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लेख
एक वो ही ज़िंदा है, बाकी सब मुर्दे || आचार्य प्रशांत
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: और गहरा समझना चाहूँगा कि जब धर्म की बात होती है तो पुनर्जन्म की बात तो होती ही होती है। तो इनके बीच का क्या सम्बन्ध है?

आचार्य प्रशांत: अरे भाई, धर्म ये जानने में है कि ये जन्म झूठा है। अगला जन्म कहाँ से आ जाएगा? अगला जन्म तो तब होगा न जब पहले ये वाला जन्म हो। जो है ही नहीं वो अपने अगले जन्म की बात कर रहा है। उसे पूछो कि तेरा ये वाला जन्म कब हुआ।

जिसका आज नहीं है वो अपने कल की बात कर रहा है। अपने बीते हुए कल की भी और आने वाले कल की भी। हम आज ही ज़िन्दा नहीं हैं। हमें अगला जन्म कहाँ से मिल जाएगा? लोग पूछते हैं, ‘अगला जन्म नहीं होता?’ मैं पूछता हूँ, ‘किसका? तुम मुर्दे हो, तुम अभी भी ज़िन्दा नहीं हो। तुम अगले जन्म में कैसे पहुँच जाओगे?’ कोई नहीं ज़िन्दा है। सब मृत हैं। सब प्रकृति की प्रक्रियाएँ मात्र है। प्रक्रियाओं को हम जीवित कैसे बोल दें?

मैं ये कुर्सी का हत्था है (कुर्सी पर हाथ से चोट करते हुए), इसे मैंने ऐसे मारा तो इसने आवाज़ करी तो हम क्यों नहीं बोलते कि ये ज़िन्दा है। इसने अभी-अभी आवाज़ करी। जैसे ये हत्था आवाज़ कर रहा है। इस पर किसी का आघात हुआ, ये बोल पड़ा, वैसे भी तुम्हारे मन पर कोई चोट कर दूँ तुम चिल्ला दोगे मुझ पर। तो तुममें और इस कुर्सी में क्या अन्तर है? कोई अन्तर नहीं है। कुर्सी को तुम ज़िन्दा बोलते नहीं, तो तुम ज़िन्दा कैसे हो गये?

मैं कुर्सी पर चोट करता हूँ, तो कुर्सी आवाज़ कर देती है। मैं किसी इंसान पर भी चोट अगर कर दूँगा, हाथ से नहीं शब्द से तो इंसान भी बोल पड़ेगा, भड़क जाएगा। तो कुर्सी में, उस इंसान में अन्तर क्या है? मैं कैसे बोलूँ इंसान ज़िन्दा है? हम ज़िन्दा हैं ही नहीं।

हम पैदा तो होते हैं पर हम जीवित नहीं होते और जीवन का फिर इसलिए उद्देश्य है, जीवित हो पाना। धर्म का उद्देश्य है, आपको जीवन दे देना।

माँ आपको देह देती है, जीवन नहीं दे पाती। माँ से आपको देह मिलती है, धर्म से आपको जीवन मिलता है। और जिसको जीवन मिल जाता है वो जान जाता है कि अगला-पिछला जन्म कुछ नहीं होता। और जो अभी ज़िन्दा नहीं है वो बहुत ज़्यादा बात करते हैं अगले-पिछले जन्म की। (मुस्कुराते हुए) जो अभी ज़िन्दा ही नहीं है वो बात करते है कि मरने के बाद क्या होगा। कहते हैं, ‘मरने के बाद एक दरबार लगेगा, फैसला होगा हमारा।’ मरने के बाद दरबार लगेगा और तुम्हारा फैसला होगा? तुम तो अभी ही मरे हुए हो, तुम चलती-फिरती लाश हो।

सन्तों ने गाया है: “साधो रे, ये मुर्दों का गाँव।”

यहाँ ज़िन्दा है कौन? और ये अपनेआप को बोलते हैं कि हम ज़िन्दा हैं। और इनको बड़ा डर लगता है मौत से। मरे हुए मुर्दे को मौत से डर लगता है! ये देखो अचम्भा! “एक अचम्भा देखिया।” मुर्दा मौत से घबरा रहा है। मौत से भी घबरा रहा है और अगले जन्म की बात भी कर रहा है। तू अभी तो पैदा हो ले।

