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लेख
गीता का गणित, और श्लोकों के सही अर्थ की विधि || आचार्य प्रशांत, भगवद्गीता पर (2023)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचर्य प्रशांत: श्रीमद्भगवतगीता अध्याय २ सांख्य योग।

निष्काम कर्मयोग की एक विशिष्टता अर्जुन को बतायी श्रीकृष्ण ने कि निष्काम कर्मयोगी भीतर की चलायमान कामनाओं से मुक्त हो जाता है। निष्कामता का अर्थ ही यही है न;मतलब भीतर जो उपद्रव मचा रहता है उसके आम आदमी के बेचैनी, लहरें, डावाडोल रहना, यह निष्काम कर्मयोगी में नहीं पायी जाती। इस पूरी बात में जो चीज़ अर्जुन को बहुत आकर्षक लगी वो है आंतरिक चंचलता से, आंतरिक अशांति और अस्थिरता से मुक्ति।

तो निष्काम कर्मयोग के विषय में अर्जुन ने उसी पक्ष को लेकर फिर प्रश्न भी करा। क्योंकि अर्जुन की जो स्थिति है वो भीतर जैसे भूकंप आया हो इतनी अस्थिरता की है। तो वहाँ से फिर आप देखेंगे तो तार्किक लगेगा की अर्जुन पूछते हैं कि ‘स्थितप्रज्ञ’ के लक्षण बता दीजिए। ‘स्थितप्रज्ञ’ होता कौन है? पूरी श्रृंखला के बीच से एक तार है जैसे— माला में फूलों के बीच एक सूत्र होता है। उसकी ख़बर रखनी ज़रूरी है नहीं तो पता नहीं चलेगा कि एक बात से दूसरी बात कैसे उद्भूत हो रही है।

तो अर्जुन ‘स्थितप्रज्ञता’ के विषय में जिज्ञासा करते हैं। इससे अर्जुन के मनोदशा का हमने कहा हमें यह पता चला कि भीतर घोर अस्थिरता है। ख़ैर, ‘स्थितप्रज्ञ’ के लक्षण इत्यादि पूछते हैं क्योंकि अभी गहराई से डर रहे हैं, कृष्ण से डर रहे हैं न, सत्य से डर रहे हैं। और सत्य माने गहराई तो किसी भी बात की गहराई में जाने से डर रहे हैं। तो ‘स्थितप्रज्ञ’ को लेकर भी एकदम जो सतही सवाल हो सकता है, वो पूछते हैं, कहते हैं, “उसका व्यक्तित्व कैसा होता है? आचरण कैसा होता है? दिखता कैसा है? चलता कैसा है? क्या बोलता है? कैसे बैठता है? यह बताइए?”

पर कृष्ण क्यों अर्जुन के सीमित प्रश्न का सीमित ही उत्तर दें? तो वो ‘स्थितप्रज्ञता’ के विषय में पूरी ही बात बताने लगते हैं। और ‘स्थितप्रज्ञ’ को कई कोणों से वर्णित करते हुए बल्कि परिभाषित करते हुए अभी हमने पिछले सत्र में देखा की अंततः कूर्म, माने कछुए का भी उदाहरण देते हैं कि ‘स्थितप्रज्ञ’ वो है, “जिसने अपनी इंद्रियों को बाहर से भीतर खींच लिया है।“ अब आज हम जो सूत्र लेने जा रहे हैं इसमें ‘कूर्मसूत्र’ की सीमा बताएँगे कृष्ण। ‘कूर्मसूत्र’ बढ़िया है कि इंद्रियाँ बाहर को भागती हैं और उसको हमने ऐसे समझा था कि ‘अहम’ है, ‘आत्मा’ है, ‘प्रकृति’ है। ‘अहम’, ‘प्रकृति’ की ओर भागता है। उसको वहाँ से वापस खींच लो।

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वश: | इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेर्भ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ||

जिस प्रकार कछुआ विविध अंगो को अपने भीतर सिकोड़ लेता है उसी प्रकार जब यह योगी इन्द्रियों को विषयों से पूर्णतया अपने भीतर लौटा लेता है तब उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित मानी जाती है।

~श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक ५८)

कछुए का अपने अंगों को अपने खोल में वापस समेट लेना हमने कहा समानार्थी है। ‘अहम’ का प्रकृति की दिशा से अपनेआप को वापस खींच लेना। तो वहाँ तक बात ठीक थी। लेकिन उस बात में अभी कुछ अपूर्णता है’। अब कृष्ण बताएँगे कि अपूर्णता क्या है ? श्लोक क्रमांक ५९:

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः । रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।

इन्द्रियों को विषयभोग से हटा लेने से भी शब्दादि विषय दूर हो जाते हैं सही, किन्तु रस या आसक्ति तो रह जाती है। स्थितप्रज्ञ का यह रस भी निवृत्त हो जाता है।

~श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक ५९)

तो कह रहे हैं कृष्ण, “जो इंद्रियों को आहार देना बंद कर देता है” सुंदर उन्होंने शब्द यहाँ पर युक्त करा है, “जो प्रकृति की ओर अब खिंचा नहीं जा रहा है जिसने अपनेआप को यह अनुमति नहीं दे रखी है कि जाकर बार-बार प्रकृति की वस्तुओं का भोग करता रहूँ।“ उसके लिए यहाँ पर एक नाम दे रहे हैं कि ‘निराहारी’। वो ‘निराहारी’ है, जैसे — कहते हैं न कि “अब वो व्यक्ति भोग से हट गया है, भोगी नहीं रहा, ‘गतभोग’ हो गया है।” ऐसे कह दीजिए ‘विगतभोग’ कह दीजिए। तो उसके लिए कृष्ण ने एक शब्द भी दिया है, ‘निराहारी’। अब वो भोग नहीं कर रहा है भोग ही तो आहार होता है न। भोगना मने आहार लेना तो अब वो भोग नहीं कर रहा है प्रकृति का।

कह रहे हैं कि जो ‘निराहारी’ हो जाता है इसके लिए एक शुभ बात यह होती है कि ये विषयों से तो निवृत्त हो गया “विषया विनिवर्तन्ते” लेकिन एक अभी अपूर्णता रह गई है बात में। प्रकृति से अपनेआप को वापस खींच लिया लेकिन कामना बनी हुई है;प्रकृति की ही। कुछ-कुछ दमन जैसा हो गया है। तो बात अभी पूरी बनी नहीं।

‘निराहारी’ बन गए, इंद्रियों को प्रकृति का आहार देना बंद कर दिया, ठीक है, भला है, इतना शुभ है। लेकिन बात अभी पूरी नहीं हुई है क्योंकि ऐसे में अभी ‘रस’ की आकाँक्षा बनी हुई है। अब यह ‘रस’ क्या बात है? यह समझना पड़ेगा और जो समझा नहीं उसको तो जो आगे जो बात कही गई है उससे बहुत बड़ा धोखा हो सकता है।

आगे कृष्ण कह रहें हैं, “लेकिन जिसको ‘परम’ का दृष्य मिल गया, माने साक्षात हो गया। जिसको ‘परम‘ का साक्षात हो गया उस ‘स्थितप्रज्ञ’ की (‘स्थितप्रज्ञ’ यहाँ पर शब्द प्रयोग नहीं कर रहे हैं कृष्ण। पर उन्हें मालूम है कि सारी बात ‘स्थितप्रज्ञ’ के बारे में चल रही है। अभी उसी श्रृंखला में है सब ‘स्थितप्रज्ञ’ की ही बात हो रही है) लेकिन जिस ‘स्थितप्रज्ञ’ को ‘परम‘ का ही साक्षात्कार हो गया। उसकी रस की आसक्ति भी समाप्त हो जाती है।“

अब यह थोड़ा सा समझने जैसा है तो कह रहे है कि विषयों से अपनेआप को वापस खींच लिया तो ठीक है चलो ‘निराहारी’ हो गए’। प्रकृति में उलझने से बच गए। यहाँ तक तो ठीक है लेकिन ‘रस’ की कामना बची रह गई। अब ‘रस’ की कामना से निवृत्त होने के लिए कह रहे हैं, ‘परमदृष्ट्वा’, ‘परम‘ का साक्षात्कार। ‘परम‘ के साक्षात्कार के बाद वो जो आकाँक्षा होती है माने जो वृत्ति होती है वो भी चली जाती है। तो ये ‘परम‘ का साक्षात्कार क्या चीज़ होती है? ‘परम‘ का साक्षात्कार क्या? ‘परम‘ का कैसे करेंगे साक्षात्कार?

इंद्रियाँ विषयों का साक्षात करती हैं वो तो ठीक है। इंद्रियाँ भी स्थूल और विषय भी स्थूल। ‘परम‘ कोई वस्तु नहीं है, स्थूल नहीं है, सूक्ष्म भी नहीं है। सूक्ष्मता की भी वो एकदम अति पर जाकर बैठा हुआ है। तो इंद्रियाँ कैसे साक्षात कर लेंगी? तो ये समझना पड़ेगा। यह न समझने के कारण ही फिर वो ग़लती हुई थी जिसके कारण बुद्ध को फिर कहना पड़ा कि “भाई तुम जिसको ‘आत्मा’ समझ रहे हो वो ‘अनात्मा’ है।“

क्योंकि जो यहाँ पर भाषा शैली है उससे ऐसा लग रहा है जैसे ‘परम‘ मने ‘ब्रह्म’, मने ‘सत्य, मने ‘आत्मा’। यह भी कोई वस्तु ही है जिनका साक्षात्कार करना होता है और इनका साक्षात्कार कर लो तो फिर जो भीतर ‘रस’ की आकाँक्षा होती है मने जो मूल बेचैनी, मूल तृष्णा होती है वो भी मिट जाती है। आशय क्या है? ‘परम‘ के साक्षात से क्या आशय है?

देखिए, एक चीज़ होती है विषयों में आसक्त होना वो सबसे नीचे की स्थिति है। उससे ऊपर की स्थिति है विषयों के निस्सारता को देख लेना। लेकिन यह दूसरी स्थिति में भी यह देखा किसको है? अभी विषयों को ही देखा है। जो उच्चतम माने तीसरी स्थिति होती है, वो ‘ब्रह्मदर्शन’ की होती है।

वो क्या होती है?

यह बहुत-बहुत-बहुत ध्यान से समझिए नहीं तो बड़ी चुक हो जाएगी। वो तीसरी स्थिति होती है: “वो होती है विषय और विषयता को एकसाथ देख लेना, वही ‘ब्रह्मदर्शन’ है।“ ‘ब्रह्मदर्शन’ का मतलब ‘ब्रह्म’ का दर्शन नहीं होता। ‘ब्रह्म’ का साक्षात्कार माने कोई ‘ब्रह्म’ नहीं घूम रहा उसका साक्षात्कार आप कर लेंगे।

‘ब्रह्म’ का साक्षात्कार माने दृश्य और द्रष्टा को एकसाथ देख लेना। जिसने दृश्य और द्रष्टा को एकसाथ देख लिया उसने ‘ब्रह्म’ को देख लिया।

सबसे नीचे क्या स्थिति है?

स्वयं को तो देख ही नहीं रहे दुनिया को देख रहे हो और दुनिया के प्रति भी दृष्टि क्या है? भोग की। ठीक है, दुनिया का आहार कर लूँ। यह सबसे गिरी हुई स्थिति है, पतित स्थिति है एकदम। उससे ऊपर की स्थिति किसकी है? कछुए की है।

कछुआ क्या करता है? कछुआ इतना समझने लग गया, थोड़ी-थोड़ी उसकी आँख खुलने लग गई है, इतना सुनने लग गया है कि “बाहर की ओर अगर अपने अंग पसारूँगा तो कोई आकर के हानि कर जाएगा।“ भई कछुआ भीतर को तभी आता है, जब समझ जाता है कि बाहर दुश्मन है कोई आकर कुछ तोड़फोड़ कर देगा, काट-कूट लेगा तो बाहर सिर्फ़ ऐसा नहीं है कि भोग का रस ही मिलना है। बाहर बहुत ख़तरे भी हैं।

ऐसे जो जानने लग जाता है वो थोड़ा सा ऊपर की दूसरे तल की स्थिति में आ जाता है। लेकिन बाहर ख़तरे इतना तो जान गया है लेकिन अभी भी जो उसकी क्षुधा थी आंतरिक वो मिटी नहीं है। और बाहर को फेंका तो उसको भीतरी क्षुधा ने था न। तो बाहर की ओर जाना तो बाद में आता है जो भीतरी तड़प, प्यास, बेचैनी जो भी गई होती है वही तो पहले आती है न। वो न आयी होती तो बाहर को कोई जाता काहे को।

कछुए ने बाहर को मुँह क्यों निकाला या हाथ पाँव काहे को निकाले थे इसलिए निकाले थे न भीतर उसको कुछ उसको कचोट रहा था बुरा लग रहा था तो उसने कहा, “बाहर जाकर देखें, क्या पता! कुछ मिले बढ़िया” तो भीतरी जो समस्या है वो पहले आती है जो दूसरे तल पर आ गया उसको बस इतना ही पता चला इससे ज़्यादा कुछ नहीं कि उस भीतरी समस्या का समाधान बाहर नहीं है।

लेकिन वो अभी भी यह नहीं जानता की भीतरी समस्या का समाधान वास्तव में कहाँ है? वो ये नहीं जानता। बस ये समझ गया है और यह बड़े धन्यवाद की बात है, बड़ी ग़नीमत है ये। कोई छोटी चीज़ नहीं है इतना ही समझ में आ जाए कि बाहर नहीं है। तो वो बहुत ज़्यादा नुकसान खाने से बच जाएगा। क्योंकि बाहर घूमता तो बहुत ही लूटता, उतना नहीं उसको नुकसान होगा। लेकिन वो अभी भी यह नहीं जानता कि समस्या क्या है?

