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ध्यान केंद्रित करने का सबसे अच्छा तरीका क्या है?
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: ध्यान केंद्रित करने का सबसे अच्छा तरीका क्या है?

आचार्य: ध्यान केंद्रित कैसे करें। अभी सुन रहे थे तुम?

प्र: जी सर।

आचार्य: ध्यान से सुना?

प्र: जी।

आचार्य: ध्यान से? क्या उसके लिए कोई विधि लगाई ध्यान केंद्रित करने के लिए?

प्र: नहीं, यहाँ पर तो नहीं लगाई लेकिन कई बार ऐसा होता है, जैसे पढ़ रहे हैं, तब एकदम मन कब डायवर्ट (विचलित) हो जाता है पता ही नहीं चलता।

आचार्य: क्यों डायवर्ट होता है?

प्र: सर, यही तो सवाल है।

आचार्य: क्यों डायवर्ट होता है, इसके हज़ार कारण हैं। और उन कारणों पर तुम्हारा कोई बस नहीं है। इस बात को ध्यान से समझना! उन कारणों पर तुम्हारा कोई बस नहीं है। अभी पीछे से कोई अंदर आए (दरवाजे की ओर इशारा करते हुए) तो तुम्हारा मन तुरंत उधर को जाएगा कि नहीं जाएगा?

प्र: जाएगा।

आचार्य: अब तुम्हारा कोई बस तो नहीं है कि कोई अंदर आए या न आए। वो उसकी मर्ज़ी है अंदर आना। अभी यहाँ अचानक पीछे ज़ोर से किसी गाने की आवाज़ आने लगे, तुम्हारा मन उधर को डायवर्ट होगा कि नहीं होगा? होगा न। तुम्हारा कोई बस तो नहीं है हमेशा कि कोई गाना ना बजा दे, कि है बस? तुम्हें अचानक अभी नींद आने लग जाए तो तुम्हारा मन डायवर्ट होगा?

प्र: होगा।

आचार्य: तुम्हारा अपने शरीर पर पूरा-पूरा बस तो नहीं है न? एक समय होगा जब उसे नींद आएगी ही। तो मन डायवर्ट क्यों होता है इसके कारण मत पूछो, इसके कारण सारे बाहरी हैं। ठीक है न?

मन बाहर के कारणों की वजह से बाहर को ही भागता है। बाहर से उसको बुलावे आते हैं तो वो बाहर को चल देता है। अभी तुम्हारी नाक में अच्छी सुगंध आने लग जाए, तो बुलावा आ गया बाहर से और तुम्हारा मन उधर को चल देगा कि शायद कुछ अच्छा खाने को पक रहा है।

अभी ये खिड़की खुली हो (खिड़की की तरफ इशारा करते हुए) और बाहर तुम्हें कुछ दिखाई देने लगे कि इंद्रधनुष छा गया है या हवाई जहाज जा रहा है तो तुम्हारा मन बाहर को चल देगा कि नहीं चल देगा? बुलावा आ गया बाहर को चल दिया। तो ये मत पूछो कि मन बाहर को क्यों चल देता है, क्योंकि वजह ये है कि कुछ है जो अस्तित्व में है और वो सारे ऑब्जेक्ट्स (वस्तुएँ) मन को आमंत्रण देते रहते हैं, बस इतना है।

पूछो ये कि, "जब चल देता है तो क्या मुझे पता होता है कि चल देता है?" तुम्हें नहीं पता होता, गड़बड़ वहाँ पर है। मन का काम है चल देना। कबीर क्या बोल गए हैं मन को? ‘मनवा तो पंछी भया, उड़ के चला आकाश’। पंछी है वो, उसका तो मन ही करता रहता है आकाश की ओर भागने का। कहीं रुकना उसका काम नहीं। जो रुक गया मन वो फिर बुद्ध का मन हो गया। मन की सहज प्रवृत्ति नहीं है रुक जाना। हाँ, तुम मन को उड़ते हुए देख ज़रूर सकते हो। और जब तुम मन को देख लेते हो न कि, "अच्छा! ये फिर आकर्षित हो रहा है", तब तुम मन के मालिक हो जाते हो। फिर वो कहीं नहीं भागेगा, और वही होता है ध्यान केंद्रित करना। अब तुम्हारा ध्यान कहीं नहीं भागेगा।

तो ये मत पूछो कि मन क्यों भागता है, ये पूछो कि, "जब मन भाग रहा होता है तब मैं जगा हुआ क्यों नहीं होता हूँ? कि मन को देख लूँ कि भाग रहा है।" ठीक है? अबकी बार जब मन भागे—सबका मन भागता है न?—इस बार जब मन भागे तो उससे लड़ना नहीं है, झगड़ना नहीं है, उसको दबाने की कोशिश मत करना। तुम लोग कई बार ये करते होगे कि मन कहीं और लग रहा है पर ज़बरदस्ती कोशिश करते होगे कि पढ़ाई कर लें या कुछ और कर लें। करते हो?

