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लेख
ध्यान और एकाग्रता (मेडिटेशन और कॉनसन्ट्रेशन) || आचार्य प्रशांत (2020)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
11 मिनट
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प्रश्नकर्ता: सर, मेरे कई दोस्त हैं जो रोज़ मेडिटेशन (ध्यान) करते हैं और कहते हैं कि इससे कॉनसन्ट्रेशन (एकाग्रता) बढ़ती है। मैंने भी काफ़ी मेडिटेशन तकनीक को आज़माया लेकिन कुछ ख़ास लाभ नहीं हुआ। क्या आप ऐसी कोई तकनीक बता सकते हैं जो कॉनसन्ट्रेशन बढ़ाने में सहायक हो ?

आचार्य प्रशांत: देखो, मेडिटेशन इसलिए नहीं होता कि उससे कॉनसन्ट्रेशन बढ़ेगी। तुमने पहले ही बात कही कि तुम्हारे कई दोस्त हैं जो रोज़ मेडिटेशन करते हैं और कहते हैं इससे कॉनसन्ट्रेशन बढ़ती है।

यह उल्टी बात है। कॉनसन्ट्रेशन इसलिए होता है ताकि तुम अंततः मेडिटेटिव (ध्यानी) हो जाओ। दोनों का अंतर समझते हैं। कॉनसन्ट्रेशन में तुमको किसी चीज़ पर, दुनिया की किसी चीज़ पर एकाग्र होना होता है, इसे कॉनसन्ट्रेशन कहते हैं – कॉन-सन-ट्रेट।

जो चीज़ बिखरी हुई है, हेजी या ब्लर्ड है, उसको किसी एक सेंटर (केन्द्र) पर एकाग्र करना, फ़ोकस करना, इसे कहते हैं कॉनसन्ट्रेशन। तो हमारा काम है कि सही चीज़ को चुनें और उस पर मन को पूरी तरह टिका दें – ये कनसेन्ट्रेशन है, ठीक है।

सही चीज़ कौनसी होती है?

सही चीज़ वो होती है, परिभाषा ही यही है सही चीज़ की, कि जिस पर अगर तुमने एकाग्रता कर ली तो फिर तुमको एकाग्र होने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। क्योंकि वो चीज़ इतनी बढ़िया थी, या वो चीज़ अपने से आगे की किसी चीज़ का ऐसा दरवाज़ा थी कि तुम उसमें खो गए।

कॉनसन्ट्रेशन में तो चुनाव लगता है, इरादा लगता है, शुरुआती मेहनत लगती है। मेडिटेशन का मतलब होता है कि चूँकि तुमने सही चीज़ पर कॉनसन्ट्रेशन किया, इसीलिए तुम्हें अब आगे मेहनत करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी।

वो चीज़ ही इतनी अच्छी थी, या उस चीज़ ने तुमको इस तरह से बदल दिया, या उस चीज़ ने तुम्हें इस तरीक़े से अपने आप में सोख लिया, एब्जॉर्ब कर लिया कि तुम्हें अब कोई विरोध नहीं रहा उस चीज़ के प्रति। तुम्हें अब आकर्षण पता ही नहीं चल रहा है दूसरी चीज़ों का।

जब दूसरी चीज़ों का आकर्षण वग़ैरह कुछ पता चलता है तभी तो डिस्ट्रेक्शन (विचलन) होता है न – तो जब कॉनसन्ट्रेशन शुरू में आता है। जब तुम कॉनसन्ट्रेट करने की कोशिश करते हो तो डिस्ट्रेक्शन के ख़िलाफ़ जाकर के, डिस्ट्रेक्शन का ख़तरा उठाकर के।

ऐसा होता है न? तुम किसी एक चीज़ पर कॉनसन्ट्रेट करना चाह रहे हो और दूसरी पाँच-सात चीज़ें हैं जो तुम्हारा मन खींच रही हैं। लेकिन अगर सही चीज़ पर कॉनसन्ट्रेट किया है तो नतीजा ये निकलेगा कि वो जो बाक़ी चीज़ें थीं इधर-उधर की, वो दिखाई देना बंद हो जाएँगी, उनका ज़ोर, उनका प्रभाव, आकर्षण पता चलना बंद हो जाएगा। और फिर जो तुम्हारा कॉनसन्ट्रेशन है वो बिलकुल एफर्टलेस (आसान) हो जाएगा। अब उसमें तुम्हें कोई श्रम, मेहनत, चुनाव नहीं करना पड़ेगा।

