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लेख
गंजे लोगों के लिए खुशखबरी || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, हाल ही में मैं एक न्यूज़ (ख़बर) पढ़ रहा था, जिसमें यूके इंग्लैंड के एक कोर्ट ने रुलिंग (निर्णय) दी है कि पुरूषों को — जो गंजे हैं — उनको गंजा कहना एक सेक्सुअल हेरासमेंट (यौन उत्पीड़न) के तौर पर लिया जाएगा।

और उसमे उन्होंने तर्क ये दिया है कि महिलाओं की अपेक्षा पुरूषों में जो गंजापन है, वो ज़्यादा होता है। तो उनको इस बात पर चिढ़ाना या उनको इस तरीके से कमैंट्स (टिप्पणी) करना, ये ऑफेंसिव (अपमानजनक) है।

तो ये न्यूज़ पढ़कर मैं काफ़ी चकित हुआ, क्योंकि बचपन में या काफ़ी बड़े होने के बाद भी, हम अपने यार-दोस्तों में या फिर जो भी हमारे जो क्लोज्ड वन्स (क़रीबी) हैं, उनसे ऐसा मज़ाक तो करते ही रहते हैं।

किसी को टकला बोल दिया या फिर मोटा बोल दिया, नाटा बोल दिया, मतलब उनके शरीर के किसी अंग को लेकर के थोड़ा-मज़ाक कर दिया।

तो मेरा सवाल इसमें ये है कि मज़ाक की एक सीमा कहाँ तक होनी चाहिए? एक हैल्दी जोक (स्वस्थ मज़ाक) क्या होना चाहिए और किसके बाद ये निर्धारित किया जा सकता है कि ये ऑफेंसिव हो जाता है?

कहाँ पर इसको ऑफेंस (अपराध) का नाम दिया जा सकता है? ये बॉउंड्री (सीमा) हम कहाँ तय करें?

आचार्य प्रशांत: पुरूषों का तो कद भी महिलाओं से ऊँचा होता है, तो किसी को कहना कि वाह! लम्बा है, ये भी सेक्सुअल (यौन उत्पीड़न) हो गया। जैसे पुरुष गंजे ज़्यादा होते हैं महिलाओं से, वैसे ही पुरुष लम्बे भी ज़्यादा होतें हैं महिलाओं से।

तो गंजा कहना सेक्सुअल हरासमेंट (यौन उत्पीड़न) है, तो लम्बा कहना भी हो गया। कोई हैंडसम (आकर्षक) महिला देखी है, तो हैंडसम भी पुरुष ही होते हैं।

तो किसी को अगर तुमने बोल दिया टाल, डार्क एंड हैंडसम (लम्बा, काला और आकर्षक) तो जेल हो जानी चाहिए। हो जानी चाहिए न।

दाढ़ी भी पुरूषों के ही होती है, तो किसी को बोल दिया, ’वॉव! नाइस बीअर्ड (वाह बढ़िया दाढ़ी)।‘ तुरन्त पुलिस को बुलाया जाये। तो ग़लत कर दिया।

तो मूर्खताओं का कोई अन्त नहीं है और मुझे लगता नहीं कि तुम जो बोल रहे हो वो बात तथ्यगत है, ऐसा नहीं कर सकते।

प्र: मैंने पढ़ी थी ये न्यूज़ (ख़बर)।

आचार्य: ठीक से पढ़ना। ये वो वाला तो न्यूज़ नहीं पढ़ रहे हो? (श्रोतागण हँसते हुए)

प्र: वॉट्सऐप फॉरवर्ड नहीं है ये (हँसते हुए)।

आचार्य: नहीं, वॉट्सऐप नहीं बहुत सारी अब वेबसाइट्स भी हैं जिनका सिर्फ़ यही काम है इसी तरह का छापना और उनकी ख़ूब रीडरशिप (पाठक) रहती है।

मुझे नहीं लगता कि ब्रिटेन में इस तरह का कोई कानून बन सकता है। एकदम मूर्खता की बात है ये।

प्र: वेरिफाई (सत्यापित) कर लूँगा एक बार।

आचार्य: वेरिफाई (सत्यापित) कर लेना।

प्र: जी।

आचार्य: आप किस-किस चीज़ पर चोट खाओगे, फिर तो कोई आपसे ज़रा सा भी हँसी-मज़ाक कर ही नहीं सकता। हास्य-विनोद, प्रहसन् ये जीवन में एक स्फूर्ति लाते हैं न।

मैं तो कहता हूँ कि कौन सा आदमी मानसिक रूप से कितना विकसित है, ये इससे पता चलता है कि वो कितने चुटकुले समझ भी पाता है। ज़्यादातर लोग तो समझ भी नहीं पाते।

और बिना तैयारी के चुटकुला मार देना, ये तो एक कला होती है अद्भुत। इसमें अब क्या बोलूँ कि किसी को चोट लग गयी, क्या हो गया अब। अगर जो बोला जा रहा है वो ठीक है और मंशा ये नहीं है कि आप को आहत ही कर दे, और फिर भी आप चोट खा रहे हैं तो ये आपके लिए ही अच्छा नहीं है।

