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लेख
दुर्बलता को पात्रता कहना ही भिक्षावृत्ति है
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
19 मिनट
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श्रोता: सर, जैसा कि आपने कहा कि हमारी अनिवार्य ज़रूरतें तो प्राकृतिक रूप से पूरी हो ही जाती हैं, तो मैं ये जानना चाहती हूँ कि जब हम किसी भी महानगर में प्रवेश करते हैं, तो हमें बहुत से लोग दिखाई देते हैं, जो सड़कों पर भीख मांग रहे होते हैं। तो क्या उन लोगों की अनिवार्य ज़रूरतें प्राकृतिक रूप से पूरी नहीं होती?

वक्ता : क्या उनकी ज़रूरतें वाकई प्राकृतिक हैं? उन लोगों को महानगरों में आने की ही क्या ज़रूरत है, उनके लिए तो जंगल ही बहुत हैं। वह लोग उन जंगलों में क्यों नहीं चले जाते?

श्रोता : सर, क्योंकि शायद वो इन्हीं महानगरों की गलियों में पैदा होते हैं, तो उन्हें और कुछ का पता भी नहीं होता होगा।

वक्ता : क्या तुम जानते हो कि यह लोग, जो सड़क पर भीख मांगते हैं, यह लोग गाँव के एक साधारण आदमी से ज़्यादा कमाते हैं? यह उनकी अनिवार्य ज़रूरतें नहीं हैं, जो उनसे भीख मंगवाती हैं बल्कि यह तो महानगरों की चकाचौंध है, जो उन्हें यहाँ खींचती है। और जिन बच्चों को दिखाकर यह तुम से ज़्यादा से ज़्यादा भीख बटोरते हैं, उनमें से ज़्यादातर बच्चे किसी न किसी तरह के नशे के आदि होते हैं। तो यह सब अनिवार्य ज़रूरतें पूरा करने के लिए नहीं हैं बल्कि यह तो आशुरचना है अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए।

श्रोता : सही बात है, नहीं तो हमें महानगरों में और पर्यटक स्थलों पर इतने सारे भिखारी नहीं मिलते।

श्रोता : मुझे फिर भी समझ में नहीं आता कि उन्हें इन सब से मिल क्या रहा है। वो बहुत दुबले-पतले होते हैं, पता नहीं कुछ खाते भी हैं या नहीं।

वक्ता: उनके पास भी वही मन है, जो हमारे पास है। तुमने अपने मन में कुछ मूल्य स्थापित कर रखे हैं कि कुछ चीज़ें सुखद हैं और कुछ दुखद। उन्होंने भी तुम्हारे मूल्य पढ़े हुए हैं इसीलिए उन्हें पता है कि उन्हें अपनेआप को किस तरह से प्रदर्शित करना है कि तुम्हारे मूल्यों के हिसाब से वह दुखद हो। उन्हें पता है कि अगर हम फटे-पुराने कपड़े पहने होंगे, तो एक शहरी महिला को यह बहुत दुखद लगेगा। क्या वाकई इसमें कुछ दुखद है क्या? उन्हें हमारे मन और मूल्यों के बारे में अच्छी तरह से पता है। उन्हें पता है कि हम अहंकार ग्रस्त जीव हैं, जो गौरव को बहुत महत्ता देते हैं। उन्हें अच्छी तरह से पता है कि हम कभी भी किसी के सामने हाथ फैलाना नहीं चाहते। और अगर यदि हमें किसी के सामने हाथ फैलाने पड़ें, तो इसे हम बहुत शर्मनाक समझते हैं। तो जब हम किसी दूसरे को हाथ फैलाया देखते हैं, तो हमें बहुत दुखद महसूस होता है। उन्होंने हमारे स्थापित मूल्यों को अच्छी तरह से पढ़ रखा है।

श्रोता : सर, यह तो विज्ञापन जैसा ही हुआ।

वक्ता : हाँ बिलकुल, और बल्कि मैं तो यह कहूँगा कि अगर किसी को विज्ञापन के लिए सलाह लेनी है तो किसी भिखारी से ले। भिखारी अपने ग्राहक की मानसिकता को अच्छी तरह पहचानता है। भिखारी अच्छी तरह जानता है कि अपने ग्राहक की जेब से पैसे कैसे निकलवाने हैं। तुम उसके लिए एक ग्राहक ही तो हो। उससे अच्छी तरह पता है कि दया की याचिका देकर पैसे कैसे निकलवाए जाते हैं।

