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लेख
धोखा कैसे खा जाते हैं हम? || आचार्य प्रशांत (2015)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांत : सवाल ये है कि, मैंने कहा है कि जो कुछ भी आप तक पहुँच रहा है उसकी असलियत जानिये। उसका सत्य पहचानिए। सतह पर मत रह जाइए। चीज़ वास्तव में क्या है, इस तक जाइए। तो पूछ रही हैं कि ये कैसे हो? डिकोड (समझा) कैसे करें? हम तक तो जो कुछ भी पहुँचता है, वो बड़े छिपे और छद्म रूप में पहुँचता है। वस्तु होती कुछ और है और प्रकट किसी और रूप में होती है। जानें कैसे?

कुछ दो-तीन इसमें बातें हैं, उनको अगर ध्यान में रखें।

पहली, शब्दों से बहुत मतलब मत रखिये। शब्द बड़ा कारगर तरीका होते हैं बात को छुपाने का। आप तक बहुत कुछ शब्दों के माध्याम से पहुँचता है। शब्द बड़े सतही हैं और मैंने कहा कि वो बताने के कम और छुपाने के ज्यादा काम आते हैं। तो ये ताकत विकसित करिए कि आप शब्दों से आगे जा करकें पढ़ सकें और सुन सकें। ये मत देखिये कि क्या कहा गया है। वो कहाँ से आ रहा है ये भी देखिये। यही मत सुनिए कि कानों पर क्या पड़ा, उसके पीछे का मौन भी सुनिये।शब्द हमें बहुत भ्रमित करते हैं। और हम शब्दों के भरोसे बहुत बड़ा हिस्सा जीवन का निकाल दते हैं।

तो शब्दों पर अटकना नहीं हैं। शब्दों से उलझना नहीं है। बहुत महत्व नहीं देना है।

दूसरी चीज़ है रूप, दृश्य – कुछ भी कैसा दिखता है। ये भी हमें बहुत भ्रमित करता है। असल में आप पक्का ही समझें कि जो भी आपको इन्द्रियगत अनुभव हो रहे हैं – दृश्य, रूप, शब्द, स्पर्श, ये सब प्रकट कम करते हैं और आच्छादित ही ज्यादा करते हैं। छुपाने का इनका काम ज़्यादा है। इनके माध्यम से आप कुछ सम्प्रेषित नहीं कर पाएंगे; कोई संवाद नहीं हो पाएगा, कोई स्पष्टता नहीं आ पानी है। रूप आपको बहकाएगा; लिफ़ाफ़े तक अटक कर रह जाएंगे आप। भीतर का सन्देश पढ़ ही नहीं पाएंगे। पर हमारी आतंरिक व्यवस्था कुछ ऐसी है कि हम आँखों से ही देखते हैं और कानों से ही सुनते हैं। आपको देखने का एक अन्य ज़रिया निकालना होगा। क्योंकि जिन्होंने आँखों से देखा, उन्होंने कुछ देखा नहीं और जिन्होंने कानों से सुना, वो कुछ सुन नहीं पाते।

एक जरा सा, हल्का सा अनुभव, एक बड़ी शूक्ष्म प्रतीति लगातार बनी रहे कि ‘सत्य आगे का है’, कि आँखों पर, कानों पर और विचारों पर अटक नहीं जाना है। क्योंकि ये तो लगातार सक्रिय हैं। लगातार देख रहे हैं, लगातार आपको सुनाई पड़ रहा है, दिखाई पड़ रहा है। जब चारों तरफ से संवेग आप तक लगातार आ ही रहे हैं तो ये भी ज़रूरी है कि लगातार आपको ये एहसास बना रहे कि आ तो रहा है पर आखिरी नहीं है। आखरी बात आगे की है। ज़रा हलके में लेना सीखिये। ‘डिकोडिंग’ शब्द का इस्तेमाल किया था मैंने। यही है डिकोडिंग। डिकोडिंग से आशय यह मत समझना कि पहेली सुलझ जाएगी, गुत्थी हल हो जाएगी और उसमें से कोई बहुत बड़ा राज़ सामने आ जाएगा, कोई आखरी वक्तव्य खुल जाएगा। ऐसा नहीं होगा।

डिकोडिंग का अर्थ इतना ही है कि ये समझ जाओगे कि जो दिखा, जो लगा, वो अंतिम नहीं है। उसके आगे कुछ और है। इसीलिए एक ज़रा सी सावधानी और सतर्कता हमेशा कायम रहे। बाहर से संवेग बड़ी तेज़ी से आते हैं। मन पर बिलकुल छा जाते हैं। जब भी ऐसा हो, कोई बहुत घना अनुभव मन पर छाने लगे| कोई विषय, इन्द्रियगत विषय बहुत महत्वपूर्ण लगने लगे, तभी सतर्क हो जाओ। महत्वपूर्ण लगा नहीं कि तुम उलझे, कि तुम फंसे, हुई भूल।

फर्क नहीं पड़ता कि क्या महत्वपूर्ण लग रहा है। ये मत सोचना कि कुछ ज़्यादा महत्वपूर्ण है, कुछ कम महत्वपूर्ण है तो जो वास्तव में महत्वपूर्ण है उसी को महत्व दें। न। दृश्य, गंध, शब्द, स्पर्श, विचार, धारणा, व्यक्ति, वस्तु – जब भी कुछ लगे कि कुछ बड़ा हो रहा है तुम्हारे लिए-हावी और महत्वपूर्ण, तभी समझ जाओ कि ये तो मूलभूत नियम के खिलाफ कुछ हो रहा है।

