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लेख
ध्यान का फल है भक्ति || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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चतुराई चूल्हे पड़े, ज्ञान कथे हुलसाय। भाव भक्ति जाने बिना, ज्ञानपनो चली जाय॥ ~ संत कबीर

आचार्य प्रशांत: भक्ति की ज्ञान पर श्रेष्ठता बता रहे हैं। तुम्हारे ज्ञान की दो कौड़ी की कीमत नहीं है यदि...?

प्रश्नकर्ता: भाव भक्ति ना हो।

आचार्य: ‘भाव भक्ति’ नहीं है। तुम्हारी सारी चतुराई चूल्हे में गई, और ज्ञान में लग गई आग! भक्ति तुझमें है नहीं, भाग सके तो भाग!

‘भाव भक्ति जाने बिना, ज्ञानपनो चली जाय’। भक्ति के बिना तुम्हारा ज्ञान किसी काम का नहीं है। देखिए ऐसा नहीं है कि ज्ञान की कोई कीमत नहीं है। थोड़ी ही देर पहले कबीर ने कहा था, ‘ज्ञान-ध्यान का साबुन लगेगा’, ठीक है? ज्ञान अपने-आप में अद्भुत, विलक्षण, बहुत-बहुत कीमती है। लेकिन आख़िरी कदम पर आकर ज्ञान को भक्ति में रुपांतरित होना ही पड़ेगा। ठीक इसी तरह से भक्ति भी ज्ञान के बिना अगर हो रही है, तो बड़ी पाखंडी भक्ति है। बात को समझे बिना ही अगर आप समर्पित हो गए तो वो भी बहुत बड़ा पाखंड है। समर्पण आवश्यक है, पर जब समझा ही नहीं तो समर्पण कैसे कर रहे हो? फिर तो यह अंधा समर्पण है।

प्र: सिर्फ़ माने जाने वाला।

आचार्य: हाँ। जानो और जानने के बाद फिर पूरी तरीके से सिर झुक जाए। एक बार जान लिया, ठीक है। बुद्धि का पूरा प्रयोग करो। तुमको उसका जो विच्छेदन करना है, काटना है, छाँटना है, बुद्धि से जो कुछ कर सकते हो, सब कर लो। लेकिन एक बार दिखाई देने लगे कि सच क्या है तो अब खड़े मत रहना, अब मत लड़ना। अब बिलकुल सिर झुका दो। नहीं तो...? ‘चतुराई चूल्हे पड़े’! अब यह ज्ञान ही वरना तुम्हारा दुश्मन बन जाएगा। ठीक है?

प्र: सर, इसका मतलब जो ज्ञान भक्ति में परिवर्तित नहीं हुआ, वो चतुराई में होगा ही।

आचार्य: बहुत बढ़िया। ज्ञान जब भक्ति नहीं बनता तो सड़ने लगता है। फिर वो कुटिलता बन जाता है।

प्र: अहंकार की परम सीमा...

आचार्य: वो अहंकार का खिलौना बन जाता है। और बड़ा घातक अहंकार होता है न! क्योंकि यह कौन सा अहंकार है? ‘ज्ञानी अहंकार है’। यह रावण वाला अहंकार है। कि अहंकार तो है ही है, और उसको ज्ञान और मिल गया है। अब वो सब कुछ काट देगा, चिथड़े-चिथड़े कर देगा। ठीक है?

तो ज्ञान बिलकुल दो-धारी तलवार है। ध्यान दीजिएगा, ज्ञान से आप असत्य को तो काटिए ही, लेकिन आख़िर में खुद को भी काट डालिए। ज्ञान से पूरी दुनिया को काटिए और आख़िर में आत्महत्या कर लीजिए। इसी आत्महत्या का नाम ‘भक्ति’ है। इसी का नाम ‘समर्पण’ है। अगर आपका ज्ञान ऐसा रहा कि उससे आपने बाकि सब तो काट दिया, लेकिन अपने-आप को बचाए रखा तो बड़ी गड़बड़ हो जाएगी, बहुत-बहुत गड़बड़ हो जाएगी। आप विद्वान बन जाओगे। आप पंडित बन जाओगे। क्या कहते हैं बुल्लेशाह इस बारे में?

