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लेख
गुरु और शिष्य का रिश्ता
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांत: ''टोसुई का सिरका'' अब कहानी ज़रा ध्यान से सुनो।

टोसुई एक ज़ेन गुरु थे, जिन्होंने आश्रम के पारम्परिक ढंग के जीवन को त्याग दिया था और एक पुल के नीचे भिखारियों के साथ जीवन यापन शुरू कर दिया था। जब वे बूढ़े हो रहे थे तो उनके एक मित्र ने उन्हें भिक्षा माँगे बिना कमाने हेतु चावल से सिरका बनाने की विधि बताई। उन्होंने शेष जीवन वैसे ही सिरका बनाते-बनाते गुज़ारा। एक बार जब टोसुई सिरका बना रहे थे तब उन्हें एक भिखारी ने बुद्ध की तस्वीर दी। टोसुई ने उस तस्वीर को अपनी झोपड़ी के ऊपर लगा दिया और उसके नीचे लिखा कि "बुद्ध महोदय, ये कमरा काफी छोटा है, मैं तुम्हें अस्थायी रूप से यहाँ रहने दे सकता हूँ। मगर इसका मतलब ये मत समझ लेना कि मैं तुमसे तुम्हारे स्वर्गलोक में दोबारा जन्म लेने हेतु मदद माँग रहा हूँ।"

बेबाक और बिंदास, बेधड़क और बेख़ौफ़, ये रिश्ता है शिष्य और गुरु का, भक्त और भगवान का। डर तो तब लगे न जब स्वार्थ हो। मीठी-मीठी बातें तो तब बोलनी पड़ें न जब कुछ पाने की चाह हो। यहाँ जो भिक्षु है उसे बुद्ध से कुछ पाना नहीं है। उसका शिष्यत्व पूर्ण है। उसने बुद्ध से वास्तव में कुछ सीखा है। निष्काम शिष्य है। बुद्ध से कह रहा है- आइए, स्वागत है इस कमरे में, बहुत छोटा सा है, रह लीजिए। मेरी ही ज़िंदगी थोड़े ही है, आप कितने दिन रहेंगे यहाँ? लेकिन ये मत समझिएगा कि आपको वहाँ दीवार पर ऊपर इसलिए स्थापित किया है कि आपसे मुझे कुछ लाभ इत्यादि हो जाए।

आम भक्त खड़ा होता है भगवान के आगे कि गुरु के आगे कुछ पाने की कामना में, इसीलिए चूक जाता है। सच्चा शिष्य खड़ा होता है और कहता है- इतना कुछ तो दे दिया तुमने और माँगूँ क्या? खुद को ही उठाकर तुमने हमें दे दिया अब तुमसे और क्या माँगें? कुछ मामलों में सच्चा शिष्य परमस्वार्थी होता है। वो छोटी-मोटी चीज़ गुरु से माँगता ही नहीं है, वो क्या माँगता है? कहता है, "तुम ही आओ, पूरे आओ।" जैसे दुर्योधन ने माँग ली थी कृष्ण से नारायणी सेना। अर्जुन ने कहा, "तुम्हारी सेना वेना से मतलब नहीं हमको, तुम्हीं आओ, पूरे आओ। तुमसे कुछ नहीं चाहिए तुम ही चाहिए।"