तो बाहर से भीतर को आ जाएगा इसबात के लिए तो वो कृतज्ञ भी अनुभव करेगा कि बच गए; बाहर न जाने क्या हो जाता! लेकिन इस बात को लेकर के उसमें एक उदासी रहेगी कि समस्या हल नहीं हुई बच तो गए बाहर पता नहीं क्या हानि होती है; उससे बच गए लेकिन जो भीतर समस्या थी वो तो हल नहीं हुई। कृष्ण यहाँ कह रहें हैं कि ‘परम‘ के साक्षात्कार से वो समस्या हल हो जाती है।

‘परम‘ का साक्षात्कार क्या?

‘परम‘ का साक्षात्कार यह है कि “आप इतना तो जानो ही कि समस्या बाहर जाने से हल नहीं होती। आप यह भी जान जाओ कि जो भीतर बैठा है बस वही समस्या है।“ एक है बस इतना जानना कि बाहर जाने से समस्या हल नहीं होती और एक है उससे आगे बढ़कर के वो तीसरा ऊँचा तल है। एक है उससे आगे बढ़ करके यह भी जान लेना कि जो भीतर बैठा वही समस्या है। और वो इतना मूर्ख, कहिए तो मूर्ख, चालाक कहिए तो चालाक है कि वो समस्या ख़ुद है और समाधान के लिए बाहर को भागता है। यह हमारे भीतर बैठा है जो ऐसा मूरख है कि समस्या वो स्वयं है और समाधान के लिए ख़ुद ही बाहर को भागता है। जैसे कोई बैठकर के ठाने हो, ख़ुद को ही मूर्ख बनाने की।

तो ‘ब्रह्म’ दर्शन इतनी ही बिलकुल छोटी सी बात होती है इतनी साधारण बात होती है कि हमारे लिए बहुत आसान हो जाता है उसकी उपेक्षा कर देना उससे चूक जाना या यह कह देना कि नहीं, नहीं ‘ब्रह्म’ तो अनंत है। तो ‘ब्रह्म’ को तो बहुत विराट और बड़ी बात होना चाहिए। यह इतनी छोटी सी बात में ‘ब्रह्म’ कैसे समा सकता है। लेकिन इतनी सी छोटी-सी बात और कुछ भी नहीं है।

देखिए, जब आप दोनों को एकसाथ देखने लग जाते हैं तो जो बाहर विषय है और भीतर जो विषयेता है या बाहर जो दृश्य है और भीतर जो द्रष्टा है दोनों को एकसाथ देखने लग जाते हैं तो समझिए क्या देख लिया आपने—बाहर और भीतर वाले को मिलाकर के संयुक्त नाम क्या दिया जाता है; देखने वाले और दिखने वाले को मिला दो दोनों के लिए एक साझा नाम क्या होता है, ‘प्रकृति’।

प्रकृति है न जिसमें दृश्य, द्रष्टा दोनों हैं तो अगर आप दोनों को एकसाथ देखने लग गए तो माने आप प्रकृति के ही द्रष्टा हो गए। दो द्रष्टा होते हैं। अच्छे से समझिएगा। एक द्रष्टा होता है कि मैं अपनेआप को ‘मैं’ समझ रहा हूँ और मैं इसको देख रहा हूँ। मैं अपनेआप को द्रष्टा बोलता हूँ। मैं द्रष्टा हूँ, इसको देख रहा हूँ। अब यह जो दोनों एक-दूसरे को देख रहे हैं दोनों प्रकृति के ही क्षेत्र में हैं ठीक है। यह ऐसे ही है द्रष्टा, यह झूठा सा द्रष्टा है।

अध्यात्म में वास्तविक द्रष्टा वो होता है जो यहाँ ऊपर बैठ गया है(ऊपर की तरफ़ हाथ करते हैं) और देख रहा है कि यहाँ देखने की प्रक्रिया चल रही है। और ये जो प्रक्रिया चल रही है यह वास्तव में झूठी सी प्रक्रिया है कुछ देखा नहीं जा रहा है। वास्तविक देखना है जब यहाँ ऊपर से देखा जाता है। इन दोनों को देखा जाता है एकसाथ देखा जाता है। उस विशेष कोटि के देखने को फिर ‘साक्षी’ कह देते हैं। वो साक्षीत्व है।

जब आप नीचे से देखें तो वो साधारण देखना हुआ उसको हम कहते हैं कि यह जो द्रष्टा है वो दृश्य को देख रहा है। और जब आप ऊपर से दृश्य द्रष्टा को एकसाथ देखते हैं तो कहते हैं आप ‘साक्षी’ हो गए। तो यह जो ‘साक्षी’ होना है यही ‘ब्रह्म’ का दर्शन है। ‘ब्रह्म’ का दर्शन माने क्या क्या देख लिया?

आपने कोई खास ‘ब्रह्म’ जैसी चीज़ देख ली, नहीं! ‘ब्रह्म’ कोई चीज़ नहीं है। कोई न कह दे कि मैंने परमात्मा को देख लिया, ‘ब्रह्म’ को देख लिया है, सत्य को देख लिया है, मैंने कुछ ये देख लिया है, वो देख लिया है। ‘ब्रह्म’ का दर्शन माने इतना ही होता है कि आपने अपनेआप को देख लिया। मैं क्या है? आप कौन हैं? आप कोई बहुत ख़ास, कोई अजीबोगरीब तिलिस्मी चीज़ है भीतर जो अपनेआप को आपने देख लिया, कोई लोग जो बोलते हैं न कि मैंने आत्मदर्शन कर लिया या मैं ख़ुद को तलाश रहा हूँ या मैंने स्वयं को पा लिया तो उनका आशय जो है वो बड़ा ही अजीबोगरीब होता है ऐसा लगता है वो न जाने कौन सी पारलौकिक चीज़ की बात कर रहे हैं। उसमें कुछ पारलौकिक नहीं है। वो पूरा मामला एकदम सहज, सरल है।

दुनिया को आप कैसे देख रहे हो ये आपने देख लिया बस यही ‘ब्रह्मदर्शन’ है। इतना सरल है। आप अपने आप से हटकर अपनेआप को देख पाए। आप स्वयं को देख पाए ऐसे जैसे, किसी और को देख रहे हैं, यही ‘ब्रह्म’ का दर्शन हो गया। इतना आसान है।

चूँकि इतना आसान है इसीलिए हमारी नज़र इससे बार-बार चूकती रहती है। कुछ कठिन चीज़ होती, कुछ मामला जटिल होता, शायद हमारे लिए आसान हो जाता है। क्योंकि मन चूँकि स्वयं जटिल होता है, इसीलिए वो जटिलताओं को ही मूल्य देता है। जटिलताओं की ही तलाश करता है। ‘ब्रह्म’ से हम इसीलिए अनभिज्ञ रह जाते हैं, क्योंकि वो जटिल है ही नहीं। वो हमें इसलिए नहीं पकड़ में आता क्योंकि बहुत मुश्किल है। वो इसलिए हमको नहीं मिलता क्योंकि वो बहुत आसान है।

तो छह-आठ साल पहले ऋषिकेश में जब ‘मिथ डिमोलिशन टूर’ हुआ करते थे तो उसमें हमने पोस्टर बनाया था:यू आर नॉट मिसिंग द सीक्रेट, यू आर मिसिंग द आब्वीअस।

वो गीता का यही सूत्र है। उसको देखकर कोई कहेगा नहीं कि अच्छा! गीता का सूत्र है वो गीता का ही सूत्र है।

उद्धरण मात्र तब नहीं होता जब आप श्लोक को जैसा का तैसा उठाकर रख दें तो “मैंने उद्धृत कर दिया” श्लोक को आप बिलकुल खा पी लें श्लोक आपकी साँस बन जाए श्लोक, आपकी नसों में ख़ून बनकर दौड़े, फिर आप जो बोले वो भी श्लोक ही होता है वो भी गीता का ही उद्धरण होता है। बस वो अलग तरीक़े से अभिव्यक्त किया गया होता है। यू आर नॉट मिसिंग द सीक्रेट, यू आर मिसिंग आब्वीअस। ‘ब्रह्म’ इतना सरल है कि हम उसको सामने देखकर भी आगे बढ़ जाते हैं, ‘नहीं! ये नहीं हो सकता इतना सरल कैसे हो सकता है!’

इसी तरीक़े से हमलोग जब मैक्लोडगंज में थे तो मैंने एक ट्वीट करा था कि “अगर अवतार कोई आ जाए तो वो कौन से लोग हैं जो उसे बिलकुल ही नहीं पहचान पाएँगे? उत्तर था: धार्मिक लोग।“ समझ रहे हैं बात को। क्योंकि उनकी दृष्टि तलाशेगी किसी विशेष को। जो उनकी अपेक्षाओं पर खड़ा उतरता हो उनके पास कोई जादुई, तिलिस्मी, पराभौतिक शक्तियाँ इत्यादि हो, कुछ ऐसा हो, वैसा हो। और वो होगा बिलकुल साधारण, सहज, सरल। तो वो आपको दिखायी ही नहीं पड़ेगा। यूँही थोड़े ही सत्य को निर्विशेष कहा गया है।

‘निर्विशेष’ का अर्थ है कि आप जिन गुणों की तलाश कर रहे हैं वो आपको उधर नहीं मिलेंगे। आप जो छवि बनाए बैठे उससे मेल नहीं खाता है इसलिए हम चूक जाते हैं।

तो क्या है ‘ब्रह्म’ का साक्षात्कार?

इन दोनों को एकसाथ देख लेना। कछुए ने जो बाहर का ख़तरा था उसको तो देख ही लिया और उसको देखकर के अपने अंगों को भीतर समेट लिया। वहाँ तक ठीक है, कोई ग़लती नहीं करा कछुए ने। बिलकुल ठीक करा कछुए ने। लेकिन अभी तक जो करा वो पूरा नहीं करा। जो करा जितना ठीक करा पर पूरा नहीं करा। पूरा कब होगा? जब कछुआ ये भी देख ले कि किस कारण से सर्वप्रथम उसने अपने अंग बाहर फैलाए थे वो कौन बैठा है भीतर? जो उसे बार-बार बाहर को फेंकता है।

जब कछुए ने इन दोनों को देख लिया बाहर के ख़तरे को भी देख लिया और भीतर के ख़तरे को भी देख लिया। ये भी देख लिया कि भीतर का जो ख़तरा है प्राथमिक है। भीतर कई ख़तरे के कारण आदमी बाहर की दुनिया में इतना लतियाया जाता है, इतने दुख पाता है। जैसे ही इन दोनों को एकसाथ देख लिया। वैसे ही ‘परम ‘ का साक्षात्कार हो गया। ये बात एकदम स्पष्ट रखिएगा। ठीक है।

'परम' माने कोई विशेष विषयवस्तु, अनुभव, दृश्य अलौकिकता आदि नहीं होते। ठीक है।

और ‘परमब्रह्म’ का साक्षात होने पर ‘स्थितप्रज्ञ’ की वो जो भीतर रसवृत्ति होती है, रसना बोलते हैं उसको रसना जैसे वासना होती है न वैसी रसना। वो रसना भी फिर चली जाती है। क्यों चली जाती है? क्योंकि वो पलती ही प्रकाश माने बोध के अभाव में है। जबतक तुम नहीं जानते कि किसको रस लोभ हो रहा है तबतक भीतर वो रसिक कुलबुलाता ही रहेगा। वो कहेगा रस चाहिए, रस चाहिए।

समझ रहे हो?