अपने पर हँसना सीखिए, हल्कापन आएगा जीवन में एक।

और ऐसे इंसान से मिलो जिसपर थोड़ा सा भी व्यंग्य कर दो और वो तिलमिला जाता हो, तो वो इंसान अच्छा नहीं है। वो इंसान बहुत डरा और घबराया हुआ है। जो डरा, घबराया होता है, वो हिंसक भी होता है।

किसी व्यक्ति में अहंकार कितना कम है, ये इससे भी जाना जा सकता है कि तुम उसके ऊपर व्यंग्य क्या, कटाक्ष भी कर दो, तो वो उसको कैसे लेता है।

साथ-ही-साथ जो करते हैं कटाक्ष उन्हें भी ये ख़याल रखना होता है कि भई, तुम्हारी नियत क्या है। हँसाकर के एक सन्देश दे देना एक बात है और इरादा ही घाव देने का हो, वो बिलकुल दूसरी बात है।

हँसाकर सन्देश दे रहे हो तो हितैषी हो सामने वाले के। और व्यंग्य के माध्यम से सिर्फ घाव देना चाहते हो, तो ये तो तुम भड़ास निकाल रहे हो, दुश्मनी है, खुंदक है।

लेकिन सामने वाला किसी भी नियत से आप पर व्यंग्य कर रहा हो, आपको प्रयास ये करना चाहिए कि हँस ही लें।

किसी तीसरे व्यक्ति पर अगर व्यंग्य किया गया हो, तो फिर भी मत हँसिएगा कहिएगा बैड जोक (ख़राब मज़ाक) लेकिन आपके ऊपर अगर कोई बात बोली गई है तब तो कोशिश यही होनी चाहिए कि कहें बढ़िया! अच्छा है!

छोटी-छोटी बातों पर आहत होना छोड़ दीजिए। मोटी चमड़ी के हो जाइए। अगर आप लोगों को अधिकार नहीं देंगे कि वो आप पर चुटकुला बना सकें, कुछ व्यंग्य-विनोद कर सकें तो लोग आपके निकट भी नहीं आ पाएँगे।

मेरी जो मित्र-मंडली रही उसमें तो मैंने यही देखा था कि आप दोस्त हो ही नहीं अगर आप मौका नहीं तलाश रहे हो कि कैसे इसकी टाँग खींचू और इसको बिलकुल…।

चोट खाना सीखिए और अपने ऊपर हँसना सीखिए, सच्चाई भी यही है कि यहाँ कौन ऐसा नहीं है, जिसके ऊपर हँसना नहीं चाहिए। आप नहीं जानते?

अभी हम सब यहाँ बैठे हुए हैं पर दो बातें ज़रा पकड़िएगा। एक — दिख तो ये स्थूल शरीर रहा है कि बैठा हुआ है। मन में क्या चल रहा है और वो सब सामने आ जाए, तो ठहाके फूटेंगे कि नहीं?

यहाँ बैठे-बैठे ही जो कुछ भीतरी तौर पर हो रहा है, वही बाहरी तौर पर होने लग जाए तो मज़ा आ जाएगा, नहीं आ जाएगा।

एक ये बात और दूसरी बात ये कि जब हम सामाजिक क्षेत्र में होते हैं, जैसे - यहाँ बैठे हैं आप, तब तो हम ऐसे हो जाते हैं कि देखो हम बहुत सम्मानीय और गम्भीर व्यक्ति हैं, हम पर हँस मत देना।

पर जब अपने एकान्त में होते हैं और वहाँ जो कार्यक्रम चलता है वो कॉमेडी शो है कि नहीं है। है कि नहीं है?

तो इतनी तकलीफ़ क्या हो रही है मानने में, सीधे कहिए न ज़िन्दगी ही तो चुटकुला है और क्या है। चुटकुला माने क्या होता है, चुटकुले में कभी झूठ नहीं होता।

चुटकुले में हमेशा एक विसंगति का पर्दाफ़ाश किया जाता है। विसंगति समझते हो, एक एनामोली, एक ऐसी चीज़ जो होनी नहीं चाहिए पर है। वो सामने जब आती है तो हँसी छूट जाती है।

वरना आप बताओ हँसी क्यों आये चुटकुले पर, क्योंकि वहाँ पर एक ऐसी चीज़ दर्शा दी जाती है जो बहुत ही अज़ीब है।

तो एक तरह से भंडाफोड़ किया जाता है, इसलिए आप हँस पड़ते हो। फिर चुटकुला तो सत्य के बहुत क़रीब हो गया न।

अगर चुटकुला सच्चाई के क़रीब नहीं होगा तो असफल हो जाएगा। हँसोगे ही नहीं। चुटकुला सच्चाई के क़रीब नहीं होगा तो आपको हँसी ही नहीं आएगी।

तो चुटकुलों से जिनको आपत्ति है तो समझ लीजिए फ़िर उन्हें सच्चाई से आपत्ति है। और चुटकुले में सच्चाई नहीं है तो वो वैसे भी बैड जोक (बुरा मज़ाक) है।

वो जिसने चुटकुला मारा वो सब देख रहा होगा, लोग पूछ रहे होंगे क्या करना है इसपर, हँसना है। क्या करना है। हँसी तो बहुत ज़बरदस्त चीज़ होती है और चुटकुला मार देना एक बड़ी जीवनदायिनी चीज़ है। नहीं तो इस क्रूर ज़िंदगी में जिओगे कैसे?