कबीर साहब एक जगह उलाहना देते हैं, कहते हैं, "हरि तो सबको भजै हरि को भजै न कोय"। हरि सबको भज रहे हैं, हरि को कोई नहीं भज रहा। एक दूसरी जगह कहते हैं- ''प्रभुता को सब कोई भजै प्रभु को भजै ना कोय। जो कबीर प्रभु को भजै प्रभुता चेरी होय।।" हमें प्रभु नहीं चाहिए होते हमें प्रभु के माध्यम से चीज़ें चाहिए होती हैं। भई, प्रभु बलवान हैं तो अगर हम प्रभु के साथ रहेंगे तो ज़रा बल हमें भी मिल जाएगा। होता है कि नहीं? 'सी.इ.ओ' का जो 'इ.ए' होता है, 'एक्सेक्यूटिव असिस्टेंट', वो भी बड़ा आदमी माना जाता है। अब वो है कुछ नहीं, वो क्या है 'सी.इ.ओ' का? 'एक्सेक्यूटिव असिस्टेंट', पर कंपनी के बड़े-बड़े अधिकारी उससे ज़रा दब कर रहते हैं, कहते हैं, "ये किसके साथ चलता है? 'सी.इ.ओ' के साथ चलता है!" 'कलेक्टोरेट' का 'पटवारी' भी बड़ा आदमी हो जाता है क्योंकि वो किसके साथ चल रहा है? 'कलेक्टर' के। 'पीएम' तो 'पीएम' हैं, 'पीएमओ' के अफसर भी 'पीएम' जैसे ही हो जाते हैं। प्रधानमंत्री तो प्रधानमंत्री हैं, प्रधानमंत्री कार्यालय में जो छोटे-मोटे अधिकारी बैठते हैं वो भी नवाब हो जाते हैं। ये प्रभुता कहलाती है। हमें ये चाहिए होती है। अर्जुन सा मन नहीं होता हमारा कि, "कुछ ना हो तुम्हारे पास, तुमने अपना सारा बल, अपनी सारी सेना भी दुर्योधन को दे दी फिर भी हमें तो नेह तुमसे लगा है।" ऐसा नहीं कहते हम। हमें तो प्रभु तभी तक प्यारे हैं जब तक प्रभु के साथ प्रभुता है। वास्तव में हमें प्रभु से कोई लेना देना नहीं है, हम प्रभुता के आशिक़ हैं। प्रभु के दूर जाने पर हमें दर्द होता ज़रूर है लेकिन वो दर्द इसलिए नहीं है कि प्रभु दूर चले गए, वो दर्द इसलिए है कि प्रभुता छिन गई। पहले बड़ा मान मिलता था। बड़ा सम्मान, बड़ा ओहदा था कि प्रभु के साथ-साथ चलते हैं। अब वो ज़रा अखरता है। आ रही है बात समझ में?

हमारे प्यारे सिरके वाले भिक्षु को ये सब नहीं चाहिए। वो तो बुद्ध के नाम पर भिक्षा भी नहीं माँग रहा, वो क्या कर रहा है? सिरका बनाता है, सिरका बेचता है और खाता है। वो कोई उपयोग नहीं कर रहा बुद्ध का। और अध्यात्म में घटिया-से-घटिया काम ये होता है कि तुम परमात्मा के नाम का उपयोग करना शुरू कर दो। घटिया-से-घटिया!

जब संस्था बन रही थी तो उस समय आसपास के जो लोग थे उनसे मैंने कहा- दान पर कम-से-कम आश्रित रहना। सिरका बनाना सिरका बेचना। आशय समझ रहे हैं? इन हाथों से कुछ करके कमाना वही खाना। मैं बिलकुल कायल नहीं हूँ और बिलकुल सहमत नहीं हूँ कि संतजन किसी मंदिर में पड़े रहे, हाथ-पाँव हिलाएँ-डुलाएँ नहीं और बेचारे भक्तजन वहाँ आ-आकर के चंदा चढ़ाएँ और दान-दक्षिणा दें और संत-जन सिर्फ प्रवचन दें। कोई देवर्षि हैं, कोई एकर्षि है, कोई महर्षि हैं। किया कुछ नहीं ज़िंदगी भर, ज्ञान पूरा है, ज्ञान बाँटे जा रहे हैं। ऐसो को मैं कहता हूँ- "जाके पाँव ना फटी बिवाई सो क्या जाने पीर पराई"। तुमने ज़िंदगी में कभी कुछ मेहनत नहीं की, कुछ कमाया नहीं, तुम क्या जानो किसी कामकाजी आदमी का दर्द? बोलो। अरे ज़रा श्रम करो। हमारी कहानी का नायक भिक्षु वैसा ही है जैसा मैं संस्था में चाहता था। वो नहीं जा रहा है बुद्ध का नाम लेकर के कहने कि "भिक्षाम देहि"। वो क्या करता है? सिरका बनाता है सिरका बेचता है। नतीजा ये है कि न सिर्फ वो दुनिया के सामने बेख़ौफ़ है वो बुद्ध के सामने भी बेख़ौफ़ है। उसे दुनिया से तो भय लगता ही नहीं है उसे बुद्ध से भी भय नहीं लगता और आम भक्त ऐसे होते हैं जो दुनिया से भी डरते हैं क्योंकि दुनिया का दिया खा रहे हैं और भगवान से भी डरते हैं क्योंकि दुनिया से माँगते तो वो भगवान के नाम पर हैं। वो दोनों तरफ डरे-डरे घूमते हैं। वो यजमान से भी डरते हैं और भगवान से भी। आम भिक्षु यजमान से भी डरेगा और भगवान से भी। हमारा टोसुई ना संसार से डरता है ना बुद्ध से। रिश्ता प्रेम का है, रिश्ता सरल है, रिश्ता निर्भयता का है। बुद्ध से ऐसे बात करता है जैसे कोई अपने सखा से बात करे, जैसे सुदामा कृष्ण से बोले। क्या कह रहा है? "तुमको यहाँ जगह दे तो दी है अपने कमरे में पर एक बात समझना- कमरा छोटा है, पहली बात, और दूसरी बात- बहुत दिन तुम्हारी ये मूर्ति यहाँ रहेगी नहीं तो इसी से जान लो कि तुमको यहाँ इसलिए नहीं प्रतिष्ठित कर रहा हूँ कि तुम मुझे किसी स्वर्ग वगैरह में जगह दोगे भाई। अच्छे लगते हो भले लगते हो, तुम्हारा चेहरा प्यारा लगता है। तुम्हारी छवि से स्नेह है हमको तो तुमको यहाँ ले आ लिए, किसी स्वर्ग आदि की अभीप्सा नहीं है।" बात समझ रहे हो? ऐसा रिश्ता रखो। "तुमसे कुछ चाहिए नहीं।"