जैसे ही उसको जान गए वैसे ही उसकी रसना समाप्त हो जाती। वही समाप्त हो जाता है तो रसना कैसे। इसी को दूसरे तरीक़े से ऐसे कहते हैं कि “जब दोनों को एकसाथ देख लिया तो रस की प्राप्ति हो गई।“ या तो ये कह दो कि रसना समाप्त हो गई या कह दो रस की प्राप्ति हो गई दोनों एक ही बात है। माने दोनों एक इस तरीक़े से कि दोनों के ही बाद रस की तृष्णा नहीं बचती। कह दो या तो रस मिल गया तो भी तृष्णा मिट गई या ये कह दो कि अब रस नहीं चाहिए तो भी तृष्णा नहीं। स्पष्ट हो रही है बात।

तो दुनिया से अपनेआप को खींचने भर से लाभ नहीं होगा। ये भी समझना पड़ेगा कि दुनिया की ओर मुझे फेंकने वाला कौन है? और वो सारी प्रक्रिया एक ही फ्रेम में देख लेनी होगी। अलग-अलग नहीं, एक ही पल में देख लेनी होगी। जैसे— आँख देख रही हो और आँख को दो चीजें एकसाथ दिखाई दे रही हों। कभी अंदर देखना, कभी बाहर देखना इस प्रकार का विभाजित कार्यक्रम तो फिर भी कई लोग चला लेते हैं लेकिन उससे बात बनती नहीं है। विशेषकर बाहर वाला कार्यक्रम चला पाना अपेक्षतया आसान ही होता है। और बहुत लोग कर भी ले जाते हैं। फिर बैराग के गीत गाते हैं न दुनिया बेकार है,“ये दुनिया, ये महफ़िल मेरे काम की नहीं।“ वहाँ तक तो फिर भी आसान होता है।

यहाँ तक भी लोग कर ले जाते हैं कभी-कभार कि फिर अपनेआप को देख ले। बोले कि “मैं कितना मूरख हूँ, मैं बाबरा हूँ, मैं इतना ख़राब हूँ।“ लेकिन इन दोनों चीज़ो को एकसाथ देखना कि “मैं जैसा हूँ, मेरा ही प्रक्षेपण ये विश्व है और मैं भूखा हूँ इसलिए विश्व ख़तरनाक है। मैं जो हूँ। मैंने ही ये दुनिया जो है अपने चारों ओर रच रखी है जादूगर के जाल की तरह।“ जैसे, कहते है न मकड़ी के भीतर से मकड़ी का जाल निकलता है न। वैसे आदमी ने दुनिया रच रखी है।

‘मैंने ये दुनिया रच रखी है’ और चूँकि ‘मैं भूखा हूँ’ इसीलिए ये दुनिया मेरे लिए घातक है। ये दोनों चीजें एकसाथ हैं। ये भीतर बाहर एकदम पर्याय हैं एक-दूसरे के समानार्थी हैं, प्रतिबिंब है। इनमें कोई अंतर नहीं है। जैसे भीतर की ही बात को दूसरी भाषा में कह दिया गया हो तो बाहर का निर्माण हो गया हो।

जैसे— गणित की भाषा बोलूँ तो जैसे सीरीज़ होती हैं, मैक्लुरिन सीरीज़ सुना होगा आपने। उसको आप सीधे-सीधे एक वेरिअबल में भी एक्सप्रेस कर सकते हो और आप उसी को एक्सपैंड करके इनफ़ाइनाइट नंबर ऑफ़ वेरिअबल से भी एक्सप्रेस कर सकते। उदाहरण के लिए, sin (x) (साइन एक्स) है। आप उसको चाहो तो बोल दो sin(x) या फिर बोल दो वन 1-x2/2x3/3 इसी तरह होता है। (अब क्या होता है बता दो, लोग कहेंगे उल्टी गणित पढ़ा रहे हैं ।)

अब वो एक इनफ़ाइनाइट सीरीज़ हो गई। वो है क्या? है sin (x) (साइन एक्स) ही। लेकिन वो उसको दूसरे तरीक़े से देखो तो वो इनफ़ाइनाइट नंबर ऑफ़ डिस्क्रीट आइटम्स का एक सम बन गया। (मैक्लुरिन एक्सपेंशन देखो sin (x) (साइन एक्स), tan x (टेन एक्स) किसी का भी या ex (इ टू द पावर एक्स) का किसी का भी।) ये है जैसे इसको समझ जाओगे अगर जो लोग थोड़ा सा भी गणित की ओर से आते हैं, तो उन्हें पूरी बात समझ में आ जाएगी। अब ये है जैसे cos(x) है ये ठीक है।

cos(x) =1 –x2/2! + x4 /4!–x6 /6! +.. ऐसे कर-कर के इनफ़ाइनाइट नंबर ऑफ़ टर्म्स। ये जो इनफ़ाइनाइट नंबर्स ऑफ़ टर्म हैं या तो इनको ले लो एकसाथ या इन्हीं ले लिए एक शब्द बोल दो क्या cos(x) इस तरह से sin(x) का दूसरा एक्स्पैन्शन होता है ex =1+ x + x2 /2! + x3 /3! +…..+ xn/n!.. अब या तो बोल दो ex या बोल दो इनफ़ाइनाइट नंबर ऑफ़ टर्म्स। लेकिन इन दोनों के बीच में क्या लगा हुआ है एक ‘=’(इज़ इक्वल्स टू) तो भीतर की ओर देखो तो एक दिखाई देगा ‘मैं’।

‘मैं’ को बोल दो ex (ई टू द पावर x) और वही ‘मैं’ बाहर क्या बन जाता है? इनफ़ाइनाइट नंबर ऑफ़ टर्म्स

तो बाहर ये जो प्रकृति अनंत बिखरी हुई है जिसमें विविध विषय हैं। ये कुछ नहीं है। ये भीतर की चीज़ का बाहर ही एक्सपैंशन (विस्तार) है। भीतर बैठा ex और वही बाहर एक इनफ़ाइनाइट एक्सपेंशन (अनंत विस्तार) बन जाता है। या भीतर बैठा है sin (x) या cos (x) जो कि बाहर एक इनफ़ाइनाइट एक्सपैंशन बन जाता है। लेकिन बाहर आप जब भी देखते हो तो उस इन्फिनिटी को एकसाथ नहीं देखते हो। उसके आप छोटे-छोटे टुकड़े देखते हो। आपने x2/2! (एक्स स्क्वॉयर बाइ टू फेक्टोरियल) देख लिया। तो फिर आपको ये नहीं दिखाई पड़ता कि वो और आप एक हो।

जो पूरे को देख लेता है उधर बाहर वो जान जाता है वो सब कुल मिलाकर मामला वही है जो इधर है। तो जब इधर का ही मामला बाहर है तो बाहर की कोई चीज़ इससे (अपने शरीर की ओर इशारा करते हैं) बड़ी कैसे हो सकती है? भाई, वो जो पूरी इन्फ़ाइनाइट टर्म्स हैं उन सबको ले लो। 29:42 जितनी सीरीज़ सबकुछ ले लो। वो पूरा टोटल भी कर दोगे तो क्या वो भीतर की वस्तु से बड़ा हो जाएगा।

तो भीतर की वस्तु अगर कहती है, “मैं अपूर्ण हूँ। अधूरी और भूखी हूँ। तो क्या बाहर का कुछ भी आकर उसको पूरा कर सकता है। बाहर का तो जो कुछ है वो कुल मिलाकर भी भीतर के बराबर ही है। समझ में आ रही बात। इसी बात को बाहर की टोटैलटी को एकसाथ देखना और भीतर वाले को ऊपर से देख लिया और देख लिया की इनके बीच तो = (इक्वल टू) लगा है, ये ‘ब्रह्म’ दर्शन है। ये जो इक्वेशन (समीकरण) है ये ‘ब्रह्म इक्वेशन’ है।

आप देख लो बस कि ये जो भीतर ex बैठा है और बाहर ये जो इनफ़ानाइट डायवर्सिटी है इनके बीच में इक्वल (=) का साइन है। और यही वेदान्त की पूरी दुनिया को विशिष्ट भेंट है। ये इक्वालिटी पूरी दुनिया के दार्शनिकों में से किसी को कभी नहीं समझ में आयी। “अहम् ब्रह्मास्मि।” “अयम् आत्मा ब्रह्म।”

ex =1+ x + x2 /2! + x3 /3! +…..+ xn/n!+ भीतर का सत्य और बाहर का सत्य एक है। और भीतर का असत्य और बाहर का असत्य भी— तो भीतर अगर अहंकार है तो बाहर संसार है।

ये क्या हुआ? किन दो की बराबरी करी हमने? जल्दी बोलो। भीतर के असत्य और बाहर के असत्य की बराबरी करी। भीतर का असत्य और बाहर का असत्य बराबर है। तो हम बोलेंगे भीतर अगर अहंकार तो बाहर—(संसार) और भीतर का सत्य और बाहर का सत्य भी एक बराबर है। तो भीतर अगर आत्मा तो बाहर ‘ब्रह्म’।

नहीं समझ में आ रही बात?

भीतर अहंकार तो बाहर;(संसार) और तब इक्वेशन क्या बैठेगी? इ टू दी पावर एक्स इक्वल टू वन प्लस ये क्या है? भीतर अहंकार बाहर—(संसार) और ex =1+ x + x2 /2! + x3 /3! +…..+ xn/n!+ सत्य कब आता है जब आप x को आप वैल्यू दे देते हो ज़ीरो की। अब इक्वेशन में क्या बचा? भीतर भी दबाव e0 (e टू द पावर ज़ीरो) कितना होता है? e0 =1

और x का वैल्यू वन करते ही बाहर का भी पूरा एक्सप्रेशन क्या हो गया? एक और एक मिल गए; एक बराबर एक। कोई दूसरे का कोई सवाल नहीं। “एक रहा दूजा गया, दरिया लहर मिटाए।“ सब ख़त्म। समझ में आ रही बात।?

जबतक फैले हुए तब बाहर का झूठ भीतर का झूठ है। जब समेट लिया तो बाहर का सच भीतर का सच। यही ‘ब्रह्म’ का दर्शन है और कुछ नहीं है। और यही वेदान्त की विशिष्टता है। “अहम् ब्रह्मास्मि” इधर जो है वही बाहर है और इधर वो घनीभूत होकर बैठा और अपनेआप को बोलता है। बस एक ही शब्द में क्या बोलता है? क्या बोलता है? ‘मैं’ और बाहर वही जो ‘मैं’ है, वो क्या हो जाता है? हज़ार टुकड़ों में बिखर जाता है।

जैसे कि पैरलल मिरर्स के बीच में आप जब खड़े होते हो तो क्या होता है? कभी किसी कपड़ों की दुकान के चेंजिंग रूम में जाओ और वहाँ पैरलल मिरर्स के बीच में खड़े हो तो क्या होता है? वो जो एक होता है वो है वो एक ही पर उसके कितने फिर आपको दृश्य दिखाई पड़ते हैं। कितने? जब दो पैरलल मिरर्स के बीच कोई ऑब्जेक्ट रख दो तो कितनी इमेजेस क्रिएट होती हैं। मल्टीपल में भी कितनी? इनफ़ाइनाइट । वो जो पैरलल मिरर फेनोमेनन है उसको संसार कहते हैं। उसके मध्य में ‘मैं’ बैठा है। पर ‘आत्मज्ञान’ के अभाव में वो पूरा संसार बन जाता है।

तो एक-एक चीज़ जो आप बाहर देख रहे वो आप हैं। इसमें बहुत लोग यहीं पर आकर के एकदम टाइट हो जाते थे। तो खोपड़ा घूम गया हमें नहीं समझ में आ रहा है कि बाहर ये जो कुर्सी रखी हुई है वो ‘मैं कैसे हूँ।‘ तो फिर अभी इतनी इतनी, इतना दिमाग मत लगाओ। अभी इतना दिमाग मत लगाओ। इतना मत बोलो। अभी बस यही समझ लो कि पदार्थ के तौर पर नहीं तो अर्थ के तौर पर ये दुनिया तुम्हारी रची हुई है।

जब तुम कहते हो कि ‘वो कुर्सी मैं कैसे हूँ?’ तो तुम पूछना चाहते हो वो पदार्थ मैं कैसे हूँ? वो समझना मुश्किल हो जाएगा। वो आगे की बात पर अर्थ के तौर पर, पदार्थ के तौर पर नहीं। अर्थ के तौर पर ये जान लो कि उस कुर्सी को जो अर्थ दिया तो तुमने दिया न। ये समझना तो आसान है न। वो जो कुर्सी वहाँ रखी हुई है;आपके लिए उसका जो अर्थ है आपके बच्चे के लिए वो अर्थ नहीं होगा।

क्या होगा? दो-एक तरह की कुर्सी है, पर एक पर किसी दिन कोई राष्ट्रपति आकर बैठ गए, आपके लिए उस कुर्सी का अर्थ बदल गया। पदार्थ तो वही पुराना है पर अर्थ बदल गया तो वो अर्थ किसके लिए बदला— आपके लिए बदला न। कोई और आए उसके लिए नहीं बदला। तो अभी इतने से ही आप संतोष कर लीजिए सोचकर कि दुनिया को अर्थ तो आप ही देते हैं। और जब आप और अंतरर्गमन करेंगे आगे बढ़ेंगे तो ये भी समझ में आएगा कि जगत को पदार्थ भी आप ही देते हैं। जगत को अर्थ आप देते हैं इससे शुरुआत करिए जानने से और जगत को पदार्थ भी आप ही देते हैं। ये बात हम बाद में देखेंगे।

अभी इंद्रियों पर एक बात आगे चल रही है। साठवें–इकसठवें श्लोक दोनों में इंद्रियों पर अभी क्या बात करी थी बाहर से उनको भीतर खींचना ज़रूरी है। फिर कहा बाहर से भीतर खींचने पर भी थोड़ी सी कहानी अभी अधूरी रह जाती है। तो अब कह रहे हैं:

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चित:| इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मन:।।

हे कुन्तीपुत्र अर्जुन, निश्चय ही बलवान इन्द्रियाँ यत्नशील विवेकी पुरुष के भी मन का बलात् हरण कर लेती हैं।

~श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक ६०)

“कौन्तेय दृढ़ होकर के इन बलवान इन्द्रियों को यत्न करके जो विवेकी पुरुष है ये इंद्रियाँ उसका भी प्रसभं मन हर तो लेती ही हैं। कुन्ती पुत्र ये इन्द्रियाँ इतनी बलवान हैं कि जो बहुत यत्नशील व्यक्ति है। जो अपनी ओर से बड़ा दृढ़ संकल्पी साधक है। ये उसके मन को भी खींच तो ले ही जाती हैं। इन इन्द्रियों में बड़ी जान है अर्जुन”

ये क्यों कह रहे हैं।?

