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लेख
एक गधे की मौत पर || आचार्य प्रशांत (2020)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
33 मिनट
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प्रश्नकर्ता: पिछले दो दिन से मेरे को प्रश्न पूछने की इच्छा थी, पर पता नहीं क्या झिझक है, क्या डर है कि पूछ नहीं पा रहा था। पर आज तो जैसा वाक्या हुआ, उससे आज का प्रश्न थोड़ा वैलिड (वैध) भी हो सकता है।

मैं होटल से निकल रहा था चेक आउट कर के, यहाँ से छह किलोमीटर दूर होगा। तो रास्ते में मैंने देखा मेरे सामने एक गधा था। तो वो चल रहा है, वो चलने की कोशिश करे, वो फिर गिर जाए, वो गिरे मुँह के बल। मुझसे यह देख कर रहा नहीं गया। फिर उसकी स्थिति देखी, थोड़ी देर खड़ा रहा, तो फिर उसकी वैसी ही स्थिति थी। फिर उसके बाद मैंने अनमोल भईया को फोन किया, फिर उनसे गाइडेंस (सलाह) माँगी, तो वो बोलें कि तुम सर्च (खोज) करो कि गवर्नमेंट (सरकार) के जो वेटेरिनरी क्लिनिक (पशु चिकित्सा केंद्र) वगैरह होते हैं, उनके बारे में। सर्च किया तो उनके नंबर वगैरह अवेलेबल (उपलब्ध) नहीं थे गूगल मैप्स पर। एक था उसका इनवैलिड (अवैध) बता रहा था। फिर कोई प्राइवेट (निजी) वेट (पशु चिकित्सक) है उसको कॉल किया, उसने बताया कि 'एस. पी. सी. ए. करके कुछ होता है, उनका काम यही है, तो आप उनको फोन करो।' उनको फोन किया, फिर उधर भी बहुत, ये नंबर फिर वो नंबर, कर-करके फाइनल (आख़िरी) नंबर मिला। फिर उनसे बात हुई वो बोले कि, हम इधर-इधर हैं, टाइम (समय) लगेगा थोड़ा, दो घंटा लगेगा, बताया उन्होंने। बहुत रिक्वेस्ट (आग्रह) की कि आप आ जाइए, मुझे नहीं लगता कि यह ज़्यादा बचेगा।

फिर वहाँ पर जब बच्चें आएँ जो पास में रहने वाले, पानी-वानी मँगवाया मैंने, पानी वो पिया नहीं। तो जो बच्चें आएँ, एक बच्चा था उसने बताया। मैंने पूछा कि यह क्या है? तो वो बोले, उनका मालिक है उसके पास दस-पंद्रह गधे हैं। वो रोज़ इनको यहाँ चराने के लिए लेकर आता है। क्या करता है, कि एक गधे को दूसरे गधे से बाँध देता है, पैरों को। मोटी रॉड रहती है लोहे की, उससे उनको मारता है और बहुत ज़ोर से मारता है। बताया कि जो कंस्ट्रक्शन (निर्माण) का काम चल रहा है, तो उसके अंदर सुबह से लेकर रात तक नीचे से लेकर ऊपर तक सामान ढोना होता है, उसमें ही करता रहता है।

और भी उन्होंने बातें बताई, कि एक बार तो एक गधा दूसरी-तीसरी मंज़िल से नीचे गिर गया था। उसके बाद उसको दिखाना तो दूर, थोड़ी देर में उसको काम कराने के लिए लगाने लग गया। यह सुनकर बहुत दुख हुआ मुझको। उससे ज़्यादा दुख तब हुआ जब गाड़ी आई, उससे दो मिनट पहले ही उसने हलचल बंद कर दी थी। वो लोग आए तो उन्होंने बता दिया कि 'ही इस नो मोर ' (वो अब नहीं रहा)।

पशुओं से पहले भी मेरा लगाव रहा है, बहुत सारे पशुओं को मैंने अपने ही सामने जाते हुए देखा है। बंदर को, कुत्ते को, बहुत सारे पशुओं को। एक गाय थी तो उसका पैर टूट गया था, तो मैं रोज़ उसके पास में पानी, खाना पहुँचाया करता था तीन-चार दिन तक। पिछली दिवाली की बात है और दिवाली के दिन ही उसका देहांत हुआ था। ये सब देखकर, पर फिर इतनी हैरानी भी नहीं हुई क्योंकि पेटा (जानवरों के संरक्षण के लिए संस्था) की बहुत सारी विडियोज देखी है। उस क्रुएलिटी (क्रूरता) को देखने के बाद में, मतलब अब तो थोड़ा कम हो गया है। अब तो जैसे सुनना कम करता हूँ, तो ये सब चीज़ें भी कम हो जाती हैं। पर आपको सुनना जब बहुत ज़्यादा शुरू करता हूँ तो पशुओं के प्रति बहुत ज़्यादा, मतलब पेटा के जब वीडियोज वगैरह देखें तो रहा ही नहीं गया, आँसू रुके ही नहीं। तो इतनी एनिमल क्रुएलिटी!

आचार्य प्रशांत: आज सामने दिख गया सड़क पर तो पता चल गया कि ऐसा होता है, आँखों से दिख गया। आँखों से नहीं भी दिख रहा है तो भी हमारे लिए अनुमान करना मुश्किल है कि हमारे जीने के तरीक़े में यह शामिल है कि पशुओं पर अनिवार्य क्रूरता होगी ही होगी। यह तो एक बहुत खुला, बहुत स्थूल दृश्य तुम्हारे सामने आ गया संयोग से, तो मन को झटका-सा लग गया। एकदम चौंक से गए कि 'अरे यह क्या हो रहा है?' उसमें भी तुममें संवेदनशीलता थी तो तुमने फोन करा, एंबुलेंस बुलाई, तो तुम उस चीज़ में थोड़ा गहरे तक शामिल हो गए। उसकी वज़ह से मन पर छाप पड़ी है। शायद तुम्हीं ने रिकॉर्ड कर के भेजे होंगे दो वीडियो , वो मुझ तक भी पहुँच गए हैं, मैं देख चुका हूँ। सुबह ही आ गए थे।

