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लेख
गीत और नृत्य का अध्यात्म से क्या सम्बन्ध? || आचार्य प्रशांत, संत बुल्लेशाह पर (2017)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांत: (प्रश्नकर्ता का लिखित प्रश्न पढ़ते हुए) प्रश्नकर्ता कह रहे हैं, ‘आचार्य जी, प्रणाम। जब ये भजन पढ़ने के लिए दिये गये तो फिर उत्सुकतावश मैंने इनको इंटरनेट पर भी देखा, तो पाया कि ये सभी भजन तो नाचने-गाने वाले गीत भी हैं। ये सम्बन्ध मेरे पल्ले नहीं पड़ रहा। नाचने और गाने का अध्यात्म से क्या ताल्लुक है? मैं गाता नहीं, तो क्या मैं आध्यात्मिक नहीं हूँ?

(प्रश्नकर्ता को संबोधित करते हुए) कोई वजह होगी न कि भगवद्गीता है; श्रीकृष्ण का गीत। अष्टावक्र गीता है; अष्टावक्र का गीत। अवधूत गीता है; दत्तात्रेय का गीत। कोई मौलिक अंतर होगा न, गीत और अगीत में, गद्य और पद्य में?

गीतात्मकता आवश्यक हो जाती है जब तुम्हें कुछ ऐसा कहना है जो शब्दों की पकड़ से बाहर का हो। तुम शब्दों में कोई ऐसा अर्थ भर देना चाहते हो, जिसके लिए शब्द वास्तव में निर्मित ही नहीं है। शब्द छोटा है, शब्द की पकड़, शब्द की सामर्थ्य सीमित है और तुम शब्द का प्रयोग करके कुछ ऐसा कहना चाहते हो जो पार का है; तब तुम्हें गाना पड़ता है। भाषा का निर्माण वास्तव में मात्र गद्य के लिए हुआ है, प्रोज़ के लिए।

गीत तो भाषा का खिंचाव है, भाषा का उल्लंघन है। जैसे भाषा के साथ कुछ ऐसा कर दिया हो जिसके लिए भाषा तैयार भी नहीं थी। भाषा को पता भी नहीं था कि भाषा का उपयोग करके यह भाव भी संप्रेषित किया जा सकता है। जैसे भाषा के साथ धोखा हो गया। भाषा को पता भी नहीं चला कि क्या बात बोल दी गयी। हाँ, शब्द जितने लिये गये वो सब भाषा के ही खोज थे, लेकिन जो बात बोल दी गयी; वो भाषा के दायरे से बाहर की है।

तुमने कहा, ‘आओ’ (एक श्रोता की ओर संकेत करते हुए)। तुमने कहा, ‘आओ’ (दूसरे श्रोता की ओर संकेत करते हुए और साथ ही सुर में बोलते हुए)। अब भाषा की दृष्टि से दोनों बातें समान हैं; पर हैं नहीं। तुमने कुछ ऐसा बोल दिया कि भाषा ठगी खड़ी रह गयी। भाषा ने कहा शब्द तो तुमने मेरा उठाया और कह कुछ ऐसा दिया जो मेरी परिधी से बाहर का है। ये तुमने चालाकी दिखा दी। गीत ऐसी बात है कि जैसे तुम प्लास्टिक का एक पेन उठाओ और उससे लिख दो ‘परमात्मा’। तुमने पदार्थ का उपयोग करके कुछ ऐसा कह दिया जो पदार्थ से बहुत आगे का है।

बात समझ में आ रही है?