जब ऐसे हो जाते हैं तो वो स्थिति फिर कहलाती है मेडिटेटिवनेस की। तुमने दुनिया में सही लक्ष्य बनाया, सही चीज़ पर केंद्रित हुए, एकाग्र हुए। नतीजा ये निकला कि तुम इस दुनिया से आगे की किसी चीज़ पर, जो कि इन्टेंजिबल (अस्पृश्य) है—दुनिया से आगे की, इससे मेरा मतलब यह नहीं है कि इधर-उधर की, हवा-हवाई, किसी और लोक की कोई चीज़, नहीं—किसी इन्टेंजिबल चीज़ पर जा करके टिक गए।

तो दुनिया में किस चीज़ पर फिर कॉनसन्ट्रेट करना है। उसकी पहचान है जो तुम्हें अपने से आगे की किसी इन्टेंजिबल चीज़ से मिला दे। ऐसी चीज़ से मिला दे जो तुम्हे बहुत शांति देगी, सुकून देगी, बिलकुल आनंद रहेगा। लेकिन वो कोई चीज़ नहीं है। जब वो परम चीज़ तुम्हारा फिर ध्येय बन जाती है तो उसको ध्यान कहते है, मेडिटेशन कहते हैं।

ये दोनों शब्द जुड़े हुए हैं: ध्येय और ध्यान। लेकिन वो जो बिलकुल बाहर की चीज़ है, सबसे ऊँची, उच्चतम चीज़ है, उसको तुम अपना ध्येय बना लो, उससे पहले आवश्यक होता है कि तुम सही धारणा बनाओ, सही धारणा। वो सही धारणा बनाना हमारे हाथ में है। हमें ही चुनना है कि मैं इस दिशा जाऊँगा, इस दिशा जाऊँगा, उसके साथ बैठूँगा या उसके साथ बैठूँगा। मैं किसके साथ रहूँगा, मैं किस पर अपनी शक्तियों को, अपने मन को, अपनी ऊर्जा को, अपनी इंद्रियों को कॉन्सेंट्रेट कर दूँगा, एकाग्रचित हो जाऊँगा। ये हमारे हाथ में होता है, ठीक है।

तो हम कैसे पता करें कि हमने सही चीज़ पर कंसेंट्रेट किया है कि नहीं किया है? जब तक चीज़ ऐसी होगी कि उसके ख़िलाफ़ पाँच और चीज़ें जाती हैं और तुम्हें खींच ले जाती हैं, तो समझ लो कि तुम्हें सही चीज़ मिली नहीं। अविरोध की, रेजिस्टेंसलेसनेस (अवरोध रहित) की स्थिती आ जाती है जब तुम्हें सही चीज़ मिल जाती है।

तुम कहोगे, "लेकिन ऐसा तो होता नहीं। सही चीज़, मान लीजिए, हमारी किताबें हैं, या काम है। हम जब उन पर कंसेंट्रेट करते हैं तो और ज़्यादा मन इधर-उधर भागता है।" इसका मतलब ये है कि तुमने सही किताबें नहीं चुनीं, इसका मतलब तुमने सही काम नहीं चुना, या कि तुमने जो चुना भी है वो सही केंद्र से नहीं चुना। इसलिए तो इधर-उधर भाग रहे हो।

जब तक और चीज़ें आ करके तुमको खींचती हैं, डिस्ट्रैक्ट करती हैं, तब तक समझ लो कि कहीं कुछ बदलने की तुम्हें बहुत ज़रूरत है। या तो तुमने चीज़ सही नहीं चुनी है या सही चीज़ भी तुम्हारे सामने आ गयी तो तुम सही नहीं हो। या तो जो चुनी हुई चीज़ है उसको बदलो या जो चुनने वाला है उसको बदलो।

कुछ तो गड़बड़ है, तभी तो दुनिया तुमको विकर्षित कर रही है। तभी तो दुनिया तुमको खींच रही है अपनी ओर। नहीं तो जो चीज़ सामने थी उसी में इतना मज़ा रहता कि तुम उससे कहीं छिटकते ही नहीं।

समझ में आ रही है बात?