और कभी भी आप इस श्लोक को उद्धृत करें तो इसके साथ में क्या याद रखना है? क्योंकि सिर्फ़ यही श्लोक उद्धृत कर देंगे तो बात फिर वही ‘कूर्मसूत्र’ की तरह आधी रह जायेगी। जब भी इसको उद्धृत करें तो याद रखना है कि इंद्रियों का निग्रह आधी कहानी मात्र है। इंद्रियों को बेलगाम नहीं छोड़ देना है संसार में वो तो ठीक है। लेकिन इंद्रियों भर को अंकुश देने से, लगाम लगाने से बात बनने वाली नहीं है। बात कब बननी है? जब अंदर बाहर दोनों का अवलोकन एकसाथ कर लिया। एकसाथ। तब बात बन जाती है। वही है ‘परम‘ का दर्शन, साक्षात्कार।

फिर इंद्रियों पर ही आगे कह रहे हैं: तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः। वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।

इस कारण आत्मनिष्ठ योगी को उन इन्द्रियों को संयत करके समाहित होकर अवस्थित रहना चाहिए, क्योंकि जिसकी इन्द्रियाँ वश में है उशकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित है।

~श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक ६१)

कि इसीलिए जो मुझमें पारायण है माने जो मात्र मेरा प्रेमी है। माने जिसकी कामना एकमुखी हो गई है। जो अब प्रकृति की ओर नहीं देख रहा। जो कह रहा है कि आत्मा मात्र ही चाहिए। वो तीन याद रखना है हमेशा ‘अहम’, ‘प्रकृति’, ‘आत्मा’। तो ‘मत्पर:’ माने जो मात्र मुझे देख रहा है।

‘मैं’ कौन है यहाँ पर?

आत्मा, ‘कृष्ण’, सत्य।

तो जो मेरा ऐसा एकांत प्रेमी है। वो सब उन सबको, उन सब इन्द्रियों को संयत करके। उसके लिए उचित है कि इंद्रियों को समाहित करके अवस्थित रहे। जो सिर्फ़ मुझे चाहता हो;’मत्पर:’ उसके लिए यही सही है कि वो अपनी इंद्रियों को स्वयं में समाहित रखे ठीक वैसे जैसे— कछुआ रखता है, क्योंकि जिसकी इंद्रियाँ वश में हैं। उसकी प्रज्ञा आत्मा में प्रतिष्ठित है। जिसकी इंद्रियाँ वश में है। “वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।“ जिसकी इंद्रियाँ वश में हैं। तस्य प्रज्ञा—उसकी ही प्रज्ञा प्रतिष्ठित है।

कहाँ प्रतिष्ठित है?

मुझमें ही प्रतिष्ठित है। मुझसे ही तो प्रेम है उसे और कहाँ प्रतिष्ठित होगी।

तो ‘इंद्रियसंयम’ और फिर ‘इंद्रियनिग्रह’ पर कृष्ण बहुत ज़ोर दे रहे हैं। लेकिन साथ ही साथ वो पहले ही सावधान भी कर चुके हैं कि मात्र इंद्रियों को सहेजने, समेटने से बात बनती नहीं है। ‘इंद्रियसंयम’ आवश्यक तो है, पर पर्याप्त नहीं। पूरी बात तभी होती है जब सिर्फ़ ये न करो कि जो हुआ ग़लत उसको ठीक किया। ये भी देखो कि जो होता है वो क्यों होता है? यही न देखो कि इंद्रियाँ बाहर गईं थीं, मैंने समेट लिया। ये भी देखो कि इंद्रियों को कौन सी वृत्ति बार-बार लगातार बाहर भेजती है, फेंकती है। उसके बाद एक श्रृंखला सी बताई है कृष्ण ने और तात्‍पर्य पूरी चीज़ का अभी भी इंद्रियों के विषयों से ही है। क्यों कह रहे हैं अर्जुन से ये सब कुछ? अर्जुन ने तो ‘स्थितप्रज्ञ’ के लक्षण पूछे थे।

कृष्ण इंद्रियों की बात इतनी क्यों कर रहे हैं? अर्जुन को उसकी अवस्था याद दिलाने के लिए कि अर्जुन तुम्हारी इंद्रियाँ अभी बाहर को भागी हुई हैं। चूँकि अर्जुन की इंद्रियाँ बाहर को भागी हुई हैं, इसलिए अर्जुन से वो बार-बार इंद्रियों की बात कर रहे हैं और बता रहे हैं कि अर्जुन, ‘स्थितप्रज्ञ’ पूछा था न तो ‘स्थितप्रज्ञ’ वही होता है जिसको इंद्रियों का खेल सारा समझ में आ गया है। और जिनको इंद्रियों का खेल नहीं समझ में आया होता अर्जुन, देखो, उनके साथ क्या होता है।

और अर्जुन इंद्रियों का खेल अभी तुम्हें भी समझ में नहीं आ रहा है। तुमने किया क्या है? तुमने मुझसे कहा कि रथ दोनों सेनाओं के बीच में जाकर के खड़ा कर दो। वहाँ मैंने खड़ा कर दिया। वहाँ तुम्हारी इंद्रियों ने, आँखों ने देखा और तुम्हारे मन ने चिंतन करा और तुम्हारी स्मृति सक्रिय हो गई। तुमको पुरानी बातें, पुराने संस्कार सब याद आ गए अपने। और तुम्हारी आँखों ने अतीत ला करके खड़ा कर दिया। जो लोग विषयों में फँस जाते हैं जैसे, अभी तुम फँसे हुए हो अर्जुन और सुनो उनके साथ क्या होता है:

“विषयों को सोचते रहने से मनुष्य विषयों में आसक्त हो जाता है। अर्जुन, ये तुम्हारी कहानी बता रहा हूँ। कोई कोरा सिद्धांत नहीं। ये तुम्हारी अभी इस क्षण की जीवित कहानी है। ये कोई पुरानी कागज़ी कहानी नहीं है। तो विषयों को सोचते रहोगे जिस भी चीज़ को सोच रहे हो। उससे सम्बन्ध बना लोगे।“

ख़तरनाक है न? तुम तो सोचते हो कि मैं तो सोच रहा हूँ। जैसे— कोई वैज्ञानिक कहे कि मैं तो प्रयोगशाला में बस प्रयोग कर रहा हूँ। मेरा कोई लेना- देना थोड़े ही है। मैं तो बस प्रयोग कर रहा हूँ। मैं तो अलग हूँ, विषय से तो असम्बन्धित हूँ मैं।

कृष्ण कह रहे हैं, “इतनी तुममें क्षमता ही नहीं है कि जिस विषय का चिंतन करो या जिस विषय को अपने मानस में स्थान दे दो, तुम उससे असम्बन्धित रह जाओ। तुमने जिसके बारे में सोचना शुरू करा तुमने उससे लिप्त होना भी शुरू कर दिया। तुम जिस भी विषय का विचार कर रहे हो उस विषय को अपना दूषण बना रहे हो।“ लगता है सबको यही है कि मैं तो निर्लिप्त होकर, निरपेक्ष होकर के बस विषय का अवलोकन कर रहा हूँ। इसमें कहानी में बता चुका हूँ पहले कई बार, फिर बता देता हूँ।

“संस्था बनने से पहले की बात है ‘अद्वैत लाइफ एजुकेशन’ के दिनों की तो संस्था की माने अद्वैत की तब दो सदस्य आयी थीं। तब हम रविवार की छुट्टी रखा करते थे। अब तो कोई छुट्टी होती नहीं। रविवार-इतवार कुछ भी सात दिन, तीस दिन, तीन सौ पैंसठ दिन काम चलता है। तब होती थी तो एक दिन ऐसे ही नाश्ते का वक़्त रहा होगा रविवार को वो सदस्य आयी थीं दो- तीन तो वो आ धमकी।

मुझसे बोलीं कि ये हफ़्तेभर तो बढ़िया रहता है। बाहर जाते हैं वहाँ क्लासेज़ वगैरह लेते हैं। एचआईडीपी चलता रहता है और आप भी सत्र लेते रहते हैं यहाँ पर तो अपना लगा रहता है। रविवार को क्या करें, रविवार को बताइए, कुछ एक्टिविटी रविवार को होनी चाहिए। हमारे लिए होनी चाहिए। हफ़्तेभर तो स्टूडेंट्स आते हैं एक्टिविटी।

मैंने कहा ठीक है। आ जाइए ये एक्टिविटी करो कि किसी शॉपिंग मॉल में चले जाओ। और वहाँ से दुनिया का हाल पढ़कर आओ। देखो, दुनिया क्या चीज़ है और वहाँ भी पूरी प्रकृति है खुली किताब की तरह बिछी हुई है। वहाँ तुम्हें सबकुछ देखने को मिलेगा। इस पूरी दुनिया में जो कुछ भी चल रहा है वो तुमको एक शॉपिंग मॉल में देखने को मिल जाएगा। तो आज जरा दो-चार घंटे किसी मॉल में बिताओ। और वहाँ से सबकुछ समझकर आ जाओ। वो प्रसन्न हो गईं, बोलीं हाँ, जा रहे हैं देखते हैं। शाम को आईं। इस हाथ में तीन बैग, इस हाथ में चार बैग और दोनों बड़ी मुश्किल से अपने बैग-वैग लेकर के। मैंने कहा, ये क्या है? नहीं, हम तो देखने गए थे पता ही नहीं चला देखते- देखते ख़रीद कब लिया।“ एकदम असली बता रहा हूँ।

“देख रहे थे हम तो लोगों को देख रहे थे फिर हमने कहा, हम भी ख़रीद लेते हैं। पता ही नहीं चला कि हमने कब ख़रीदना शुरू कर दिया। उनमें से एक थोड़ा-सा शरीर से भारी और दूसरी उसको चुटकी ले रही, बोली इसने ख़रीदा भर नहीं है। इसने खाया भी ख़ूब है। बोलती है, मैं देखूँगी कि वहाँ देखो लोग कैसे पित्ज़ा का ऑर्डर करते हैं और फिर जब पित्ज़ा आता है तो कैसे वो उसपर टूट पड़ते हैं। ऐसे पंद्रह मिनट इसने देखा फिर बोली, चलो अंदर चलते हैं। खाकर के भी ख़ूब आयी है ये।“

कृष्ण यहाँ बोल रहे हैं, गीता को भुला देते हैं न हम। विषयों के संसर्ग में रहने से मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो ही जाती है। नहीं हो सकता कि किसी को तुम अपने मानस क्षेत्र में लेकर आओ और उससे लिप्त न हो जाओ। तुम ऐसे हो समझ लो कि जैसे, चूहा फँसाने के लिए आजकल एक बड़ा बदतमीज़ और हिंसक किस्म का यंत्र आता है। देखा है? नहीं, वो पकड़ता नहीं है वो चिपकाता है। तो हम वैसे हैं मन वैसा है। मन वैसा है जिसकी सतह पर गोंद ही गोंद लगी हुई है। उसपर कुछ भी करके बैठेगा तो चिपक जाएगा। मन ऐसा है।

हमारा मन स्टिकी (लसलसा) है स्टिकी है। उसपर कुछ भी आकर बैठता है तो बैठता भर नहीं है, वो चिपक जाता है। ‘कृष्ण’ वही बता रहे हैं। विषयों को सोचने से उनमें आसक्ति होती है। और आसक्ति हुई नहीं कि फिर कामना पैदा हो गई। तुम तो सोच रहे थे कि विषय तो दूर का है। और कामना होते ही कहने लग गए विषय मेरा हो जाए। पहले तो इसी बात से पूरी संतुष्टि थी कि विषय दूर का है। हम तो उसके द्रष्टा मात्र हैं। शुरुआत कहाँ से हुई थी? विषय, विषय से कुछ लेना देना नहीं। मैं तो उसका बस द्रष्टा हूँ। लेकिन रहे दो- चार दिन, दो-चार मिनट, एकाध साल उसके संपर्क में तो कामना पैदा हो गई कि अब क्या अपना ही हो जाए।

विषयों की आसक्ति से, विषयों के प्रति कामना आती है। कामना ऐसी चीज़ है कि पूरी होगी नहीं। पूरी होकर भी नहीं पूरी होगी। अधूरी रह गई तो अधूरी रह गई। पूरी हुई भी तो भी पूरी हुई नहीं। तो क्रोध आता है।

क्रोध क्या है?