ये सब संस्था में हैं, अच्छा तुम भी तो हो। तो, मतलब जो मुझसे नियमित रूप से सम्पर्क में रहते हैं, इतनी ज़्यादा मुझसे डाँट खाते हैं। अभी सुबह भी खायी है इन्होंने, उसके बाद भी इनपर फर्क़ नहीं पड़ता।

तो मैंने टटोला कि फर्क़ पड़ता क्यों नहीं है। इतना…, बोले, ‘डाँटते-डाँटते आप बीच में चुटकुला मार देते हो। सारा असर ही ख़त्म हो जाता है डाँट का।

जैसे-जैसे हम गम्भीर हो रहे होते हैं और डर रहे होते हैं कि कुछ अब आज मामला गम्भीर है, वैसे ही बीच में आपका पीजे (ख़राब चुटकुला) आ जाता है। और मेरी आदत है ऐसी कि मैं किसी चीज़ का जोक मज़ाक ना बना दूँ, वो मुझसे होता नहीं है।

हाँ, वो इस किस्म के नहीं होते हैं कि अभी मैं,...तुमसे कह सकूँ, पर उनको सुनने के लिए भी पात्रता चाहिए। जो निकट आ जाते हैं, उनको ही मिलते हैं।

मेरी और देवेश जी की चली थी, जिसमें मुँह की खायी है उन्होंने। ये देखो हँस पड़े। बताओ संजय, क्या चला था। मेरी…। हाँ, बताओ-बताओ। किसको याद है? देवेश जी हैं यहाँ पर आस-पास। तुम बता दो अच्छा। (संस्था के सदस्य से)।

संस्था का सदस्य: सर, ठीक से याद नहीं, पर स्कोर आपका इसमें काफ़ी हाई (ज़्यादा) था।

आचार्य: मेरी और देवेश जी की चली थी कि नॉन-स्टॉप (बिना रुके) रियल-टाइम पीजे (वास्तविक समय के ख़राब चुटकुले) कौन मारेगा ज़्यादा। और उनको ऐसा धराशाई किया मैंने, पच्चीस-एक, पच्चीस-दो, ऐसा कुछ स्कोर था।

अब ये सुन रहे होंगे देवा तो किलथ रहे होंगे। बोलेंगे, ‘पच्चीस-एक, पच्चीस-दो नहीं था, क्लोज कांटेस्ट (क़रीबी मुकाबला) था।‘ देवा झूठ तो बोलिए नहीं, सबको पता है (हँसते हुए)।

महिलाओं में चुटकुलों के प्रति थोड़ा कम रुचि होती है। ये बात, ये बात ठीक नहीं है। इस बात के प्रति सावधान रहना चाहिए।

अपनेआप को इतना गम्भीरता से लेना कोई ज़रूरी नहीं है और कोई आप का मज़ाक उड़ा दे इसमें आपका अपमान नहीं हो गया।

सबसे अच्छा तो ये है कि ख़ुद ही अपना मज़ाक उड़ा दिया जाए बात-बात में। वो भी साधना की एक विधि जैसा हो जाएगा। मेथड ऑफ मेडिटेशन।

क्या करते हो दिनभर, अपना मजाक उड़ाते हैं। स्वयं पर चुटकुले लिखते हैं।

वो एक हास्य कवि थे और उनकी पूरी कविता, उनके और उनकी पत्नी के बारे में होती थी। हरियाणवी अन्दाज में बोलते थे।

श्रोता: सुरेन्द्र शर्मा।

आचार्य: सुरेन्द्र शर्मा। वो हर समय यही बता रहे होते थे कि कितनी दुर्गति है ज़िन्दगी में और उनका मुँह ऐसा होता था कि आपको लगे कि बेचारा…। (श्रोतागण हँसते हुए)

लेकिन लोग लोट रहे होते थे ज़मीनों पर, उनकी बातें सुनकर के। वो इतने सफल कवि थे। वो अपने ही ऊपर चुटकुला बना देते थे, उन्होंने अपने ही ज़िन्दगी को बना रखा था।

“मैं घरारी से कहओ” याद आ रहा है? हाँ, चार लाइना।“

बाक़ी तुम ख़बर की जाँच कर लेना।

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