तो यह तो बहुत खुलासा-सा हो गया, तो हम उसकी चर्चा कर रहे हैं। सुबह संयोग से वो घटना नहीं घटी होती तो तुम उसकी चर्चा नहीं कर रहे होते। लेकिन तुम चर्चा करो या नहीं करो, मैं कह रहा हूँ, तुम्हारे लिए यह अनुमान लगाना, कल्पना करना भी मुश्किल है कि हम जिसको मानव सभ्यता बोलते हैं वो कितना ज़्यादा आश्रित है पशुओं के शोषण पर।

हम जिस तरीक़े से जी रहे हैं, जिसको अपना विकास बोलते हैं, जिसको अपना सिविलाइजेशन (सभ्यता) बोलते हैं, वो जैसा अभी है, चल ही नहीं सकता बिना पशुओं पर क्रूरता करे।

बात इसकी नहीं है कि सड़क पर एक गधा मर गया तो यह अपनेआप में कोई इकलौती या अनायास घटने वाली आइसोलेटेड (एकाकी) घटना है। यह तो हमारा पशुओं से नाता ही है जो तुमको एक संयोग के चलते आज सड़क पर दिख गया। नहीं तो दिखता नहीं है। दिखता भी इसलिए नहीं है क्योंकि आवश्यक होता है छिपाकर रखना। कौन अपने पाप प्रकट करके रखना चाहता है, कौन अपनी काली करतूतें ज़ाहिर करके रखना चाहता है?

तो हम जिसको मानवता कहते हैं ह्यूमन्काइन्ड , (मानवजाति) वो भी प्रकृति और पशुओं के साथ जो बर्ताव और रिश्ता रखे है, उसको बिलकुल छुपाए रहती है, ताकि तुम्हें पता न लगे।

लेकिन मैं कह रहा हूँ हमारी सभ्यता की बुनियाद ही पशुओं और प्रकृति के शोषण पर है। मैं यह नहीं कह रहा कि पशुओं का शोषण हमारी सभ्यता का एक हिस्सा है। मैं क्या कह रहा हूँ? मैं कह रहा हूँ हमारी सभ्यता की बुनियाद है पशुओं का शोषण — बुनियाद।

कहीं-न-कहीं यह जो मैं कुर्ता पहने हूँ, तुम वो जो टी-शर्ट पहने हो, इसका बनना मुश्किल हो जाए अगर पशुओं का शोषण न हो रहा हो। इसको बनाने की जो पूरी प्रक्रिया है, मैन्युफैक्चरिंग (उत्पादन) की, वैल्यू-एडिशन (मूल्य-संवर्धन) की जो पूरी चेन (ज़ंजीर) है, उसकी एक-एक कड़ी की अगर तुम छान-बीन करो तो तुम्हे दिख जाएगा कि यहाँ, यहाँ और यहाँ पर पशुओं का शोषण हो रहा है।

मुझे कोई ताज्जुब नहीं हो अगर पता चले कि यह माइक नहीं हो सकता बिना पशुओं के शोषण के, कि अभी यहाँ पर जो बिजली आ रही है, यह रोशनी नहीं हो सकती बिना प्रकृति और पशुओं के शोषण के, कि हम जी नहीं सकते बिना पशुओं के शोषण के, वैक्सीन (टीका) नहीं बनती।

यहाँ कौन बैठा है जिसका वैक्सीनेशन (टीकाकरण) नहीं हुआ है? और वैक्सीन या कोई भी दवाई बनाने की प्रक्रिया लाखों-करोड़ों पशुओं के प्रति कितनी क्रूरता से भरी होती है, इसका क्या अंदाज़ा लगाओगे?

तो ऐसे मत चौंको जैसे आज कोई अनहोनी घट गई। यह तुम्हें अभी भी जो दिखाई पड़ रहा है, वो मतलब समस्या का जो सबसे कम जटिल और क्रूर हिस्सा है, वो देख रहे हो तुम। जिसको कहते हैं ‘टिप ऑफ द आइसबर्ग’ (बर्फ़ की चट्टान का शीर्ष), तुम सिर्फ़ वो देख रहे हो।

बंदर तो फिर भी मानवता को थोड़े पसंद हैं तो उनकी तादाद बची हुई है, बल्कि तुम्हें कभी ऐसा सुनने में आता होगा कि एक शहर में बंदर ज़्यादा हो गएँ तो उनको दूसरे शहर में छोड़ा गया; ऐसी ख़बरें भी आती हैं। तो बंदरों, कुत्तों इन सब के साथ तो सबसे कम शोषण हुआ है, हालाँकि इनका भी दिल दहलाने वाला शोषण होता है।

लेकिन समझो बात को। बंदर हो, कुत्ता हो, मुर्गा हो, गाय हो इनका सबसे कम शोषण हुआ है। इनकी कम-से-कम प्रजाति तो बची हुई है न। मुर्गें बहुत हैं दुनिया में। मैं यह नहीं कह रहा मुर्गों का शोषण नहीं हुआ, मैं कह रहा हूँ मुर्गों का ज़बरदस्त शोषण हुआ है लेकिन मुर्गों का वो ज़बरदस्त शोषण भी बाक़ी जो प्रजातियों का शोषण हो रहा है उसके मुकाबले एक प्रतिशत है।

मुर्गों की तुम बात इसलिए कर लेते हो—या बंदरों की, या गाय की, कुत्ते की, या गधे की—इसलिए कर लेते हो क्योंकि वो तुमको सड़क पर दिखाई दे जाता है। सड़क पर दिखाई दे गया तो चेतना को धक्का लग गया। तो उसकी हम बात कर ले जाते हैं। जो असली पाप है वो चोरी-छुपे चल रहा है, वो तुम्हें पता भी नहीं चल रहा।

मैं कितने ही वीडियोज में बार-बार कह चुका हूँ, रोज़ाना, रोज़ाना प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं दर्जनों की दर से, कोई ज़्यादा पता लगा कर बता सकता है शायद रोज़ाना सैंकड़ों की दर से। यह बौखला देने वाले आँकडें हैं। मैं किसी एक पशु पर अत्याचार की बात नहीं कर रहा हूँ, मैं पूरी प्रजाति के विलुप्त हो जाने की बात कर रहा हूँ और रोज़ाना दर्जनों प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं। हम ऐसे हैं!