क्रोध वृत्ति की बेचैन ऊर्ज़ा का विस्फोट है। वृत्ति क्या चाह रही है? पूर्णता। पूर्णता किस माध्यम से चाही— कामना से; कामना अपूरित है। तो भीतर से ऊर्ज़ा बहुत ज़ोर से उछलती है कि मुझे अपनी कामना पूरी करनी है। जितनी भी आपकी शारीरिक ऊर्ज़ा है आप उसका प्रयोग करके अपनी कामना को पूरा करना चाहते हैं। एक झटके में एक विस्फोट के साथ हिंसा के साथ वो क्रोध कहलाता है।

तो कामना से क्रोध आता है और जब क्रोध आता है, क्रोध जितना बढ़ता है कामना उतनी गहराती है। क्योंकि अब आपने कामना में अपनी ऊर्ज़ा का निवेश कर दिया है। कामना में आपने अपनी ऊर्ज़ा का निवेश कर दिया है। ठीक है। अब आप कामना में और गहरे चले गए तो क्रोध से फिर मोह आता है। और मोह से फिर आप बिलकुल भूल जाते हो कि पूरी कहानी शुरू कहाँ से हुई थी। मोह आते ही स्मृति एकदम ख़त्म हो जाती है। स्मृति शक्ति का लोप हो जाता है। आप भूल ही जाते हो कि आप तो एक दिन बस यूँही इस विषय से टकरा गए थे। कोई इरादा नहीं था। आसक्ति का, मोह इत्यादि का कोई इरादा नहीं था। देखो, कहानी कहाँ तक आ गई।

तो स्मृति चली गई और स्मृति जब चली गई तो बुद्धि और ठस पड़ जाती है। स्मृति के जाते ही बुद्धि का नाश और बुद्धि गई तो आप नष्ट हो जाते हो। पूरा धमका ही दिया अर्जुन को बेटा जितना देखोगे तुमने पूरी शुरुआत ही इससे करी थी न, पहला श्लोक क्या है, दुर्योधन के पूरे वक्तव्य के बाद अर्जुन का पहला श्लोक ही क्या है पहले अध्याय में कि केशव मेरे रथ को ऐसी जगह ले चलो जहाँ युद्ध को उन्मत्त, युद्ध को एकत्रित इन दोनों पक्षों को मैं देख सकूँ एकसाथ।“ ये जो तुमने करा है न कि मैं देखूँगा।

देखने भर से मनुष्य नष्ट हो जाता है। शुरुआत तो इसी से होती है कि विषय का मुझे दर्शन करना है। लेकिन वो दर्शन भर करने से बात आगे बढ़ी-आगे बढ़ी एक-एक क़दम करके और अंत होता है मनुष्य के नष्ट ही हो जाने में। इतनी बड़ी भूल कर दी मैंने; हाँ।

तुम क्यों सोच रहे थे कि देख भी लोगे और फँसने से बच भी जाओगे। न, न ये ऐसी सी बात है कि कोई कहे कि पी भी लेंगे और नशा भी नहीं होगा। ये कौन-सी बात हुई भाई। एक चीज़ दूसरी चीज़ का अनिवार्य परिणाम है। विषयों के विचार का या विषयों के संसर्ग का अनिवार्य परिणाम है, ‘विषयासक्ति’। और विषयासक्ति मनुष्य को गिराती ही है।

इसके बाद कृष्ण बताते हैं कि जो ‘संयतइंद्रिय’ होता है उसकी क्या कहानी होती है?

और उसकी कहानी बिलकुल अलग होती है तो उस कहानी को अब हम अगले सत्र में लेंगे। अभी तो हमने उनकी सुनी है बात जो इंद्रियों पर या तो संयम रख नहीं पाते या इंद्रियों पर संयम रखते भी हैं तो मात्र इंद्रियों पर ही संयम रखते हैं। जिनके भीतर की रसना अभी समाप्त नहीं हुई होती। तो अभी तो हमने बस उनकी बात सुनी है तो उनको लेकर के प्रश्न बताइए।

प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर, सर मेरे प्रश्न अध्याय एक से है लेकिन उसकी चर्चा आज भी हुई। ये उस श्लोक से है जब अर्जुन श्रीकृष्ण को कहते हैं कि आप मेरा रथ दोनों सेनाओं के मध्य में ले जाइए तो आज तक मैं इसको ऐसे समझ रहा था कि हमारी एक टेंडेंसी होती है स्किप (छोड़ने की) करने की। हम बचने की कोशिश करते हैं तो भाग जाते हैं कभी भी चुनौतियाँ आती हैं। तो आजतक मैं ऐसे सोचता था कि इससे शायद मैं ये समझ रहा था कि भागना नहीं है। जब अर्जुन कह रहे हैं कि रथ को दोनों के मध्य ले जाओ तो अभी तक मैं ये समझ रहा था तो आज।

आचार्य: आप ठीक समझ रहे थे। अर्जुन ने जो रथ को दोनों सेनाओं के बीच ले जाने की बात कही। वो बड़े साहस की बात थी। और अर्जुन को निस्संदेह इस बात का श्रेय मिलना चाहिए कि अर्जुन कह पा रहे हैं कि मैं अंधाधुंध तीर चलाने से पहले देखना चाहता हूँ कि मैं करने क्या जा रहा हूँ? उसका श्रेय निस्संदेह अर्जुन को मिलना चाहिए।

और जब मैंने बात करी है उस पर तो मैंने ये कहा भी होगा कि ये जो अर्जुन ने असाधारण वक्तव्य दिया है, मुझे दिखाओ। उसी से फिर अर्जुन गीता के योग्य भी बने हैं। नहीं तो फिर गीता भी अर्जुन को नहीं मिलती अगर अर्जुन ऐसी असाधारण माँग नहीं रखते।

लेकिन आपने सुना न, कृष्ण क्या कह रहे हैं? ‘कूर्मसूत्र’ के बाद, कृष्ण कह रहे हैं कि जबतक तुम स्वयं को नहीं जानते जबतक तुम ये नहीं जानते कि तुम्हारा भीतरी हाल क्या है? तबतक विषयों के प्रति तुम कितना भी संयमित रुख धारण कर लो। बात अधूरी ही रहती है। तो हुआ क्या? देखिए—

अर्जुन ने बहुत ऊँची बात कही की मुझे दोनों सेनाओं का आप अवलोकन करा दो एक साथ। लेकिन उसका नतीजा क्या निकला? नतीजा ये निकला कि जो जहाँ पर अर्जुन कहते हैं की मुझे दोनों सेनाएँ दिखा दो उसके बिलकुल अगले ही श्लोकों में कहते हैं, हाथ पाँव काँप रहे हैं, खाल जल रही है, सर चकरा रहा है और चक्कर खाकर गिर पडूँगा। अब किसी बहुत ऊँचे कर्म का ये परिणाम तो नहीं हो सकता न? तो ये परिणाम कहाँ से आए? परिणाम यहीं से आया कि अर्जुन अभी स्वयं को नहीं जान रहे। ये उन्होंने बहुत साहसी काम करा है कि दोनों सेनाओं को देखना है लेकिन ‘आत्मज्ञान’ नहीं है अर्जुन को। और ‘आत्मज्ञान’ जब नहीं होता है तो कृष्ण की चेतावनी एकदम सच हो जाती है।

कृष्ण की चेतावनी ये है कि विषयों के प्रति आप एक संयम रख भी लोगे तो भी भीतरी अतृप्ति, बेचैनी, अपूर्णता बनी रह जाएगी। वो अर्जुन की बनी ही नहीं रह गई। वो और उभर कर सामने आ गई। जब अर्जुन दोनों सेनाओं के बीच में गए तो क्या शांत हो गए? और ज़्यादा बेचैन और विकल हो गए न। तो बाहर आप ‘इंद्रियसंयम’ वगैरह दिखाएँ वो तो बहुत अच्छी बात है। लेकिन उनसब से कहीं ज़्यादा मूल्य का है, ‘आत्मज्ञान’, स्वयं का पता होना।

प्र: फिर इसके बाद जब यही बात होती है वो उनको बोलते हैं कि दोनों के बीच ले जाओ। अब मेरा एक ओर में क्लारिफिकेशन (स्पष्टीकरण) करना चाहता हूँ। वो ये भी बोलते हैं साथ में कि आप ले जाइए। वहाँ अर्जुन ये भी कह सकते हैं की आप मुझे आज्ञा दीजिए। मैं ख़ुद वहाँ देखकर आता हूँ तो वो उनको ये कहते हैं कि आप ले जाइए। मतलब ये उनका सौभाग्य था कि उनके साथ श्रीकृष्ण थे। अब मैं ये जानना चाहता हूँ कि हमारे लिए जब हमारे सामने चुनौती होती है एक मूवमेंट होती है, जब हमने बहुत बड़ा डिसीज़न लेना होता है। मैं भी ये फेस करता रहता हूँ इस प्रॉब्लम को। मैं ये जानना चाहता हूँ कि हमारे लिए। हमारे लिए कृष्ण कहाँ हैं? मतलब उस मोमेंट में जब वो पल होता है, ऐसे लम्हे होते हैं।

आचार्य: कृष्ण आपकी इच्छा हैं सच्चाई को जानने की। भले ही आप ये नहीं जानते कि सच्चाई चीज़ क्या होती है, पर कुछ होता है। मैं जैसा हूँ, उससे आगे और उससे कहीं बेहतर। उसके अतीत कुछ होता है। ये इच्छा बनी रहे। यही कृष्णाकाँक्षा है। तो सबके साथ अर्जुन जैसा नहीं होगा।

गीता में तो अर्जुन को एक बड़ी विशिष्ट स्थिति मिल गई है। उसको आप सौभाग्य की स्थिति भी कह सकते हैं कि उनके सामने मनुष्य रूप में ही सत्य खड़ा हुआ है। गीता में तो बड़ी एक विशिष्ट स्थिति पैदा हो गई है। आपके साथ हमेशा सत्य आवश्यक नहीं कि मनुष्य रूप में ही खड़ा हो। ठीक है। क्योंकि आपके बगल में कोई खड़ा हो। ये बात आपके नियंत्रण की नहीं है। ये बात कुछ हद तक प्रकृति के संयोग की है।

लेकिन एक चीज़ है जो बिलकुल आपके नियंत्रण की है। हम बार- बार कहते हैं न। चेतना का अर्थ होता है चुनाव तो चेतना बेहतरी का लगातार चुनाव कर रही है। इसी को दूसरे शब्दों में कहते हैं कि आप लगातार कृष्ण के साथ खड़े हैं। किसी भी कठिन परिस्थिति में जहाँ आपको कोई निर्णय लेना है जहाँ आपको दो राहों में से एक राह चुननी है।

अगर आपकी दृष्टि लगातार ये है कि मुझे वो राह चुननी है, जो मेरे बंधनों को थोड़ा काटे। जो मेरी चेतना को थोड़ा विस्तार दे। तो ये ही हो गई कृष्ण की संगति। कोई-कोई बड़ा एक विरल संयोग हुआ कि कोई व्यक्ति ही हो जो आपके संग खड़ा हो कठिन निर्णय की घड़ी में वैसा हो जाए बहुत अच्छा! वैसा नहीं भी हो तो वो कृष्ण तो आपके भीतर होता ही है न। आपको उसको चुनना होता है।

तो कृष्ण क्या हैं?

कृष्ण को चुनने का चुनाव ही आपके लिए कृष्ण हैं।

प्र: मैं इसको फिर से समझता हूँ कि कभी भी ऐसा मोमेंट हो ऐसे लम्हे हो तो उस वक्त मेरा ये चुनाव है कि जो मेरे बंधनों को काटे, मैं उस तरफ़ का चुनाव करूँ।

आचार्य: आप ऐसा करिए, आप गीता को कृष्ण मान लीजिए। आपसे नहीं मैं सबसे कह रहा हूँ दुनिया से। कृष्ण के बारे में अब बाकी जो कुछ जानते हैं सब भुला दीजिए। तमाम तरह की मान्यताएँ, कथाएँ, कहानियाँ, मूर्तियाँ सब भुला दीजिए। गीता ही कृष्ण हैं।

अब तो आप स्थूल रूप को भी कृष्ण को अपने साथ रख सकते हैं न कठिन निर्णय की घड़ी में भी गीताजी साथ में हैं। गीताजी ही कृष्ण हैं। अब थोड़ा आसान हुआ होगा। बस!