तो पूछ रहे हो कि कोई तकनीक बताइए जिससे कॉनसन्ट्रेशन बढ़ सकता हो। एक ही तकनीक है – सही चीज़ पर कॉनसन्ट्रेट करना। तुम अगर ये पूछोगे कि, "नहीं, मैं कॉनसन्ट्रेट तो बेकार की किसी व्यर्थ चीज़ पर करना चाहता हूँ, उसके लिए मुझे कोई तरीक़ा, तकनीक बता दीजिए," तो मैं कुछ नहीं बता पाऊँगा।

सही वस्तु का चयन ही सर्वश्रेष्ठ विधि है एकाग्रता की।

तुम जिस पर एकाग्र होने जा रहे हो उसको सही होना चाहिए, वही सर्वश्रेष्ठ और एकमात्र विधि है। उसके अलावा कोई विधि काम नहीं आएगी। तुम कहो कि "मुझे कचरे पर कॉनसन्ट्रेट करना है, कोई तरीक़ा बताइए।" तो पहली बात तो कोई तरीक़ा बताया नहीं जा सकता। दूसरी बात, कुछ तुमको उल-जलूल विधि बता भी दी गई तो वो तुम्हें बहुत महँगी पड़ेगी। क्योंकि वो विधि तुम से क्या करवा ले जाएगी? वो तुम्हें कचरे से जोड़ देगी।

तो चीज़ ऐसी लेकर आओ न जिससे जुड़ने के लिए किसी विधि की ज़रूरत पड़े ही नहीं। सीधे प्रेम हो जाए, सीधे सम्मान उठ जाए, सीधे-सीधे दिखाई दे जाए कि चीज़ इतनी बड़ी है कि इसके साथ तो चलना हीं पड़ेगा, हम इधर-उधर हो ही नहीं सकते। कोई बहाना काम नहीं आएगा; इस चीज़ के साथ हमें जुड़ना ही पड़ेगा।

उस चीज़ में ऐसी सुन्दरता होनी चाहिए, ऐसी विशालता, ऐसी महानता होनी चाहिए, ऐसा खिंचाव होना चाहिए, ऐसी जान होनी चाहिए उसमें, ऐसा महत्त्व होना चाहिए उस बात का कि तुम उसमें फिर डूब ही जाओ। और वैसी ही चीज़ तुम्हें खोजनी पड़ेगी।

देखो ये तरीक़ा तो चलाओ ही मत कि मैंने कोई सस्ती चीज़ खोज ली है और मुझे इसी में कॉनसन्ट्रेट करना है और मैं उसमें कुछ सस्ते तरीक़े लगा रहा हूँ। कॉनसन्ट्रेट करके अगर किसी चीज़ के साथ जुड़ नहीं पा रहे हो, एकाग्र नहीं हो पा रहे हो, रुक नहीं पा रहे हो तो ज़बरदस्ती अपनेआप को रोकने की कोशिश भी मत करो। तुम आगे बढ़ो न, आगे बढ़ो। और वो चीज़ खोजो जिस पर मन केंद्रित हो सकता है।

लेकिन आगे बढ़ने में ख़तरे हैं। क्योंकि जितना तुम आगे बढ़ते जाते हो उतना भीड़ से साथ छूटता जाता है, उतने अकेले होते जाते हो। वो तो सही ही बात है, जितनी ऊँची चीज़ की ओर बढ़ोगे, तुम पाओगे तुम्हारे साथी उतने ही कम हो रहे हैं। पहाड़ों के शिखरों पर कितने लोग पाए जाते हैं, लेकिन नीचे तलहटी में और घाटियों में बहुत लोग मिल जाएँगे तुमको।

जीवन में किसी भी क्षेत्र में ऊँचाइयों पर कितने लोग पाए जाते हैं? बहुत कम। लेकिन निचली जगहों पर तुम्हें बहुत लोग मिल जाएँगे। इसी तरीक़े से तुम जब कोई घटिया या साधारण चुनाव कर रहे होगे, अपने मन को केंद्रित कर रहे होगे किसी घटिया चीज़ पर, तो बहुत लोग मिलेंगे तुम्हारे जैसे जो उसी चीज़ पर केंद्रित हुए बैठे हैं।

तो तुम्हें कोई समस्या नहीं आएगी, तुम कहोगे कि हर आदमी इसी चीज़ पर तो कॉनसन्ट्रेट कर रहा है, मैंने भी कर लिया इसी चीज़ पर फ़ोकस तो ठीक है। सुरक्षा जैसी लगती है कि मैं सबके साथ हूँ, अकेला नहीं हूँ। लेकिन जब किसी ऊँची तरफ़ बढ़ते हो तो अकेले होते जाते हो। वो ख़तरा उठाना ही पड़ेगा, हिम्मत दिखानी ही पड़ेगी। उसके बिना काम नहीं चलने का।