पढ़ पढ़ आलिम फ़ाज़िल होया, कदी अपने-आप नू पढ़या नईं। जा जा वड़दा मंदिर मसीतां, कदी अपने-आप चे वड़या नई।।

तो आलिम फ़ाज़िल हो जाएँगे, और शक्ल कैसी रहेगी? जल्लादों जैसी रहेगी। जितनी किताबें पढ़नी हैं, पढ़ लो, मन को शांत कर लो, अंत में ढाई आखर और पढ़ लेना। सब पढ़ लो लेकिन अंत में वो ढाई आखर और पढ़ लेना। वो नहीं पढ़ा तो जितना पढ़ा है वो सब पलट कर तुम्हारे ऊपर ही आएगा।

प्र: अभी ये सब ना पढ़ें, पर ढाई आखर पढ़ लिया तो?

आचार्य: मुश्किल हो जाता है। यह सब पढ़े बिना ढाई अक्षर पढ़ना मुश्किल हो जाता है। फिर वो जो ढाई अक्षर है, वह प्रेम नहीं आसक्ति बन जाता है।

प्र: इसी को तो पाखंड कहते हैं।

आचार्य: फिर वो गड़बड़ हो जाती है। ऐसा हो सके तो बहुत अच्छा है, पर होता नहीं है। तुम कह रही हो कि क्या ज्ञान के बिना भक्ति हो सकती है? फिर वो वैसी ही भक्ति हो जाती है जैसे आमतौर पर मंदिरों में पाती हो कि समझ में कुछ नहीं आता पर ऐसे ही खड़े हो गए हैं। समझा नहीं है कि ईश्वर क्या है, मंदिर क्या है, पर ऐसे ही (हाथ जोड़कर) खड़े हो गए हैं।

प्र: अभी कुछ दिन पहले मैं किसी से मिली थी, तो उन्होंने कहा, "मैं तो रोज़ मंदिर आती हूँ, चार-पाँच साल हो गए, फिर भी मुझे कुछ दिया नहीं है।"

आचार्य: हाँ। फिर वो सब रहेगा। वही वो लड्डू खिला रहे हैं।

प्र: दूध पिला रहे हैं, माखन चटा रहे हैं, झूला झुला रहे हैं।

आचार्य: दूध पिला रहे हैं, माखन चटा रहे हैं, और लड्डू गोपाल को अपने साथ सुला रहे हैं, झूला झुला रहे हैं, और उन सबको नाम क्या दे रखा है ‘प्रेम’, कि ये तो हमारा परम के प्रति प्रेम है।

प्र: वहाँ तक भी तो उस परम को जानने की चेष्टा ही ले जाती है?

आचार्य: वहाँ क्या चेष्टा आती है?

प्र: वहाँ तक भी नहीं आते तो?

आचार्य: तुमने प्रेम को अपना खिलौना बना लिया है। तुम उसके साथ खेल रहे हो। तुम्हारे अहंकार का खिलौना बन गया है न?

प्र: सर, तो इसका मतलब कि बृज में जाकर जो इतने लोग कृष्ण के प्रेम में नाच रहे होते हैं, वो बिना मतलब ही…

आचार्य: कोई समझ के नाचा है? चैतन्य महाप्रभु भी नाचे थे। चैतन्य का नाम सुना है? और उनके जैसा कोई नहीं नाचा। वो इन सब नाचने वालों के पितामाह थे। असल में कृष्ण के लिए नाचने की परम्परा ही चैतन्य से शुरू होती है। पर चैतन्य बहुत बड़े पंडित भी थे। जब उनका ज्ञान पक गया, तो भक्ति में परिवर्तित हुआ। चैतन्य जैसा पंडित कोई नहीं हुआ है, ज्ञानी थे पूरे वो। जब ज्ञान उनका पूरा पक गया तब उन्होंने गली-गली नाचना शुरू किया। ऐसे नहीं कि जानते समझते कुछ हैं नहीं और नाच फालतू रहे हैं। नाचने से कुछ हो जाता, तो फिर जितने नचइये थे वो सब...

प्र: चैतन्य हो जाते।

आचार्य: चैतन्य हो जाते।

चैतन्य होकर नाचा जाता है, नाचने से कोई चैतन्य नहीं हो जाता है।

प्र: और फिर बृज की बात नहीं आती। फिर आप जहाँ हैं वहीं नाचेंगे।

आचार्य: मीरा गली-गली नाचे तो एक बात है, पर जो गली-गली नाचे वही मीरा नहीं हो गया। ठीक है?

प्र: क्या यह कह सकते हैं कि चैतन्य का नाचना ज़रूरी था?

आचार्य: आख़िर में तो नाचना पड़ेगा ही!

प्र: चैतन्य कहने पर तो नाचना है न? अष्टावक्र नहीं आ रहे दिमाग में।

आचार्य: अब अष्टावक्र को देखा नहीं गया है नाचते हुए!