सत्य भी यदि तुम्हें बहुत महत्वपूर्ण लगने लगे तो समझ जाओ कि गड़बड़ हो रही है। यही नहीं कह रहा हूँ कि जो झूठा है, क्रत्रिम है, मायावी और सतही है, वही तुम्हें गैरज़रूरी लगे। जो ऊंचे से ऊंचा है तुम्हारी नज़र में, अगर वो भी बहुत ऊंचा हो गया, तो समझ लो की उतनी ऊंचाई पर तुम्हें गिराने के ही ले जाया जा रहा है।

कहते हैं न चने के झाड़। चढ़ गए तो गिरोगे। व्यर्थ चढ़ रहे हो। यही है डिकोडिंग का आशय। मन में जो कुछ भी आए, उसे जान लेना कि बस यही है – मन का, मानसिक। इससे आगे कुछ नहीं। जो भी दिखाई दे उसको जान लेना यही है, रूप। जो भी सुनो, उन्हें जान लेना कि शब्द हैं। पकड़ के मत बैठ जाना।

ऐसा नहीं है कि सुन रहे हो तो हमेशा तुम्हें भ्रमित करने के लिए ही बोला जा रहा है। शब्द प्यारा हो सकता है। शब्द धार्मिक हो सकता है, सत्संग का हो सकता है। शब्द हो सकता है इस नीयत के साथ कहा गया हो कि तुम्हें मुक्ति मिले| लेकिन है फिर भी शब्द ही। और इस मायने में शब्द-शब्द में कोई अंतर नहीं होता। तो बहुत गंभीरता से उसे नहीं ले लिया। क्योंकि अगर गंभीरता से ले लिया तो तुमने अहंकार को बचाने का सस्ता उपाय निकाल लिया है।

तुमने कहा है कि, शब्द जिधर को ले जा रहा था वहाँ तक भले ही नहीं पहुँचे लेकिन शब्द को तो पकड़ लिया ना । शब्द कह रहा था, “मुक्ति”, शब्द कह रहा था, “आनंद”। न मुक्ति मिली, न आनंद मिला, पर मुक्ति और आनंद के लिए शब्द तो मिल गए न। ये बड़ा छिछोरा विकल्प है। इसमें नहीं फँसना है।

आँखें हैं, आँखों को कुछ लुभाता है। आपको वो, कुछ ये प्रतीत होता है कि – ऊँचा लगे या नीचा, ये अहसास लगातार बना रहे कि है तो ये दृश्य ही। और क्या है? कुछ है जो दिख रहा है। और न दिखता यदि आँखें न होतीं, और न दिखता यदि मन न होता, इससे ज़्यादा हैसियत है ही नहीं इसकी। और यदि अगर मन की संरचना बदल जाए, तो जो दिख रहा है वो बदल जाएगा। और यदि अभी चेतना ज़रा सो जाए, तो जो दिख रहा है उसका लोप हो जाएगा। बस इतनी हैसियत है इसकी। दृश्यमान जगत की। अब ठगे नहीं जाओगे। ऐसे ही फंसते हैं सभी।

कबीर कहते हैं कि तुम्हारी नगरी में कुछ दरवाज़े हैं, उन्हीं से चोर घुस आता है। ऐसे ही फंसते हो सब। कौन से दरवाज़े हैं? जहाँ से देखते हो, जहाँ से सुनते हो, जहाँ से विचारते हो। यहीं से चोर घुसता है। यहाँ से तुम में जो कोई भी प्रवेश करता हो, उसके प्रति ज़रा होशियार। मैंने नहीं कहा है कि यहाँ से कुछ प्रवेश ही न करने दो। कि देखो ही नहीं, कि चुनों ही नहीं और सोचो ही नहीं। पर जब सोचो, तो ये ख्याल रहे कि ख्याल ही तो है। क्या है?

श्रोतागण: खयाल।

आचार्य जी: खयाल ही तो है। कोई दिखता हो तुम्हें ऊंचे से ऊंचा व्यक्ति, पर ये प्रतीति रहे कि व्यक्ति ही तो है, दृश्य ही तो है। फंसोगे नहीं।

श्रोता: सर जब बाहर से हम कुछ सुनते हैं, देखते हैं, जो बाहर से आता है तो वो एक पदार्थ रूप में अन्दर नहीं आत है। हमारा मन कुछ बुनने लगता है उसके अन्दर आते ही। जो कुछ भी अंदर आता है, वो हमारे मन की उस कहानी को बदलता रहता है।

आचार्य जी: कुछ और आता। जो भी आता, आता कहीं से। आपका तो नहीं होता। आत्मिक तो नहीं होता। तो जो कुछ भी आए, चाहे वो कोई बड़ी ऊँच कहानी हो या यूँही साधारण सी, दैवीय लगे या सांसारिक, है तो कहानी ही। और कहानी को कहानी से आगे कि इज्ज़त मत दे देना। होंगी उपनिषदों की कहानियाँ, होंगी पुराणों की कहानियाँ, होंगी तुम्हारे जीवन की, आत्मीयता की, मधुरता की, निकटता की कहानियाँ। होंगी तुम्हारी ऊँची से ऊँची उपलब्धि की या तुम्हारे गहरे से गहरे दुःख की कहानियाँ, है तो कहानियाँ ही न। कहानियों को कहानियों से आगे की हैसियत मत दे देना।

देखा है कभी कहानियाँ कैसे सर चढ़ के नाचती हैं?

