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लेख
धर्म और विज्ञान में विवाद || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2016)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, क्या धर्म और विज्ञान में कोई विवाद है?

आचार्य प्रशांत: कोई विवाद नहीं है, बेटा! साइंस (विज्ञान) देखता है बाहर कि तरफ़; तुम किसी साइंटिस्ट (वैज्ञानिक) के पास जाते हो, तुमने किसी साइंटिस्ट को कभी ध्यान करते हुए देखा है? साइंटिस्ट तुमको मिलेगा; अभी यहाँ कोई साइंटिस्ट बैठा हो, तो वो जो धुऑं उड़ रहा हो, वो उस धुऍं को देखेगा। वो कहेगा, ‘धुऑं चीज़ क्या है और धुऑं नीचे से ऊपर की और क्यों जा रहा है?’ वो कहेगा, ‘आग और धुऍं का क्या सम्बन्ध है?’ वो कहेगा, ‘धुऑं थोड़ी देर उठने के बाद ये विलीन क्यों हो जाता है?’ वो कहेगा, ‘धुऍं का जो ये रंग है, ये इसी तरह का क्यों है?’

और वो ये भी जानना चाहेगा कि धुऑं यदि यहाॅं उठ रहा है, तो उसका उस खेत पर क्या प्रभाव पड़ रहा है। वो ये भी जानना चाहेगा कि लकड़ी के अणुओं और धुऍं के बीच क्या सम्बन्ध है। वो ये भी जानना चाहेगा कि आग जब घनी होती है, तब धुऑं क्यों नहीं उठता और अब जबकि लकड़ियाँ क़रीब-क़रीब बुझने को हैं, तब धुआँ तीव्र क्यों हुआ। ये सारी बातें तो करेगा, ‘वैज्ञानिक।’ हम अभी किसकी बात कर रहे हैं?

श्रोता: विज्ञान और धर्म।

आचार्य: न, हम अभी अपनी बात कर रहे हैं। तो साइंस (विज्ञान) वो है जो लगातार बाहर की ओर देखती है।

श्रोता: बाहर की ओर मतलब?

आचार्य: बाहर मतलब, जहाँ को ऑंखें ले जाऍं, जहाँ कान ले जाऍं, जितने मटीरियल (पदार्थ) तुम्हें इसके चारों ओर दिखायी दें, ये जो दिख रहा है वो। तो साइंस हमेशा मटीरियल की बात करेगी। साइंस हमेशा ये जो जगत है, इसकी बात करेगी।

आचार्य: साइंटिस्ट कभी तुमको ये बात करता नहीं दिखायी देगा कि अच्छा क्या और बुरा क्या। क्योंकि अच्छा और बुरा तुम्हारे लिए है।

मटीरियल के लिए कुछ है ही नहीं अच्छा-बुरा; पत्थर के लिए क्या अच्छा, क्या बुरा? कुछ भी नहीं।

आचार्य: रिलीजन (धर्म) वो है जो अपनी बात करता है।

आचार्य: मज़ेदार बात ये है कि उस धुऍं को भी देखने वाले भी तो तुम ही हो न?

आचार्य: यानी कि रिलीजन पूरी बात करता है। रिलीजन कहता है, ‘मैं सिर्फ़ उसकी बात नहीं करूॅंगा जो दिखायी दे रहा है, मैं उसकी भी बात करूॅंगा जो?

श्रोता: नहीं दिखायी दे रहा।

आचार्य: देख रहा है। ‘धुऑं है, वो जो दिखायी दे रहा है और तुम हो; जो देख रहा है।’ रिलीजन कहता है, मैं दोनों की बात करुॅंगा। साइंस आधी बात करता है, साइंस क्या कहता है? जो दिखायी दे रहा है, सिर्फ़ उसकी बात करता है।

हम ये बात करेंगे ही नहीं कि जो ऑब्ज़र्वर (देखने वाला) है, उसका मन कैसा है। तुम धुऍं को ख़ुश होकर देख रहे हो, तो भी साइंस के लिए ठीक है, तुम धुएँ को नाराज़ होकर देख रहे हो, तो भी साइंस के लिए ठीक है।

तुम रो-रोकर धुएँ को देख रहे हो, तो भी साइंस को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। तुम्हारा मन क्या है? तुम कौन हो? इससे साइंस को कोई अन्तर ही नहीं पड़ता।

साइंस को अन्तर बस इससे पड़ता है कि तुम किसको देख रहे हो। बात आयी समझ में?