श्रोता : और उससे हमारे अहंकार को भी संतुष्टि मिलती है।

वक्ता: हाँ, बिलकुल हमारे अहंकार को भी संतुष्टि मिलती है।

श्रोता: इससे यह चीज़ याद आई कि यदि आप सड़क के मध्य में खड़े हो जाएं और ध्यान से देखें, तो आपको पता चलेगा कि भिखारियों को यह भी पता होता है कि कौन सी गाड़ी के पास जाना है और किससे माँगना है।

वक्ता: और किस गाड़ी की किस खिड़की पर दस्तक देना है। अगर गाड़ी की चारों खिड़कियों पर लोग बैठे हैं, उन्हें अच्छे से पता है कि किस खिड़की से कुछ मिलेगा।

श्रोता : और अगर छोटा सा बच्चा है गाड़ी में, फिर तो उनके मज़े ही आ गए, मतलब हो गया काम।

श्रोता: तो इसका मतलब वो खुद इसको अपनाते हैं।

वक्ता: बिलकुल, अगर उन्हें सिर्फ़ अपनी अनिवार्य ज़रूरतों की ही पूर्ति करनी होती, तो वो बहुत आसान है।

श्रोता : सर, पर क्या उन्हें यह पता नहीं होना चाहिए कि उनके पास दूसरे विकल्प भी हैं।

वक्ता: यह जो पता होना है, यह ज्ञान नहीं है यह एक बुनियादी समझ है जो सबके पास होती है। जानवर के पास भी होती है। जानवर भी जानता है। तो अगर हम यह कहें कि, ‘’हमारी नादानी है कि हम जानते नहीं,’’ तो हम धोखा दे रहे हैं; हम सब जानते हैं। यह धोखेबाज़ी है, नादानी नहीं है। हमें सब पता है।

हमारे दो कुत्ते थे। उनको हम इस बोधस्थल के पीछे रखते थे बंद करके। उनके लिए एक बना भी दी थी जगह वहां। पर उन्होंने तो दुनिया ही सर पर उठा ली, रुकते ही नहीं थे वहां। इधर-उधर कूदते रहते थे। कभी कुछ करते थे, तो कभी कुछ। हार मान कर हमने उन्हें छोड़ ही दिया, तो अब घूमते हैं मस्त। उनको भी पता है कि उनके लिए सही वातावरण कौन सा है। उन्हें तो किसी ने नहीं सिखाया। बल्कि यहाँ हमारे पास रहते, तो हम उन्हें अच्छा खाना देते। बाहर तो पता नहीं क्या खाते होंगे। यहाँ तो उनका सुबह-शाम का खाना बंधा हुआ था। पर वो नहीं रुके; वो चले गए।

श्रोता : सर, हम कुछ दिन पहले अजमेर शरीफ़ गए थे, तो वहां पर बहुत बुरा मंजर देखा। कुछ लोग तो बिना पांव और बिना हाथ के थे। क्या हम उनके बारे में भी यही कहेंगे।

वक्ता : देखो, हमें अजमेर शरीफ़ जाने की कोई ज़रूरत नहीं है। अगर आप भिखारियों को देखना चाहते हो, तो किसी भी संस्था के मानव संसाधन विभाग में चले जाओ। सिर्फ़ मूल्यांकन के वक़्त ही नहीं, बल्कि कभी भी। तो मैं आपको एक बात बोल रहा हूँ उसको समझिएगा। मैंने कहाँ था कि भिखारियों का मूल्य आधार भी हमारे ही जैसा है। और अब मैं एक और बात बोल रहा हूँ: एक भिखारी सिर्फ़ दूसरे भिखारी के लिए ही दया की भावना रखेगा क्योंकि उन दोनों का मूल्य आधार एक ही है।

एक भिखारी को भली भांति पता होता है कि गाड़ी में बैठा शख्स भी एक भिखारी है। उस गाड़ी वाले ने अपने मालिक से भीख मांगी होगी, अपने ग्राहकों से भीख मांगी होगी, तभी तो वो इस गाड़ी में बैठा है। और इसलिए वह सड़क पर खड़े भिखारी के लिए भी दया की भावना रखेगा।

जो इंसान खुद भिखारी नहीं होगा वो दूसरे भिखारियों के लिए भी दया की भावना नहीं रखेगा।

तो यह तो एक आपसी साजिश है, वो तो अपने ही समुदाय के बीच में है। जिसमें हमारा भ्रम है कि एक भिखारी है, और दूसरा दाता है। यह तो भिखारियों की आपसी मण्डली है, जिसमें एक दूसरे को थोड़े बहुत पैसे दिए जा रहे हैं। अभी चौराहे पर देते हैं, फिर गाड़ी लगा कर ऑफिस में जाकर हाथ फैला देंगे। तो कौन भिखारी है और कौन नहीं है?

