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लेख
धर्म के नाम पर जानवरों की हत्या || आचार्य प्रशांत (2020)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम, कुछ दिनों पहले मैं असम के गुवाहाटी शहर में स्थित एक देवी मंदिर में दर्शन की अभिलाषा से गया था। कुछ घण्टों तक लाइन में लग कर अपने नंबर का इंतज़ार कर रहा था। जैसे ही लगा कि शायद अब दर्शन हो जाएँगे तो देखता हूँ कि मंदिर के मुख्य द्वार के पास ही कुछ बकरियों के साथ-साथ कुछ दो माह के छोटे बकरियों के बच्चों, कबूतरों और भैसों को काटा जा रहा था। यह सब देखकर मन अशांत हो गया और दर्शन करने की अभिलाषा ख़त्म ही हो गई। मगर मंदिर में व्यवस्था ऐसी है कि जो एक बार मुख्य द्वार तक पहुँच गया उसको दर्शन कर के ही बाहर जाना पड़ता है।

अब जब मैंने मुख्य मंदिर में प्रवेश किया तो देखा कि कटे हुए जानवरों के सर वहाँ माँ को समर्पित किए गए थे। आचार्य जी, इतने बड़े धाम में मैंने परम अशांति और दुःख का अनुभव किया, ऐसा क्यों? यह सब प्रथाएँ क्या हैं समझ नहीं आता, सही हैं भी या ग़लत हैं, यह भी समझ नहीं आता, पर एक बात स्पष्ट हो गई इस अनुभव से कि शांति की अभिलाषा लेकर गया था और अशांत हो कर लौट आया।

आचार्य प्रशांत: आदमी बड़ा करामाती जीव है। कुछ रच पाने की उसकी हैसीयत हो, न हो, विध्वंस की उसकी क्षमता लाजवाब है। उलझन को सुलझा वो भले न पाता हो, पर सीधी सरल बात को भी उलझा लेने में उसका कोई सानी नहीं। कोई ग्रन्थ नहीं है, कोई शास्त्र नहीं है जो कहता है कि जानवर को मारोगे तो उससे तुम्हें आध्यात्मिक तल का कोई लाभ हो जाना है। बिलकुल साफ़ समझ लीजिए इस बात को। इस बात का कोई प्रमाण नहीं है, इस बात के लिए कोई शास्त्रीय वैधता नहीं है कि पशुबलि से किसी भी तरह का कोई लाभ हो सकता है। कहीं-कहीं पर बात की गई है अजमेध, अश्वमेध इत्यादि की। वो बात जिस सन्दर्भ में है उसको समझना आवश्यक है।

अध्यात्म का पूरा क्षेत्र ही जानवर को इंसान बनाने की कोशिश है। शरीर से तो हम पशु ही हैं, वृत्तियों से भी हम पशु ही हैं और पशुओं की ही भाँति हम भी नए ताजे जंगल से ही निकल कर आए हैं। तो कूट-कूट कर पशुता हममें भरी हुई है। जब बात की जाती है पशुबलि की तो वास्तव में कहा जाता है कि अपनी पशुता को मारो। किसी पशु को मारने की बात नहीं हो रही है, अपने भीतर की पशुता को मारने की बात हो रही है।

तुम्हारे भीतर है एक घोड़ा। वो तड़बक-तड़बक दौड़ता है, सब दिशाओं में। वो पहुँचता कहीं नहीं पर दौड़ता बहुत ज़ोर से है। उसी के लिए एक साफ़ सुथरा नाम है ‘मन’। तो जब कहा गया ‘अश्वमेध’ तो वास्तव में उसका अर्थ था ‘मनमेध’। भीतर के इस घोड़े की बलि देनी है, अन्यथा घोड़ा मार कर के क्या लाभ? थोड़ा तो बुद्धि का इस्तेमाल करो। ऐसे तो स्वर्ग में सबसे ज़्यादा वही लोग भरे होंगे जिन्होंने दिन-रात मच्छर मारे हैं। और कोई बलि हम देते हों न देते हों, मच्छर तो हर नाचीज़ मार रहा है। कहेगा, "मैं भी तो बलि देता था, ये देखो।" कोई खटमल मार रहा है। क्यों घोड़े या बकरे या मुर्गे या कबूतर में क्या ख़ास है भाई? उन्हीं से पूछ लेते हैं, "भैया तुममें कुछ ख़ास है?" कबूतर हाथ जोड़ कर कहेगा कि, "अरे! मैं कुछ हूँ ही नहीं, अकिंचन, मुझ में कुछ ख़ास नहीं है, मेरी जान माफ़ करो।"

और ये आप भी जानते हैं। कबूतर में क्या खास है जो कौए में नहीं है? कौआ मार कर काहे नहीं चढ़ा देते? मैं बताऊँ कौआ मार कर काहे नहीं चढ़ाएँगे — उसका माँस लजीज़ नहीं होता, इसलिए नहीं चढ़ाएँगे। बात समझ में आ रही है?