श्रोता: यस सर।

आचार्य: इसीलिए साइंस की दुनिया में ऑब्जेक्टिविटी (वस्तुनिष्ठावाद) है। वहाँ फैक्ट्स (तथ्य) की कद्र होती है। अब रिलीजन है जो, वो दोनों को देखता है। वो ये भी देखता है कि सामने पत्थर है, पत्थर को नोटिस (चिन्हित) करना है, लेकिन साथ-ही-साथ ये भी समझते रहना है कि मेरा और उस पत्थर का रिश्ता क्या है।

मुझे उस पत्थर में रूचि हो ही क्यों रही है? ये रिलीजन है। रिलीजन है ख़ुद को जानना। साइंस है, दुनिया को जानना। आयी बात समझ में?

श्रोता: यस सर।

आचार्य: इसका मतलब ये नहीं है कि दोनों में कोई विरोध है। क्योंकि जो ख़ुद को जान रहा है, वो दुनिया को बेहतर जान लेगा। यानी कि साइंस एक छोटा सेट (समुच्चय) है, जिसका सुपर सेट (बड़ा समुच्चय) है, रिलीजन (धर्म)। रिलीजन एक बड़ा सेट है, जिसका सबसेट (उपसमुच्चय) है साइंस , सबसेट समझते हो न?

श्रोता: यस सर

आचार्य: तुम सब यहाँ बैठे हो, तुम सब एक बड़ा सेट हो। उसके छोटे सेट कौन है? हॉस्टल्स उसका छोटा सेट है, बीटेक वाले उसका छोटा सेट है; फर्स्ट ईयर आये, उसका छोटा सेट है। बात आ रही है समझ में?

श्रोता: यस सर।

आचार्य: तो रिलीजन एक बड़ा सेट हुआ बल्कि यूनिवर्सल सेट (सर्वासमुच्चय) हुआ। यूनिवर्सल सेट जानते हो न?

श्रोता: यस सर, जिसमें सब समा जाए।

आचार्य: जिसमें सब समा जाए। रिलीजन में सब समा जाता है।

आचार्य: रिलीजन का छोटा सा हिस्सा है, साइंस। तो साइंस रिलीजन के ख़िलाफ़ नहीं है। कोई विवाद नहीं है। साइंस रिलीजन का छोटा सा हिस्सा है जो रिलीजियस (धार्मिक) आदमी होगा, उसको साइंस से कभी तकलीफ़ हो ही नहीं सकती, वो कहेगा, ‘ साइंस जो भी कह रही है, ठीक ही कह रही है।’

लेकिन वो ये भी नहीं कहेगा कि साइंस जो बात कह रही है, वो बात पूरी है। वो कहेगा कि साइंस ने सिर्फ़ पत्थर की बात कर दी है। मन की बात कौन करेगा? तब रिलीजन का महत्व हो जाता है।

अब आते हैं, इस पर कि साइंस कहता है कि सबकुछ ग्रैजुअली (धीरे-धीरे) एक माइक्रोऑर्गेनिज़्म (सूक्ष्म जीव) से इवॉल्व (विकसित)हुआ है। और रिलीजंस कहते हैं कि पहला पुरुष कौन था, पहली स्त्री कौन थी।

साइंस की जो भाषा होती है न, वो फैक्ट्स (तथ्यों) की भाषा होती है और रिलीजन की जो भाषा होती है, वो सिम्बल (संकेत) की भाषा होती है।

रिलीजन जो कुछ भी कहता है, वो सिर्फ़ इशारा होता है, एक प्रतीक होता है, लेकिन हम रिलीजन की बातों को भी ऐसे पढ़ लेते हैं जैसे कि साइंस को पढ़ते हों। अब जैसे तुमने ही कहा था कि ईश्वर ओम्नीप्रेज़ेंट (सब जगह) है। उसको यदि कोई सिम्बल समझने की जगह, लिट्रली ले-ले; लिट्रली मतलब उसका शाब्दिक अर्थ ले-ले, साइंटिफ़िक (वैज्ञानिक) अर्थ नहीं, उसका शाब्दिक अर्थ ले लिया।

कुल उसका शाब्दिक अर्थ ले-ले, तो वो कहेगा कि देखो ईश्वर के सामने तो सिर झुकाना ही होता है, तो अभी सामने बाघ खड़ा है और ईश्वर तो ओम्नीप्रेज़ेंट (सब जगह)‌ है, तो बाघ भी क्या हुआ?