भाषा तो शब्द देती है न और शब्द होते हैं सब अलग-अलग, पृथक-पृथक; इसके लिए भाषा तैयार है। राम यहाँ आया, यह क्या है? यह तीन शब्दों की एक विशिष्ट श्रृंखला है। तीन शब्दों का एक विशिष्ट व्यवस्था में आयोजन है। उन्हें व्यवस्थित कर दिया गया है। लेकिन हैं वो अभी भी अलग-अलग। हैं तो तीन (संकेत स्वरूप तीन उँगलियाँ दिखाते हुए)। गीत यहाँ पर खेल खेल जाता है। गीत इन तीनों के बीच का जो अंतर है, जो खाई है उसको पाट देता है।

अब जब तुम गा रहे हो तो इन तीनों के मध्य जो खाई है, जैसे उसको भर दिया गया हो। ‘राम यहाँ आओ, श्याम वहाँ जाओ’ ज़रा इसको गाओ। अभी मैंने बोला, ‘राम यहाँ आओ, श्याम वहाँ जाओ’ ठीक है? देखना और अब ज़रा इसको गाओ।

प्रश्नकर्ता: (लय में गाते हुए) राम यहाँ आओ, श्याम वहाँ जाओ। राम यहाँ आओ, श्याम वहाँ जाओ।

आचार्य: खाई कहाँ गयी? बीच में जो तोड़ था, जो विभाजन था, जो सीमा थी वो कहाँ गयी? राम और यहाँ के बीच की सीमा कहाँ गयी? समाप्त हो गयी। अब मन घबरा गया, क्योंकि मन तो जीता ही खंडन पर है, विभाजन पर है। अलग-अलग हैं चीज़ें, तो मन की पकड़ की हैं। ‘राम’ और ‘यहाँ’, अलग-अलग हैं न? (दोनों हाथों की तर्जनी उँगलियों से अलग-अलग का संकेत करते हुए) तो मन कहता है मैं जोडूँगा। कैसे जोड़ता है मन? कि इसको और इसको जोड़ दिया, अब ये सब जुड़े हुए हैं (मेज़ पर रखे कागजों को इकट्ठा करके दिखाते हुए)। अब ये सब जुड़े तो हैं, लेकिन जुड़ कर भी ये क्या हैं? अलग-अलग हैं — जब चाहो ये अलग हो जाएँगे।

गीत में तुम कुछ अलग नहीं कर सकते। गीत की खूबी यह है कि तुम सारे शब्द हटा दो उससे; तो भी गीत बचा रह जाएगा। बिना शब्द के गाओ (किसी श्रोता की तरफ़ संकेत करते हुए)।

प्र: (गुनगुनाते हुए) हूँऽऽऽ, हूँऽऽऽ, हूँऽऽऽ, हूँऽऽऽ…।

आचार्य: अरे! यह तो गड़बड़ हो गयी। मन के साथ बड़ा धोखा हो गया। मन तो सोच रहा था कि मैं शब्द हटा दूँगा तो अर्थ हट जाएगा। और यहाँ तो शब्द सारे ही हटा दिए। तो भी बात पूरी की पूरी बची रह गयी। पूर्ण से पूर्ण को निकाल दिया और पूर्ण ही शेष बचा। गड़बड़ हो गयी न! इसीलिए मन गीत से घबराता है (प्रश्नकर्ता को संबोधित करते हुए)। क्योंकि गीत में आत्मा है और इसीलिए सारे संतों ने गाया है। जो गा नहीं सकता उस पर संतत्व नहीं उतरेगा।

कबीर के पद हैं, पद्य; निबंध नहीं हैं, लेख नहीं हैं। कबीर के लेख किस-किस ने पढ़े हैं भाई? कोई वजह है न कि कबीर हों, कि मीरा हों, कि दादू हों, रैदास हों, फरीद हों, नानक हों सबके क्या हैं? पद हैं सबके। गाओ! क्योंकि गाने में भाषा पीछे छूट जाती है, भाषा पीछे छूटी तो विचार पीछे छूट गये, मन पीछे छूट गया, अहंकार पीछे छूट गया।

नदी गाती है, वहाँ बहाव है। झरना गाता है, वहाँ बहाव है। प्रकृति गाती है, एक लय है। उस लय में बदलाव है भी तो उन बदलावों के पीछे एक अतिंद्रीय व्यवस्था है। एक नित्यता है, कुछ है जो लगातार प्रवाहित हो रहा है ─ उसी को तो आत्मा कहते हैं।

और संगीत हो सकता है कभी थम भी जाए, इसीलिए फिर संगीत से आगे आता है वो, जिसका प्रवाह कभी भी नहीं थम सकता — उसको कहते हैं मौन।

