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लेख
धर्म का क्या अर्थ?
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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धर्म का मतलब होता है वह धारणा रखना, जो तुम्हें समस्त धारणाओं से मुक्ति दे दे। तुमने अपने ऊपर यह जितने भी नाम रखे हैं जितने भी किरदार रखे हैं। कहा न अभी- माँ हूँ, बहन हूँ, पत्नी हूँ। यह धारणाएं हैं। जब तुम सो जाते हो तो क्या तुम किसी की माँ या किसी की पत्नी रहते हो? जब तुम चेतना के ही जागृत अवस्था में आ जाते हो, सिर्फ़ तभी यह ख्याल और स्मृति आते हैं न कि तुम किन्हीं विशेष किरदारों में हो? तो यह धारणाएं हैं, सत्य तो नहीं है। सत्य तो नींद के साथ नहीं मिट जाता, नित्य होता है न? पर नींद के साथ तो बीवी भी मिट जाती है और माँ भी मिट जाती है। मिट जाती है न? और अगर मूर्छित हो गई तब क्या कहना? एकदम ही नहीं बचती। फिर तो नाम भी पुकारो उसका, तो नाम भी मिट जाता है। तो यह सब क्या हैं किरदार? धारणाएं हैं। पर यह छोटी मोटी धारणाएँ हैं। धर्म का मतलब होता है- एक आखरी धारणा रखना और ऐसी धारणा जो बाकी सब धारणाओं से मुक्ति दिला दे। तुम्हारी क्या है आखरी धारणा? ये पता करो। जो आखरी है वास्तव में वह पहली है, जहां से शुरुआत हुई है।

तुमने अपने आप को क्या माना कि तुम्हारे इस जीवन यात्रा की शुरुआत हुई है? तुम्हारे इस किस्से का पहला अक्षर क्या है? तुम्हारी वर्णमाला शुरू कहाँ से हो रही है? बुल्ले शाह कहते थे "इक अलिफ़ पढ़ो, छुटकारा है।" धर्म का मतलब है अपने अलिफ़ को याद रखना। अपने 'अ' को याद रखना। जैसे प्रणव में होता है न? अकार, उकार, मकार। तो 'अ' कार को याद रखना, पहले को याद रखना। कहाँ से शुरू हुए थे तुम? नानी, दादी, बहन, पत्नी तो बाद में बने थे तुम, सबसे पहले क्या थे तुम? सबसे पहले थी मूलवृत्ति- 'मैं', वो प्रथम धारणा है। वह प्रथम धारणा है जिसके कारण फ़िर न जाने तुम्हें कितनी और धारणाएं पकड़नी पड़ी और हर धारणा झूठी है। पहला झूठ क्या है तुम्हारा? 'मैं' एक बार कह दिया मैं, तो फ़िर हज़ार झूठ और बोलने पड़ते हैं। फिर बहन भाभी सब बनना पड़ता है। एक बार कहा नहीं 'मैं' के बीच डल गया। अब न जाने कितनी हजार पत्तियाँ निकलेंगी?

तो धर्म का मतलब है अपनी इस प्रथम धारणा को फिर से याद करना और याद करना कि यही तुम्हारी प्रथम भूल थी और यही तुम्हारी प्रथम अशांति है, यही तुम्हारी प्रथम पहचान है इसी का तुम्हें निराकरण चाहिए।

तुम अपनी बाकी सब पहचानो से जुड़े हुए दायित्वों की पूर्ति करते रह जाते हो न? अगर बहन हो तो बहन होने के दायित्वों की पूर्ति करते हो, बेटी हो तो बेटी होने के, कहीं पर तुम अगर कर्मचारी हो तो कर्मचारी होने के दायित्वों की पूर्ति करते, तुम किसी सभा इत्यादि के सदस्य हो तो वहाँ के भी दायित्वों की पूर्ति करते हो। करते हो न? तुम अपने किरदार के हर रंग से संबंधित दायित्वों की पूर्ति करते हो न? लेकिन तुम भूल ही जाते हो कि किरदारों के नीचे का किरदार क्या है? तुम भूल ही जाते हो कि वर्णमाला के पहले का अक्षर क्या है? तुम भूल ही जाते हो कि तुम्हारे जीवन के कहानी किस लब्ज से शुरु हुई थी? किससे से शुरू हुई थी?