प्र: और अगर इसको भी मैं ऐसे कहूँ कि गीताजी मेरे लिए कृष्ण हैं तो गीताजी की जो समझ है वो मेरे लिए कृष्ण हैं।

आचार्य: और गीता जी को समझने की इच्छा आपका अर्जुनत्व है। नहीं तो गीता फिर आपके लिए काग़ज़ का एक पुलिंदा भर होकर रह जाएगी। अगर आपके भीतर उसको जानने की जिज्ञासा नहीं है तो आप जब अर्जुन होते हैं तो गीता कृष्ण हो जाती है। आप अर्जुन नहीं है तो गीता काग़ज़ हो जाती है।

प्र: तो यहाँ से मैं आपकी ही एक बार-बार आप इसको बोध सत्रों में आपने बोला भी है। शायद वही बात आ रही है दोहराकर। जैसे, आप कहते हैं कि जिस चीज़ को हम जानते नहीं हैं वही हमारा बंधन बन जाता है। तो अब ऐसे लग रहा है कि वही बोध वाली बात हो रही है। तो वही जो आपने कहा कि ‘अर्जुनत्व’ वो बोध ही हो गया।

आचार्य: गीता का बोध हुआ नहीं कि कृष्ण प्रकट हो गए। बोध नहीं है तो गीता कुछ नहीं है। फिर तो शब्द मात्र है।

प्र१: जैसे कि ‘ब्रह्मदर्शन’ का जो अर्थ वास्तविक अभी समझ में आया हमें तो उस आधार पर तो ‘ब्रह्मदर्शन’ कोई अंतिम अवस्था नहीं हो सकती बिलकुल।

आचार्य: बिलकुल ठीक। एकदम बढ़िया।

प्र१: ये जैसे हम समाज में देखते हैं कि कोई बता देते हैं कि हमे ‘ब्रह्मदर्शन’ हो गया और फिर उनकी पूजा होने लगती है और उन्हीं का एक वो समुदाय स्थापित हो जाता उस तरह से।

आचार्य: बहुत बढ़िया।

प्र१: सर तो फिर हम अपने जीवन में भी कभी उस अवस्था में क्षणमात्र के लिए हो सकते हैं और फिर हमेशा तो गिरते ही रहते हैं। तो इस पर बने रहने के लिए सर कैसे अभ्यास कर सकते हैं? आचार्य: कैसे अभ्यास नहीं कर सकते हैं, अभ्यास कर सकते हैं। कैसे अभ्यास क्या होता है? अभ्यास करिए। और जब उस अवस्था से छिटके तो दर्द होना चाहिए। वही अभ्यास कराता है। जब थोड़ा सा छिटगोगे तो इतना होगा कि स्वयं को भूलोगे। जब और ज़्यादा छिटगोगे तो स्वयं के साथ-साथ संसार को भी भूल जाओगे। जितना दूर छिटके हो दर्द उतना ज़्यादा होगा। होना चाहिए। अपनी संवेदनशीलता जो भीतर एकदम बढ़ाई जाए। संवेदनशीलता जितनी बढ़ेगी भीतर से उतने असुरक्षित हो जाओगे। उतने वल्नरबल हो जाओगे है न और फिर जितने असुरक्षित हो जाओगे उतनी ही अपनी छिटकन पीड़ा देगी। पीड़ा ही कहेगी, चलो! वापस चलो भाई। कहाँ छिटक गए, दूर आ गए। मोटी खाल नहीं रखनी है।

सत्य के प्रति बड़ी संवेदनशीलता होनी चाहिए। जैसे— कोई एकदम संगीत के लिए तैयार वाद्य यंत्र हो। जिसको आप ज़रा सा छू दें और वो स्पंदित हो उठे। वीणा तैयार रखी हुई है। किसी महान कलाकार के हाथ में जाने के लिए और आपने जाकर के बस ऐसे तार छू भर दिए। एकदम मादक झनझनाहट। ऐसा होना चाहिए।

सत्य के प्रति ऐसा होना चाहिए कि थोड़ी सी चूक हुई नहीं कि पूरा अस्तित्व झनझना जाए। हम उल्टे होते हैं। हम दुनिया के प्रति ऐसे हो जाते हैं कि वहाँ कुछ नहीं मिला, कोई कामना अधूरी रह गई तो हाय-तौबा करे, रोने लगे, झनझनाने लगे और सत्य के प्रति हमने बड़ी से बड़ी अनिष्ठा का काम कर दिया, द्रोह का काम कर दिया, धोखे का चूक का काम कर दिया तो भी हम पर कोई फर्क नहीं पड़ता। मोटी खाल रखते हैं। जिधर को मोटी खाल होनी चाहिए, उधर नहीं होती।

दुनिया के प्रति मोटी खाल होनी चाहिए कि वहाँ कुछ भी होता रहे, हम पर बहुत प्रभाव नहीं पड़ना। वहाँ पर तो हो जाते हैं बड़े संवेदनशील और सत्य के प्रति ऐसा होना चाहिए कि जैसे क्या बोलूँ। कमरे में जब पूरा मौन होता है तो सुई भी गिरती है तो बड़ी जोर की आवाज़ होती है ऐसा होना चाहिए। उस मौन से इतना प्रेम हो। तो पिन ड्रॉप साइलेंस है वहाँ। पिन भी गिर गई तो व्याघात हो गया। थोड़ी सी भी चूक हो गई तो फिर लगे कि बहुत बड़ा कुछ नुकसान हो गया।

जानने वालों में संतों में कई बार एक बड़ी रोचक बात देखने को मिलती है। वो स्वयं को दंड दिया करते थे। एकांत दंड लोगों को बताते नहीं थे। कभी मान लीजिए ऐसा हुआ कि कोई समय उनकी पूजा का चूक गए तो स्वयं को ही बोल देते थे, “तीन दिन तक अब खाना नहीं खाऊँगा।“ बाज़ार से गुज़र रहे थे। कोई वस्तु दिख गई। उसको देखकर कामना उठ गई तो वापस आए अपना सोंटा उठाया और अपनेआप को दस सोटों की ख़ुद ही सज़ा दे दी। किसी को बता नहीं रहे। प्रदर्शन की कोई बात नहीं। यदि कुछ टूट गया भीतर कि ये हमने क्या? बेवफ़ाई कर डाली। प्रेम द्रोह हो गया। ऐसा होना चाहिए। फिर अभ्यास सतत चलता है, नहीं तो अभ्यास तो टूटेगा ही।

याद दिलाइए अपनेआप को बार बार। वो जो एक चीज़ है असली उसका प्रेम ही है जीवन। उसके अलावा बाकी कुछ नहीं। यही है अपनेआप को याद दिलाना फिर सतत सुमिरन कहलाता है। स्मरण, अभ्यास और अपनेआप को दंड देना ये सब एक साथ चलता है।

प्र१: सर जो भक्तिमार्ग में फिर बताते हैं कि उन्हें ईश्वर का दर्शन हो गया या किसी देवी का दर्शन हो गया तो वो भी कुछ ऐसा ही। वो झूठ है जो भ्रम है।

आचार्य: देखो, दर्शन तो उसी का करना है जो सबके दर्शन करता रहता है। आपको जिसका भी दर्शन हो रहा है, वो है तो आपके दर्शन की कोई वस्तु ही न। मैंने ही तो कहा कि मुझे दर्शन हो गया तो मैं बैठा हूँ और सामने कुछ है जिसका दर्शन। निस्संदेह ऐसा हो सकता है। आपको जिसका दर्शन हुआ हो वो आपकी दृष्टि में बहुत पवित्र हो, बहुत ऊँचा और बहुत सम्माननीय हो ऐसा बिलकुल हो सकता है। लेकिन फिर भी आप ही ने तो न करा दर्शन। तो कृष्ण आपसे कह रहे हैं कि ‘ब्रह्मदर्शन’ है: “उसका दर्शन कर लेना जो दुनिया भर का द्रष्टा है। दृश्यों को और द्रष्टा को एकसाथ देख लेना ही ‘परम’ का दर्शन है।“

प्र२: नमस्ते सर, जो अभी मैं जो क्वेश्चन (प्रश्न) पूछ रहीं हूँ वो अक्सर ये डाउट (संदेह) रहता है। कभी- कबार बहुत साइक्लिक लगता है जैसे कि आप ऐसा करिए तो ‘आत्मज्ञान’ होगा। लेकिन ऐसा भी होता है कि बिना ‘आत्मज्ञान’ के इसमें आप फँस जाएँगे। जैसे कि अभी आपने जो बताया कि अगर विषयो के पास जाते हैं और बिना ‘आत्मज्ञान’ के जाएँगे तो फँस सकते हैं। पर जैसा मैंने समझा है कि ‘आत्मज्ञान’ अपने बारे में जानकारी न होना या अपनेआप को प्रकृति मानना तो इसके लिए हमें प्रकृति को समझना पड़ेगा और प्रकृति माने विषय तो उनके पास जाना है। तो ‘आत्मज्ञान’ के लिए भी प्रकृति को समझना है विषयों के पास जाना है, लेकिन बिना ‘आत्मज्ञान’ के विषयों के पास गए तो फँस जाएँगे। इट्स अ वेरी साइक्लिक (यह बहुत ही चक्रीय है)।

आचार्य: नहीं, पास नहीं जाना है। कृष्ण तो ख़ुद कह रहे हैं न, पास तो आप रहते ही हो विषयों से तो अपनेआप को वापस खींचना है। और हम कितने पास जाएँगे हम तो ऐसे ही आसक्त लोग हैं सब। विषयों से तो दिमाग़ हमारा भरा ही रहता है हर समय ही। कृष्ण तो कह रहे हैं कि विषयों की संगति का ऐसा-ऐसा नुकसान होता है। बहुत स्पष्ट है बात।

विषयों से तो इंद्रियों को वापस खींचना ही है। निराहार रहने की बात कर रहे हैं न, कि कम करो विषयों का अहार वापस खींचना ही है। लेकिन एक अतिरिक्त बात और कह रहे हैं। कह रहे हैं वापस खींचने भर से होगा नहीं। पूरा नहीं पड़ेगा, वापस खींचने भर से नहीं होगा। जबतक ये भी नहीं पता कर लिया कि विषयों की ओर फेंकने वाली वृत्ति क्या है?

क्योंकि आपने संकल्प इत्यादि करके गीता का नाम लेकर के कृष्ण को याद करके किसी तरीक़े से अपनेआप को कहा कि अरे! ये फ़लानी चीज़े हैं बहुत खींचती हैं, आकर्षित करती हैं। हटाओ मैं नहीं उसकी और जा रही है ये सब करके, ठीक है, आपने अपने दरवाजे बंद कर लिए। और बाहर संसार नाच रहा है आपको बुला रहा है। लेकिन आपने संकल्प बैठाया सब इंद्रियों के दरवाज़े बंद कर दिए।

आप भीतर अभी कैसी हैं?

संकल्प करके आपने इंद्रियों के कपाट बंद कर दिए और बाहर ढोल नगाड़े बज रहे हैं। नाच- गाना हो रहा है, रंग- रोगन है, त्योहार मना रहे हैं। हर तरह का उत्सव है और अभी आपके भीतर क्या दशा रहेगी?

प्र२: कुछ कमी है।

आचार्य: कुछ कमी है न। हाँ, कपाट बंद करने से इतना हुआ कि आप बाहर जातीं तो और ही लिप्त हो जाती। बाहर अगर चली गई होती द्वार खोलकर तो उसमें तो बिलकुल ही डूब जाना था। बह ही जाना था। उतने से तो सुरक्षा हो गई आपकी। लेकिन दरवाज़े के भीतर आपकी दशा तो यही है न कि देखो बाहर क्या मस्त उत्सव चल रहा है और मैं यहाँ अकेली पड़ी हुई हूँ। मैं ही अभागी हूँ। तो उसके लिए फिर कृष्ण बोलते हैं कि अब भीतर चलो, तुमने द्वार बंद कर लिए। अब तुम्हारे लिए आसान हो गया है ध्यान लगाना। अब ध्यान लगाकर देखो कि क्या है जो बाहर जाने को इतना आतुर रहता है और कोई पहली बार बाहर गया नहीं।

अगर आपकी पंद्रह वर्ष की आयु है तो आप बहुत बार बाहर जा चुके हो। और बाहर जितनी बार गए वो अलग- अलग चीजें नहीं हैं। कुल मिला-जुला करके वही दो- चार चीजें हैं जो बाहर मिलती हैं। उनसे कुछ ऐसा भी नहीं हुआ कि कभी बहुत आपको तृप्ति मिल गई है। थोड़ी देर के लिए होता है कि अच्छा लग गया। फिर आपको दोबारा एक ज़रूरत पैदा हो जाती है बाहर जाने की। तो उसपर आत्म विचार करना कि मुझमें क्या है जो बाहर जाने के लिए करता है और उसकी प्रक्रिया क्या है। उदाहरण के लिए, वो ईमानदार कितना है? ठीक है। जैसे कि मैं बाहर गई और बाहर से कुछ कटु अनुभव हो गया वो लेकर आयी। तो जो भीतर बैठा था जिसने बाहर भेजा था क्या वो ईमानदारी से स्वीकार करता है उसने ग़लती कर दी या वो कोई बहाना खोजता है ये आत्म विचार है इसी से ‘आत्मज्ञान’ होता है।

मेरे कोई था और उसने मुझे तर्क दिए कि बाहर जाओ। ठीक है, दरवाज़ा खोलने के लिए भीतर कोई तर्क उठता तभी तो आप दरवाज़ खोलकर बाहर जाते हैं न कि बाहर बढ़िया लोग मज़े कर रहे हैं मुझे भी। अच्छा! तो याद करो उसने तर्क क्या दिया था? तर्क याद किया मैंने। इसमें कुछ ऐसा नहीं है कि कोई बहुत गोपनीय बात है, कोई बहुत मिस्टिकल बात है, कुछ नहीं है, बहुत तार्किक बात है। तो उसने मुझसे क्या बोला था दरवाज़ा खोलकर बाहर जाने को। अच्छा ये बोला था। फिर जब बाहर जाकर के कामनाओं की पूर्ति हुई नहीं। और मैं वापस आयी और मुँह लटका हुआ था। तो वो जो भीतर वाला था, क्या उसने ज़िम्मेदारी स्वीकार करी कि हाँ भाई, ग़लती हो गई। मेरे ही कहने पर आप बाहर गईं थीं और बाहर जाकर हाथ कुछ नहीं आया। ग़लती हो गई। क्या उसने ज़िम्मेदारी स्वीकार करी? क्या उसने इस्तीफ़ा दिया?