श्रोता : सर, फिर तो यह सहानभूति हो गई उसके लिए कि जो दर्द मुझे मिल रहा है, दूसरे को कुछ दे कर, उसे थोड़ा कम कर लिया जाए।

वक्ता : हाँ, इस भाषा में कहें तो भी ठीक है। देखिये, बुद्ध भी अपने सब लोगों को भिक्षु ही कहा करते थे। असली भिखारी वो होता है, यह भिखारी नहीं है; यह तो हमारे जैसा है। इसको भिखारी मत बोलियेगा, यह तो हमारा भाई है। इसको बंधु बोलना ज़्यादा अच्छा है। तो यह बिलकुल न कहा जाए कि दिल्ली में भिखारी बहुत हैं, बल्कि यह कहा जाए कि दिल्ली में भिखारी ही हैं। यह न कहा जाए कि चौराहे पर कुछ भिखारी घूम रहे हैं बल्कि चौराहे पर सारे भिखारी ही हैं। या फिर सब हमारे ही जैसे हैं, सब राजा हैं हमारे जैसे।

जो असली भिखारी है, वो तो दूसरा होता है। जिसने सब छोड़ दिया हो। बुद्ध के भिक्षु वो थे जिन्होंने लक्ष्य ही छोड़ दिए थे। इस कारण वो भिक्षु हो गए। सब छोड़ ही दिया। ‘’अब तो हमें जो अस्तित्व दे, वही ले लेंगे। अस्तित्व की भिक्षा है।’’ और फिर जो उनको देता था वो अपना सम्मान समझता था कि आज मुझे उनको देने को मिला। आप जब किसी भिखारी को कुछ देते हो, तो समझते हो कि, ‘’मैं बड़ा हो गया।’’ और जब आप बुद्ध के भिक्षु को देते थे, तो उसका चरण स्पर्श करते थे पहले, तो फिर उसको कुछ देते थे। यह अन्तर है। एक वास्तविक भिक्षु में और एक हमारे जैसे भिखारी में यह अन्तर है।

जो महानगरों में दिखते हैं, वह भिखारी नहीं हैं, वह तो हमारी तरह हैं, कामनाओं के मारे हुए। यहाँ हमारे बोध स्थल से कुछ दूर जाएँगे, तो आपको कुछ झुग्गियां दिखाई देंगी जिनमें लगभग हर झुग्गी के ऊपर आपको टाटा स्काई की छतरी दिखाई देगी। बिलकुल सड़े-गले घर पर ऊपर छतरी लगी है। वही सब लोग रहते हैं वहां पर। टाटा स्काई की छतरी चाहिए उन्हें। वो हमारे ही जैसे हैं। वह भी टेलीविज़न पर वही धारावाहिक देखते हैं, जो हमें पसंद आते हैं। हमारा और उनका जो मूल्य आधार है वो बिलकुल एक सा है। कोई अन्तर नहीं है। उनको भी उन्हीं सब चीज़ों की कामना है, जो हमें है। हमें पैसा चाहिए, तो उन्हें भी चाहिए।

श्रोता : सर, पर उसमें अंतर्विरोध भी तो है। अगर कोई भिखारी नए कपड़ों में हमारे पास आ जाए, तो क्या हम उसे कुछ देंगे? हम तो उससे सबसे पहले यह प्रश्न करेंगे कि ‘यह कपड़े तुम्हारे पास आए कहाँ से?’