श्रोता: लेकिन हमें कहानियों से भी बहुत कुछ पता चलता है।

आचार्य जी : कहानी से सिर्फ इतना दिख सकता है कि कहानी है। नकली से सिर्फ इतना दिख सकता है कि नकली है। कहानी को कहानी जान लिया, कहानी की उपियोगिता ख़त्म हो गई। वो इससे अधिक आपको कुछ दे नहीं पाएगी।

श्रोता: सर मान लीजिये आज जो कुछ घट रहा है, वो कल के लिए कहानी हो गई। तो आज जो दिख रहा है, वो कल के लिए कहानी हो गई और आज का फैसला कुछ और है…

आचार्य जी : कल आपके पास कुछ और करने को नहीं होगा क्या? या आप बितते हुए दिन पे विचारेंगे?

श्रोता: क्योंकि आज हम देख ही रहे हैं कि हमारे भीतर क्या-क्या कंडीशनिंग बैठी हुई है, कि ऐसा क्या है जो इस समय ऐसा दिखा रहा है तो…

आचार्य जी : और आप अगर इतना समझते हैं तो गए दिन के बारे में क्यों सोच रहे हैं? ये ऐसी सी बात है कि कोई साँपों से घिरे जंगल में चल रहा हो और कदम-कदम पे उसके साँप बैठे हों और रास्ता काट रहें हों और वो याद कर रहा हो कि कल सुबह उसे एक सांप कहीं दूर दिखाई दिया था और वो कहे कि मुझे उस कहानी से कुछ सीख लेनी है। अरे! कल सुबह दूर तुम्हें कहीं कोई साँप दिखाई दिया था। ठीक अभी, साँप लोट रहें हैं तुम्हारे ऊपर।

सीख लेनी है तो अभी से लो। इस समय तुम मुक्त हो क्या कि तुम्हें कल की कहानी याद करनी है? कल से सीख लेने का आश्य क्या है?

और ये बात महत्वपूर्ण है क्योंकि सिखाया हमें यही जाता है कि पिछली गलतियों से सीखो। मैं कह रहा हूँ ठीक अभी जो गलती कर रहे हो, उसका सुधार कौन करेगा? अभी क्या तुम भूल मुक्त हो? ठीक अभी तुम गलती कर रहे हो और अगले क्षण एक नयी गलती होने जा रही है। तुम्हें ध्यान किस पर देना है? ठीक अभी तुम्हारे सामने गलती बैठी हुई है। तुम्हारे पास अवकाश कहाँ है कि तुम पुरानी गलतियों के बारे में सोचो? और जितना पुरानी गलतियों के बारे में सोचोगे, उतनी संभावना बढ़ेगी और गलतियाँ करने की।

बहुत बड़ी गलती है गलती के बारे में सोचना। जिसने गलती के बारे में सोचा, वो गलती पे गलती दोहराएगा। हाँ, वो सुधार की बड़ी कोशिश कर रहा होगा। कल आपके (प्रश्नकर्ता को इंगित करते हुए) विश्वविद्यालय में मैंने कहा कि जब मैं गाड़ी चला के आ रहा था तो बड़े ज़बरदस्त किस्म के पहाड़नुमा गड्ढ़े हैं। अब एक में गाड़ी गिरी है, और चार में गिरने को तैयार है। और दैत्य्कार ट्रकों का काफिला सर पे चढ़ा आ रहा है। तो क्या मैं पिछला गड्ढा याद करूँ? या सामने जो पिशाच खड़े हैं उनको देखूँ? और मैं अगर याद करने लग गया कि पीछे किस-किस गड्ढ़े में कैसे-कैसे गाड़ी गिरी थी, तब तो पक्का ही है…क्या?

श्रोतागण: ट्रक से भिड़ जाना है|

आचार्य जी: लेकिन शिक्षा हमारी ऐसी ही है। आप भी सिखाते होंगे अपने शिष्य कों-“अपनी गलतियों से सीखो और फिर उन गलतियों को दोहराना मत।” गौर से देखिएगा कि जीवन के उपलक्ष में इस बात में कुछ वज़न है भी या नहीं है?

गलती वो नहीं जो आपने अतीत में करी थी। अतीत में जो हो गया, सो हो गया। अतीत में कोई गलतियाँ नहीं होती। गलती होती है मात्र वर्तमान में। वर्तमान में अतीत की गलतियों के स्मृति अपने आप में एक बड़ी गलती है। वर्तमान में उपस्थिति नहीं, इससे बड़ी गलती क्या हो सकती है? हम ऐसे गलती-बाज़ हैं की गलती का कोई मौका चूकते कहाँ हैं? प्रचुर मात्रा में गलतियों की संभावना और सामग्री हमेशा उपलब्ध है। पुराना याद करके क्या करोगे? ताज़ी-ताज़ी आ रही हैं।

“कल खाना सड़ गया था।” अरे! अभी भी सड़ा ही हुआ ही रखा है सामने। कल वाला क्या याद कर रहे हो? ताज़ा-ताज़ा, बेहतरीन सड़ा हुआ रखा है। पर हम सोचते हैं कि इसमें बड़ी विद्वत्ता है हमारी की हम कल की सड़ान्ध याद का रहे हैं। और अभी जो सड़ा हुआ रखा है? ज़रा अतीत से मुक्त हो पाते तो दिखाई पड़ता कि ठीक अभी गलती हो रही है।

(कुछ समय के अंतराल बाद)

हम लोगों ने चाय-वगैरह भी पी ली, अब यहाँ आके बैठ गए। ये पक्का है, कि उस युवक के सवाल का जवाब दे दिया है? उसको तो चाय भी नहीं पूछी? या उसकी बात को यहीं छोड़ करके चले जाना है?