दो संतो की कहानी सुनी है न? एक जीवन भर ग्रंथो को पढ़ता रहा और हर शाम को ग्रन्थ को बंद करते समय प्रार्थना करता कि, "इतनी निष्ठा से, एकाग्रता से पढ़ा है, प्रभु मुझे स्वर्ग नसीब हो", और दूसरा भी एकाग्रता से पढ़ता, निष्ठा से पढ़ता और जब ग्रन्थ को बंद करता, सुलाता तो कुछ ना बोलता, वो बस पढ़ता। संयोग कि दोनों की मृत्यु करीब-करीब एक ही समय हुई। ऊपर से देवदूत आया। बताओ इन दोनों में से वो किसको स्वर्ग ले कर चला? पहले को जो रोज़ स्वर्ग माँगता था या दूसरे को जिसने कभी स्वर्ग नहीं माँगा? जल्दी बोलो।

श्रोतागण: दूसरे को।

आचार्य: (सबसे एक-एक करके पूछते हुए) जिसने कभी स्वर्ग नहीं माँगा? किसको? जिसने स्वर्ग नहीं माँगा? कुछ नहीं समझते तुम।

वो पहले को स्वर्ग लेकर चला। तो फिर तुम सब इकठ्ठा हुए, तुमने उसको रोका बोले- "रुक, तू पहले को क्यों स्वर्ग ले कर जा रहा है? दूसरे को क्यों नहीं?" बताओ देवदूत ने क्या उत्तर दिया? देवदूत बोला- "क्योंकि वो तो स्वर्ग में है ही।" जिसे परमात्मा से कुछ नहीं चाहिए वो तो स्वर्ग में है ही। उसकी तो निष्काम भक्ति थी, जिसकी निष्काम भक्ति है उसको अब हम क्या दे सकते हैं? उसे तो जो मिलना था मिल ही गया। भगवद गीता में कृष्ण इन्हीं दो भक्तियों की बात करते हैं - सकाम भक्ति और निष्काम भक्ति। वो कहते हैं सकाम भक्ति से भी मिलता है लेकिन सकाम भक्ति से तुम्हें वही मिलेगा जो तुमने चाहा और निष्काम भक्ति से तुम्हें वो मिल जाता है जो चाहत के आगे का है। सकाम भक्ति करोगे तो भी भक्ति तुम्हारी सफल रहेगी लेकिन वो तुम्हें उतना ही दे पाएगी जो तुमने माँगा, जिसकी तुमने कामना की। निष्काम भक्ति तुम्हें वो दे जाएगी जो कामनातीत है। तो स्वर्ग तो उसी को मिलेगा जिसने स्वर्ग माँगा, "चल भाई तू स्वर्ग चल", दूसरे को कहा, "इसको तो स्वर्ग चाहिए ही नहीं ये तो जीवन भर स्वर्ग में ही रहा है। जिस ग्रन्थ का ये अध्ययन करता है वो ग्रन्थ ही इसके लिए स्वर्ग है, इसे अब हम कौनसा स्वर्ग दे देंगे?" आ रही है बात समझ में?

प्रभुता के चक्कर में मत आ जाना। प्रभु से सरोकार रखना। स्पष्ट है?

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