और इसको हम कहते हैं मानवता, इंसानियत और हमें बड़ा ग़ुरूर रहता है भीतर-ही-भीतर कि हम इंसान हैं। और हम कहते हैं 'किसी धर्म की ज़रूरत क्या है? इंसानियत काफ़ी है न।' यह है इंसानियत! अपनी नज़रों में हम सब अच्छे होते हैं। हम कहते हैं, 'हम किसी का गला नहीं काट रहे, हम कानून का पालन करते हैं लॉ-अबाइडिंग सिटीजन्स (कानून का पालन करने वाले नागरिक) हैं।'

वज़ह सिर्फ़ एक है, वज़ह यह है कि पृथ्वी का आकार बहुत छोटा है। ठीक है? जगह सीमित है भाई और आदमी ऐसा जानवर है जिसको सिर्फ़ जगह ही नहीं चाहिए होती है; उसे हज़ार और तरीक़े के संसाधन चाहिए होते हैं। तुम्हें इतने संसाधन चाहिए हैं तो तुम्हें जानवरों को मारना ही पड़ेगा, कभी सीधे तरीक़े से, कभी टेढ़े-तिरछे छुपे तरीक़े से।

और अब यहाँ से बिलकुल मैं तुमको ले कर के चलता हूँ समस्या के दो मूल कारणों पर। वो जो तुमने अभी देखा न, उसका मूल कारण बता देता हूँ। छोड़ो उस व्यक्ति को जो गधा पालता था, वो तो इस शतरंज में प्यादों में प्यादा है। उसके प्रति घृणा मत पाल लेना।

एक व्यक्ति, तुम कह रहे हो, उसके पास दस-पंद्रह गधे हैं, उनके साथ अत्याचार करता है, ये सब करता है। होगा कोई, शायद कोई धोबी वगैरह होगा, जो गधों पर ईंट और रोड़े और ये सब ढोने वाले काम करते हैं, ऐसा काम कराता होगा अपने गधों से। उस व्यक्ति के प्रति हिंसक मत हो जाना, उस व्यक्ति के प्रति भीतर कटुता मत बसा लेना। वो व्यक्ति तो, मैं कह रहा हूँ, इस शतरंज में प्यादों में प्यादा है।

असली अपराधी कौन है, अब उसका नाम सुनो! असली अपराधी हैं वो सब छोटे-छोटे बच्चें जो पैदा हो रहे हैं। और तुम इस बात का कभी तुक ही नहीं बैठा पाओगे। तुम्हें समझ ही नहीं आया होगा उस गधे को देख करके कि इस गधे की जो निर्मम हालत बनाई गई है, किसने बनाई है? वो बनाई है हमारी संतान पैदा करने की वृत्ति ने।

मैंने कहा था दो अपराधी हैं: पहला यह कि बच्चे होने चाहिए और दूसरा यह कि हमें संसाधनों का भोग करना है। हमें एक गुड लाइफ (अच्छा जीवन) चाहिए और गुड लाइफ का मतलब होता है — और ज़्यादा, और ज़्यादा कंजप्शन (उपभोग)। बस ये दो बातें हैं। इसके अलावा तुम न तो सरकारों को दोषी बना देना, न उद्योगों को दोषी बना देना, न किन्हीं ख़ास कंपनियों को दोषी बना देना।

जानवरों की रक्षा करने के लिए भी जो एन. जी. ओ. वगैरह चल रहे हैं, उनमें से तुमने अभी एक-आध का नाम भी लिया, ये लोग भी जानते ही नहीं हैं कि असली समस्या क्या है। अगर जानते भी हैं तो हिम्मत नहीं है असली समस्या का नाम लेने की। असली समस्या हैं — शुक्राणु और अंडाणु, ‘द स्पर्म एंड द एग।'

पृथ्वी पर नहीं है इतने संसाधन कि तुम बच्चे पैदा करे ही जा रहे हो, करे ही जा रहे हो। आदमी की जितनी आबादी है इस वक़्त पृथ्वी पर, उसकी एक-चौथाई से भी कम होनी चाहिए अगर आपको सस्टेनेबली (स्थायी रूप से) जीना है तो। तो आप यह भी नहीं कह सकते कि 'एक आदमी एक औरत हैं इन्होंने दो ही बच्चे पैदा करे तो आबादी तो नहीं बढ़ाई न। दो ने दो निकाले तो आबादी थोड़े ही बढ़ी है।'

दो अगर दो भी पैदा कर रहे हैं तो हम महाविनाश और महाक्रूरता का काम कर रहे हैं। दो अगर एक भी पैदा कर रहे हैं तो भी यह कोई राहत की बात नहीं हो गई। उस जीव की क्रूर हत्या करी है उन सबने, वो लोग जो मैटरनिटी होम्स (प्रसूति गृह) में पाए जाते हैं और उन सबने जो बच्चा पैदा होने पर ताली पीट-पीटकर बधाई देने पहुँच जाते हैं कि 'मिठाई खिलाओ।' मैं हिजड़ों की बात नहीं कर रहा; मैं हम सब की बात कर रहा हूँ, हिजड़े तो बाद में आते हैं, पहले तो दोस्त-यार, नातेदार खुश हो जाते हैं न, ‘वाह-वाह, क्या शुभ घटना घटी है!’

मैं जो बोलूँगा वो बात बहुत चुभेगी बहुत लोगों को, एकदम बरछी जैसी लगेगी, लेकिन बता देता हूँ।

इस समय पृथ्वी पर बच्चा पैदा होने से ज़्यादा अशुभ काम दूसरा नहीं है। मातम का काम है यह अगर एक भी बच्चा और पैदा हो रहा है।

पर हमारी समझ में ही नहीं आ रहा।

हम मूर्ख भी हैं और क्रूर भी। और यह बड़ा घातक जोड़ा होता है, जब मूर्खता क्रूरता से मिल जाती है।

और मैंने कहा कि आठ अरब लोग हैं हम, हमें शायद दो अरब होना चाहिए, यह दो अरब भी खा जाएँगे पृथ्वी को अगर इनमें भोगने की लालसा उतनी ही है जितनी आज है। दो अरब भी बहुत हो जाएँगे।