जो तुम्हें अभी पैदा कर देता है उसका नाम धर्म है। और जब धर्म तुम्हें पैदा करता है तो तुम्हें अगले जन्म की ज़रूरत नहीं पड़ती, उसको अमरता कहते हैं। जो माँ की कोख से पैदा हुआ वो पैदा ही नहीं हुआ, वो मुर्दा है तो उसका यही जन्म नहीं है, अगला जन्म कैसे होगा? और जो धर्म की कोख से पैदा हुआ उसे अगले जन्म की बात करनी नहीं पड़ती क्योंकि वो अमर रहता है।

प्र १: और सर, ऐसा क्यों हुआ कि बिना असफल हुए हर धर्म जो बना सम्प्रदाय बना, उन्होंने पुर्नजन्म की बात की है।

आचार्य: खिलौना, झुनझुना।

प्र १: कोई तो कारण होगा।

आचार्य: यही तो है तुम बच्चे हो तुम्हें झुनझना चाहिए, तुम परेशान रहते हो जैसे तुम लगातार कल-कल-कल की बात करते हो, वैसे ही तुम्हें मौत के बाद भी अभी एक कल चाहिए। भविष्य से तुम कभी बचते हो क्या? भविष्य के ही तो हर समय तुम्हारे मन में ख़याल चलते रहते हैं। और भविष्य ही तुम्हारा इंजन है वही तुमसे काम कराता है। तो इंसान एकदम ही अनाचारी दुराचारी बलात्कारी न हो जाए तो उसको मरने के बाद भी एक भविष्य बता दिया कि मरने के बाद भी भविष्य चलता रहेगा, कुछ और होगा तो उससे इंसान ज़रा काबू में रहता है। उल्टे-पुल्टे काम नहीं करता। बस यही बात और कुछ भी नहीं।

इतनी हमने कभी चेतना पायी ही नहीं कि हम कुछ बहुत सीधी-साधी स्पष्ट बातें भी समझ पाएँ। हम बड़े बुद्धू लोग रहे हैं, हम अपने ही दुश्मन रहे हैं तो फिर हम किसी तरीक़े से बस ज़िन्दगी अपनी काट दें, घिसट-घिसटकर। इसके लिए हमको ये सब बातें बता दी जाती हैं कि ऐसा होगा, फिर वैसा होगा, ये होगा, वो होगा। क्या होगा? जो बुरे से बुरा हो सकता हमारे साथ वो तो अभी हो रहा है। आगे क्या अच्छा, क्या बुरा होगा? हम जगे हुए लोग नहीं हैं। हमें सच्चाई का पता नहीं है। हम बेहोश जी रहे हैं इससे बुरा क्या हो सकता है? हम अपने ही सार से परिचित नहीं हैं। मैं नहीं जानता कि ये जो मेरे भीतर बोल रहा है ‘मैं’, ये चीज़ क्या है, इससे बुरा क्या हो सकता है?

पूरे-के-पूरे धर्म हैं और बड़े-बड़े सम्प्रदाय, वो दुनिया भर की बातें करेंगे; और न उनकी बातों में, न उनकी किताबों में कहीं भी 'मैं' का उल्लेख है। सेल्फ़ जैसी कोई चीज़ वहाँ आती ही नहीं। दुनिया भर की बातें हो रही हैं। ‘ये है, उस आसमान पर वो चीज़ बैठी हुई है और ये वहाँ पर फ़लाना घूम रहा है और ये भूत है, प्रेत है, जिन्न हैं, हूर है, फरिश्ता है।’ पचास तरह की चीज़ें चल रही हैं। उनसे पूछो, ‘मैं’ की कोई बात हुई है? ये मैं कौन है? ये भीतर से कौन बोल उठता है? उसकी कोई बात ही नहीं हो रही है। जब इस तरह की चीज़ें होती हैं न तो फिर हमें झुनझने चाहिए होते हैं।