मैं!

तुम अपने बाकी सब फ़र्ज़ निभाते चलते हो, एक फ़र्ज़ भूल जाते हो इस 'मैं' को भी तृप्ति देनी है न? क्योंकि इसने हीं तो सारा खेल शुरू किया है। यही तो मूलवृत्ति है। इसको ही अगर शांति नहीं दी, तो पहला फ़र्ज़ तो निभाया ही नहीं। धर्म का मतलब है याद रखना कि बहन, बेटी, भाभी, पत्नी, छोटी-बड़ी, अमीर-गरीब, शिक्षित-अशिक्षित यह सब तुम बाद में हुईं। किस्से की शुरुआत हुई थी 'मैं' होने से। तो लाओ जरा 'मैं' के प्रति जो दायित्व है, उसे पूरा कर दें।

और 'मैं' कोई बड़ी शांतिप्रद चीज़ तो है नहीं। 'मैं' तो रोग है और रोग के प्रति तो एक ही दायित्व हो सकता है। क्या?

इलाज।

तो धर्म है- 'मैं का इलाज'।

धर्म कहता है बाकी सब दायित्व बाद में निपटा लेंगे, एक दायित्व है जो सर्वोपरि है। कौन सा दायित्व?

'मैं' के प्रति जो तुम्हारा कर्तव्य है। तो धर्म इसीलिए पहला कर्तव्य है। धर्म कर्तव्यों से ऊपर का कर्तव्य है। धर्म वो कर्तव्य है, जिसके आगे सारे कर्तव्य फ़ीके हैं। धर्म ही कर्तव्य है।

हम छोटे-मोटे कर्तव्य निभाने में बड़े कुशल हैं और जो मूल कर्तव्य है उसको भूल जाते हैं। धर्म है अपने मूल कर्तव्य का पुनःस्मरण।

तुम बाजार गए थे दवाइयां लेने लेकिन बाजार में दवाइयों भर की दुकान नहीं थी वहां पकोड़े भी और जलेबियां भी थी और जादूगर का खेल भी था और गोलगप्पे भी और तमाम तरह की सेल लगी थी। और यह जो बाकी चीजें थी ऐसा नहीं है तुम्हें इनकी जरूरत नहीं थी। कुछ वहां सब्जी भाजी मिल रही थी तुम वह भी लेने लग गए तुम्हें उसकी जरूरत थी ऐसा नहीं कि जरूरत नहीं थी कुछ कपड़े मिल रहे थे तुमने उनकी तरफ ध्यान लगा दिया ऐसा नहीं कि वह कपड़े व्यर्थ थे, तुम्हें उनकी भी ज़रूरत थी। तो यह सब तुम जो बाकी काम करने लग गए बाजार में ऐसा नहीं कि यह पूरी तरह व्यर्थ काम हैं।इनकी भी अपनी महत्ता है। लेकिन इनकी महत्ता बहुत पीछे की है। असली महत्व किस बात का था? दवाई लेने गए थे दवाई लेते न? बाजार जाकर सब नंबर दो से नंबर सौ तक के काम कर डालें, नंबर एक का काम भूल गए। धर्म है नंबर एक का काम। धर्म कहता है उसको निपटा लो दो से सौ तक के काम तो पूछल्ले हैं, हो जाएंगे, देखा जाएगा। फिर अगर वह नहीं भी हुए तो नुकसान ज़रा कम है। नंबर 1 का काम भूल गए तो नुकसान भयंकर है।

संतों ने तुम्हें बार-बार याद दिलाया है- मत भूलो दुनिया में क्यों आए थे? तुम बहुत व्यस्त हो, तुम बहुत सारे काम कर रहे हो लेकिन यदि वही नहीं कर रहे जो करना चाहिए।

जो करना चाहिए, जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और जो सर्वाधिक उपेक्षित है उसी का नाम धर्म है।

'मैं' को उसके विसर्जन तक ले जाने का नाम ही धर्म है और वही प्रथम करणीय है।

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