श्रोता : तो हम उसे भिखारी की तरह लेंगे ही नहीं।

वक्ता: भई देखिये, हमारा मूल्य आधार क्या बोलता है? कि जो नाकाबिल है, वो योग्य है। हमारे मूल्य यही तो हैं कि जो नाकाबिल है, वो किसी ख़ास सुविधा के लिए अब उपयुक्त हो गया। तो आप क्या बोलते हो अपने मालिक से? कि, ‘’मेरे साथ कुछ समस्या है, तो मैं छह बजे के बाद रुक नहीं सकती।’’ तो फिर आपको एक ख़ास सुविधा मिलेगी, क्या? कि तुम छह बजे ही चली जाओ या फिर तुम्हें छोड़ के आएँगे। यह हमारे मूल्य हैं। कि जो जितना नाकाबिल है, उसे उतनी सुविधाएँ दो। भिखारी ने यह बात पकड़ ली है। भिखारी कहता है कि, ‘’मैं परम नाकाबिल हूँ देखो। अब मुझे दो।’’

हम दिन-रात और क्या करते हैं? आपसे कोई पूछता है कि तुमने कोई काम क्यों नहीं किया? तो आप कभी सर उठा के यह तो नहीं कह पाते हो कि क्योंकि मेरा मन नहीं था। स्कूल में एक बच्चे को जब अध्यापिका पूछती है कि क्यों नहीं तुम कर के लाए होमवर्क, तो वो यह नहीं कहता कि, ‘’मेरा मन नहीं था,’’ बल्कि वो कहता है कि, ‘’मैं कर नहीं पाया, मेरी काबिलियत नहीं थी।’’ और यह बचपन से ही सिखा दिया गया है। यह हमारा मूल्य है कि तुम अगर नाकाबिल हो, तो इसमें कुछ श्रेष्ठता है। तुम्हें अब कुछ मिलेगा। और अगर तुम बहुत काबिल हो, तो तुम्हें आयकर देना पड़ेगा।

ठीक है न?

यही तो हमारे मूल्य हैं? इसी पर तो हम चल रहे हैं। भिखारियों ने पकड़ लिया है, इस बात को। बस अपनेआप को नाकाबिल दिखाओ। यह हमारा मूल्य है कि तुम जितने बेहूदे हो, तुम्हें उस बात का उतना ही फ़ायदा मिलेगा। आपका मालिक भी क्या बोलता है? ‘अबे तू तो छड़ा है, तेरी तो न शादी हुई है न कुछ हुआ है, चल तू दस बजे तक काम कर; तू क्या करेगा घर जाकर?’ या ‘सर, आप जाओ आपकी तो नई-नई शादी हुई है, आपकी बीवी इंतज़ार कर रही होगी।’ यह उसकी काबीलियत है!

श्रोता : मुझे याद है कि एक कंपनी में मेरे कुछ दोस्त थे, वह यह पक्का रखते थे कि सात बजे तक वह वहां से निकल जाएँ क्योंकि अगर हम सात बजे के बाद यहाँ पर रुके, तो हमारे मालिक को हमें यहाँ देर तक देखने की आदत हो जाएगी और हम फिर कभी जल्दी नहीं निकल पाएँगे।

वक्ता: यह बहुत होता है। यह बड़ी सहृदयता की बात होती है कि भई अभी-अभी शादी हुई है, जाने दो इसको, कोई बात नहीं। मैं कुछ दिन पहले शताब्दी से आ रहा था। वो दो मिनट रुकती है गाज़ियाबाद स्टेशन पर, तो मैंने देखा कि तीन महिलाऐं, उनके दो-तीन से ज़्यादा बच्चे और बहुत सारा सामान। तो पहले तो बच्चों ने सारे रास्ते हुडदंग किया पूरे कोच में अच्छे तरीके से बिलकुल। उसके बाद अब स्टेशन पर गाड़ी बस दो मिनट के लिए रुकनी है। दो मिनट, तो दो मिनट ही होता है। उन्होंने जाकर के इतने सारे सामान के साथ, उस कोच के गेट पर कब्ज़ा जमा लिया और उसके बाद बड़े हक़ के साथ बोलीं कि, ‘’भैया, ज़रा मदद करना।’’ अब मुझे यह बताए कोई कि क्या मदद ऐसे मांगी जाती है? और किस बात से तुम्हें इतना पात्रता मिल गई मदद मांगने की? सिर्फ़ इस बात से कि, ‘’मेरे तीन बच्चे हैं।’’ और पहली बात तो तुम पीछे खड़े हो, और पहले मैं उतरूंगी,’’ दरवाज़े पर कब्ज़ा जमा लिया पहले ही! ‘’मैं उतरूंगी पहले क्योंकि मेरे तीन बच्चे हैं और इतना सारा सामान भी है,’’ और फिर उसके बाद, ‘‘भैया, ज़रा मदद करना।’ और सारे भैया उनकी मदद करने लग गए। पूरी बुलंदी के साथ उन्होंने कहा, ‘भैया, ज़रा मदद करना।’’