तो आम आदमी बोलचाल की भाषा का प्रयोग करता है, वो भाषा होती है रूखी। उसमें वाक्य होते हैं, उसमें पंक्तियाँ नहीं होतीं। उसमें होता है, ‘राम यहाँ आओ।’ और संत गाते हैं। और संत भी फिर जब समाधिस्थ हो जाते हैं, तो गीत भी शेष नहीं रहता; फिर मात्र मौन है। और समाधि से जब संत वापस आकर पुन: गाते हैं, तो वही समाधि फिर उनके गीतों में फूटती है। निराकार, निर्गुण, अव्यक्त समाधि व्यक्त होने लग जाती है गीतों में — जैसे आकाश से फूल उतर आया हो। था कुछ नहीं और वहाँ से फूल बरस पड़ा।

किसके पास जाओगे? (प्रश्नकर्ता को संबोधित करते हुए)। किस गुरु के पास जाओगे, अगर गा नहीं सकते? ज्ञानमार्गी अष्टावक्र, वहाँ भी तुम्हें दे दिये जाएँगे गीत — लो बेटा गीता पढ़ो। और भक्ति मार्गियों के पास जाओगे, तो वो तो गाने के अलावा कुछ करते ही नहीं। अब तुम कहाँ जाओगे अगर तुम गा नहीं सकते और नाच नहीं सकते?

गीत का जो सम्बन्ध भाषा से है, नृत्य का वही सम्बन्ध शरीर से है। चलने में और नाचने में अंतर समझते हो न? चलने में हर कदम अलग-अलग होता है और नृत्य में नदिया सा प्रवाह होता है, उसमें तुम कह नहीं सकते कि कौन सा चरण कहाँ रुक गया। सब कुछ मिला-जुला है। और चलने में? चलने की हमेशा दिशा है; नृत्य की कोई दिशा नहीं।

चलने में हमेशा लक्ष्य है और भय है। नृत्य में आनंद है, समारोह है, उत्सव है। जाते हो तुम किसी दिशा को, नृत्य थोड़े ही किसी दिशा को करते हो? तुम कहोगे कि हुए हैं मनीषी जिन्होंने गीत नहीं लिखें, जिन्होंने बातें करीं हैं; उनकी बातों में गीत है, उनके शब्दों में छंद है, उनके बोल कविता जैसे हैं।

समझ रहे हो?

जितनी सूक्ष्म बात कहनी होती है, भाषा के लिए उतनी अड़चन आती जाती है। गीत एक आविष्कार है भाषा की उस अड़चन, उस उलझन को सुलझाने का। गीत, आप ये भी कह सकते हैं कि भाषा को तोड़-मरोड़ देता है, भाषा के नियमों का उल्लंघन कर देता है। और आप यह भी कह सकते हैं कि गीत भाषा को संवर्धित कर देता है, भाषा को और उर्वर बना देता है, भाषा से वो करा ले जाता है, जिसके लिए भाषा कभी अभिकल्पित ही नहीं थी।

अगर आप ज़रा जड़ आदमी है, डंडे की तरह अकड़े हुए हैं, तो आप कबीर का कोई दोहा सुनेंगे और कहेंगे व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध नहीं है और होता भी नहीं है कभी। और आप अगर प्रेम के पारखी हैं, तो आप कहेंगे कि कबीर भाषा के जादूगर हैं। जो सम्भव नहीं था, उन्होंने वह कर डाला शब्दों से। अभी आप देखिए कि आपको व्याकरणगत शुद्धता चाहिए या अस्तित्वगत?

