हैं। और इस भाव को मन से बिलकुल निकाल दें कि हँसी का अर्थ है हँसते हुए मुखौटे या हँसते हुए चेहरे। इस डर को कदापि प्रश्रय मत दें कि, "अगर मैं हँसूँगा नहीं तो मैं दुखी हो जाऊँगा।"

हँसी की चाहत से मुक्त होना आनंद है।

इस डर से निजात पाना, कि हँसे बिना तो जीवन व्यर्थ जा रहा है, दुःख से मुक्ति है। बिलकुल रवाना कर दें इस भय को कि अगर आप तयशुदा तरीकों से हँसेंगे नहीं तो जीवन से कुछ ख़ास छूट जाना है। सच तो ये है कि जब हँसते हुए मुखौटे मूल्यहीन लगने लगते हैं तो जीवन में आनंद का प्रादुर्भाव होता है; नकली हँसी के हटते ही असली मुस्कुराहट जगमगाती है। उस असली मुस्कुराहट में ना हँसने का निषेध है, ना रोने का। तब आप जितना चाहें हँस सकते हैं और जितना चाहें रो सकते हैं, और तब आप हँसते हुए भी मुस्कुराएँगे और रोते हुए भी।

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