बकरे की जगह इसीलिए कुत्ते की बलि नहीं देंगे। क्यों? उसका माँस स्वादिष्ट नहीं होता। अब अच्छे से समझ लो कि तुम बलि क्यों देते हो। इसलिए नहीं कि उससे कोई धार्मिक लाभ हो जाएगा, इसलिए क्योंकि ये जो ज़रा सी ज़बान है न, दो इंच की, चमड़े की, ये लपलपाती रहती है स्वाद के लिए, किसी-न-किसी तरीके से स्वाद चाहिए। कुछ-न-कुछ कह कर के इसको माँस-मसाला चाहिए। और कोई बहाना नहीं मिला तो धर्म का ही बहाना सही, चलो काटो।

काट कर क्या करते हो ये तो बताओ? बता तो ये रहे हो कि तुमने बलि देवी को दी है, अल्लाह को दी है लेकिन बकरवा गया तो तुम्हारे पेट में है। यही सब देख-देख कर के एक बुद्ध का, एक महावीर का जी ऐसा उचटा था कि उन्हें एक नया मार्ग ही, अलग मार्ग ही पकड़ना पड़ा। बहुत बड़ा कारण जिसकी वजह से जैन और बौद्ध पंतो की स्थापना करनी पड़ी वो यही था। पंडो-पुरोहितों ने वैदिक धर्म को इतना विकृत कर दिया था कि उसमें दिन-रात बलियाँ ही चल रही होती थीं। अब आप समझेंगे कि क्यों जैन और बौद्ध मत में अहिंसा पर इतना ज़ोर है। वो कौन सी हिंसा थी जो वो देख रहे थे और जिसके कारण उन्होंने कहा, "नहीं, हिंसा नहीं चाहिए,अहिंसा, अहिंसा।" क्या लोग मार रहे थे एक दूसरे को? नहीं, ये नहीं हो रहा था। मंदिर में, यज्ञ में, हवन में, पूजन में, सब छोटे-मोटे धर्मार्थ कार्यों में पशुओं की बलि दी जा रही थी।

पशुबलि से धर्म का दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है बल्कि पशुबलि धर्म के बिलकुल विपरीत है, चाहे वो कोई भी धर्म हो। पशुबलि धार्मिकता की आत्मा के ही ख़िलाफ़ है, चाहे उस धर्म का कोई भी नाम हो। थोड़ा तो होश रखिए। एक बेज़ुबान निरीह जानवर को पकड़ कर काट दिया, उसका माँस पका कर खा गए, इससे कौन सी परम सत्ता आपको आशीर्वाद देने वाली है? बताइए ज़रा। ले दे कर यही हुआ है न — जानवर पकड़ा, काटा, खाया। इससे आसमानों से फूल बरसेंगे आप पर? क्या तुक है? ज़रा भी इस तरह की चीज़ों में सम्मिलित मत होइएगा और जहाँ कहीं भी ये सब होता देखें इसका पुरज़ोर विरोध भी करिएगा।

हरिद्वार के गायत्री शक्तिपीठ के श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने पशुबलि के विषय पर ही बहुत स्पष्ट और बहुत साफ़ प्रमाण के साथ कुछ बातें लिखी हैं। जो लोग इस विषय में और उत्सुकता रखते हों वो उस साहित्य को पढ़ लें। एक बात साफ़ समझ लीजिए — अगर आप अपने-आपको धार्मिक कहते हैं और पशुओं, जीव-जन्तुओं के साथ आपका हिंसा का, क्रूरता का नाता है तो आप कहीं से, किसी दृष्टि से, किसी कोण से धार्मिक नहीं हैं।

अभी दो-चार दिन पहले मैं याद कर रहा था ‘माँ कह एक कहानी’। किसी को याद आई?

“माँ कह एक कहानी, "बेटा समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी?" कहती है मुझसे ये चीटीं, तू मेरी नानी की बेटी। कह माँ कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी, माँ कह एक कहानी।”

राहुल को यशोधरा कहानी सुना रहीं हैं।

“सुन उपवन में बड़े सवेरे, तात भ्रमण करते थे तेरे।” सुबह-सुबह बागीचे में सिद्धार्थ गौतम, बुद्ध होने से पहले, भ्रमण किया करते थे। और तभी वो क्या पाते हैं कि एक पक्षी शिकारी के बाण से आहत हो कर के उनके सामने आकर के गिरता है। वो उसको उठा लेते हैं। जब वो उठा लेते हैं तो वो जो शिकारी है, आखेटक, वो उनके पास आता है, कहता है, “मैंने मारा है, मेरी संपत्ति है, वापस करो।” तो वो कहते हैं, “नहीं, नहीं दूँगा, वापस नहीं दूँगा।” तब शिकारी कहता है, “पर ये बात तो नियम के, कानून के ख़िलाफ़ जाती है। चीज़ मेरी है, आपने कैसे उठा ली?” वो बोलते हैं, “जाती होगी नियम और कानून के ख़िलाफ़, मैं नहीं दूँगा वापस।”