हमें दो अरब सुलझे हुए लोग चाहिए। पहली बात तो आठ अरब ना हों, दो अरब हों और ये दो अरब भी सुलझे हुए स्त्री-पुरुष होने चाहिए। क्योंकि दो अरब भी हो गए, उसमें से प्रत्येक व्यक्ति, हर आदमी, हर औरत उतना ही कंजप्शन , उपभोग कर रहा है जितना आज कोई अमेरिका में या ब्रिटेन या कनाडा में करता है, तो दो अरब भी काफ़ी हैं पृथ्वी को खा जाने के लिए, वो बर्बाद कर देंगे।

लेकिन न जाने हम कैसे ज़ाहिल लोग हैं! विकास-विकास की बात करते रहते हैं, विकास का मतलब समझते हो? चीन का हो तो गया विकास, भारत को चीन बनना है।

दुनिया का तीस प्रतिशत कार्बन एम्मीशन (कार्बन उत्सर्जन) आज चीन करता है और अभी और बढ़ाता ही जा रहा है, बढ़ाता ही जा रहा है। और कार्बन कम करने की जितनी भी संधियाँ हैं उनसे पीछे हटता जा रहा है, उसमें दस्तख़त करने में उसको कोई रुचि भी नहीं है।

भारत बहुत पीछे नहीं है, आठ प्रतिशत हमारा अब हो गया है उसमें योगदान। चीन है, चीन के बाद अमेरिका है मेरे ख़्याल से पंद्रह-बीस प्रतिशत पर, फिर हमारा ही नंबर है आठ प्रतिशत पर।

लेकिन मिठाई खाने हैं न सबको! ‘पड़ोसी मिठाई खा रहा है, मैं क्यों चूक जाऊँ।’ लोग अपनी ग्लानि मिटाने के लिए, अपनी मोरल गिल्ट (नैतिक दोष) मिटाने के लिए, मालूम है क्या करते हैं? वो कहते हैं, 'अरे, हम ऐसा करेंगे, हम प्लास्टिक का कंजप्शन कम कर देंगे’, होगा क्या उससे?

तुम जो पृथ्वी के साथ अत्याचार करते हो, वो अस्सी प्रतिशत इस बात से है कि तुमने बच्चे पैदा कर दिए। बाक़ी सब कुछ जो तुम करते हो, चाहे वो प्लास्टिक का उपभोग हो, चाहे वो गाड़ी से जो तुम धुआँ निकालते हो, वह हो। चाहे एयर कंडीशनर के कारण जो तुम इलेक्ट्रिसिटी (बिजली) का कंजप्शन करते हो, वह हो। वो सब कुल मिलाकर बीस प्रतिशत है। बात समझ में आ रही है?

तुम जो पृथ्वी पर अत्याचार करते हो उसमें अस्सी प्रतिशत हिस्सा किसका है, समझ रहे हो? किसका है? बच्चे पैदा करने का। और बाक़ी बीस प्रतिशत वो सबकुछ है कि – प्लास्टिक का उपभोग न करो, और क्या-क्या चीज़ें होती हैं जो एक्टिविस्ट (कार्यकर्ता) सिखाते हैं कि ऐसा करा करो, दो बल्ब की जगह एक बल्ब जलाओ, कार एफिशिएंट (कुशल) यूज़ (उपयोग) करो। और क्या-क्या होता है? हाँ, पेड़ लगा दो पेड़, दो ठो पेड़ लगा दो कहीं पर जाकर के। और?

ये सब काम करके न हम अपना जो मोरल गिल्ट होता है वो कम कर लेते हैं, कि देखो ‘मैं तो बहुत एनविरोनमेंटली कॉन्शियस (पर्यावरण के प्रति जागरूक) आदमी हूँ, मैं क्रूर नहीं हूँ, मैं तो अच्छा काम करता हूँ। मैं क्या करता हूँ? मैं सुबह-सुबह जाकर के कुत्तों को रोटी डाल आता हूँ।’

और इससे बड़ा अच्छा लगता है, भीतर जो ईगो (अहम्) होती है उसमें बड़ी गर्व की भावना आती है, 'देखो हम गिरे हुए आदमी नहीं हैं, हम अच्छा काम करते हैं। हम क्या करते हैं? हम कुत्ते को रोटी डाल देते हैं, हमें कोई गाय दिख गई उसके ज़ख्म था तो हमने गौशाला वालों को फोन कर दिया, वो आए, उन्होंने उसके ज़ख्म पर पट्टी कर दी।’ बड़ा अच्छा लगता है, आदमी दो-चार लोगों को बताता है, अपने फेसबुक पर डाल देता है ‘देखो मैं अच्छा आदमी हूँ।’ और इस अच्छे आदमी ने तीन बच्चें पैदा कर रखे हैं!

अस्सी प्रतिशत—मैं फिर बोल रहा हूँ, अच्छे से समझ लो—अस्सी प्रतिशत जो हम पृथ्वी पर, प्रकृति पर, पशुओं पर, पर्यावरण पर क्रूरता कर रहे हैं, वो अस्सी प्रतिशत क्रूरता कहाँ से आ रही है - यह जो तुमने बच्चा पैदा कर दिया है, वहाँ से आ रही है। और यह मैं कोई कल्पना करके नहीं बोल रहा हूँ, रिसर्च रिपोर्ट्स (अनुसंधान रिपोर्ट्स) पढ़ लो।

वो अस्सी प्रतिशत क्रूरता करने के बाद बाक़ी जो तुम बीस प्रतिशत करते हो, उसमें दो-चार प्रतिशत घटा भी दिया, तो तुम्हारा गुनाह कौन-सा कम हो गया यार!

लेकिन पढ़े-लिखे तबक़ों में यह ख़ूब प्रचलन है; क्या? कि वो अस्सी प्रतिशत तो पूरा तबाह कर के रखो, बाक़ी बीस प्रतिशत में दो-चार प्रतिशत की कमी ला करके बोलो कि 'मैं एक एनवर्मेंटली कॉन्शियस सिटिजन हूँ।' यह चल क्या रहा है?