नाचने से डरते हो, क्योंकि नाच में नियंत्रण खोता है। है न? इसीलिए न? चाल पूरे तरीके से नियंत्रित होती है, तुम्हें पता होता है क्या कर रहे हैं, कहाँ को जा रहे हैं और समय भी मिल जाता है नपे-तुले कदम रखने का। और नाचने लग गये तो फिर सुरूर है, झूम जाते हो। शुरुआत तुम करते हो नाचने की; फिर ख़ुमार नाचता है। अब डर गये, बाप रे बाप! मेरा बस तो छूटा, मामला मेरे हाथ से बाहर गया, अब नियंत्रण नहीं रहा।

ये जानते हो क्या है? यह अहंकार है। ये अध्यात्म का अभाव है। तुम समर्पण नहीं करना चाहते, तुम नदी की तरह बहना नहीं चाहते। तुम कह रहे हो ‘मैं जो कुछ करूँ, वो मेरे प्रभुत्व में होना चाहिए। मैं कहाँ को कदम रख रहा हूँ इसका मुझे पता होना चाहिए; मैं फैसला करूँगा।’ ये तुमसे बर्दाश्त ही नहीं होता कि तुमसे कुछ हो जाए किसी और का निर्धारित किया हुआ।

हमारे बोध शिविर होते हैं, उनमें अनहद रात्रि होती है। मध्य रात्रि के बाद खेल शुरू होता है ─ पूरी तरह अंधेरा कर दिया जाता है, फिर ढोल पर थाप पड़ती है और कहा जाता है कि तुम भूल जाओ कि तुम कुछ हो। मन की नहीं सुननी है, ये जो थाप पड़ रही है कान पर, इसको मानो कि कहीं और से जैसे आदेश आ रहा है और अपने शरीर को अनुमति दो कि उस आदेश का पालन करे। जैसे-जैसे आवाज़ पड़ती जाए कान पर, वैसे-वैसे शरीर को चलने दो। तुम निर्धारित ही मत करो कि शरीर कैसे चलेगा, बस चलने दो शरीर को — ये नृत्य है।

अब तुम किसी और के कहे पर चल रहे हो और तुम अब जानते भी नहीं कि तुम्हारा हाथ, तुम्हारा पाँव, तुम्हारा पूरा बदन ऐसी गतियाँ क्यों करने लग गया। तुम अब गुलाम हो गये और जिन्हें गुलामी नहीं भाती वो नाचेंगे कैसे? जिन्हें गुलामी नहीं भाती, उनके लिए फिर परमात्मा का भी क्या अर्थ है! क्योंकि परमात्मा तुम्हारे सामने तो मालिक ही बन कर आता है। उससे तो एक ही नाता सम्भव है तुम्हारा — गुलाम हो जाओ; उसी का नाम प्रेम है, उसी का नाम समर्पण है, वही परमात्मा का आलिंगन भी है।

न गा सकते, न नाच सकते, तो फिर तुम करोगे क्या सत्य का? वो तो नचाता ही है, छइयाँ-छइयाँ। बुल्ले शाह के शब्दों में — “मैनू इश्क नचाया, छइयाँ -छइयाँ”। अब वो तो आएगा तो नचाएगा, छइयाँ-छइयाँ और तुम कहोगे, ‘नहीं जी मैं तो नाचता नहीं।’ तो तुम भला हो कि दूर ही रहो। नृत्य समझते हो क्या हुआ? क्या?

प्र: *लूज़ कंट्रोल ओवर योर*। (अपने ऊपर से नियंत्रण खो देना)

आचार्य: मैं पीछे छूटा, अहंकार खत्म, नियंत्रण खत्म। अब ये हस्ती किसी और के सुपुर्द और अब जो हो रहा है स्वयमेव हो रहा है। भक्त भगवान के आगे या तो मौन हो जाता है ध्यान में या फिर नाचता है प्रेम में ─ दो ही स्थितियाँ होती हैं। जब तुम मौन हो गये हो, तो उसके बाद जब शब्द निकलेंगे तो उन शब्दों को कहते हैं ‘कविता’।

शुद्ध भाषा में कहूँ तो श्लोक या ऋचा। यदि मौन हो गये हो तो जब बोलोगे तो वो काव्य होगा। और यदि स्थिर हो गये हो तो जब गति करोगे तो वो नृत्य होगा। परमात्मा के सामने यही दो विकल्प बचते हैं तुम्हारे पास ─ वाणी से ऋचा उद्भूत होगी और शरीर से नृत्य। और अगर तुम्हारे लिए नाच-गाना नहीं फिर, तो तुम परमात्मा से तो बच कर ही रहना। वो तो नचाता भी है, गवाता भी है; और कुछ वो करता ही नहीं।

