आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
घरेलू हिंसा, बलात्कार, और वीरता भरा विरोध
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, किसी के साथ कुछ गलत हो रहा है, तो अध्यात्म से कैसे उसे रिलीफ (राहत) मिल सकता है?

आचार्य प्रशांत: राहत मिलने की बात क्या है, अगर कुछ ग़लत हो रहा है तो उस वक्त जितनी भी आपकी सामर्थ्य है, अधिकतम वो करिए।

अगर आप अधिकतम वो कर रही हैं जो आपकी सामर्थ्य है, तो उसके बाद दुःख नहीं रह जाता। आपने जब अपने आपको पूरा झोंक दिया तो फिर आपने उसको भी झोंक दिया जो बाद में पछताता।

वो भी नहीं बचा। पछताओगे तो तब न जब कोई बचेगा पछताने के लिए।

अरे भाई, लड़ाई हारने के बाद अफसोस किसको होता है? जो लड़ाई हारने के बाद भी ज़िंदा है। लड़ाई में अपने आपको पूरा झोंक दो। जो पछताता, उसको शहीद हो जाने दो। अब पछताएगा कौन? पछताने के लिए बचो ही मत; बचोगे तो पछताओगे। अगर काम सही है तो उसमें अपने आपको पूरा क्यों नहीं झोंक रहे? पूरा ना झोंकने की सज़ा ये होती है कि कुछ बच जाता है, और जो ये बच जाता है वही बाद में पछताता है।

शहीद हो जाओ, अब क्या पछताना? शहीद होने के बाद कोई पछताता है? पूरा समर्पित हो जाओ न। कुछ गलत हो रहा है तो आधा-अधूरा विरोध क्यों कर रहे हो? फिर दिल-ओ-जान से करो न। नहीं तो पछताओगे बाद में। और पछतावा याद रखो इसी बात का होता है कि, "मैंने झेल क्यों लिया? क्यों अपने आपको बचा लिया? क्यों बचा लिया?” तुम ये नहीं पछताते कि कोई और आया था तुम पर आक्रमण करने; वास्तव में पछतावा, शर्म और ग्लानि इसी बात की होती है कि तुमने अपने साथ वो सब कुछ होने दिया और तब भी ज़िंदा रहे। कुछ बहुत ही गलत हो रहा है, नहीं ही होना चाहिए, तो भेंट हो जाओ न विरोध को। नहीं?

अगर इतना बुरा नहीं लग रहा तो फिर शिकायत क्यों करते हो? अगर कह ही रहे हो कि बलत्कृत होना बहुत बुरा लगता है—और बलात्कार सिर्फ यही नहीं कि किसी स्त्री का हो गया, बलात्कार तो सब का होता है।

मानसिक बलात्कार तो सब का चल ही रहा है, शोषण तो सभी का हो रहा है, सब बलत्कृत हैं। आम आदमी का दिन में दस बार बलात्कार होता है; ऑफिस में, घर में, बाज़ार में, बस में, ट्रेन में, बलात्कार ही बलात्कार है। जहाँ कहीं भी तुम्हारी मुक्ति के विरुद्ध तुम्हारे साथ कुछ किया जाए, वही बलात्कार है। सिर्फ यौन हिंसा ही बलात्कार थोड़ी कहलाती है।

क्यों झेलते हो उस बलात्कार को? जितना झेलोगे बाद में उतना ही पछताओगे।

फना हो जाने का अपना मज़ा है, आज़माओ। सब से ज़्यादा ग्लानि कायरता की होती है।

प्र: झेलना तो कोई नहीं चाहता है, लेकिन ज़ोर ज़बरदस्ती के सामने हार माननी पड़ जाती है।

आचार्य जी: तुम उसमें शहीद क्यों नहीं हुए? उसने जो किया सो किया, वो ज़बरदस्त था; तुम इतना तो कर सकते थे कि शहीद हो जाते। क्यों बचा कर रखा अपने आपको? कायरता से बड़ा पछतावा किसी चीज़ का नहीं होता मन को।

तुम अपने आप को हर चीज़ के लिए माफ कर सकते हो, बुज़दिली के लिए नहीं।

उसका भी कारण आध्यात्मिक है। आत्मा अनंत है, अनंत उसका बल है, और आत्मा स्वभाव है तुम्हारा, अनंत बलशाली होते हुए भी तुमने क्यों कायरता दिखाई? अब कैसे माफ करोगे अपने आपको? तुम्हारी बाहों की ताकत सीमित हो सकती है पर हृदय की ताकत सीमित नहीं है।

प्र: आचार्य जी, कई महिलाएँ बच्चों के कारण घरेलू हिंसा सहती हैं, वह कहाँ तक सही है?