घटिया चीज़ पर कॉनसन्ट्रेट करोगे, साधारण औसत चीज़ पर कॉनसन्ट्रेट करोगे, प्रचलित चीज़ पर कॉनसन्ट्रेट करोगे अपनेआप को, तो इतना तो तुम्हें मिल जाएगा कि जैसे एक झूठी सुरक्षा की भावना कि सब लोग यहीं पर हैं, मैं भी यहीं पर हूँ।

लेकिन साथ-ही-साथ तुम्हें क्या नहीं मिलेगा? तुम्हारे कॉनसन्ट्रेशन में कोई गहराई नहीं आएगी। तुम ध्यान करने की कोशिश करोगे, पाँच मिनट टिकोगे उस चीज़ के साथ, छठे मिनट कोई और चीज़ तुमको खींच ले जाएगी। क्या फ़ायदा? इससे अच्छा काम पक्का करो न।

क्यों किसी उथली चीज़ के साथ जुड़ने की कोशिश करते हो? क्यों किसी ऐसी चीज़ पर ध्यान लगाना चाहते हो जो इस लायक़ ही नहीं है कि उस पर ध्यान लगाया जाए? आगे बढ़ो, हिम्मत दिखाओ, जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाओगे, वैसे-वैसे तुमको वो मिलना शुरू होता जाएगा जो जुड़ने के लायक़ है। जिसके साथ हुआ जा सकता है, जिस पर अगर मन को केंद्रित करो तो मन का सम्मान होगा, मन को ऊँचाई मिलेगी, मन को सफ़ाई मिलेगी। तो आगे बढ़ते रहो, आगे बढ़ते रहो।

सही चीज़ पर कॉनसन्ट्रेट करते-करते तुम मेडिटेटिव हो जाते हो। ये जो तुम्हारा कॉनसन्ट्रेशन है न, यही मेडिटेशन बन जाएगा।

समझ में आ रही है बात?

और फिर वो जो मेडिटेशन और कॉनसन्ट्रेशन हैं, दोनों एक हो जाते हैं। तुम्हें कुछ ऐसा मिल जाता है जिसको तुम छोड़ नहीं सकते।

और वो फिर तुमको बताने लगता है कि तुम्हें ज़मीन पर भी, दुनिया में भी किस-किस तरह के चुनाव करने हैं। फ़िलहाल के लिए तो तुम मेडिटेशन शब्द को भुला भी सकते हो। कोई नुक़सान नहीं हो जाएगा। उपयोगी शब्द तुम्हारे लिए यही है – कॉनसन्ट्रेशन। तुम जिस उम्र के हो इस समय तुम्हारे लिए उपयोगी शब्द यही है।

तुम सही चीज़ खोजो दुनिया में संगत के लिए, साथ जुड़ने के लिए। तुम वो सही मुद्दा खोजो, सही लोग खोजो, सही किताबें खोजो जो तुम्हारी ऊर्जा के, तुम्हारे, ध्यान के हकदार हैं, उन्हीं पर केंद्रित हो जाओ। और फिर तुम पाओगे कि मेडिटेशन अपनेआप तुम्हारी ज़िंदगी में उतर आया। और सावधानी मैंने बता ही दी है।

सिर्फ़ इसलिए किसी चीज़ के साथ जुड़ने की कोशिश मत करना क्योंकि सब उसके साथ जुड़ते हैं। ऐसा अगर करोगे तो यही पाओगे फिर कि मन कभी लगता है, कभी छिटकता है। और मन तो चीज़ ही ऐसी है कि उसको जो उच्चतम चाहिए, उसको नहीं मिलेगा तो वो छिटकता-भागता ही रहेगा, बंदर की तरह।

ज़्यादातर लोग पूरी ज़िंदगी उस चीज़ तक पहुँचने की, उसको माँगने की, उससे जुड़ने की हिम्मत ही नहीं दिखा पाते जो चीज़ जीवन के सार की हक़दार है। तो फिर उनका जीवन ऐसे ही विक्षिप्त हालत में बीतता है। कभी यहाँ हैं, कभी वहाँ हैं। कभी यहाँ भागे, कभी वहाँ भागे। ऐसे नहीं करना है ।

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