भई आपने एक सलाहकार रखा एक कंसलटेंट। आप उसके कहने पर कुछ कर दें और जो करे उससे परिणाम कुछ आये नहीं, और आये जो परिणाम वो भी उल्टा-पुल्टा आए। तो वो जो कंसलटेंट है या तो आप उसको फायर करोगे या वो ख़ुद आपको इस्तीफ़ा देगा ऐसे ही तो होता है। वैसे ही आपके भीतर आपका बैठा होता है न सलाहकार। हम सबके भीतर एक बैठा होता है वो हमको ज्ञान दे रहा होता है भीतर बैठकर ही। आपके भीतर है नहीं एक ज्ञानी वो आपको ज्ञान देता होगा। अच्छा! तू ऐसे कर लें अब। चल हाँ, अब ऐसे सोच लेते हैं या करते हैं जिसको बोलते हैं, इनर वॉइस, उसको कन्शियस भी बोलते हैं, अंतरात्मा बोलते हैं, द थिंग विदिन।

वो हम सबने अपने भीतर एक सलाहकार की नियुक्ति कर रखी होती है। मुझे ये नहीं समझ में आता है कि हम कभी भी उससे त्यागपत्र क्यों नहीं मानते? वो इतना ढीठ कैसे है कि वो कभी रिजाइन नहीं करता? तूने आज तक मुझे जितनी सलाहें दी। दस में से छ: में तो स्पष्ट बेड़ा गर्क हुआ। तीन में मामला अभी अनिश्चित है कुछ पता नहीं कि तेरे कहने पर चला हूँ। अंजाम क्या होगा? दस में से कोई एक ही है जिसको लेकर तू बोल सकता है कि देखो, इसमें तो मीठा फल मिला है। हालाँकि जो मीठा फल है, वो भी भविष्य साबित कर देगा कि तिक्त ही है। अभी कुल मिलाकर के इनका भीतरी जो ट्रैक रिकॉर्ड है वो एक बट्टा दस है।

लेकिन ये ढिठाई से हर महीने तनख़्वाह माँगने चले आते। इतना ही नहीं कहते हैं कि ‘मुझे पदोन्नति दो।‘ ‘मैं और वरिष्ठ सहायक हूँ।‘ ये आत्म विचार है। ये मेरे भीतर जो आवाज़ है ये बोल कौन रहा है जो बोल रहा है उस बात में बुद्धिमत्ता कितनी है, दम कितना है? ये कौन है जो भीतर बैठकर बुद्धू बना रहा है? सामने आओ। उसमें दरवाज़े बंद करना सिर्फ़ इसलिए ज़रूरी है क्योंकि दरवाज़े नहीं बंद करें तो आत्म विचार और मुश्किल हो जाता है और कोई बात नहीं है। हो हल्ला- हुड़दंग में जहाँ आप छिटके हुए पाँच-सात तरफ़ न। वहाँ पर ये विचार कर पाना कि चला क्या मुश्किल हो जाता है। विचार करने के लिए थोड़ी सी शांति चाहिए। बस इसलिए कछुआ अपनी इंद्रियों को अंदर खींचता है।

प्र३: प्रणाम आचार्य जी! श्लोक क्रमांक सैंतालीस में हमने देखा था कि श्रीकृष्ण बता रहे हैं कि अर्जुन तेरा अधिकार सिर्फ़ कर्तव्य करने में है, कर्मफल में नहीं है। तो वहाँ पर हमने तीन चीजें देखीं थीं कर्ता, कर्म और कर्मफल और वहाँ पर आपने बताया था कि कर्म में भी हमें नहीं देखना है। हमें सबसे इम्पॉर्टेंस (महत्व) देनी है कर्ता को।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥

कर्म में ही तुम्हारा अधिकार है, कर्मफल में नहीं क्योंकि वह तुम्हारे अधिकार से बाहर है; कर्मफल की आशा से कर्म मत करना पार्थ, और कर्मत्याग में भी अपनी वृत्ति मत लगा देना।

~श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक ४७)

आचार्य: हाँ, लेकिन कर्ता को देखना मुश्किल बात होती है। इतनी सूक्ष्मता बहुत कम लोगों में होती है कि वो सीधे कह दें कि जो भीतर बैठा है वो नालायक है। तो इसलिए ये मजबूरी बन जाती है कि कर्म को देखा जाए और जो कर्म को भी नहीं देख पाते उनको कहना पड़ता है अंजाम देख, परिणाम देख, कर्मफल ही देख लें तू । तो ये चित्त के स्थूलता पर निर्भर करता है कि आप इन तीनों में से किसको देखेंगे।

प्र३: आज जो एक परमात्मा तत्व का बात हुआ जिसमें तो इसमें भी ये भी द्रष्टा। द्रष्टा और दृश्य ये जो दो बात है। ये कर्ता और कर्म ही।

आचार्य: बिलकुल कर्ता को ही देखने की बात है। बहुत बढिया। बहुत बढिया। ऐसे ही जोड़कर देखा करिए।

प्र३: तो मतलब किस हद तक कर्ता को देखना है तो जैसे, हथियार। एक मतलब हाँ कि हमने चार स्तर देखे थे कि एक कर्म होता है उसके अंदर सूक्ष्मवृत्ति, उसके अंदर अहंकार, उसके अंदर अहम् तो कर्ता को देखना मतलब किस लेवल तक देखना। मतलब कर्ता को।

आचार्य: अपने लेवल से आप क्या क्या क्या आशय है आपका। लेवल माने क्या? कर्ता माने, कर्ता का चेहरा ही देख लिया। ये ऐसे है इस तरह से।

प्र३: तो सिर्फ़ कर्म देखना बाकी नहीं है। पूरा अंदर तक देखना पड़ेगा।

आचार्य: देखो, कर्म भी क्यों देखते हैं? कर्म को देखने का प्रयोजन क्या होता है?

प्र३: कर्ता को ही समझ जाना।

आचार्य: ‘देखना तो कर्ता को है न क्योंकि मैं कर्म नहीं हूँ। मैं कौन हूँ? मैं कर्म नहीं हूँ। मैं कौन हूँ? मैं तो कर्ता हूँ। अच्छा! दर्द कर्ता को होता है या दर्द कर्म को होता है। पीड़ा में कौन है?

प्र३: कर्ता।

आचार्य: देखना तो कर्ता को ही पड़ेगा।

प्र३: जी।

आचार्य: इस बाँह में चोट बहुत लगी हुई है तो ये बाँह ऐसे- ऐसे हिलती है। ऐसे -ऐसे हिलती है। ऐसे-ऐसे हिलती है तो माइक पकड़ा ऐसे हिलाया वो गिर ही गया नीचे। ये कर्म है न कि ये गिर गया नीचे और उसका परिणाम ये हो सकता है कि ये टूट गया, मेरा नुकसान हो गया। तुम्हें नुकसान रुपए पैसे का हुआ। तो मैं उपचार किसका करूँ? रुपये पैसे का करूँ, माइक का करूँ या अपनी हिलती हुई बाँह का करूँ ।

प्र३: हिलती हुई बाँह का।

आचार्य: हाँ, तो इसको भी देखने का आशय यही है कि इसका (बाँह की ओर इंगित करते हैं) उपचार हो सके। कर्म को भी इसलिए देखा जाता है ताकि उपचार कर्ता का हो सके। इसीलिए जो लोग कर्म को ही ठीक करने के प्रयास में लगे रहते हैं वो बहुत सार्थक कुछ पाते नहीं हैं।

मतलब कि मेरी बाँह ऐसे-ऐसे हिल रही है। इसलिए मैं जितनी बार इसको पकड़ता हूँ ये हिलता है गिर जाता है। तो कोई आकर के बुद्धि बता सकता है कि ऐसा करते हैं कि इसका जो स्टैंड हैं ने लेना उसको और ब्रॉडबेस्ड कर देते हैं। या इसको ज़मीन में एकदम बांध देते हैं। इसकी रिबीटिंग कर देते हैं ज़मीन में तो फिर ये गिरेगा नहीं। हो सकता है उन्होंने जो बात कही हो वो ठीक भी बैठ जाए कि उन्होंने इसको इतने तरीक़े से बांध दिया या गाड़ दिया ज़मीन में कि अब मेरा हाथ कितना भी हिल रहा है ये गिर नहीं रहा। लेकिन उन्होंने उपचार किसका कर दिया है?

प्र३: बाहरी चीज़ का।

आचार्य: कर्म का उपचार कर दिया। तो कर्म का उपचार कर दिया वो तो प्रसन्न हो जाएँगे। कहेंगे देखो, सफलता मिल गई। उनको ये पता ही नहीं कि दुख किसको था?

प्र३: कर्ता को।

आचार्य: कर्ता का दुख अभी भी कैसा है?

प्र३: वैसा ही है।

आचार्य: हाँ, तो ये बाहरी सफलता पाने से भी क्या मिला?

प्र३: कुछ नहीं।

आचार्य: तो कर्म ठीक करके। इसीलिए बहुधा कुछ हासिल होता नहीं।

प्र३: जी।

प्र४: मेरा प्रश्न था। जैसे विषय विशेष के बारे में आपने कहा कि हम विषय की तरफ़ जाते तो उसमें फँस जाते हैं। मन कौन की तरह रहता है? तो जैसा अच्छे विषय जैसे शिव हैं, कृष्ण हैं प्रकृति में जैसे भगवान हैं वो। उसमें भी गॉड या भगवान या अल्लाह जो भी है वो भी एक विषय की तरह है तो उनकी तरफ़ जाना वो अच्छा है कि अच्छे विषय भी जैसे गीता भी एक अच्छा विषय ही है। तो उनके तरफ़ जाना शुभ है न?

आचार्य: तो आप विषय की तरफ़ जाना हो तो ऐसे कहिए कि गीता ही कृष्ण है। विषय की परिभाषा ही यही है। अच्छे विषय की परिभाषा ही यही है कि वो आपको ‘आत्मज्ञान’ के लिए प्रेरित करे। तो ये मत कहिए कि मैं शिव की तरफ़ जाता हूँ तो मुझे ‘आत्मज्ञान’ हो जाता है। ऐसे कहिए कि जो भी विषय मुझे ‘आत्मज्ञान’ की ओर भेजता है, उसका ही नाम शिव है।

अंतर समझिएगा। ये नहीं कहिएगा कि कृष्ण हैं और कृष्ण से गीता आयी है। ऐसे कहिए, गीता पहले है और जिससे भी गीता है, उसका नाम कृष्ण। ये दो बहुत अलग अलग तरीक़े हैं क्योंकि अगर आप कृष्ण हैं और मैं कृष्ण की ओर जा रहा हूँ तो कृष्ण आपके लिए कोई छवि, चित्र, मूर्ति आदि बन जाएँगे। उससे फिर लाभ नहीं होता।

तो कृष्ण नाम हमें किसको देना है?

प्र४: कृष्ण नाम गीता को।

आचार्य: गीताकार का नाम कृष्ण है। हाँ, जिसकी चेतना गीता बनकर सामने आयी उसका नाम कृष्ण है। और कृष्ण की परिभाषा ही गीता से है। कृष्ण की पहचान ही गीता से गीता के अतिरिक्त कृष्ण की कोई पहचान हमें माननी ही नहीं है। हमें नहीं पता बाकी जितनी भी पहचानें हमें नहीं पता। ठीक है न।

शिव की पहचान क्या है? शिव की पहचान ऋभुगीता है। राम की ओर जाने का मन कर रहा है। राम कौन है? योगवासिष्ठ बस वो राम हैं और बाकी कौन हैं? बाकी सब तो तुम्हारे कथा, कहानी हैं, हम नहीं जानते। बाकी कथा कहानी नहीं जानते। हम गीता जानते हैं, हम ऋभुगीता जानते हैं, हम योगवासिष्ठ जानते हैं। योगवासिष्ठ के मर्म को मैं नाम दे दूँगा?