वक्ता: रीयर वियू मिरर पर देखना बंद करिए। विंड स्क्रीन पर देखिये , बहुत बड़ा ट्रक दिखेगा।

(सभी श्रोतागण हँसते हुए) ।

इतना दर्द हो रहा है। क्रैश और कैसा होता है? जोड़-जोड़, हड्डी-हड्डी दुःख रही है। अस्पताल जाइए, मरीजों का चेहरा देखिये। हमारे चेहरे कुछ भीं हैं क्या? क्रैश और कैसा होता है? क्रैश की ही तरह। ट्रक जरा शूक्ष्म है। हड्डियों का टूटना, चरमराना, चूर हो जाना दिखाई नहीं देता, सुनाई नहीं देता; काम जरा मानसिक है। ज़रा सा ध्यान देंगे तो सब दिखेगा, सब सुनाई देगा। देह पर ट्रक चढ़ जाता है, तो कह देते हैं,“क्रैश हो गया भाई!” पर मन पर संसार चढ़ जाता है, तो संसार का वज़न ट्रक से कम है? जब मन पर संसार चढ़ा हुआ होता है, तो तब क्यों नहीं बोलते,“अरे! अरे! आ गया ट्रक के नीचे।” शब्दों का हेर है और कुछ भी नहीं।

यदि हमारी भाषा ज़रा विकसित होती तो हम तब भी यही कहते। जा रहे हो किसी बाज़ार में और मन पर चढ़ गया कुछ, तुरंत यही कहते, “अरे! अरे! आ गया ट्रक के नीचे।” पर कहते ही नहीं हैं| यहाँ बैठे होते हो, सीधे जा रहे होते हो और अचानाक टेढ़े चलने लगते| फोन पे काम करना शुरू कर देते हो| तो कहते, “अरे!अरे! गाड़ी उतर गई हाइवे से नीचे| घुस गई झाड़ में।” पर कहते ही नहीं है। क्यों नहीं कहते?अच्छा हो कि उतनी ही जोर से चिल्लाया करो। बाज़ार में चलते-चलते अचानक चिल्लाओ, “सर पे चढ़ गया। सर पे चढ़ गया। एम्बुलेंस बुलाओ, सर पे चढ़ गया।” क्या? क्या चढ़ गया? संसार। ट्रक।

श्रोता: पर सर चारों तरफ तो ये बताया गया है कि अगर कोई ट्रक के नीचे भी आ रहा है तो ठीक है| जान-बूझ के ट्रक के नीचे आ रहा है| अगर वो अस्पताल में भी हैं, तो दर्द हो रहा है अगर उसको, तो ठीक ही है|

वक्ता: तो ज़रा सी और संवेदनशीलता| जब दर्द हो रहा हो तो स्वीकार करें की दर्द हो रहा है| जब दर्द हो रहा हो तो छुपाएँ नहीं| उसे दूसरे शब्दों में आवृत न करें| दर्द को दर्द ही कहें| बहुत और नाम दे दिए हैं न हमने दर्द को|

आज जब पहला सवाल लिया तो पहली बात हमने यही ली थी कि शब्द बताते नहीं छुपाते हैं| हर शब्द अपने साथ एक कहानी ले कर के चलता है| कोई आ करके आपको कोई तोहफा दे जाए| “तोहफा” शब्द के साथ एक कहानी है, खुशनुमा कहानी| ज्यों ही तोहफा शब्द आपके कान में पड़ता है, आपका चित्त खुश हो जाता है| कि कुछ अच्छा ही हुआ| यहीं पर आप फंसते हैं क्योंकि अब आपको हकीकत नहीं जाननी है| कान में शब्द पड़ा| क्या? “तोहफा,” और तुरंत चेतना से शब्द उठा, “अच्छा, ख़ुशी|” अब इस बात को आपने जाँच के देखा ही नहीं कि तोहफे में कहीं ज़हर तो नहीं मिल गया? तोहफा तो है, पर तोहफे में मिला क्या? शब्द असलियत को छुपा गया|

एक दूसरा शब्द है ‘पाना’, उपलब्धि| और उपलब्धि के साथ एक दूसरी खुशनुमा कहानी जुड़ी है, “पाया, अर्जित किया, मिला|” ठीक| ज्यों ही कान में पड़ता है कि पाया, अब आगे कि सारी जागरूकता ख़त्म हो जाती है| आप जाँचना भी नहीं चाहते कि क्या पाया? पाया तो, पर क्या पाया? उसका प्रभाव क्या है मेरे अन्दर| उससे जीवन कैसा हो जाता है मेरा?

नौकरी या पैसा, इन शब्दों के साथ बड़ी मज़बूत कहानियाँ जुड़ी हैं| आपको पता भी नहीं होता है कि उनका — नौकरी का और पैसे का — आपके जीवन पर वास्तविक असर क्या हो रहा है? इसकी आपको खबर भी नहीं लगती क्योंकि आप कहते हैं, “नौकरी लगी हुई है, पैसा आ रहा है तो अच्छा ही हो रहा होगा ना| क्योंकि ऐसा ही होना चाहिए| कहानी में ऐसा ही लिखा है|” आप जांचना भी नहीं चाहते| कहानी में तो लिखा है पर हो क्या रहा है वास्तव में? आप देखा भी नहीं पाते कि दुःख कितने अन्य शब्दों के माध्याम से आपके जीवन में प्रवेश कर रहा है और आप न केवल उसका स्वीकार कर रहे हैं बल्कि उसको आमंत्रित कर रहे हैं|