श्रोता: ईश्वर।

आचार्य: और वो भागने की जगह क्या कर रहा है? वो सर झुकाकर खड़ा हो गया है, बाघ के सामने। ये बेवकूफ़ी हो गयी। ये बेवकूफ़ी इसलिए हो गयी क्योंकि हमने ईश्वर की बात को शाब्दिक तौर पर ले लिया।

तो जब धर्म कहता है कि पहली स्त्री; पहले पुरुष कौन थे, तो उसका मतलब समझना होगा, वो ये नहीं कह रहा है कि वास्तव में कोई आदमी था और कोई औरत थी। वो इशारा करके बता रहे हैं।

वो कोई और बात कहना चाहते हैं। वो बात क्योंकि ज़रा महीन है, इसीलिए उसको इशारे में कहना पड़ रहा है। महीन बात को महीन दृष्टि से ही समझा जा सकता है। हम महीन बात को भी ऐसे समझने लग जाते हैं कि जैसे कि वास्तव में हुई हो। समझ रहे हो कि नहीं?

श्रोता: यस सर।

आचार्य: अब जैसे किसी ने तुमसे कह दिया, उदाहरण के तौर पर या कोई पुरानी कहानी है कि सागर मन्थन हुआ। उसमें से बहुत कुछ निकला। उसमें से ज़हर निकला जो शिव ने अपने कंठ में धारण कर लिया।

अब वास्तव में कोई सागर थोड़े ही है, जिसका कोई मन्थन हुआ हो। सागर से संकेत है, ‘मन।’ सागर से संकेत है?

श्रोता: मन।

आचार्य: मन का मन्थन होगा। और मन्थन में बहुत बातें निकल रही हैं, इसका मतलब, जब भी मन को मथोगे, तो बहुत सारी बातें निकलेंगी। और यदि बहुत गहरा मथ दोगे, तो अहंकार ही निकल जाएगा।

उसी अहंकार को ज़हर के रूप में प्रतिबिम्बित किया गया है। और फिर कहा गया है कि वो जो ज़हर है, वो शिव ने अपने में धारण कर लिया ताकि कोई नुक़सान न हो।

अब वास्तव में कोई शंकर थोड़े ही किसी कैलाश पर बैठे हुए हैं। न कोई समुद्र है, न कोई शिव हैं, न कोई मन्थन है, न कोई ज़हर है। ये सब जीवन के अलग-अलग पहलुओं की ओर इशारा करते प्रतीक हैं। ठीक है न?

श्रोता: यस सर।

आचार्य: इसी तरीक़े से हर पुरानी कहानी जो भी तुमसे कह रही है, वो प्रतीक भर है। अब कहा जाता है कि ईश्वर ने इनको बनाया, आदम को, हव्वा को। इनको कहा कि देखो हमारा ये बगीचा है और इसमें तुम जितना भ्रमण करना चाहते हो, जितनी मस्ती करना चाहते हो, करो। एक पेड़ है बस, उसकी ओर न जाना। उस पेड़ में क्या लगे हुए थे?

श्रोता: फल।

आचार्य: फल लगे हुए हैं; सेब लगा हुआ है। कहा, ‘देखो जो करना है कर लो, सेब मत खा लेना।’ फिर इतने में एक साॅंप आता है और साॅंप जो ईव थी, वो उसको ललचाने लग जाता है कि अरे! खाओ वो देख थोड़े ही रहे हैं। सीसीटीवी थोड़े ही लगा है यहाँ। खा लो! कोई बात नहीं।

अब इसका मतलब ये थोड़े ही है कि सही में कोई बगीचा था और सही में कोई साॅंप था और ऐसा साॅंप था जो कि आकर इंसान की बोली में बात करता था।

और कोई स्त्री थी और एक पुरुष था, वो दोनों बगीचे में नंगें घुमते थे। ये बात ऐसी नहीं है। पुरूष से जो तात्पर्य है वो है, तुम्हारी समझने की शक्ति। स्त्री से तात्पर्य है पूरी प्रकृति। साॅंप से तात्पर्य है लोभ। और सेब प्रतीक है ज्ञान का। ये सब प्रतीक हैं। न कोई आदम हुआ है, न कोई हव्वा हुई है। ये सब सिम्बल्स हैं। बात आ रही है समझ में?

