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लेख
गुरु जो तुम्हारे नकली सत्यों को नकली दिखा दे || आचार्य प्रशांत, सहजोबाई पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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राम तजूं पर गुरू ना विसारुं।

गुरू के सम हरि को ना निहारूं॥

~ सहजोबाई

प्रश्न: गुरु को स्थान राम के भी ऊपर क्यों दिया गया है?

वक्ता: इसलिए दिया गया है क्योंकि राम तुम्हारे लिए बस नाम है। हाँ? राम तुम्हारे लिए बस नाम है। गुरु तो फिर भी एक रूप है, रंग है, आकार है। व्यक्ति है तुम्हारे लिए? अपने को भी व्यक्ति जानते हो। गुरु कम से कम व्यक्ति रूप में तुम्हारे सामने है। गुरु में कम से कम तथ्यता तो है।

राम क्या है तुम्हारे लिए?

राम तो तुम्हारे लिए बस एक कल्पना है, नाम है। राम को क्या जानते हो? कह रहे हैं, ‘ राम तजूं पर गुरू ना विसारुं।‘ राम को तज दो। अच्छा ही होगा कि राम को तज दो क्योंकि राम को तुमने पाया ही कब था? गुरु का तो काम ही यही होता है कि वो तुम्हारी धारणाएं छीन ले। ’ राम तजूं पर गुरू ना विसारुं।‘ राम को तुमने तज भी दिया तो तुम्हारा कोई नुकसान भी नहीं हो जाएगा क्योंकि राम है ही क्या तुम्हारे लिए? एक धारणा, एक संस्कार। क्या वास्तव में तुमने राम को पाया है? राम को तुमने कभी पाया नहीं था तो राम को यदि त्याग भी दोगे, तो तुम्हारा कोई नुकसान नहीं हो जायेगा क्योंकि तुमने क्या त्यागा? धारणाएं ही त्यागी हैं। जो तुम्हारे पास कभी था ही नहीं, उसको तुमने त्याग भी दिया, तो क्या त्यागा? कुछ नहीं त्यागा। भला ही होगा तुम्हारा; त्याग दो अच्छी बात है। हाँ, गुरु को त्याग दिया तो दिक्कत हो जाएगी। दिक्कत इसलिए हो जाएगी क्योंकि वो ले जा सकता था, असली तक ले जा सकता था।

यही कारण है कि फिर जो यहाँ पर सहजो कह रही हैं, वही कबीर को भी कहना पड़ा है- ‘ बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो मिलाय’। तुम अगर कहो कि मुझे गुरु और गोविन्द के बीच में चुनाव करना है, तो तुम झूठ बोल रहे हो। क्यों?क्योंकि गोविन्द तुम्हारे पास है कहाँ कि तुम चुन लो। तुम्हारे पास तो एक ही विकल्प है। गुरु को चुनो या नहीं चुनो। यही विकल्प है तुम्हारे पास। कोई यह न कहे कि मेरे पास दो रास्ते हैं। एक रास्ता जो गुरु से होकर के जाता है और दूसरा रास्ता सीधी-सीधी प्राप्ति का। दूसरा रास्ता तुम्हारे पास है नहीं। जब तुम्हें यही नहीं पता कि जाना कहाँ है, तो तुम वहाँ तक जाने का रास्ता कैसे निकाल लोगे? गुरु का काम दोहरा होता है, बड़ा मुश्किल होता है। वो तुम्हें सिर्फ़ रास्ता ही नहीं दिखाता क्योंकि रास्ता तो कोई भी दिखा देगा, तमाम मार्गदर्शक हैं। रास्ता दिखाना दो कौड़ी का काम है।