तुम्हें उस पूरे तंत्र को, उस पूरी व्यवस्था को समझना पड़ेगा जिसकी वज़ह से आज वो घटना घटी है। वो घटना किसी एक व्यक्ति, इंडिविजुअल की व्यक्तिगत क्रूरता का परिणाम नहीं है; वो घटना एक पूरे तंत्र, एक पूरी व्यवस्था से निकल रही है। वो एक सिस्टम का बल्कि एक सिविलाइजेशन का नतीज़ा है।

तुम हटाओ बाक़ी जितने तुम तरीक़े चला रहे हो पृथ्वी को बचाने के, बस एक काम कर दो — बच्चे मत पैदा करो, सब ठीक हो जाएगा।

बाक़ी किसी काम की कोई ज़रूरत नहीं है। ये तुम्हारा क्योटो प्रोटोकॉल, ये पेरिस की संधि, किसी संधि की कोई ज़रूरत नहीं है, बस जवान लोग एक बात समझ लें कि बच्चे नहीं चाहिए। और जो बहुत कुलबुलाते हों कि हमारे गर्भ से एक-आध तो निकलना ही चाहिए तो एक पैदा कर लो यार!

या तो एक भी नहीं या बहुत अगर मन उछल रहा हो तो एक। इतना कर लो बस, फिर देखो दस-बीस साल के अंदर सारी तस्वीर बदल जाती है या नहीं!

लेकिन दो बातें बोली न मैंने, दो अपराधी हैं: पहला, बच्चे पैदा करने की वृत्ति और दूसरी भोग-वृत्ति। ये दोनों एक साथ चलती हैं, तुम देख लेना। जो जितना भोगी होगा उसको उतना ज़्यादा खुजली होगी बच्चे पैदा करने की।

जैसे आदमी कहता है न, 'ख़रीद-ख़रीद के घर में फर्नीचर भरना है तभी तो घर भरा-भरा लगेगा,' ठीक वैसे ही बोलता है कि पैदा कर-करके घर में बच्चें लाने हैं, तभी तो घर भरा-भरा लगेगा। ये दोनों चीज़ें साथ-साथ चलती हैं। घर भरना है न! घर भरने के लिए दो चीज़ें चाहिए, गाड़ी चाहिए, फर्नीचर चाहिए और बच्चें चाहिए। तो यह साथ-साथ चल रहा है।

और इसको साथ-साथ क्या चीज़ आगे बढ़ा रही है? एक जीवन-दर्शन जो हमें पढ़ा दिया गया है, जो कहता है, 'सुख करो, मज़े मारो! जीवन किस लिए है? सुख करने के लिए, मज़े मारने के लिए,' यह है। आज हर इंसान का, ज़िंदगी से यही उम्मीद है, अपेक्षा है। हम सबकी ज़िंदगी से यही माँग है; क्या? सुख, सुख, सुख!

और बच्चा जब पैदा होता है घर में तो सुख तो लगता ही है, क्योंकि सिखा दिया गया है। हर जानवर बच्चा पैदा करने में सुख मानता है और जब तुम्हारी ज़िंदगी में कोई विस्डम नहीं, बोध नहीं, अध्यात्म नहीं, रिअलाइजेशन (अनुभूति) नहीं, अंडरस्टैंडिंग (बोध) नहीं, तो तुम फिर जानवर समान ही हो और जानवर को तो हर समय लगा ही रहता है और बच्चे पैदा करूँ, और बच्चे पैदा करूँ, सुख है इसमें। तो आदमी भी फिर लगा रहता है, 'और पैदा करो, और पैदा करो।'

मैंने कहा था, एक बच्चा जो पैदा होता है वो अपने पैदा होने के साथ ही लाखों-करोड़ों जानवरों की मौत लेकर के आता है और न जाने कितनी प्रजातियों का एक्सटिंक्शन (विलुप्ति) लेकर के आता है।

क्योंकि वो जो पैदा हुआ है, वो माँ के गर्भ से हवा तो लेकर नहीं आया, खाना भी लेकर के नहीं आया। अपने रहने और बसने के लिए ज़मीन भी लेकर के नहीं आया। अपने चलने के लिए गाड़ी भी लेकर नहीं आया। माँ ने तो खट से वो बच्चा पैदा कर दिया है। वो रहेगा कहाँ? वो खाएगा क्या? उसको चलने के लिए अब सड़क भी चाहिए होगी न, अब सड़क भी बनानी पड़ेगी; कहाँ से आएगी वो सड़क? वो सड़क आती है फिर जंगल काट करके। और तुम्हें पता भी नहीं चलता जब तुम जंगल काट रहे हो, अनजाने में ही तुमने कितनी प्रजातियों को विलुप्त कर दिया क्योंकि अब उनके रहने को घर नहीं, हैबिटेट (प्राकृतिक आवास) गया उनका।

तुम्हें पता भी नहीं, तुम्हारे मन में कोई ग्लानि, कोई गिल्ट भी नहीं आएगी। तुम्हें लगेगा मैं तो ठीक ही हूँ, मैंने क्या किया, मैंने अभी एक फोर बी.एच.के. ख़रीद लिया है।

तुमने तो अपनी तरफ़ से बस एक मकान ख़रीद लिया, तुम्हें पता भी नहीं कि वो जो तुम्हारा मकान है तुमसे पहले वो किसी और का मकान था। और जिनका मकान था वो तुम्हारा मकान होने से पहले, वो अब रहे ही नहीं। तुम्हारा मकान करोड़ों लाशों पर खड़ा हुआ है।

तुम और कोई सात्विकता मत दिखाओ, तुम भईया कोई रिस्ट्रेंट (संयम) मत दिखाओ, तुम किसी तरह का कोई त्याग मत करो। तुम बस बच्चा मत पैदा करो; बात बन जाएगी। और अगर तुम इतना कर सकते हो कि बच्चा भी नहीं पैदा कर रहे, और कंसंप्शन भी कम कर रहे हो, तब तो 'सोने पर सुहागा।' वैसे अगर तुम हो जाओ, समझ लो कि पूरी पृथ्वी तुम्हें आशीर्वाद देगी।