श्रोता: यस सर।

आचार्य: ठीक इसी तरह से कहते हैं कि ब्रह्मा ने वेदों की रचना कर दी। ब्रह्मा के मुख से निकले हैं वेद। अब किसी के मुख से कोई किताब थोड़े ही निकलती है। ये भी बात प्रतीक के तौर पर कही गयी है और उसको वैसे ही समझना होगा।

मोटी बुद्धि से सब बातें नहीं समझ में आती हैं। फिर कह रहा हूॅं, सूक्ष्म बातें हैं। तो पुरानी कहानियों को ऐसे मत मान लिया करो कि ये तो वास्तव में हुई थीं। कि राम, रावण से युद्ध करने गये, तो सागर में पत्थर तैर गये। अब पत्थर थोड़े ही कभी तैर जाएगा भाई!

धर्म, विज्ञान का विरोधी थोड़े ही है। धर्म और विज्ञान तो एकसाथ चलते हैं।

जो बात अवैज्ञानिक है, वो अधार्मिक भी होगी। जो धर्म तुमको ये बताए कि विज्ञान फ़िज़ूल बात है, वो धर्म ही ग़लत है। हाँ, धर्म विज्ञान से आगे ज़रूर जाता है।

देखो, किसी से आगे जाने का मतलब ये थोड़े ही होता है कि तुम उसके विरोध में हो। एक घर में पाॅंच मन्ज़िलें हैं जो तीसरी मन्ज़िल है, वो दूसरी से आगे जा रही है। पर क्या यह कहोगे कि तीसरी मन्ज़िल दूसरी मन्ज़िल के विरोध में है?

श्रोता: नो सर।

आचार्य: तीसरी मन्ज़िल, दूसरी मन्ज़िल के विरोध में नहीं है, हर मन्ज़िल, दूसरी मन्ज़िल से आगे जा रही है। इसी तरीक़े से धर्म विज्ञान के विरोध में नहीं है, विज्ञान से आगे की बात करता है। वो विज्ञान से सहमत है पर विज्ञान बेचारा एक जगह जाकर रूक जाता है। धर्म उससे और आगे की बात करता है, धर्म कहता है, ‘अपनी भी बात करेंगे न।’ विज्ञान वो बात करता ही नहीं है।

प्र: सर, आख़िर आपने ये सब बातें कैसे समझी?

आचार्य: अभी हमने कैसे समझा था कि अच्छाई क्या और बुराई क्या?

श्रोता: स्टेप बाय स्टेप (क़दम दर क़दम)।

आचार्य: है न?

प्र: सर, आप ये सब सोचते थे कि क्या है? इसका मतलब तभी तो सब समझ पाए।

आचार्य: बेटा, समझने की चाहत होनी चाहिए न। तो रास्ता अपनेआप खुल जाता है।

प्र: सर, आपको समझाने वाला था, या आपने स्वयं सीखा?

आचार्य: देखो, समझाने के लिए बहुत सारे लोग लगातार मौजूद हैं। तुम अगर सीखने को तैयार हो, तुममें यदि सीखने की इच्छा हो तो, तुम कहते हो तुमने एक किताब पढ़ी। सबने एक बराबर थोड़ी ही पढ़ी होगी?

किसी मे सीखने की बहुत प्रबल इच्छा होगी, उसने पाॅंच चैप्टर पढ़ डाले, किसी ने दो ही पन्ने पढ़े। इसी तरीक़े से दुनियाभर की तमाम किताबें थीं। मैं सीखना चाहता था तो मैंने कोशिश भी करी, मैंने देखा कि उचित किताब कौनसी है और बेकार किताबों को मैं हाथ नहीं लगाऊँगा।

तो रास्ते हज़ार मिल जाते हैं। और ज़रुरी नहीं है कि रास्ते किताबी हों। सबसे बेहतरीन तरीक़ा तो सीखने का यही है कि तुम्हारी ही अपनी ज़िन्दगी में जो चल रहा है उसी को ग़ौर से देखो। तुम्हारे मन में ही जो उठता-चलता रहता है, उसी को ग़ौर से देखो। फिर जो दिखायी दे उस पर भरोसा भी करो, वो भी बहुत ज़रूरी है।

डर मत जाओ कि अरे! मुझे कोई बात समझ में तो आयी है पर मैं होता ही कौन हूँ, अपनी बात को सही कहने वाला। मेरी क्या सामर्थ्य है कि मैं अपनी ही सोची हुई बात पर चलूँ।

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