आचार्य जी: बच्चों के कारण नहीं सहती हैं; उसमें बहुत सारे कारक होते हैं। जिस घर में घरेलू हिंसा हो रही है, उस घर में बच्चों का क्या हित हो रहा होगा? बता तो देना। तो ये क्या तर्क है कि बच्चों के हित के लिए स्त्री घरेलू हिंसा झेल रही है?

घरेलू हिंसा अगर हो रही है तो स्त्री को ये समझना होगा कि उस घर में बच्चों का भी कोई हित नहीं है, बच्चे भी सुरक्षित नहीं हैं। वहाँ किसी का कल्याण नहीं हो सकता जिस घर में स्त्री की ही पिटाई चल रही है। तो बच्चों का भी हित चाहिए तो बच्चों को लेकर निकल जाओ घर से। ये तर्क गलत है कि बच्चों की खातिर औरत घर में मारपीट बर्दाश्त करे। ना! अगर तुम बच्चों के ही हित की बात कर रही हो तो बच्चों का हित इसमें है कि उनको लो और निकल जाओ घर से। अब बात ये आएगी कि फिर दाना-पानी कैसे चलेगा?

कमाओ। कमाओ, और नहीं कमाओगी तो पीटने वाले के आश्रित रहोगी। पीटने वाला भी तुम्हें इसी बात पर पीट लेता है कि तुम में कमाने की काबिलियत नहीं या नियत नहीं।

मुश्किल पड़ेगा लेकिन और रास्ता क्या है? भूल करी थी, गलत व्यक्ति से शादी कर ली, अब वो हर तरीके से शोषण, उत्पीड़न करता है, मारपीट करता है, तो उस भूल का खामियाज़ा तो भुगतना पड़ेगा न। वो यही है कि अब बाहर निकलो, बच्चों को लेकर बाहर निकलो, दाने-पानी की व्यवस्था करो कुछ।

प्र१: आचार्य जी, वो बात मस्तक में फिर अड़ गई कि यदि हम यौन-शोषण की ही बात करते हैं तो लड़की कमज़ोर होती है शारीरिक रूप से आदमी के मुकाबले। एक आदमी नहीं, दो-चार दरिंदे आए, उन्होंने पकड़ा, उसका यौन-शोषण किया और फिर वो ज़िंदा भी बच गई। अब वो मरेगी तो वो शहादत तो नहीं ही है, वो तो खुदकुशी ही गिनी जाएगी। वो लड़ सकती थी पर इतनी उसकी बाज़ुओं में ताकत नहीं थी।

आचार्य जी: देखिए, दो बातें हैं। जितनी ताकत थी, अगर तुमने उस पूरी ताकत से प्रतिरोध कर लिया है, तो उसके बाद पछतावा नहीं बचेगा। पछतावा, याद रखना, अपनी कायरता का होता है, किसी घटना का नहीं होता। उस घटना में अगर तुम जो अधिकतम कर सकते थे वो तुमने किया है, सच्चाई के साथ, तो तुम्हें पछतावा नहीं होगा।

प्र२: प्रतिरोध तो हर लड़की ही करती होगी, ऐसा तो नहीं है कि नहीं करती होगी, पर उसके बाद अगर ज़िंदगी रह गई तो ऐसा भी नहीं है कि वो...

आचार्य जी: ऐसा नहीं होता हमारे साथ कि हम अन्याय के विरुद्ध पूरा प्रतिरोध करें। आम आदमी की ज़िंदगी देखो, उसके साथ मैंने कहा, कदम-कदम पर अन्याय हो रहा है, तुम उसे पाते हो पूरा प्रतिरोध करते? जब वो कहीं पूरा प्रतिरोध नहीं करता तो एक ही खास मौके पर कैसे पूरा प्रतिरोध कर देगा? क्यों कल्पना कर रही हो?

दस जगह आदमी को जूते पड़ रहे हैं और वो खा रहा है, विरोध नहीं कर रहा, सर झुकाए दे रहा है। तुम्हें क्या लग रहा है, एक ख़ास मौके पर ही वो बिल्कुल सूरमा बन जाएगा? ऐसा नहीं होता है।

जिसने आदत बना ली कायरता की, उसके लिए किसी एक विशिष्ट मौके पर कायरता पीछे छोड़ना मुश्किल हो जाता है। वो आदत मत बनाओ। वीरता भी यकायक नहीं आती; वीरता भी अभ्यास मांगती है।

आपने अभी केसरी फिल्म की बात की। मैं कह रहा था कि इक्कीस नौजवान सिपाही यूँ ही नहीं भिड़ गए होंगे दस हज़ार अफगानों से। कुछ-न-कुछ उनमें विशिष्ट था, कुछ-न-कुछ उन्होंने साधा था, कुछ उनका अभ्यास था, कुछ उनकी तैयारी थी—फिल्मकार को वो तैयारी दिखानी चाहिए थी। नहीं तो आम जनता को संदेश ये गया है कि तुम कितने भी औसत इंसान हो, तुम कितने भी साधारण बंदे हो, तुम यूँ ही एक दिन अचानक योद्धा बन जाओगे। ऐसा होता नहीं है।