श्रोता: अगर वह शर्म संकोच के साथ कहेंगी, तो कोई सामने भी नहीं आएगा न।

वक्ता: पूरे हक़ के साथ। अब उनको कभी यह आभास भी नहीं होगी कि यह भीख माँगना है। उनको कभी यह पता भी नहीं चलेगा कि वह भिखारी ही हैं। पर उनको उस भिखारी पर बड़ी दया आएगी, जो स्त्री चौराहे पर भीख मांग रही है। इसी कारण आएगी, क्योंकि वो खुद भी यही कर रहीं हैं। फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि अपनेआप को वह कोई नाम नहीं देती, पर उनको भिखारी का नाम दे देती हैं। काम वही है। एक ही मूल्य आधार है। वही मूल्य जो कहता है कि, ‘’अगर मैं नाकाबिल हूँ, तो मैं योग्य हूँ। मेरी नकाबिलियत ही मुझे योग्य होने का पात्र बनाती है।’’

श्रोता : सर, तो क्या हम यह कह सकते हैं कि जिनको सड़क पर बैठे भिखारियों पर दया नहीं आती, वो अपनी ज़िन्दगी में भी भिखारी नहीं हैं।

वक्ता: देखिये, हम दो चीज़ों में जीतें हैं: या तो हम कृपालु हो जाएँगे, या फिर बेरहम। इन दोनों ही स्थितियों में, हम जी भावनाओं में ही रहे हैं। एक हो सकता है जो कहे कि, ‘अरे! भिखारी आ गया, भिखारी आ गया। देख, कितनी ठण्ड है और क्या तू दो रूपए दे रहा है? चल बीस का नोट निकाल और दे दे।’ और दूसरा कहेगा कि, ‘क्या यार ये भिखारियों ने गंद मचा रखा है, पता है विदेश में तो बिलकुल भी भिखारी नहीं हैं, मुझे तो भिखारियों से बहुत नफ़रत है।’ दूसरा यह हो सकता है पर दोनों एक ही हैं। जो दया कर रहा है, और जो दया नहीं कर रहा है; वो दोनों एक ही हैं। दोनों में से ही, कहानी का तत्व कोई नहीं देख पा रहा है।

श्रोता: सर, पर कई बार ऐसा भी लगता है कि वो और कुछ काम भी कर सकते हैं।

वक्ता: वो कोई और काम नहीं करेगा। आप सब लोग यहाँ आते हो, बैठते हो, आप कितने काम-धंधे करते हो पूरे हफ्ते, मुझे भी लगता है कि आप और बहुत कुछ और भी कर सकते हो, पर आप नहीं करोगे क्योंकि जो आप हो, आप कोई और व्यवसाय का चुनाव कर ही नहीं सकते। आपका व्यवसाय आपके मन की उपज से ही तो निकलता है। आप जो हो, आप वही धंधा ही तो चुनोगे न।

आप भिखारी अकस्मात् नहीं हो जाते। आपने भिखारी होना चुना है। भिखारी होना आपके जीवन का प्रतिबिम्ब है।

*प*रिस्तिथिवश आप भिखारी नहीं हो गए मात्र। कुछ है आपके भीतर, जो आपके भिखारीपन में सहायक है अन्यथा भिखारी नहीं हो सकते। और दिल्ली तो भिक्षावृति का केंद्र है, दूर-दूर से लोग आते हैं यहाँ भिक्षावृति अपनाने के लिए। आप क्या बोल रहे हो कि वो कुछ और भी कर सकता है? वो तो उठ कर ही आया है बिहार से, सिर्फ़ भीख मांगने। आज यह भिखारी है, आज इसकी मस्त आमदनी हुई है। आज इसकी दिन की कमाई है 550 रूपए। यह शाम को जाता है, मोबाइल निकलता है और छोटे भाई को फोन मिलकर कहता है कि, ‘भाई तू भी आजा, सही कमाई हो रही है।’ आप क्या बोल रहे हो कि वो कुछ और भी कर सकता है? वो तो चुन-चुन कर यही करना चाहता है। वो तो और कुछ करना ही नहीं चाहता।