अब दुःख ये बोल के आए कि मैं दुःख हूँ तो आप कहेंगे, “न|” पर दुःख बोलके आता है, “उपलब्धि|” तो आप कहते हैं, “आ|” तो ऐसे फाँसते हैं शब्द आपको| दुःख ये बोल के आए कि मैं दुःख हूँ, तो आप बचने का कोई उपाय करेंगे| पर दुःख बोलके आए कि मैं पैसा हूँ, तो आप कई सारे दरवाज़े खोल देंगे उसके लिए| आप देखिये कि शब्दों के साथ कितनी स्थाई कल्पनाएँ जुड़ी हुई हैं| ऐसी कि उनको हम कल्पनाएँ कहते भी नहीं| हमें वो सच ही लगती हैं|

श्रोता: सर कभी-कभी ऐसा होता है कि उपलब्धि आ गयी| हम देख रहें हैं कि ये दुःख है| फिर कहते हैं कि नहीं, ये तो उपलब्धि है न|

आचार्य जी: तो उपलब्धि है ना| इसमें दुःख कैसे हो सकता है? तो दुःख अगर हो भी रहा है तो उसको इधर-उधर कर दो| मानो ही मत कि दुखी हैं|

श्रोता: या कहें कि उपलब्धियों के साथ दुःख तो आएगा|

वक्ता: ठीक इसी तरीके से जीवन में जो भी कुछ और है, आगर उस पर गौर करें तो पाएँ कि कहानी तो जुडी है उसके साथ| ठीक| पर वो वास्तव में क्या है? इसका पता हमें कहानी ही नहीं लगने देती| घर, परिवार, रिश्ते, नाते, माँ-बाप, बेटा, जन्म,…आपके कान में जैसे ही ये शब्द पड़ता है,“विवाह”, देखिये कैसी धूम मच जाती है| रंग, बहार, रंगोली, गुलाल – कुछ अच्छा ही हो रहा होगा| “विवाह” शब्द कान में आया नहीं कि मुँह में मिसरी सी घुल जाती है| होता है कि नहीं होता| “कुछ अच्छा ही हो रहा होगा, कुछ शुभ ही हो रहा होगा, विवाह है न|” कहते भी हैं-“शुभ विवाह|” और इतनी जोर से पूरे तंत्र में हलचल मच जाती है कि अब असलियत जानने की संभावना मचती नहीं|

आपसे कोई कहे, “मेरे घर में एक शादी थी|” तो आप तुरंत कहते हैं (प्रसन्न होने का अनुकरण करते हुए)-“अच्छा, अच्छा! शादी थी|” आपको कैसे पता अच्छी ही चीज़ थी? आपने गौर किया है? देखो तो सही ध्यान से|

आप किसी से मिलें और कहें बड़े दिनों बाद दिखाई दिए हो| वो बोले, “असल में घर में शादी थी इसीलिए हम…|” तो आप तुरंत कहेंगे, “अच्छा! अच्छा! शादी थी| बढ़िया|” कैसे पता, बढ़िया? और तुम कभी जान भी नहीं पाओगे| क्योंकि दुःख कुछ और बन कर आ रहा है| कोई तुम से कहे कि मैं तुम्हें बहका रहा हूँ, बर्गला तुम सतर्क हो जाओगे| तुम कहोगे-“दूर, छूना नहीं|” पर कोई तुमसे कहे कि, न, मैं तो तुम्हें प्रेम-पूर्ण सलाह दे रहा हूँ| मैं तुम्हारा हितैषी हूँ और ये मेरी शुभकामनाएँ हैं| तुम ले लोगे क्योंकि जैसे ही उसने कहा कि ये मैं तुम्हें प्रेम का सन्देश दे रहा हूँ, प्रेम शब्द के साथ ऐसी सुमधुर कहानियाँ और छवियाँ जुड़ी हैं कि तुम तुरंत अपने द्वार खोल दोगे| तुम कहोगे आने दो| प्रेम का सन्देश है, ये तो स्वीकार करना ही पड़ेगा| अब नाम है प्रेम का और काम क्या है, ये भी तो जानो|

एक प्रयोग करके देख लो| तुम्हारे पास मोबाइल फ़ोन है| उसमें घंटी बजती है| और अभी तुम्हें नहीं पता कि आगे क्या होने जा रहा है, तुमसे क्या बातचीत होगी, तुम्हें क्या सन्देश आया है, तुम क्या जानोगे? पर सिर्फ ये पढ़ के किसका फ़ोन है, तुम्हारे चित्त की हालत बदल जाती है| अभी तुम जानते कुछ नहीं पर उस नाम के साथ कहानी जुड़ी हुई है| सब कुछ बदल गया| अब तुम कुछ सुन ही नहीं सकते| किसी दुश्मन का फ़ोन है| ज्यों ही चित्त ने निर्धारित किया कि फ़ोन दुश्मन का है, अब सुनोगे कैसे? सुनना हो गया बाधित| अब नहीं सुन सकते| और ठीक उसी तरीके से ज्यों ही चित्त ने निर्धारित किया कि फ़ोन तुम्हारे प्रेमी का है, कि मित्र का है, कि पत्नी का है, कि पिता का है, उसमें लिखा हुआ आ रहा है – प्रिया, या पापा| अब तुम सुनोगे कैसे? सुनना असंभव हो गया|