प्र: जी सर।

आचार्य: इस बार जब मन भागे तो ज़बरदस्ती मत करना उसके साथ। उसको बस ठीक से देखना कि ये क्या कर रहा है। मन तुम्हारा ही है न, बहुत दूर तक भाग नहीं पाएगा क्योंकि तुम उसे देख रहे हो, तो वापस आ जाएगा।

और अगर बहुत भाग रहा हो तो उसको बोलो कि, "जा फिर मुझे छोड़ कर ही चला जा! तू बहुत भाग रहा है तो जा कहाँ जाना है, मुझे छोड़ ही दे।" वो पूरी तरह तुमको छोड़ भी नहीं सकता।

तो ये कहना भी झूठ है कि मन भागता है। पर ऐसा भागता है कि एक पाँव यहाँ रखता है और एक पाँव कहीं और रखता है। पूरी-पूरी तरह से नहीं भागता। ठीक है? पूरी तरीके से भाग ही जाए तो तुम मुक्त हो जाओ कि भाग गया। मन कहाँ गया? भाग गया, अब तुम मुक्त हो।

मन बँटा रहता है। आधा यहाँ, आधा वहाँ। है न? क्या रहता है? बँटा रहता है, खंडित रहता है। आधा पढ़ाई में है और आधा कहीं और है। ऐसा ही रहता है न? इस बँटने को देखो। इस प्रक्रिया को समझो। उससे लड़ो मत। क्या नहीं करना है? लड़ना नहीं है। मन भगा, अच्छा फिर हम देखने लगे कि कहाँ जा रहा है। जैसे छोटा बच्चा होता है न कि उसको देखने लग जाओ तो वो बिलकुल शांत हो जाता है। वैसे तो वो बदमाशी कर रहा होता है, पर तुम उसको जैसे ही देखना शुरू कर दोगे, तो शांत हो जाएगा। देख बस रहे हो और कुछ नहीं।

मन भी ऐसे ही है, छोटा बच्चा। जहाँ को उड़ता है उसे उड़ने दो, तुम जाग्रत रहो। मन उड़ रहा है और मुझे समझ में आ रहा है कि “देखो बेटा! तू उड़ रहा है। देखता हूँ कितना उड़ता है। तू उड़, तेरी मर्ज़ी है उड़।" करोगे इतना? अभी इतनी देर बात सुन रहे थे, इसमें भी बीच-बीच में उड़ा होगा?

प्र: सर इसमें से एक सवाल उठ रहा मेरे मन में कि मुझमें और मेरे मन में फर्क क्या है?

आचार्य: है फर्क, तुम तुम्हारा मन नहीं हो। तुम बोलते हो न 'मेरा' मन। ये क्या है जो तुम्हारे हाथ में है?

प्र: पेन (कलम)।

आचार्य: पेन , किसका पेन ?

प्र: मेरा *पेन*।

आचार्य: 'मेरा' पेन ! जब ये बोलता है, "मेरा पेन " तो उसका अर्थ होता है कि पेन इससे भिन्न कुछ है। तभी ये बोल सकता है, 'मेरा' पेन * । अगर ये * पेन होता, ये खुद ही पेन होता, तो क्या ये कह सकता था कि, "मेरा पेन "? फिर ये बोलता, मैं *पेन*। तुम क्या शब्द इस्तेमाल करते हो? ‘मेरा’ यानि तुम मन से अलग कुछ हो, तुम मन नहीं हो। क्या हो, वो अलग प्रश्न है पर तुम मन नहीं हो। ठीक है? तुम मन से अलग हो।

मन भले ही इधर-उधर उड़ रहा हो पर तुम उस मन को शांत रह कर, स्थिर रह कर देख सकते हो। "मन तो गया, मैं अपनी जगह हूँ। और अगर मैं अपनी जगह हूँ तो मन कहीं दूर जा नहीं सकता। आएगा, थोड़ी देर में टहल कर, घूम कर आ जाएगा वापस।" जैसे गाय हो, खूँटे से बँधी हो। गाय हिलती-डुलती रहती है, और खूँटा?

प्र: नहीं हिलता।

आचार्य: खूँटा भी हिलता-डुलता रहता है? खूँटा स्थिर रहता है। मन गाय है। बड़ी लम्बी रस्सी है उस गाय की। बड़ी लम्बी रस्सी है तो खूब दूर तक जा सकती है। पर खूँटा अगर अपनी जगह स्थिर है तो गाय को लौटना ही पड़ेगा। हाँ, खूँटा भी हिलने-डुलने लग गया तो फिर तो गाय गयी।

मन गाय है, पंछी। खूँटा स्थिर रहे। तुम खूँटे हो। नहीं आई बात समझ में?