थोड़ा उनको चोट ज़्यादा थी तो... पर नाचेंगे वो भी। इसमें कोई शक़ नहीं है। बुद्ध भी नाचेंगे, अष्टावक्र भी नाचेंगे। कृष्ण तो नाचते हैं ही, कृष्ण तो नाचते हैं ही, कृष्ण का नाच तो सबने देखा है। पर बुद्ध भी नाचेंगे और अष्टावक्र भी नाचेंगे। हाँ नाचने के उनके तरीके अलग होंगे। उनके तरीके अलग होंगे, पर नाचने के अलावा कुछ नहीं है। जो पाएगा उसे नाचना ही पड़ेगा। ‘जब सामने होवे यार तो...?’

प्र: नचना पैंदा है।

आचार्य: नाचना पड़ता है। वहाँ कोई विकल्प नहीं रह जाता, और कोई तरीका ही नहीं है। नाचोगे नहीं तो करोगे क्या?

प्र: आपने जो लिखा था, ‘पाओ और गाओ’।

आचार्य: हाँ! जब पाओगे तो गाने के अलावा और कोई विकल्प ही नहीं है, गाना पड़ेगा। हाँ, बेसुरा गाओ तो अलग बात है, उसमें कोई दिक़्क़त नहीं है।

वो तो कह ही रहे हैं न बुल्लेशाह,

‘जिस तन होइया इश्क कमाल, वो नाचे बेसुर और बेताल’।

तो बेताल नाचो, बेसुध गाओ, उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। पर यह आवश्यक है, नाचोगे भी, गाओगे भी, वो तो होगा।

लेकिन, वहाँ पर फिर साथ में बहुत बड़ी चेतावनी जुड़ी हुई है। किसी को मिल गया है इस कारण वो नाच रहा है, वो एक बात है, और कोई सोच रहा है कि नाचने-नाचने से हो जाएगा वो बिलकुल ही दूसरी बात है। वैसे नहीं होता है। प्रक्रिया विपरीत नहीं चलाने लग जाना।

प्र: ‘गाओ और पाओ’ नहीं, ‘पाओ और गाओ’।

आचार्य: हाँ। हम कार्य-कारण को उल्टा कर देते हैं। ठीक है? हम सोचते हैं कि लक्षणों को अपनाने से हमें तत्व मिल जाएगा। तत्व पहले आता है, लक्षण उसके बाद में आते हैं। महावीर को बोध हुआ, आनंद हुआ, तो उनके कपड़े झड़ गए, गिर गए। ‘करना क्या है इनका?’ दिख गया उनको कि यूँ ही आनंद है।

अब कोई यह सोचे कि कपड़े अपने झाड़ देगा, नंगा घूमेगा तो महावीर हो जाएगा, तो यह पागलपन की बात है। ऐसे नहीं होगा। जिन्होंने कर्ता-भाव छोड़ दिया, उनके केश भी लंबे हो गए, उनकी दाढ़ी भी लंबी हो गई। उन्होंने कहा, "जो हो रहा है, सो हो, हम नहीं रोकेंगे। हम अस्तित्व के रास्ते में बाधा नहीं बनेंगे।" तुम अक्सर पाओगे यह बात संतों में। यह अकर्ता भाव का द्योतक हैं।

"नदी बह रही है, बहे, मैं होता कौन हूँ उसको रोकने वाला? शरीर की अपनी प्रक्रियाएँ हैं वो कर रहा है, मैं होने दूँगा। इसी में शरीर का स्वास्थ्य है। मैं होता कौन हूँ कि कहूँ कि - नहीं अच्छी नहीं लगती, इनको काट देना चाहिए।" तो उनकी दाढ़ी इसलिए बढ़ती है क्योंकि उनमें पहले क्या आया?

अकर्ता-भाव।

अब कर्ता-भाव तुममें ठूस-ठूस कर भरा हुआ है, और तुम दाढ़ी बढ़ा लो और कहो, "दाढ़ी बढ़ाने से हम धार्मिक हो गए" तो दाढ़ी बढ़ाने से धर्म थोड़े ही आ जाएगा! धर्म पहले आता है। जब मन में धर्म उगता है, तब दाढ़ी बढ़ती है। मन में तुम्हारे हिंसा भरी हुई है और दाढ़ी बढ़ा कर घूम रहे हो तो उससे थोड़े ही तुम धार्मिक हो जाओगे।

समझ में आ रही है बात? लक्षणों को मत अपनाने लग जाइए, चिन्ह अपनाने से कुछ नहीं होता। ठीक है?

प्र: आचरण नहीं।

आचार्य: आचरण नहीं, अंतस।

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