वो इक्कीस लोग बहुत खास रहे होंगे, और इक्कीस के इक्कीस नहीं भी तो उसमें से कम-से-कम आठ-दस बहुत विशिष्ट रहे होंगे; या तो उनका निशाना बहुत अचूक रहा होगा, या उनकी धर्म निष्ठा बहुत गहरी रही होगी, या उनका बचपन किसी खास तरीके से बीता होगा। उन इक्कीस लोगो में से कुछ लोग ऐसे ज़रूर रहे होंगे जिन्होंने बड़ी साधना करी थी, बड़ा अभ्यास किया था। वो साधना, वो अभ्यास दिखाया जाना चाहिए था। यही दिखा देते कि इक्कीस सिख हैं जो लगातार ग्रंथ साहिब का पाठ कर रहे हैं और इतनी धर्म निष्ठा है उनमें कि गुरुओं की कृपा से फिर वो एक हजारों की फौज से भिड़ गए, या दिखाया जाता कि कैसे वो निशाने बाज़ी का अभ्यास कर रहे हैं, या शारीरिक व्यायाम कर रहे हैं।

कुछ तो ऐसी बात होगी न उनमें, क्योंकि आम आदमी, औसत आदमी को तो कायरता की और एक औसत जीवन की आदत लगी होती है। उसके सामने वीरता का क्षण आता भी है तो वो उस क्षण में चूक जाता है। ये इक्कीस खास थे, ये जांबाज थे, ये चूके नहीं। पर फिल्मकार ने दिखा दिया कि नहीं ये तो साधारण सिपाही थे, मुर्गों की लड़ाई कराते थे, हंसी-ठिठोली करते थे और कोई अपनी महबूबा के गीत गा रहा है, कोई सुहागरात के सपने ले रहा है, और फिर यूँ ही जब मौका आया तो इनका पूर्ण रूपांतरण हो गया और ये भिड़ गए। ऐसा नहीं हो सकता।

फिल्मकार चूक गया है। पूरी बात दिखानी चाहिए थी। और मैं समझता हूँ कि उनकी इस वीरता में धर्म का बड़ा योगदान रहा होगा। मैं समझता हूँ कि वो बड़े धर्मनिष्ठ खालसा रहे होंगे, गुरुओं के सच्चे शिष्य रहे होंगे, इसलिए वो भिड़ पाए। फिल्म में वो बात खासतौर पर दिखाई जानी चाहिए थी ताकि नौजवानों को ये संदेश जाता कि अगर तुम भी धर्मनिष्ठ हो, अगर तुम भी गुरुओं के सच्चे शिष्य हो, तभी तुम ऐसी वीरता दिखा पाओगे अन्यथा नहीं।

अभी आम नौजवान को क्या संदेश गया है? कि तुम भी यूँ ही वर्दी छोड़ कर घूमोगे, मुर्गे की लड़ाई देखोगे, फिर मुर्गा पका के खा जाओगे, फिर महबूबा के सपने लेते रहोगे, ऐसे ही तुम्हारा भी एक साधारण औसत जीवन होगा, तब भी तुम यकायक सूरमा बन जाओगे।

यकायक कोई सूरमा नहीं बनता! सूरमाई बड़ी साधना और बड़े अभ्यास से आती है। ये आप में से जिन भी लोगों को गलतफहमी हो, कृपया इसको त्याग दें कि - "जब मौका आएगा तो दिखा देंगे!" मौके बहुत आते हैं, कुछ नहीं दिखा पाएंगे आप, अगर आपने अभ्यास नहीं किया है।

सूरमाई का अभ्यास करना पड़ता है, यही आध्यात्मिक साधना है।

जब छोटे-छोटे मौकों पर तुम कायरता दिखाते हो तो बड़े मौके पर वीरता कैसे दिखा दोगे?

वीरता का सूत्र तो एक ही होता है: उसको समर्पण। वीरता मूलतः आध्यात्मिक ही होती है।

वीरता कोई अहंकार की बात नहीं होती कि - "लड़ जाएंगे, भिड़ जाएंगे, मर जाएंगे”। अहंकार पर आधारित जो वीरता होती है वो बड़ी उथली होती है, थोड़ी दूर चलती है फिर गिर जाती है। ऐसी वीरता जो शहादत को चुन ले, वो तो आध्यात्मिक ही होगी। ये बात आप सब भी समझ लीजिए और ये बात उस फिल्मकार को भी समझनी चाहिए थी। जपजी साहिब के, नितनेम के, ग्रंथ साहिब के पाठ के दृश्य पिक्चर में होने चाहिए थे।

वीरता साधना और अभ्यास मांगती है, छोटी-छोटी बातों में पीठ मत दिखा दिया करो।

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