प्र: महावीर, वो तो मौन हो गये थे।

आचार्य: वो तो मौन हो गये थे। जो व्यक्ति मौन है, यदि वो बोलता है तो वाणी काव्यात्मक होती है। और जो व्यक्ति स्थिर है, जब वो गति करता है तो उसकी चाल में एक लोच होती है, एक सौंदर्य होता है — उसी को नृत्य कहते है।

वो अंतर इसलिए दिखता है क्योंकि नृत्य की हमारी व्यक्तिगत परिभाषाएँ हैं। सूक्ष्म नृत्य को हम नृत्य मानते ही नहीं। हम जिस तरह का आयोजित, व्यवस्थित नृत्य करते हैं; जब हम किसी को वैसा ही नृत्य करते देखें, तो हम कहते हैं नृत्य है।

महावीर की चाल में जो नृत्य निहित है उसे हम नृत्य मानते ही नहीं, क्योंकि बहुत सूक्ष्म है। बुद्ध की वाणी में जो काव्य निहित है उसे हम काव्य माने ही न, अगर वो स्वयं ही न कह दें कि ये धम्मपद है। ये तो उन्हें कहना पड़ा न कि यह क्या है? धम्मपद है।

हमसे पूछा जाए कि क्या बुद्ध कवि थे? तो हम कहेंगे, ‘अजी कहाँ? बुद्ध कहाँ कवि थे?’ जैसे हमें बुद्ध का कवित्व न दिखायी दे, उसी तरह हमें महावीर का नृत्य न दिखायी दे। मीरा का नृत्य दिखायी दे जाता है, क्योंकि संयोगवश मीरा का नृत्य; नृत्य की हमारी परिभाषा से मेल खाता है — नृत्य महावीर का भी है। और वो नहीं है नृत्य जिसे आप आमतौर पर नृत्य का नाम देते हो। टेलीविज़न पर, रियलिटी शो पर वो सब जो आप नाच के नाम पर देखते हो वो नृत्य नहीं है।

नृत्य की परिभाषा है कि जो आंतरिक रूप से स्थिर हो गया हो; वह जब गति करे उसे नृत्य कहते हैं। अगर पहले ही रट रखा है कि कैसे नाचना है, अगर पहले से ही तुम तैयारी करके आए हो; तो नृत्य नहीं हुआ। नृत्य को तो होना ही पड़ेगा त्वरित, तात्कालिक। जहाँ कहीं भी आयोजन उपस्थित है, जहाँ कहीं भी भविष्य के लिए तैयारी उपस्थित है, वहाँ नृत्य नहीं हो सकता।

आपको सौ लोगों के सामने नाचना है और उसके लिए आप दो महीने से तैयारी कर रहे हो। पक्का है कि आप जो कुछ भी करोगे उसे नृत्य नहीं कहा जा सकता। और जो गति कुछ पाने के लिए की जाए उसे नृत्य या काव्य नहीं कहा जा सकता।

आप नाच यदि इसलिए रहे हो कि नाच कर कुछ मिल जाएगा, तो आप नाच नहीं रहे हो। वह किसी प्रकार का स्वांग है, वो रटी-रटाई अंगों की गति की एक व्यवस्था है। आपने कहा है, ‘क्रमिक रूप से मैं पहले यह करूँगा, फिर ये करूँगा, फिर यह करूँगा।’ अरे! ये नृत्य कहाँ है? नृत्य बात कुछ और है, किसी और तल की बात है।

जब कुछ पाने के लिए बोलो तो वो काव्य नहीं हो सकता और जब कुछ पाने के लिए गति करो तो वह नृत्य नहीं हो सकता। और जब भी कभी पा करके बोला तो जो बोला सो ‘काव्य’। और जब भी कभी पा करके गति की तो जो गति की सो ‘नृत्य’।

तो जब मैं कहूँ काव्य और नृत्य, तो उसका अर्थ वो मत लगा लेना जो सामान्य नृत्य और सामान्य काव्य से होता है। मैं उन भोंडे नृत्यों की बात नहीं कर रहा हूँ।

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