तुमने देखा है? कई बार तुम्हारे बात करने के लहजे में ही कितना अंतर आ जाता है सिर्फ नाम देख करके| बात में अभी तुमने कुछ जाना नहीं, तुम्हें कुछ नहीं पता| तुम सिर्फ हैलो बोल रहे हो और वो हैलो ही अलग हो जाता है| तुमने सिर्फ नाम देखा है पर उस नाम के साथ पूरी कहानी जुड़ी हुई है| कहानी झूठ है| कहानी का वर्तमान से कोई लेना देना नहीं, सत्य से कोई लेना-देना नहीं| कहानी ने सब चौपट कर दिया है|

हम कुछ भी कहाँ जान पाते हैं? इसीलिए तो नाम, रूप, शब्द, सुरति – इनके पीछे सत्य छुपा रह जाता है| जानना हो ही नहीं पाता|

श्रोता: ओशो ने महर्षि रमण के बारे में एक उदहारण दिया है| वो अष्टावक्र गीता की व्याख्या कर रहे थे तब उन्होंने ये उदहारण दिया था कि रमन महर्षि जब भी कथा सुनाते थे तो प्रतिदिन एक गाय उनके यहाँ कथा सुनाने के समय पर आकर खड़ी हो जाती थी| फिर गाय की मृत्यु हो गई| तो जब वो गाय की मृत्यु हुई थी तो रमण ने उसके लिए अंतिम संस्कार किया था| मतलब ओशो ने लिखा है, हालांकि मुझे नहीं मालूम लेकिन उन्होंने कहा है कि उन्होंने अपने जीवन में किसी का अंतिम संस्कार नहीं किया था अपनी माँ के आलावा| रमण जीवन मुक्त की बात कर रहे थे तो उन्होंने कहा था कि वो गाय जीवन-मुक्त हो गई| तो इस कहानी से जीवन-मुक्त का सम्बन्ध मुझे समझ नहीं आया कि ऐसा रमण ने क्यों कहा?

वक्ता: जिस रूप में रमण महर्षि सामने हैं सबके, हैं तो वो एक रूप ही| आप यहाँ पर जो चित्र देख रहे हैं, है तो वो एक चित्र ही| रमण महर्षि इस सीमा में तो बंध्के प्रस्तुत नहीं किये जा सकते| और जब वो जीव रूप में थे तब भी शारीर की सीमा में बंधी हुई चीज़ तो नहीं थे| पर जैसा हमने उन्हें जाना है और हमने उन्हें देखा है, शरीरी के रूप में ही देखा है, जीव के रूप में ही देखा है| तो जब रमण भी बोलेंगे तो सुनेंगे भी उतने ही लोग जो उनके सामने बैठे हैं| और अभी मैं रमण महर्षि के मुंह से बोलने और कान से सुनने की बात कर रहा हूँ| जीव रूप में सम्बन्ध उनका उन्हीं से बन पाएगा जो जीव रूप में उनके निकट हैं| आत्मा सार्वभौम है| पूर्ण है और कूटस्थ है और अन्तर्यामी है| पर जीव रूप में तो सीमाओं के साथ ही प्रकट होती है|

हम अभी बात कर रहे हैं, इस कक्ष से बाहर भी हमारी आवाज़ जा नहीं रही| हाँ, अस्तित्व के तरीके विचार से बाहर के हैं| तो ये बातचीत पूरे अस्तित्व में कितने तरीकों से प्रभाव डालेगी वो हम नहीं कह सकते पर जहाँ तक इन शब्दों की बात है, वो यहाँ से बाहर नहीं जा रहे| आप मेरे सामने हैं, मैं एक जीव, आप जीव| हम ही बात कर पा रहे हैं| महर्षि की करुना सब के लिए है| वो बंटे हुए नहीं है तो संसार भी उनका बंटा हुआ नहीं है|

वो ये भेद-भाव नहीं करेंगे कि किसी एक व्यक्ति को, या किसी एक जीव को कोई विशिष्ट स्थान दें| हर व्यक्ति से उनका प्रेम है| एक गाय भर से नहीं है| जितने जीव हैं सबसे उनका प्रेम है| लेकिन साथ में ये भी देखना है कि जीव रूप रखने की बाध्यता ये है कि आपका प्रेम, आपकी करुना, दृश्यमान उन्हीं पर हो पाएगी जो भौतिक रूप से आपके निकट होंगे|

महर्षि से सैकड़ों किलोमीटर दूर कोई जीव है| वो नहीं जाएँगे उसकी अन्त्यिष्टि करने| सत्य तो ये है कि उन्हें उनके बारे में कुछ पता भी नहीं चलेगा| कम से कम जो उसकी विशिष्टताएँ हैं, वो आप पूछें तो वो नहीं बता पाएंगे| दुनिया कि आबादी, जब महर्षि थे तब भी कुछ चार अरब लोगों की थी| आप महर्षि से पूछते कि सबके नाम, पते, ठिकाने बता दें, तो वो ना बता पाते| लेकिन उनकी करुणा थी सब के लिए| बात को समझिएगा |

नाम-पते वो बस उनके ही बता पाएंगे जिनसे वो रोज़ मिल रहे हैं| करुणा व्यापक है, वैश्विक है, अखंड है| टुकड़ा-टुकड़ा नहीं है| लेकिन भौतिक रूप से स्पर्श उनको ही करेंगे जो भौतिक रूप से उनके सामने हैं| एक गाय थी, वो आती थी उनके पास| अब इसमें कोई विशेष बात नहीं है कि जैसे गाय अपना शरीर लेकर आती थी| वैसे ही महर्षि ने अपने शरीर को उसको स्पर्श किया,उसकी अन्त्यिष्टि की| ठीक| आप जिसके साथ रहते हो, उसके प्रति आपका एक धर्म होता है| उसका पालन हो रहा है| लेकिन इस कथा को ख़ास नहीं बनाया जाना चाहिए| न उस गाय में कुछ ख़ास है और न महर्षि ने उसे कोई विशेष दर्ज़ा दिया है| दुनिया के समस्त जीवों का कल्याण होता है संत के माध्यम से| कुछ चुनिन्दा जीवों का नहीं|