भारत का दुनिया को सबसे जो बड़ा योगदान रहा है उसको कहते हैं, ‘आत्मा’। भारत ने विश्व को आत्मा दी है। अब ये बात लेकिन भारतीय भी समझ नहीं रहे। हम पचास तरह की और चीज़ें गिनते रहते हैं। और जो भारत का सर्वोच्च योगदान है उससे हम स्वयं ही वंचित हैं। आत्मा। आत्मा माने भीतर जो मुर्दा है उसका ज़िन्दा हो उठना। अहंकार माने वो जो परिस्थितिजन्य है, जो प्राकृतिक है, जो बस प्रक्रियाओं से बन जाता है। जो बाहरी प्रभावों की निर्मिति है उसको कहते हैं ‘अहंकार’। जो है ही नहीं मिथ्या है, झूठ-मूठ का। 'मैं', 'मैं', 'मैं' करता रहता है, बकरी की तरह; उसे बोलते हैं ‘अहंकार’। वो मुर्दा है।

आत्मा माने जीवित हो उठना।

आत्मा माने होता 'मैं'। आत्मा माने सच्चा 'मैं'। ‘मैं’ जीवित हो उठा।

भारत ने विश्व को आत्मा दी है माने भारत ने विश्व को जीवन दिया है।

लेकिन भारतीयों को ख़ुद ही नहीं पता आत्मा क्या। वो भी धर्म का मतलब क़िस्से-कहानियाँ पकड़कर बैठ गये हैं।

सब अन्धविश्वासी बन गये हैं और आत्मा का भी उन्होंने उल्टा मतलब निकाल लिया है। आज किसी से पूछो, ‘आत्मा क्या होती है?’ वो कहते हैं, ‘भीतर एक चिरैया होती है मरो तो फुर्र से उड़ जाती है। उसको आत्मा बोलते हैं। कहते हैं, ‘क्या करती है फुर्र से उड़कर के?’ बोलते हैं, ‘जाकर कोई स्त्री होती है गर्भवती, उसके पेट में घुस जाती है। उसको आत्मा बोलते हैं।’ भारतीयों ने आत्मा का ऐसा अनर्थ कर डाला। क्या धार्मिकता?

प्र २: कहना चाह रहे हैं कि जो तर्क है, वो तो यही है कि ये जो चीज़ है, ये सुपरस्टिशन है, अन्धविश्वास है और आप इसका भरसक विरोध करते हैं लेकिन जब तथ्य यही है कि आम आदमी का विवेक इतना है ही नहीं कि वो असली बात को समझ पाये।

आचार्य: इतना होता नहीं है, चुनाव होता है, तुम पकड़ ही नहीं रहे हो। देयर इज़ नो गिवन, देयर इज़ ओनली ए चॉइस। (कुछ भी दिया हुआ नहीं है, सबकुछ सिर्फ़ एक चुनाव है) आम आदमी अविवेकी होता नहीं है, उसने अविवेकी होना चुना होता है। होता नहीं है, चुना होता है। तो तुम किसी भी चीज़ को फ़ैक्ट नहीं बोल सकते वो एक च्वाइस है जो कि कभी भी बदल सकती है लेकिन बदले तो तब न जब थोड़ा उसको कहीं, थोड़ी रोशनी आ जाए, हल्का-सा सहारा दे दो। कुछ तो थोड़ा-सा कर दो। चारों ओर से उसके ऊपर चढ़ बैठे हो और उसको उल्टी ही पट्टी पढ़ा रहे हो, और वो ख़ुद भी बेहोश है, ख़ुद भी वो ऐसा ही है पाशविक तो वो अपने उल्टे-सीधे निर्णय लेता रहता है।

प्र २: तो मतलब आपको इस बात पर पूरा यक़ीन है कि अगर लोगों को ये ऑप्शन या ये द्वार दिखाया जाए तो वे निश्चित ही चुनेंगे।

