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लेख
गुरु और सद्गुरु में क्या अंतर है? || (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
4 मिनट
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प्रश्नकर्ता: गुरु और सद्गुरु में क्या अंतर है? यदि अंतर है, तो सद्गुरु की क्या पहचान है?

आचार्य प्रशांत: कोई अंतर नहीं है।

ये वैसा ही है जैसे कोई पूछे, “सत्य और परम सत्य में क्या अंतर है?” कि कोई पूछे, "आत्मा और परमात्मा में क्या अंतर है?" कि कोई पूछे, “प्रेम और परम प्रेम में क्या अंतर है?”

गुरु के प्रति जब आपका कृतज्ञता का भाव, अहोभाव, बहुत बढ़ जाता है, तो अब गुरु को कभी, ‘गुरुदेव’ कह देते हो, कभी ‘सद्गुरु’ कह देते हो, और भी बहुत कुछ कह सकते हो। शब्द छोटा है, आप उसे और भी अलंकृत कर सकते हो।

मूल बात एक है, समझना।

गुरु यथार्थ रूप में सत्य ही है, आत्मा ही है। क्या आत्माओं की श्रेणियाँ होती हैं? क्या आत्माएँ दो होती हैं? जब गुरु आत्मा है, जब गुरु सत्य है, और सत्य एक है, और आत्मा एक है, तो गुरु दो हो सकते हैं क्या?

कभी कहते हो – “आत्मा और सदआत्मा”? कभी कहते हो – “सत्य और सदसत्य”? जब नहीं कहते, तो गुरु और सद्गुरु कहना भी कोई ढंग की बात नहीं है।

लेकिन हाँ, क्यों कहा जाता है, ये भी समझ लो।

प्रेमवश कहा जाता है, अनुग्रहवश कहा जाता है। जिससे बहुत कुछ मिला होता है, तुम उसके नाम के साथ आदरवश सूचक, संबोधन, कुछ जोड़ना चाहते हो। कुछ आगे लगाते हो, कुछ पीछे लगाते हो। कहीं उपसर्ग लगाया, कहीं प्रत्यय लगाया। कहीं ‘जी’ लगा दिया, कहीं ‘श्री’ लगा दिया। कहीं ‘श्रीमन’ लगा दिया, कहीं ‘नारायण’ लगा दिया।

ये सब बातें गुरु के बारे में कम हैं, तुम्हारे बारे में ज़्यादा हैं। गुरु तो गुरु है, पर गुरु को तुमने किस तरह से सम्बोधित किया, इससे तुम्हारे मन का पता चलता है। जब तुम गुरु को ही कहते हो, ‘श्री गुरुदेव’, तो इससे गुरु ना बड़ा हो गया, ना छोटा हो गया। इससे गुरु में कोई अंतर नहीं आ गया। लेकिन इससे ये ज़रूर पता चल गया कि तुम्हारे मन में गुरु के प्रति बड़ा अनुराग है, सम्मान है।

अब तुम कहो, “गुरु और श्री गुरुदेव जी में कौन बड़ा है?”

अरे भई, वो एक ही हैं। लेकिन तुम्हें उनसे इतना नेह था कि तुमने कहा कि ‘गुरु’ मात्र कहना उचित नहीं है, तो तुमने कहा, ”श्री गुरुदेव जी”।

दुनिया विभाजन पर चलती है, दुनिया बँटवारे पर चलती है, यहाँ हर छोटी-से-छोटी चीज़ बाँटकर देखी जाती है। है न? सब कुछ बँटा है न? जब कहते हो, “घर है”, तो घर के भीतर दीवारें होती हैं न? और दीवारें माने? बँटवारा। ‘दुनिया’ माने बँटवारा। दुनिया में सब कुछ ही अलग-अलग है।

(सामने रखी कुछ वस्तुओं की ओर इंगित करते हुए) ये गिलास है, और ये कप है। अलग-अलग हैं न? यहाँ जितने लोग बैठे हैं, वो सब लोग अलग-अलग हैं, सबकी श्रेणियाँ हैं। उनकी आयु की श्रेणियाँ होंगी, लिंग की श्रेणियाँ हैं। आदमी ने जात-पात की भी श्रेणियाँ बना दी हैं, आय की भी श्रेणियाँ होती हैं। तमाम तरह की श्रेणियाँ होती हैं।

ये संसार का लक्षण है कि वहाँ विभाजन और श्रेणियाँ पाए जाते हैं।

किसका लक्षण है?

प्र: संसार का।

आचार्य:

संसार का मतलब ही है कि वहाँ तुम्हें कोटियाँ मिलेंगी, वर्ग मिलेंगे, और विभाजन मिलेंगे। परमात्मा के दरबार में ना श्रेणियाँ हैं, ना वर्ग हैं, ना विभाजन हैं। वहाँ ‘दो’ ही नहीं हैं, तो बहुत सारे कैसे होंगे? दुनिया में बहुत सारी चीज़ें हैं। दुनिया में तुम कहोगे कि फलाने दफ़्तर में एक नीचे का कर्मचारी है, फिर उससे ऊपर का, फिर उससे ऊपर का, फिर उससे ऊपर का। ‘वहाँ’ ऊपर दो नहीं होते, ‘वहाँ’ एक है।

गुरु अगर असली है, तो गुरु सीधे-सीधे ‘उससे’ एक है। अब बताओ गुरु दो कैसे हो गए? अब बताओ कि गुरुओं की श्रेणियाँ कहाँ से आ गयीं?

कबीर साहब कहते हैं, “भाई रे, दुइ जगदीस कहाँ से आया?” वैसे ही मैं तुमसे पूछता हूँ, “भाई रे, ये गुरु और सद्गुरु कहाँ से आया?”

जब जगदीश एक है, तो दो गुरु कैसे हो सकते हैं? क्योंकि गुरु तो है ही वही जो जगदीश से एक हो गया हो। अब श्रेणियाँ कहाँ बचीं? अब विभाजन कहाँ बचा?

समझ में आ रही है बात?

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