प्र४: राम।

आचार्य: गीता के केंद्र को मैं नाम दे दूँगा?

प्र४: कृष्ण।

आचार्य: ऐसे। तो अच्छा विषय, ये अच्छे से पकड़ लीजिए। अच्छा विषय वही है जो आपको ‘आत्मज्ञान’ के लिए प्रेरित करे। आप किसी विषय को अच्छा बोलें और एक सुंदर सी रूप या आकृति है और आप उसी में खो जाएँ तो वो विषय अच्छा नहीं आपके लिए।

प्र४: एक और था आचार्य जी पूछ सकता हूँ? जैसे, आपने कहा ‘ब्रह्म’, ‘आत्मज्ञान’ जो भी आप आज के श्लोक से सम्बन्धित है। जैसे, हम विषय को देख रहें हैं और जो देख रहा है उसको भी देख रहे हैं। तो जैसे, हमको सपने आते हैं आचार्य जी, सपने। सपने में हम। मन अपना विश्व निर्माण करता है और उसमें ही लिप्त हो जाता है। तो आप जैसे कहते हैं, चौबीस घंटे का ध्यान तो हमारे ध्यान केवल इतना पूछने थे कि वो देखे कि भई देखो, तुम सपना देख रहे हो, तुमने ये देखा और तुमने भाई उसको जो देखा उसको भी देख रहे हो।

आचार्य: देखिए, सपनों पर बहुत ध्यान देना नहीं चाहिए। फ्राएड ने सबसे ज़्याद सपनों के विज्ञान को विकसित करने की कोशिश की। और फ्रायड के ही ये दोनों चेले थे युंग और एडलर। और एक बात जिसपर फ्रायड का इन दोनों से मतभेद हुआ फिर वे दोनों छोड़कर चले भी गए थे वो यही था। कि फ्रायड ने बहुत कहा है कि जो मन के तहख़ाने में चीज़ बैठी हुई है, अनकॉन्शियस (अचेतन) में वो सपनों से बाहर आती है अनैलिसिस ऑफ ड्रीम्स करूँगा मैं तो। इन्होंने कहा भाई, अनैलिसिस ऑफ ड्रीम्स बड़ा मुश्किल काम है क्योंकि बहुत सब्जेक्टिव है। वो आपको क्या बता रहा है? आपको क्या पता उसने क्या देखा था कितना याद है उसको किस रूप में बता रहा है? वो चीज़ तहख़ाने से निकली हुई है। रात में आयी थी, जब अंत:करण आधा नशे में था। बेहोश था। वो आपको क्या बता रहा है।

दूसरी बात जो प्रतीक उभरकर आते हैं सपनों में वो बहुत हद तक समय सापेक्ष व्यक्ति सापेक्ष और समाज सापेक्ष होते हैं। तो आप उसका इन्टर्प्रिटेशन कैसे करोगे? इन्टर्प्रिटेशन ऑफ ड्रीम्स करना है कैसे करोगे?

उदाहरण के लिए, चूहा है अब कोई कोई यूरोप का व्यक्ति है। यूरोप का किसान ले लीजिए। अन्न उगाता है उसको चूहा आया है सपने में तो उसके लिए क्या अर्थ हुआ इसका?

प्र४: उसके अनाज को धोखा है।

आचार्य: हाँ, ”लागा गठरी में चोर जाग मुसाफ़िर” तेरी गठरी में चोर है जाग मुसाफ़िर। उसके लिए ये अर्थ हुआ। और यहाँ हमारे यहाँ पर वो महाराष्ट्र में कोई गणपति का भक्त है। उसको सपने में चूहा आ गया। उसका क्या अर्थ हुआ?

प्र४: उसको लगा कृपा होगी। भगवान जी की ऐसा लगेगा।

आचार्य: बहुत अलग-अलग बात हो गई न। फ्रायड का बार-बार फैलिक सिंबल्स पर बड़ा ज़ोर था। हम सपनों की बात करें इसलिए कर रहे हैं तो वहाँ साँप को लेकर के बड़ा खेल रहता है। की साँप आ गया वो भी अगर किसी स्त्री के सपने में साँप आया तो इसका मतलब उसकी कामवासना एकदम लहरे मार रही है। ठीक।

हमारे यहाँ पर होते हैं महादेव के भक्त। उनको सपने में साँप आ गया। तो अब आप कह दो उसको की तेरे भीतर कामवासना हिलोरे ले रही है तो बिलकुल ग़लत बात हो जाएगी न, उसका अर्थ बिलकुल दूसरा भारत में साँप का। तो इसलिए जो हम ये कहते हैं न सपने में इसका क्या मतलब? उसका क्या मतलब?

मैंने बार बार ये कहा है कि आप जागृत अवस्था में इतनी आप क्रियाएँ करते रहते हो आप पहले उनका तो अर्थ खोज लो। या जागृत अवस्था में आपने जो कुछ करा वो पूरा समझ गए कि अब जाकर सपनों को खोद रहे हो। बस जागृति में। सपने भी जागृति में अभिव्यक्त ही हो जाते हैं न।

मान लीजिए कोई कामना दबी हुई जो सपने में आ रही है तो वो जो दबी हुई कामना है, वो आपके जगे हुए कामों में भी कहीं न कहीं नज़र आती है। तो अपने जगे हुए सब क्रियाकलापों को ही देख लीजिए तो पता चल जाता है कि नीचे अंतःकरण में क्या छुपा हुआ है। वही बात कि कर्म को देख लो कर्ता का पता चल जाता है।

प्र५: प्रणाम आचार्य जी! आचार्य जी प्रश्न ये है कि जैसे वृतियाँ या विषय जो होते हैं, उनमें हम पुनरावृत्ति करते रहते हैं। एक चक्र की तरह फँसे रहते हैं। कहीं न कहीं ये जानते हुए कि इसमें पूर्णता मिलने वाली है नहीं, पर इसमें हम बार बार फँस क्यों जाते हैं? प्रश्न ये है।

मैं जो सोच पा रहा हूँ। मुझे ऐसा लग रहा है कि क्या वृत्तियों के केंद्र पर पहुँचकर इस चक्र से मुक्ति मिलेगी या ऐसा कह सकते हैं कि सही विषयों का ज्ञान हो जाएगा। इसलिए हम ग़लत विषयों से निकल जाएँगे चक्र से। तो किस तरह से सही जा रहा हूँ मैं?

आचार्य: फँस कैसे जाते हैं? फँस। एक पेपर पेन दो। ये है।(पेपर पर चित्र अंकित करके दिखाते हैं)। ये केमिस्ट्री (रसायनशास्त्र) में होता है। हमें पता करना होता है कि कोई भी जो आपका कंपाउंड है वो स्टेबल स्टेट में है कि नहीं? तो हम ऐसे देखते हैं। ये ऐसे समझ लो कि ये भीतर जो अहंकार है, ये उसकी पेन (दर्द) का कर्व है ,पेन का, किसका कर्व है पेन का ,सफरिंग (पीड़ा) का कर्व है ये। ठीक है ये सफरिंग (पीड़ा) का कर्व है।

केमिस्ट्री में हम इसको लेते हैं एनर्जी का कर्व है। तो आप अगर यहाँ पर हो तो ये आपके लिए एक लोकल ऑप्टिमा है। लोकल ऑप्टिमा मतलब आप अगर इधर को जाओगे तो भी पेन क्या होगा?

प्र५: बढेगा।

आचार्य: और इधर बताओगे तो भी पेन क्या होगा?

प्र५: बढेगा।

आचार्य: तो आम संसारी इस जगह को स्वीकार कर लेता है। वो कहता है, देखो अगर थोड़ा भी हिल रहा हो तो इधर भी जाता तो भी पेन बढ़ता, इधर भी जाता है तो पेन बढ़ता है तो यहाँ मैंने घर बसा लिया। ये एक ऑप्टिमा तो है, लेकिन कैसी है? ये एक “लोकल ऑप्टिमा” है।

प्र: ग्लोबल नहीं है।

आचार्य: लोकल, अब भीतर, हाँ! भीतर एक एक ऐम्बिशन होनी चाहिए कि भाई लोकल नहीं, ग्लोबल जाना है। लेकिन उसके लिए अब पेन कम था। अब पेन को क्या करना पड़ेगा?

प्र५: बढ़ाना पड़ेगा।

आचार्य: बढ़ाना पड़ेगा न, तो उसके लिए सफरिंग की ऐपटाइट (दुख झेलने की भूख) होनी चाहिए। भीतर एक स्टैमिना होना चाहिए कि कष्ट आएगा, पीड़ा आएगी, उसको सिर्फ़ स्वीकार नहीं करेंगे, आमंत्रित करेंगे।

प्र५: स्ट्रेंथ ।

आचार्य: जो भी बोल लो ‘तितिक्षा’ आएगी, झेल लेंगे। और आएगी नहीं।

प्र५: लानी पड़ेगी।

आचार्य: तो उसको लाए तो थोड़ी देर को क्या हुआ? पेन कैसे हुआ? सफरिंग लेवल क्या हो गया?

प्र५: थोड़ा मेक्सिमाइज (अधिकतम) हो गय।

आचार्य: बढ़ गया। लेकिन उसके तुरंत बाद फिर गिरकर वो यहाँ (दूसरी लोकल ऑप्टिमा पर) आ जाता है। तो इतनी सफरिंग झेलने का फायदा क्या हुआ?

प्र५: थोड़ा ज्यादा उसको।

आचार्य: जितनी झेली उससे ज़्यादा उसको रिलीफ़ मिल गई। लेकिन अभी ये दूसरी लोकल आपको एक ऑप्टिमा मिल गई। पहले से बेहतर है। लेकिन अभी भी है तो?

प्र५: बड़ी उससे।

आचार्य: लोकल ही। और फिर दम दिखा रहा और कह रहा अब और बेहतर। लेकिन और बेहतर होने के लिए पहले सिर्फ़ इतनी पीड़ा झेलनी पड़ी थी। अब उससे ज़्यादा पीड़ा झेलनी पड़ेगी। लेकिन पहले इतनी पीड़ा झेल के इतना फ़ायदा मिला था। अब उससे ज़्यादा पीड़ा झेलकर कहीं और ज्यादा फ़ायदा मिलेगा। अब ये मिल गया।

ये है मुक्ति का ग्राफ। और ये एक इन्फ़ाइनाइट कर्व है। और दम दिखाओ और फ़ायदा पाओ और दम दिखाओ और फ़ायदा पाओ। अंततः फिर मैंने उसको ऐसे कर दिया है कि पर ये नहीं आता कभी ये टेंड टू इन्फिनिटी है। ये जो एकदम ज़ीरो है वो इन्फिनिटी पर जाकर होगा।

समझ गए आम आदमी क्यों फँसा रहता है?

प्र५: समझ गया।

आचार्य: क्योंकि उसे कहीं न कहीं पर एक घोंसला छोटू वाला मिल जाता। वो कहता है ये भी तो ठीक है न। क्या मतलब देखो, हम कुछ भी करें। इसलिए लोग फिर गाली देते हैं कि अध्यात्म में तो कष्ट बढ़ गया। अध्यात्म में कष्ट बढ़ता है, पर क्यों बढ़ता है? क्योंकि अध्यात्म आपको थोड़ा इधर को लेकर आता तो कष्ट बढ़ेगा। आपमें अगर थोड़ा सा जिगर होता तो आपने वो कष्ट झेल लिया होता तो क्या होता?

प्र५: पार कर जाते।

आचार्य: तो फिर यहाँ की जगह यहाँ आ जाते नीचे आ जाते। ये, जो इस कर्व को याद रखेगा वो जीवन में एक के बाद एक चुनौतियाँ स्वीकार करता जाएगा और ऐसे नीचे ये सफरिंग का कर्व है न, सफरिंग उसकी ऐसे-ऐसे लगातार क्या होती जाएगी? कम होती जाएगी। हाँ तो इसे बान्डिज कर्व भी बोल सकते हैं। जो भी बोलना चाहो। ठीक है।

प्र५: ठीक, ठीक समझ गया।

आचार्य: इसलिए मैं बोलता हूँ, नेवर सेटल डाउन । यहाँ पर भी घर नहीं बनाना, (कर्व में दिखाते हैं) यहाँ पर भी घर नहीं बनाना, यहाँ भी घर नहीं बनाना। “चरैवेति चरैवेति।“ आगे बढ़ते रहो इसलिए उपनिषद बोलते हैं।

प्र५: मतलब जो मैं सोच पा रहा हूँ इससे की मुक्ति कोई एक निर्धारित बिंदु नहीं है वो कुछ नहीं है। चलता जाएगा सतत।

आचार्य: एकदम एकदम।

प्र५: आप जैसे से मेरे स्तर के लिए थोड़ा पहले हो सकता है आपके लिए और अधिक आगे है। उसी तरह से चलता रहेगा।

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