आचार्य: कोई एक घटना नहीं है लगातार करना होगा। तुम दिखाओगे कुछ सही चुनेंगे, कुछ ग़लत चुनेंगे। जो सही चुनेंगे, सम्भावना है वो कल दोबारा ग़लत चुन लें। जो ग़लत चुनेंगे अभी उम्मीद है कि कल वो सही चुन सकते हैं। तो ये एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है।

धर्म कोई एक दिन की बात नहीं होती कि तुम्हें एक दिन हिन्दू घोषित कर दिया या चर्च में लाकर इसाई बना दिया कि आज तुम इसाई बन गये। नहीं। तुम्हें, धार्मिक रोज़ बनना पड़ता है। तुम्हें रोज़ चुनाव करना पड़ेगा कि आज मुझे धार्मिक रहना है ये रोज़ की बात है। कोई एक दिन कुछ कर लेने से तुम धार्मिक नहीं हो जाते। न तुम किसी हिन्दू घर में पैदा होने से सनातनी हो जाते हो। वो रोज़ एक चुनाव की बात है।

प्र२: इसे ही साधना कहते हैं?

आचार्य: यही साधना है। पूरा जीवन और क्या है, साधना के अलावा और क्या है जीवन! और यही होती है साधना रोज़-रोज़। रोज़ प्रतिक्षण सही निर्णय लेना। मुक्ति के पक्ष में निर्णय लेना ही साधना है। और नहीं कोई साधना होती, बाक़ी सब मनोरंजन है।

प्र१: सर, एक मेरी बहुत जिज्ञासा इस बात पर रहती है कि अब मैं वापस पुनर्जन्म का प्रश्न लेकर आऊँगा। मैं देखता हूँ कि जो भी समकालीन शिक्षक रहे हैं, उन्होंने कभी इस मुद्दे को ज़्यादा हाथ नहीं लगाया या फिर कहीं-न-कहीं बहुत इतना स्पष्ट नहीं बताया। तो मैं मतलब जैसे अभी शुभंकर ने पूछा कि आर वी कॉन्फिडेंट (क्या हमें विश्वास है) कि जो आम आदमी है वो उसको ये बात बतायी जाएगी तो उसका सही उपयोग करेगा?

आचार्य: मैं तो ये जानता हूँ कि जो आम आदमी है वो बड़ी ख़राब हालत में है। जो ख़राब हालत में है उसको झुनझुना नहीं, दवाई चाहिए। आम आदमी की बड़ी दुर्दशा है। तुम उसकी हालत देखो, उसकी शक्ल देखो, उसकी ज़िन्दगी कैसी ख़राब है। तुम क्यों उसको झुनझुना थमा रहे हो कि ऐसे हो जाएगा, आगे हो जाएगा, ये होगा फिर अगले में ये होगा तो चींटी बनेगा, ये होगा तो राजा बनेगा? क्या ये तुम कर रहे हो खिलवाड़? उसको दवाई दो न। तुम्हें उस पर ज़रा भी करुणा नहीं है, उसकी हालत देखो, वो बेचारा कितना परेशान है। उसका उपचार करो, उसे मनोरंजन मत दो। मनोरंजन से वो थोड़े ही ठीक हो जाएगा।

और उसकी जो अभी ख़राब हालत है उसका क्या कारण है? विक्षिप्त अहंकार। भीतर जो कूट-कूटकर के झूठी मान्यताएँ और धारणाएँ भरी हुई हैं, उन्होंने ही तो हमारी ज़िन्दगी ख़राब कर रखी है न। और उन बेकार की बातों को हटाने की जगह जो भीतर हमने तमाम मान्यताएँ भर ली है बिलिफ़्स। उनको हटाने की जगह हम उसको एक और बिलीफ़ दे दें नेक्स्ट लाइफ़ या आफ़्टर लाइफ़ के बारे में, तो इससे उसका कुछ भला होगा बेचारे का? फिर?