जीवन-मुक्ति, समस्त प्रकार की मुक्ति संत के माध्यम से सबको मिलती है| मात्र उन्हीं को नहीं जिनके शरीर उससे मिलने आते हैं| लेकिन शरीर होने की कुछ बाध्यताएँ होती हैं| उन्हें बाध्यताएँ भी नहीं कहा जाना चाहिए| सिर्फ लक्षण, गुण कह सकते हैं आप| कि आँखें इतनी ही दूर तक देख पाएँगी, कि हाथ इतनी ही दूर तक स्पर्श कर पाएगा| जो जीव सामने है, उसको स्पर्श कर दिया| जो उनसे मिलने गया, वो महर्षि के चरण स्पर्श कर रहा है| और महर्षि ने भी उसके माथे पर आशीर्वाद दे दिया| अब कोई कहे कि उसमें कोई विशिष्टता थी? नहीं, कोई विशिष्टता नहीं थी| विशिष्टता इतनी ही थी कि वो वहाँ मौजूद था| वहाँ जो भी लोग मौजूद थे, सब महर्षि के अनुग्रह के पात्र थे| गाय ही नहीं, छोटी से छोटी चींटी भी|

इस पूरी बातचीत का वीडियो अपलोड होगा| उसमें कोई शर्त या नियम होता है कि कुछ विशिष्ट लोग ही उसे देखेंगे? नहीं होता ना| पर उसका रस, और प्रभाव और स्पर्श तो उसको ही मिलेगा जिसने उसे देखा| यही उत्तर है आपके प्रश्न का|

है सब के लिए| पर परिस्थितियों का और संयोग का खेल कुछ ऐसा होता है कि मिलता सिर्फ उसको है जो भौतिक रूप से उसको देखे| आँखें खोलनी पड़ेंगी, और कान खोलने पड़ेंगे और निकट जाना पड़ेगा तो मिल जाएगा| अन्यथा है सब के लिए| देने वाले ने कोई पक्षपात नहीं किया है| देने वाले ने किसी को विशिष्ट और किसी को निकृष्ट घोषित नहीं किया है|

श्रोता: महर्षि ने गाय से सम्बन्ध जोड़ा या उसकी अंत्येष्टि भी करी| तो इसमें अलग क्या है?

वक्ता: कुछ भी नहीं|

हमारी दृष्टि ऐसी है कि हम अंत्येष्टि उसी की करते हैं जो ख़ास होता है हमारा| हम तो किसी के साथ श्मशान भी तभी जाते हैं जब उससे कुछ नाता हो हमारा, अन्यथा इतनी मृत देहें रोज़ जल रही होती हैं| हम थोड़ी ही वहाँ जाते हैं? तो हमें विचार ऐसा आता है कि महर्षि भी हमारी तरह ही थे| यह अहंकार की विशिष्टता है| वो जैसा होता है, वैसा ही पूरी दुनिया को देखता है| तो हम केते हैं कि जैसे हम सिर्फ अपने ख़ास लोगों की अंत्येष्टि करते हैं, इसी तरीके से महर्षि को भी उस गाये में कुछ ख़ास लगा होगा, कुछ विशिष्टता, तो उन्होंने अंत्येष्टि करी| नहीं, ऐसा नहीं है|

श्रोता: मुझे ये याद आ रहा था कि जो लोग कहते हैं कि गाय के रूप में भगवान् आते हैं , तो इसीलिए महर्षि ने..|

वक्ता: लोग कहते हैं ना| आप लोग|

श्रोता: जी|

वक्ता: महर्षि नहीं कहते हैं| और हमारा अहंकार इतना सघन होता है कि हम किसी को भी अपने से अलग, या भिन्न या ऊँचा मान ही नहीं सकते| तो हम कहते हैं कि जिस तल पर हम सोचते हैं, उसी तल पर तो महर्षि भी सोचते होंगे ना|

तो अगर हमने किसि व्यक्ति की ओर मुस्कुरा कर देख लिया, तो इसका आशय यह होता है – एक भीड़ बैठी हो, एक सभा बैठी हो और उसमें किसी एक की ओर मुस्कुरा कर देख लें तो आपके संसार में उसका आशय यह होता है कि वो आपके लिए अहम् है, कुछ ख़ास है, कुछ अलग है, विशिष्ट है| और महर्षि ने भी किसी को मुस्कुरा कर देखा, तो आप पहुँच जाएँगे उसको बधाईयाँ देने| आपको लगेगा कि जैसे आपकी मुस्कान, वैसे ही महर्षि की|

अरे वो यों ही मुस्काते हैं| और शरीर रूप में हैं तो जब मुस्काएँगे तो किधर को तो देख रहें होंगे न| हो सकता है, उधर न देख रहे होते, इधर देख रहे होते| अब क्या करें? मुँह तो उनका किसी भी दूसरे मनुष्य की तरह ही हैं| दो ही ऑंखें हैं| उसमें कोई निष्कर्ष न निकालिए|