कैसा आदमी चाहिए आज? जो बच्चे न पैदा करे और साथ-ही-साथ कन्सम्शन भी कम-से-कम करे। चलो तुम अगर ऐसे नहीं हो पाते तो ऐसे हो जाओ कि चलो कन्सम्शन हम करते हैं, मन रोका नहीं जाता, लेकिन बच्चे नहीं पैदा करेंगे। अगर वैसे भी नहीं हो पा रहे तो ऐसे हो जाओ कि चलो मैं बच्चा पैदा करूँगा पर सिर्फ़ एक। पर इन तीनों कोटियों के अलावा तुम अगर चौथी कोटि में आ गए – महापापी हो, महाअपराधी हो।

फिर कह रहा हूँ, वो जो गधा है न, उसकी लाश को ले जाकर रख देना चाहिए मैटरनिटी होम्स के सामने, उनको बोलना चाहिए यहाँ जीवन नहीं, मौत पैदा होती है। जो जगह है मैटरनिटी होम्स , वहाँ जीवन नहीं पैदा होता, वहाँ से मौत पैदा होती है।

लेकिन ऐसे-ऐसे नालायक हैं, अभी यह वीडियो प्रकाशित होगा, जानते हो पहला कॉमेंट क्या आएगा – (व्यंग करते हुए), 'आचार्य जी अगर आपके माँ-बाप ने भी ऐसे ही सोचा होता तो आज आप नहीं होते न', अरे मैं नहीं होता तो बहुत अच्छी बात होती न। मुझे कौन-सा बड़ा आनंद मिल रहा है होकर के। नहीं होते, बहुत अच्छा होता। मैं नहीं होता, तुम नहीं होते, तो चार गुना अच्छा होता। अगर मेरे न होने से वो सब लोग भी मिट जाएँ जो मेरे आस-पास हैं, तो मैं अभी कहूँगा मुझे मिटा दो।

प्र: मेरे एक भईया ने भी ऐसे ही बोला था। मैं आपके बारे में बताया न, तो मेरे भईया ने भी ऐसे ही बोला था।

आचार्य: क्या तर्क दिया है!

प्र: आचार्य जी के, जो उनके माँ-बाप ने उन्हें पैदा नहीं किया होता तो वो आज यहाँ बोल नहीं रहे होते ऐसे-ऐसे।

आचार्य: नहीं बोल रहे होते तो?

प्र: मेरे को बहुत गुस्सा आया, मैं तो…

आचार्य: नहीं, गुस्सा नहीं, यह तो स्टैंड-अप कॉमेडी की बात है जो उन्होंने करी है, दाद देनी चाहिए और पाँच करोड़ नोट दे देना चाहिए!

मैं हर दूसरे-तीसरे दिन चैनल पर एक वीडियो प्रकाशित कराता हूँ, बिना नागा के, माँसाहार से संबंधित और सबसे कम इंगेजमेंट (प्रतिभागिता) उसी वीडियो पर रहता है। लड़का-लड़की, प्यार, सेक्स ऐसा शीर्षक का कोई वीडियो हो, उसके एक लाख, दो लाख व्यूज होंगे, देखने वाले, ‘अहा हा, क्या बात है! आचार्य जी! शाबाश!’

और माँसाहार पर आ जाएगा तो यह तो देखना ही नहीं चाहते, ‘नहीं, यह तो आचार्य जी की सनक है, इस बारे में बोलते रहते हैं। इसको नहीं देखेंगे, इसको नहीं देखेंगे।'

ग्यारह लाख सब्सक्राइबर्स हो रहे हैं, जानवरों से संबंधित कोई वीडियो प्रकाशित होता है, उसपर दस हज़ार व्यूज आना मुश्किल हो जाता है। जहाँ वो शीर्षक देखते हैं तहाँ दूर से ही कट लेते है, ‘अरे नहीं, ये तो छी छी छी!’

अच्छे से एक बात समझ लो। जीवन जब शुरू हुआ था न पृथ्वी पर, तब जो स्थितियाँ थी, जीवन की शुरुआत करने के लिए अनुकूल, वो स्थितियाँ आज भी हैं। ऐसा नहीं है कि जीवन की शुरुआत के लिए, सही स्थितियाँ, अनुकूल, कंड्यूसिव स्थितियाँ सिर्फ़ कुछ मिलियन या बिलियन वर्ष पहले थीं, वो आज भी हैं। मतलब समझ रहे हो इसका? मतलब यह है कि सब मिट जाएँगे न तो भी प्रकृति दोबारा जीवन शुरु कर लेगी और हम जिस राह पर चल रहे हैं वहाँ हम सब मिट जाएँगे।

प्रकृति का कुछ नहीं बिगड़ेगा, वो दोबारा जीवन शुरू कर लेगी। समय तो उसके हाथ का मैल है न, प्रकृति के पास कितना समय होता है – अनंत। बोलो कितना समय चाहिए, प्रकृति के पास समय की कोई कमी नहीं, वो दोबारा जीवन शुरू कर लेगी। कुछ लाख वर्ष बाद फिर से जीव-जंतु नज़र आने लगेंगे। इंसान नहीं बचने वाला, हम नहीं बचने वालें।

हम सोच रहे हैं हम बड़े स्मार्ट हैं, बड़े होशियार हैं; हम नहीं बचेंगे। हम सोच रहे हैं प्रकृति को बचाना है, बेचारी प्रकृति! प्रकृति बेचारी नहीं है, पृथ्वी भी बेचारी नहीं है। बेवकूफ़ हम बन रहे हैं, पत्ता हम अपना काट रहे हैं और हमें नहीं बात समझ में आ रही। और फिर मानवता, मैन्काइन्ड मिटे किसी ऊँचे उद्देश्य के लिए तो एक बात है।

एक आदमी है जो किसी ऊँचे उद्देश्य के लिए जान दे देता है, शहीद कहलाता है और दूसरा आदमी होता है जो चोरी कर के भाग रहा होता है, और पीछे से पीठ पर पुलिस की गोली खा कर मरता है। मौत और मौत में अंतर होता है न!