प्र २: एक तर्क तो कुछ इस तरह से आता है, जैसे पहाड़ी इलाकों में सब देवताओं को पूजते हैं और कहते हैं कि चोरी मत करना वरना देवता पाप देगा। तो हर आदमी के अन्दर वो लालच बैठा होता है कि कुछ उठा लूँ, कुछ कर लूँ। तो एक स्तर पर ये तर्क रहता है कि ये जो हमने बताया उससे कम-से-कम ये तो फ़ायदा हुआ न कि कल को आदमी चोरी नहीं कर रहा।

आचार्य: वो चोरी नहीं करेगा, कुछ और करेगा। हर तरीक़े के पाप के लिए तुम थोड़े ही नियम बना लोगे। और जब तुम नियम बनाते हो न, फ़लानी चीज़ का पाप लगता है। तो तुम फिर उस पाप की शुद्धि कैसे करनी है ये भी बता देते हो। तो फिर वो जितने पाप करने होते है करता है और जाकर के मन्दिरों और मस्जिदों में जाकर दान कर आता है कुछ। वो कहता है, ‘पाप कर लिये हैं। जाकर उसका टैक्स भर तो आया मैं, हो गया, ठीक हो गया।’

प्र १: गंगा नहा लिया।

आचार्य: बहुत काम होते हैं।

प्र २: प्रायश्चित कर लिया।

आचार्य: प्रायश्चित कर लिया कुछ और कर लिया, हो गया, ठीक है, चल गया। जीवन की हर स्थिति के लिए तुम नियम कैसे बना दोगे? कैसे बना दोगे? और स्थिति चल क्या रही है उस बेहोश को तो ये भी पता नहीं है। तुम कहोगे, ‘ऐसी स्थिति में ये काम करना।’ वो काम करने के लिए भी सर्वप्रथम ये पता होना चाहिए कि वो स्थिति चल रही है। उसको यही न पता हो वो इतने नशे में हो कि स्थिति क्या चल रही, तो क्या करोगे तुम?

उदाहरण के लिए, खाना सड़ गया हो तो उसको फेंक देना। अब घूम रहे हैं हमारे बन्धु और वे घोर नशे में हैं और उनको पता नहीं चल रहा कि खाना सड़ गया है, अब क्या करोगे? अब कैसे चलेंगे, तुम्हारे नियम-क़ायदे और नैतिकता? पहली बात तो तुम जीवन की हर स्थिति के लिए नियम तुम बना नहीं सकते, बहुत मोटी हो जाएगी किताब। और तब भी उसमें सब स्थितियाँ नहीं आएँगी और समय बदलता रहता है स्थितियाँ बदलती रहती है नयी-नयी चीज़ें आ जाती तो सब चीज़ों के लिए तुम किताब बना नहीं सकते। और दूसरी बात तुमने बना भी दी तो जो आदमी पागल है, बेहोश है, नशे में है, उसे पता कैसे चलेगा की अभी कौनसी स्थिति चल रही है?

प्र१: और वो उन पर अमल कैसे करेगा?

आचार्य: और पता भी चल गया कि क्या स्थिति चल रही है और उसको कहा गया कि फेंक दो। तो फेंक दो का अर्थ ये भी तो लगा सकता है कि इधर फेंक दो (मुँह में डालने का इशारा करते हुए)। अरे! क्या किया? फेंक दिया। अन्दर फेंक दिया। कुछ भी कर सकता है, इतनी धार्मिक किताबें हैं। देखा नहीं है इंसान ने उनके कैसे उल्टे-सीधे अर्थ किये हैं, अपने स्वार्थ के अनुसार? एक-एक किताब के बीस-बीस, अलग-अलग तरीक़े से अर्थ किये गये हैं अब बीस अर्थ तो नहीं हो सकते और एक ही अर्थ होगा और जो एक अर्थ है वो कोई नहीं करना चाहता। बीस अर्थ करे हैं और बीसों झूठे अर्थ करे हैं। क्योंकि बीसों अर्थ बस अपने स्वार्थ और अपनी धारणा को सिद्ध करने के लिए करे हैं।

प्र २: अपने पागलपन को जायज़ ठहराने के लिए।

आचार्य: अपने पागलपन को जायज़ ठहराने के लिए। आपने उस किताब का भी उल्टा अर्थ कर दिया। तो होश के अलावा कोई इलाज नहीं है।

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