श्रोता: सर ये भी तो है कि महर्षि किसी को देख ही लेते थे तो सिखा देते थे|

वक्ता: आप महर्षि को समझिये पहले| उसके बाद उनके कर्मों पर चर्चा करिए| ये आध्यात्मिक यात्रा में और अपनी खोज में बहुत बड़ा विक्षेप होता है कि आप गुरु के जीवन पर चर्चा शुरू कर दें| उसके व्यक्तित्व पर चर्चा शुरू कर दें| उसके कर्मों पर चर्चा शुरू कर दें| महर्षि ने इतना कहा, इतना लिखा, उनके कृतित्व से आप कोई सवाल न पूछ पाए| आप सवाल क्या पूछ रहे हैं कि वो गाय थी और…

और ये काम हम खूब करते हैं| एक तरह कि गप है ये| “उपदेश सार” से कुछ पूछ लेते, वो आपने पढ़ा न होगा| उसकी जगह हम व्यर्थ के तीर छोड़ रहे हैं कि क्या पता गाय भगवान का रूप हो, कि क्या पता गाय का कुछ हो? एक गाय बाहर भी खड़ी है| पहले जानिए तो कि गाय क्या होती है? किसी गाय से कोई सम्बन्ध है आपका? न हम महर्षि को जानते हैं, न हम गाय को जानते हैं? पर देखिये मन की चंचलता की – (एक श्रोता की ओर इंगित करते हुए) मुस्कुराने की बात कतई नहीं है, बिलकुल नहीं|

और ये तो गाय है, यदि कोई स्त्री होती तो सोचिये आपका हाल क्या होता? कि ज़रूर कोई छुपी हुई प्रेम कथा थी| महर्षि बोलना शुरू करते थे और वो स्त्री चुपके से आके सुनने लगती थी| और महर्षि ने किसी की अन्त्यिष्टि नहीं की माँ के अलावा, उस स्त्री की करी| ऐसी खुराफात मचती…|

महर्षि का सार क्या है, वो वास्तव में क्या हैं, इससे मतलब रखिये न| और उनका जीवन तो फिर भी अपवादों से रिक्त रहा है| तो आप ज़्यादा कुछ कह नहीं पाते| ओशो का पूरा साहित्य ही दब गया क्योंकि आपको याद बस ये रहा कि वो सेक्स गुरु थे| बाकी उन्होंने जो भी कहा वो पीछे हो गया| आज ओशो का नाम लिया जाए तो एक ही बात आपको याद आती है कि उन्होंने कहा था कि उनहोंने कहा था उन्मुक्त यौन पीड़ा के द्वारा भी समाधि को उपलब्ध हो सकते हैं| सब पीछे हो गया| इससे ओशो के विषय में कुछ पता नहीं चलता| इससे हमारे ही विषय में पता चलता है कि हम कितने ग्रस्त हैं कामुकता से| एक व्यक्ति कितना कुछ कह के और बता करके चला गया और हमें याद क्या है?

महर्षि का जीवन भंडार है| आप उससे इतना सा भी ले लें तो आप जीवन मुक्त हो जाएँगे| पर उस भंडार से आप उठा क्या रहे हैं? एक ऐसी कहानी, जिसका सत्यापन भी नहीं किया जा सकता| और जिसका आपके लिए कोई अर्थ नहीं| आपको उससे कोई विशेष बोध नहीं उपलब्ध होने जा रहा| आपके जीवन में उससे कोई क्रांति नहीं आने जा रही| पर आपकी उत्सुकता उसी तरीके की कहानियों में है| और मैं कह रहा हूँ सोचिये ना, गाय कि जगह अगर कोई स्त्री होती? तो आपके चित्त का क्या होता? अभी कह रहे हैं कि गाये भगवान थी, तब कहते स्त्री अप्सरा थी| क्या पता कोई अप्सरा आती हो महर्षि की तपस्या को खंडित करने? तब आपकी बड़ी रूचि आ जाती महर्षि में| तब कहते कि, “नहीं, बढ़िया बाधा है|”

फिर कह रहा हूँ, “गुरु व्यक्ति नहीं होता|” तो उसके व्यक्तिगत गुणों की ओर ध्यान न दें| कबीर चेता रहे हैं कि जो गुरु को मनुष्य समझेगा, तुरंत नरक का भागी बनेगा| महर्षि ने आत्मा के अलावा कभी कुछ कहा नहीं| आत्म रूप थे| उनके समक्ष जब बैठें, तो आत्मा में स्थित हो कर बैठें| देह को ज़रा भुला दें| अपनी देह को भुलाने की जगह आपने महर्षि को भी सिर्फ देह ही देखा| ये तो हुआ नहीं कि महर्षि के समक्ष बैठ करके आपका देह भाव जरा शिथिल हुआ हो| ये ज़रूर हो गया कि आपको भी महर्षि भी देह ही लगने लग गए| ऐसे हैं हम| और ऐसे ही हमनें अपने सारे अवतारों के साथ किया है| किया है कि नहीं किया है?

कितनी रूचि है हमारी ये जानने कि,“अच्छा, फिर क्या किया कृष्ण ने उनके साथ? अच्छा, फिर क्या किया?” गीता से कोई मतलब नहीं| पर रस ले-ले करके, इधर-उधर की कहानियाँ, व्यर्थ के प्रसंग, कथाएँ बाँची जा रही हैं उन पर| बात करनी है तो गीता की करो ना| “न, मुझे तो बताओ कि कृष्ण की चौदह हज़ारवीं रानी जो थी, उसका नक्शिक वर्णन करो बिलकुल| गीता-वीता हटाओ, ये सब|”

“सार-सार को गाहे रहे”, सार पे ध्यान दीजिए|

उपदेश-सार महर्षि का उपलब्ध है| उसको ले जाएँ, और पढ़ें| सार वहाँ हैं| किस्से कहानियों में सार नहीं होता|

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