देखो, जैसे हम जीवन को नहीं समझ पाते, जैसे हम किसी के भी चेहरे को नहीं पढ़ पाते, वैसे ही हम भिखारी के चेहरे को भी नहीं पढ़ पाते। ये जो बच्चा है, जो सड़क पर आपकी गाड़ी के सामने आता है और आपकी गाड़ी का शीशा साफ़ करता है और फिर कहता है: दो रूपए देना। उसने भी जो आपका मूल्य है, वो अच्छी तरह से पढ़ लिया है कि, ‘’अब जब मैंने कुछ काम कर दिया है, तो आपको कुछ देना पड़ेगा। मैंने काम करा है न, तो फिर पैसे निकालो।’’ भले ही उसने शीशे पर खरोंच मार दी हो और आप चिल्ला रहे हों कि ‘भई, क्या कर रहा है?’ पर वो फिर भी करेगा। उसने आपके मूल्य आधार को समझ लिया है। आप उससे कुछ और नहीं करवा सकते। कई लोगों ने कोशिश की है कि इन लोगों को कुछ और करवा दें। भिखारी होने में उन्हें बहुत फायदा नज़र आता है इसलिए वो कुछ और करना नहीं चाहेगा।

मैं आपसे कोई दूसरा उधारण पूछता हूँ: जब भी मैं शादीशुदा स्त्रियों को देखता हूँ, तो सोचता हूँ कि क्या यह स्त्रियाँ कुछ कर नहीं सकती थी ज़िन्दगी में? जीवन भर इन्होनें भिक्षावृति ही तो करी है। हमारे वालंटियर्स एक नाटक कर रहे थे, तो उसमें था कि एक औरत है और उसका पति करीबन एक लाख रूपए महीने के कमाता है। उसमें से वो उस औरत को महीने के तीस हज़ार रूपए दे देता है कि यह तेरे हैं। तो वो औरत आंतरिक ईमानदारी के एक क्षण में अपनेआप से सवाल करती है कि, ‘’मैं क्या-क्या काम करती हूँ?’’ तो वो कहती है कि, ‘’मैं बर्तन धोती हूँ, उसके एक हज़ार रूपए, मैं पोछा लगाती हूँ उसके इतने और कुल मिलकर जो मैं सारा काम करती हूँ वो चार-पांच हज़ार रूपए का है और मुझे मिलते हैं तीस। तो बाकी पच्चीस किस बात के मिलते हैं?’’

और यह जो लाइन थी वह बड़ी महत्व्पूर्ण थी और हर गृहणी को अपनेआप से पूछनी चाहिए कि, ‘’मैं जो काम करती हूँ, उसकी तो कुल कीमत इतनी ही है तो जो मुझे बाकी मिलता है वो मुझे किस बात का मिलता है?’’ तो अक्सर मैं उनको सोचता हूँ देख कर कि क्या वो कुछ और कर नहीं सकती थीं? पर वो नहीं करेंगी क्योंकि उसे मुफ़्त का काफ़ी कुछ मिल रहा है। वो नहीं करेगी न, क्यों करेगी? मैं भी कुछ को जानता हूँ और मैंने उनसे कितनी बार कहा है कि कुछ करते क्यों नहीं? तो पहली बात तो यह आती है कि बच्चे छोटे हैं, उनकी ज़िम्मेदारी है और जब बच्चे बड़े हो गए, तब भी बहाने बहुत हैं उनके पास। पर यह पक्का है कि वो कुछ करेगी नहीं, क्यों करे? अरे! सम्मानित काम है भई, घर पर बैठे हो, पति पर पूरा अधिकार है, पति की तनख्वा पर पूरा अधिकार है, घर पर पूरा अधिकार है, क्यों करें काम? ज़रूरत ही क्या है? इतना कुछ मिल तो रहा है।

मैं इसीलिए चाहता था कि यह बात कम से कम जो हमारी जवान महिला छात्राएं हैं, उनको स्पष्ट हो जाए कि, ‘’काम जो मैं करती हूँ, वो कुल चार-पांच हज़ार का ही है, जो बाकी पच्चीस हज़ार मुझे किस बात के मिलते हैं?’’ वो देह की कमाई है। वो भिखारीपन से भी नीचे की बात है। आप कोशिश करके देखिये, किसी भिखारी के बच्चे को बोलिए कि काम करेगा, तो वो ऐसा भागेगा कि नज़र नहीं आएगा। वो यह कहेगा कि दोबारा मत बोलना कि काम करेगा।

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