प्र: आ गई।

आचार्य: एच.आई.डी.पी. (समग्र व्यक्तिगत विकास कार्यक्रम) करा साल भर? कक्षाएँ होती थीं, करी हैं साल भर?

(बहुत कम जवाब आता है)

पता चल रहा है, थोड़ी करी है थोड़ी नहीं। क्या सीखा है?

प्र: ‘नेति-नेति’, उसमें सर ने बताया था कि जो जैसा दिख रहा है तो ये ज़रूरी नहीं कि वो वैसा ही है। उसे एक दूसरे नजरिए से भी देख सकते हैं, और तब कोई कंक्लूजन (निष्कर्ष) निकालना चाहिए। सीधा जो हमें दिखाया जा रहा है, उसे देख कर सीधे निष्कर्ष पर नहीं पहुँचना चाहिए।

आचार्य: अच्छा! पहला कंक्लूजन गलत था, फिर तुम्हें कोई दूसरा नज़रिया मिल गया देखने का, तो तुमने ये कंक्लूजन मान लिया कि ये सही होगा। जब पहला गलत हो सकता है, तो दूसरा भी तो गलत हो सकता है।

प्र: दूसरा भी हो सकता है।

आचार्य: और मैथमेटिकल इंडक्शन बताता है कि पहला गलत हो सकता है, तो दूसरा गलत हो सकता है, और तीसरा भी गलत हो सकता है, तो चौथा भी गलत हो सकता है। तो अंतत: सारे ही नज़रिए गलत हो सकते हैं। ‘नेति-नेति’ का ये अर्थ नहीं है कि एक नज़रिया गलत है और दूसरा सही है। ‘नेति-नेति’ का अर्थ ये है कि सारे ही नज़रिए छोटे हैं, सीमित हैं। उनमें संभावना है गलत होने की। कितने लोगों ने करी है नेति-नेति? ‘नेति-नेति’ का मतलब ये मत जान लेना कि एक तरीके से देखना गलत है और दूसरे तरीके से देखना सही है। ‘नेति-नेति’ का अर्थ है; कोई-सा भी तरीका लिमिटेड (सीमित) ही है, जिसकी सीमाएँ हैं। और क्या सीखा है?

प्र: सर ने सेशन्स कराए थे सेल्फ और ईगो पर।

आचार्य: सेल्फ़ और ईगो , क्या सीखा उसमें?

प्र: सेल्फ और ईगो में क्या अंतर है। और क्या बेनिफिट (लाभ) है सेल्फ से भी और ईगो से भी।

आचार्य: ईगो क्या होती है?

प्र: सर, जब हम अपने व्यक्तित्व को छोड़ न पाएँ और उसकी वजह से कुछ कर न पाएँ जैसे कि उदाहरण के लिए कोई प्रिंसिपल (प्राध्यापक) है और वो कॉरिडोर (गलियारे) से निकल रहा है और उसने देखा कि एक गमला गिरा हुआ है। तो वो चाहे तो उठा कर रख सकता है लेकिन उसने सोचा कि, "नहीं, मैं प्रिंसिपल हूँ!" और उसने चपरासी को आवाज़ दी कि इसे उठा कर रख दे, तो ये अहंकार हो गया उसका।

आचार्य: बहुत अच्छा, बहुत ही अच्छा! बहुत अच्छा उदाहरण दिया। अपने-आपको एक नाम के साथ बाँध लिया।

अपने-आपको कुछ भी समझ लेना अहंकार है। अपने-आप को छोटा समझ लेना भी अहंकार है। कोई बहुत विनम्र हो जाए और बार-बार बोले कि, "मैं तो कुछ नहीं, मैं तो तुम्हारे चरणों में धूल का कण हूँ", तो ये भी अहंकार है।

अपने-आपको छोटा समझना भी अहंकार है और अपने-आप को बड़ा समझना भी अहंकार है। कुछ भी, दाएँ-बाएँ, ऊपर-नीचे, अपने-आपके प्रति कोई भी धारणा बनाना ईगो है। मैं हिंदू, मैं मुसलमान, मैं सिख—ये सब अहंकार है। मैं मेल (पुरुष), मैं फीमेल (स्त्री), ये सब अहंकार है। अपने-आपको कुछ भी समझना क्या है?

प्र: अहंकार।

आचार्य: मैं अच्छा, मैं बुरा (ये सब अहंकार है)।

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