तुम यदि कहो कि तुम्हें लखनऊ जाना है, तो रास्ता तुम्हें कोई भी दिखा देगा। बहुत सस्ता काम है। गुरु का काम दोहरा है। रास्ता बताए उससे पहले, उसे तुम्हें मंजिल भी बतानी पड़ती है। तुम्हें तो मंजिल भी नहीं पता। हाँ, भ्रम तुम्हें यही है कि तुम जानते हो कि तुम्हें कहाँ पहुँचना है पर तुम्हें पता नहीं है। तुम्हें तो सब उलटी-पुलटी मंजिलों का ही पता है। किसी को शौहरत तक पहुँचना है, किसी को शरीर तक पहुँचना है, किसी को पैसे तक पहुँचना है, किसी के पास कुछ और सपने हैं। यही सब तो तुम्हारी मंज़िलें हैं। गुरु को पहले आकर तो तुम्हें बताना पड़ता है कि तुम्हारी मंज़िलें झूठी हैं और असली मंज़िल कौन सी है। फिर जब गुरु तुम्हें आकर बोल दे कि, ‘’नहीं, तुम्हारी मंज़िलें झूठी हैं और असली मंज़िल यह है।’’ तो तुम हठात खड़े हो जाते हो कि उस नई मंज़िल तक, असली मंज़िल तक पहुँचने का तो हम मार्ग जानते ही नहीं। तो मार्ग भी बताओ। समझ में आ रही है बात? इतना ही नहीं है कि रास्ता बात तो। पथ प्रदर्शक तो हज़ार मिल जायेंगे। यहाँ तो मंज़िल भी बतानी पड़ती है। विधियाँ बताने वाले तो हज़ार मिल जायेंगे पर जो लोग विधि बता रहे हैं, उन्हें अक्सर यह नहीं पता होता कि उस विधि से प्राप्त क्या होना है। बड़ी बात तो यह ही कि यह जानो कि लक्ष्य क्या है?

आत्मा परम लक्ष्य है। झूठे लक्ष्यों को छोड़ो।

तुम जिस राम को भी लक्ष्य बनाए हो, वो झूठा राम है। असली राम को कहाँ जानते हो? इसलिए संतों को यह कहने में यह कोई असुविधा नहीं होती कि राम तजूं पर गुरू ना विसारुं क्योंकि जब राम को तजते हो, तभी तो असली राम का पता चलता है। हिन्दुस्तान में तो करोड़ों राम भक्त हैं, उन्हें राम का कुछ पता है क्या? उनके लिए तो बहुत ज़रूरी है कि पहले वो राम को तजें और राम को तजेंगे नहीं क्योंकि उनके लिए राम वैसा ही है, जैसा तुम्हारे लिए तुम्हारे तमाम और लक्ष्य। जैसे तुम साधना करते हो कि नया घर मिल जाए, गाड़ी मिल जाए और दुनिया भर के और काम हो जाएँ, वैसे ही कोई और लोग हैं जो साधना करते हैं कि राम की कृपा हो जाए। और वो आँख बंद करते हैं, तो एक ही छवि राम की उनके सामने आती है: एक व्यक्ति है, कंधे पर धनुष डाल कर के अपनी पत्नी को बगल में लेकर के खड़ा हुआ है। उनके लिए यह राम है। इस छवि का नाम उन्होंने दिया है राम तो ज़रूरी है कि राम को तो तजो। तजो, ताकि असली राम तक पहुँच सको।

राम तजूं पर गुरु ना विसारुं। गुरु के सम हरि को ना निहारूं।

हरि को निहारोगे कैसे? न हरि को जानते हो। न निहारने के लिए आँखें हैं तुम्हारे पास,तो निहारोगे कैसे? हाँ, गुरु को देख सकते हो। स्थूल को देखती हैं न तुम्हारी आँखें? हरि तो सूक्ष्म से सूक्ष्म हैं, उसको कैसे देख लोगे? गुरु के साथ, जो सुविधा है तुमको, वो यह है कि

गुरु स्थूल भी है और सूक्ष्म भी है।

गुरु के साथ यही फ़ायदा है तुमको कि वो तुम्हारी पकड़ में भी है और तुम्हारी पकड़ से बाहर भी है। हरि को कैसे निहारोगे? वो तुम्हारी आँख में समाएगा कहाँ? हरि का कोई रूप है, रंग है, आकार है कि तुम हरि को निहार लो? गुरु का है। गुरु को निहार सकते हो। अच्छी बात है। सीढ़ी है न वो। रूप, रंग, दृष्टि से शुरू करता है और अ-रूप, अदृश्य में ले जाता है। तुम्हारे पास विकल्प है कहाँ, हरि को निहारने का? तो इसीलिए संतों के पास जब भी यह चुनाव आता है कि हरि को चुनूँ या गुरु को चुनूँ । वो बेख़ौफ़ होकर गुरु को चुन लेते हैं। बात समझ में आ रही है? क्योंकि हरि को चुनेंगे तो भी क्या चुनेंगे? तुम्हें हरि का पता क्या है कि चुनोगे? तो वो बेख़ौफ़ होकर उसको चुन लेते हैं, जो हरि तक ले भी जाता है। कहते हैं: छोड़ो हरि को। दुनिया लगी हुई है हरि के पीछे।

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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