तो हमारी जो है न चोर वाली मौत होने वाली है। मैं किसकी बात कर रहा हूँ? इंसानों की। प्रकृति हमें तड़पा-तड़पा कर मारेगी और उसने हमें ट्रेलर दिखाना शुरू कर दिया है।

जो अगला वायरस (विषाणु) आएगा, मुझे यह बता दो, उसमें मृत्यु दर एक प्रतिशत की जगह अगर चालीस प्रतिशत की होगी तो तुम क्या कर लोगे? ये वाला जो कोरोना वायरस है इसमें तो यह है जिनको लगता है उसमें से बस एक प्रतिशत या आधे प्रतिशत की मृत्यु होती है। यह एक या आधे की जगह अगर यह दर चालीस प्रतिशत हो तो तुम क्या कर लोगे? तुम जाओगे किसी कोर्ट (न्यायालय) में दरख़्वास्त करने? तुम प्रकृति के विरुद्ध फ़रियाद करने जाओगे क्या कि 'यह तो ठीक नहीं है न। ऐसे थोड़े ही होता है, चालीस प्रतिशत की मृत्यु दर?'

इसी तरीक़े से यह जो वायरस है, यह इंफेकशीयस है, संक्रामक है, लेकिन फिर भी इतना है भाई कि हमें पता है कि अगर तीन-चार फीट की दूरी हो गई तो संक्रमण नहीं पहुँचता है। आ जाए कल को कोई वायरस , जिसमें है कि यहाँ से किसी ने छींका नहीं कि वो वायरस उड़ता ही रहेगा, उड़ता ही रहेगा, पूरे शहर में पहुँच जाएगा; क्या कर लोगे तुम?

इसी बात को जब फोक (लोक) तरीक़े से कहा जाता है, जब जनश्रुति वाले तरीक़े से कहा जाता है, तो कह दिया जाता है, कि:

"जाका गला तुम काटिहो, सो कल काटी तुम्हार।"

यह जितनों के साथ तुम अत्याचार कर रहे हो, एक-एक की आह इकट्ठा हो रही है और तुम्हें लग रही है रोज़-रोज़। यह जो इंसान आज इतनी विक्षिप्तता में है, इतने जो ज़बरदस्त मेंटल डिसऑर्डर (मानसिक विकार) हैं ये कहाँ से आ रहे हैं? इससे बड़ा पाप हम इस समय दूसरा कोई नहीं कर रहे हैं। जो हम प्रकृति, पर्यावरण, पशुओं के साथ कर रहे हैं इससे बड़ा कोई दूसरा पाप नहीं है और उस पाप में सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार हैं – ये पेरेंट्स (माता-पिता) और वाना बी पेरेंट्स (भावी माता-पिता), ‘मेरा घोंसला हो, मेरे अंडे हों, उसमें से मेरे चूज़ें निकलें।’

प्र२: मृत्यु का भय ख़त्म हो गया है शायद!

आचार्य: अजी कहाँ, मृत्यु का भय ख़त्म हो गया है! मृत्यु का भय ख़त्म नहीं हो गया है, मृत्यु का भय ही इंसान को चला रहा है। तुम्हें क्या लग रहा है हमें सत्य का प्रेम चला रहा है? हमें चलाने वाले इंजिन्स , मोटिव्स (इरादें), ऊर्जाएँ दो ही होती हैं – या तो सच के प्रति इतना प्यार है कि तुम उसकी ओर खिंचे चले जा रहे हो—उसकी ओर। या पीछे डर लगा हुआ है और उससे इतने डरे हुए हो कि डर से दूर भागे जा रहे हो जैसे पीछे पागल कुत्ता लगा हो।

इंसान इन दो वज़हों के अलावा किसी तीसरी वज़ह से गति नहीं करता है। या तो सामने वो है जिससे प्यार है, तो आदमी उसकी ओर बढ़ा चला जा रहा है। या पीछे पागल कुत्ता लगा हुआ है तो आदमी भागा चला जा रहा है।

प्यार तो आज के समय में किसको है? किससे है? जिसके जीवन में सत्य नहीं, ध्यान नहीं, भजन नहीं, भक्ति नहीं, वो प्रेम क्या जाने? तो प्रेम से तो कोई चल नहीं रहा है। तो सब चल किससे रहे हैं? डर से ही चल रहे हैं।

प्र३: आचार्य जी, यू सेड देट, यू गेट लेस नंबर ऑफ व्यूज़ ऑन द वीडियोस इन विच यू आर स्पीकिंग अबाउट मीट ईटिंग। आई फील प्रोबेबली बीकॉस, वी बीइंग वन ऑफ योर सब्सक्राइबर, इट्स नॉट रिलेवेंट टू मि। बीकॉस यू नो आई एस ईट इस, डोंट ईट मीट। प्रोबैबली इफ यू आर लुकिंग इनसाइड दी यूनिवर्स, देन आई बिलीव, वाटेवर व्यूज़ यू आर गेटिंग माइट बी आउटसाइड दी सब्सक्राइबर्स। (आचार्य जी, आपने कहा कि आप जिस वीडियो में माँसाहार की बात कर रहे हैं, उस पर व्यूज़ कम आते हैं। मुझे शायद इसलिए लगता है, क्योंकि मैं आपका एक सब्सक्राइबर होने के नाते, यह मेरे लिए प्रासंगिक नहीं है। क्योंकि आप जानते हो, मैं जैसा हूँ, उस तरह मैं तो माँस नहीं खाता। शायद अगर आप इसके अंदर और देख रहे हैं तो मेरा मानना है कि आपको जो भी व्यूज़ मिल रहे हैं वो सबस्क्राइबर्स के बाहर हो सकते हैं)?

आचार्य: नहीं, ऐसा नहीं है न! जो लोग नहीं खाते माँस, वो फिर उन वीडियोज को देखेंगे और शेयर करेंगे। होना तो यह चाहिए था न कि अगर आप माँस नहीं खाते हो, तो कुछ सोच-समझ के ही नहीं खाते। तो माँसाहार के विरुद्ध अगर फिर कोई वीडियो आया है तो फिर आप क्या करते उसको? आप तो उसको और ज़्यादा देखते और शेयर करते और लोगों में न।

दूसरी बात, हमारे चैनल के सब्सक्राइबर्स , बल्कि यह कह लीजिए कि इंटरनेट की ही जो पूरी ऑडियंस है भारत में, वो अधिकांशत: युवा है, ठीक है? और युवाओं में तो सत्तर-अस्सी प्रतिशत ऐसे हैं जो माँस खाते ही खाते हैं। तो हमारे चैनल के सब्सक्राइबर्स मेंं भी सत्तर-अस्सी प्रतिशत तो माँस खाने वाले ही हैं। तो आप जिस वर्ग की बात कर रहे हैं जो पहले से ही शाकाहारी है या वीगन (शुद्ध शाकाहार) है, वो वर्ग तो वैसे ही बहुत छोटा है। ज़्यादातर तो… प्रोपोगैंडा-पब्लिसिटी के कारण पिछले बीस सालों में भारत में माँस खाने वालों का जो अनुपात है वो ड्योढ़ा हो गया है, पचास प्रतिशत बढ़ गया है।