तो बात बढ़ती है, बात न्यायालय तक पहुँचती है। और न्यायालय फैसला देता है कि भक्षक से रक्षक हमेशा बड़ा होता है। फ़र्क नहीं पड़ता कि वो तुम्हारा कबूतर था लेकिन तुम उसका भक्षण करने जा रहे थे, इन्होंने रक्षा करी है। तो न्याय को एक तरफ रखो। “न्याय दया का दानी, माँ कह एक कहानी।” ‘न्याय दया का दानी’, न्याय छोटा है, दया बड़ी है। ये धर्म है।

किसी को हक़ नहीं है किसी जानवर को काट देने का। और अगर कोई जानवर कट रहा है तो ये किसी का व्यक्तिगत मसला भी नहीं है। एक जीव पर किसी और का अधिकार नहीं हो सकता। एक आदमी पर दूसरे आदमी का अधिकार हो सकता है? क्या एक आदमी दूसरे आदमी की सम्पत्ति कहला सकता है? उसी तरीके से एक पशु भी दूसरे पशु की संपत्ति नहीं कहला सकता।

हमारी सभ्यता, संस्कृति अभी अविकसित हैं, अधूरे हैं इसलिए हम इस तरह के शब्दों का प्रयोग कर लेते हैं, कि पशुधन वगैरह। जब किसी की संपत्ति नापी जाती है तो उसमें कहते हैं पशुधन इतना। दुनियाभर में यही चलता है। पर ये बात बस यही दिखाती है कि अभी हम पूरे तरीके से इंसान हुए नहीं हैं। अभी भी हम एक जीव को दूसरे जीव की संपत्ति मान रहे हैं।

कोई जीव किसी दूसरे जीव की संपत्ति नहीं होता। कुछ सालों पहले तक, कुछ शताब्दियों पहले तक दुनिया के कुछ हिस्सों में औरतों को पुरुषों की संपत्ति ही माना जाता था। आज आप उन बातों को देखते हैं तो कहते हैं, "अरे, अरे, अरे! कैसा नीचता का विचार था ये।" कहते हैं न? और पहले माना जाता था कि औरत आदमी की संपत्ति है भई, उसका वो जो चाहे करे। कुछ जगहों पर यहाँ तक नियम थे कि अगर कोई आदमी अपनी औरत को मार दे तो उसे सज़ा नहीं हो सकती क्योंकि उसकी चीज़ थी, उसके जो मन में आया उसने करा। “भई, मेरी कुर्सी है, मैंने तोड़ दी उसकी टांग।” ये सब भी चलता था। उसी तरीके से अभी ये सब मान्यता चलती है कि फलाने का जानवर है। कोई किसी का नहीं होता।

अगर आदमी के मन ने तरक्की की, अगर संस्कृति का विकास हुआ तो आप देखिएगा एक दिन ऐसा आएगा जब जानवरों को भी तमाम वो सब अधिकार मिलेंगे जो इंसानों को हैं, कम-से-कम राइट टु लाइफ तो उन्हें ज़रूर मिलेगा। जीने का अधिकार तो उन्हें ज़रूर मिलेगा। उन्हें किसी की संपत्ति के तौर पर नहीं गिना जाएगा। आप ये नहीं कह पाएँगे, “अरे, इस कसाई के इतने बकरे हैं, उसके बकरे हैं, वो काट रहा है तो काट ले।” ये उसका व्यक्तिगत मसला नहीं है।

एक आदमी छः बच्चों को काट रहा हो, भले ही वो उसके बच्चे अपने हों, तो क्या आप उसे काटने देंगे? क्या आप ये कहेंगे कि “उसके अपने बच्चे हैं, उन्हें काट रहा है तो काट ले, उसका निजी, व्यक्तिगत मामला है।” नहीं कहेंगे न। वैसे ही देखिएगा एक दिन ऐसा आएगा जब किसी को अनुमति नहीं होगी किसी पशु को काट देने की, हिंसा पहुँचाने की, कैद कर लेने की, अपना भोजन बना लेने की। उसी दिन के लिए हम संघर्ष कर रहे हैं। संस्था के भी प्रमुख उद्देश्यों में वो एक केंद्रीय उद्देश्य है कि वो दिन आए, जल्दी आए।

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