प्र३: यह एक पूरी कम्युनिटी (समुदाय) ऐसी है, आप किसी को क्रुएलिटी (क्रूरता) दिखा के कनविंस (रजामंद) कर सकते हैं, या उसको लॉजिक (तर्क) देकर, हेल्थ रीज़न (स्वास्थ्य कारण) देकर समझा सकते हैं कि 'दिस इस नॉट द राइट थिंग' (यह सही बात नहीं है)। बट व्हाट इज अलार्मिंग इज, देयर इज होल कम्युनिटी आउट देयर, विच इज ग्रोइंग एट ए वेरी, यू नो (लेकिन चिंताजनक बात यह है कि वहाँ एक पूरा समुदाय है, जो बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है, आप जानते हैं), दुनिया भर में सबसे ज़्यादा स्पीड (रफ़्तार) में जो बढ़ रही है, उसमें बिलकुल बचपन में, एक छोटे बच्चे को ही, दे एक्सप्लेन हाउ टू डू दिस एक्ट। दिस इस समथिंग यू कैंट एक्सप्लेन देम लॉजिकली। यू कैंट गिव क्रुएलिटी और नॉन-क्रुएलिटी लेसन टू देम। दे आर नॉट गोइंग टू स्टॉप इट। (वे बताते हैं कि यह कार्य कैसे करना है। यह कुछ ऐसा है जिसे आप तार्किक रूप से नहीं समझ सकते। आप उनको क्रूरता और गैर क्रूरता का पाठ नहीं पढ़ा सकते। वे इसे रोकने नहीं जा रहे हैं!)

आचार्य: वहाँ पर फिर इकोनॉमिक (आर्थिक) और लीगल (कानूनी) रूट (रास्ता) चाहिए होगा। भाई आप जो कर रहे हैं करें, आपको कंपैशन (करुणा) समझ में नहीं आता, लॉजिक (तर्क) भी समझ में नहीं आता। न तो आपको कंपैशन समझ में आता है न आपको लॉजिक समझ में आता है। यहाँ तक कि आप अपनी व्यक्तिगत सेहत के प्रति भी बिलकुल उदासीन हो गए हैं, आपको वो तर्क भी समझ में नहीं आता। तो फिर तो यही है आप जो खा रहे हो कम-से-कम उसकी पूरी कीमत तो अदा करो!

जो आप खा रहे हो वो आपको छह सौ रुपये किलो नहीं मिलना चाहिए, छह हज़ार रुपये किलो मिलना चाहिए। क्योंकि वास्तव में वो जो आपके सामने आया है उसकी कुल कीमत देखी जाए — कहा था न एक्सटर्नलिटीज (बाहरी कार्क) के साथ, टोटल एनवायरनमेंटल करेंट एंड फ्यूचर कॉस्ट (कुल पर्यावरण वर्तमान और भविष्य की लागत) के साथ — तो वो आपको छह सौ रुपये किलो मिल ही नहीं सकता, वो तो छह हज़ार रुपये किलो होना चाहिए, लो अब खाओ!

तुम्हे और कोई तर्क नहीं समझ में आता, तो नोट का तर्क तो समझ में आएगा, रुपये का तर्क तो समझ में आएगा। फिर वहाँ वो तर्क चलना चाहिए। और वो तर्क लगाना पड़ेगा।

बात इसकी नहीं है कि हम कोई बड़ा आंदोलन या अभियान चला देंगे जिसकी वज़ह से सरकारें विवश हो जाएँगी। सारी चेतना क्या है? प्रकृति ही तो है। तो प्रकृति के पास भी अपनी चेतना है। होंगे आप बहुत बड़े सुपरपॉवर या कुछ भी, रिक्टर स्केल पर नौ का भूकंप आ जाएगा, झेल थोड़े ही लोगे! आप कुछ भी होंगे।

प्रकृति को कितना समय लगना है, यह जो कण है मनुष्य नाम का, इसको बिलकुल विलुप्त कर देने में। कितना समय लगना है? आप सोचो तो सही, दुनिया में अरबों प्रजातियाँ हैं चेतना की। चैतन्य, सेंटिएंट (संवेदनशील) जीवों की दुनिया में कितनी प्रजातियाँ हैं? अरबों। ठीक है?

उसमें बड़े-से-बड़े पशु हैं, हाथी है, गैंडे हैं, व्हेल हैं, जलचर हैं, भूचर हैं, नभचर हैं, सब हैं, ठीक? और इतने सारे पेड़ हैं, पौधे हैं, छोटी-छोटी जीवों की, कीट-पतंगों की और भी न जाने कितनी प्रजातियाँ हैं। यह जो वायरस आया है उससे सिर्फ़ कौन प्रभावित हो रहा है? आपको यह बात थोड़ा चौंका नहीं रही? यह तो सर्जिकल स्ट्राइक है।

सर्जिकल स्ट्राइक समझते हो, कि पूरे शरीर के किसी और हिस्से को नुक़सान नहीं पहुँचना चाहिए, सिर्फ़ जहाँ किडनी का पत्थर है वहाँ पर लेजर बीम जाएगी और उस पत्थर को तोड़ देगी, जला देगी। तो प्रकृति ने मनुष्य पर ये सर्जिकल स्ट्राइक करी है, कि किसी और पर इस वायरस का प्रभाव ही नहीं पड़ेगा। सिर्फ़ ये जो नालायक है इसको तबाह कर दो।

गधा, घोड़ा, कुत्ता, चील, मछली, पेड़, पौधे, किसी पर यह वायरस कोई असर कर रहा है? सोचिए तो, सिर्फ़ इंसान पर ही कर रहा है!

प्रकृति के पास भी अपनी चेतना है और वो ऐसे तरीक़ों से काम करती है जिनको हम नहीं समझ सकते।

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