प्रश्न: आचार्य जी, बुरी आदतें कैसे छोड़ें? तम्बाकू की लत हो कैसे छोड़ें?
आचार्य प्रशांत जी:
तम्बाकू हो, या निंदा हो, या माँस हो, या आलस हो, हर आदत सत्य का, मौज का, एक विकल्प होती है। असफल और सस्ता विकल्प।
असली चीज़ नहीं मिली है, तो तम्बाकू चबा रहे हो, जैसे बच्चे को माँ न मिले, तो अँगूठा चूसे।
श्रोता: वो रग, रग में चली गई होती है।
आचार्य प्रशांत जी:
अरे रग-रग कराह किसके लिए रही है, उसका तो नाम लो। तम्बाकू रग-रग में भरोगे, तो कैंसर ही मिलेगा अधिक-से-अधिक। रग-रग में राम भर लोगे, तो मुक्ति मिल जाएगी। जो तड़प मुक्ति के लिए उठ रही है, उस तड़प के एवज में तुम्हें कैंसर मिल जाए, ये कहाँ की अक्ल है? चाहिए था राम, और लो आए कैंसर, बढ़िया।
श्रोता: आदतों से छुटकारा पाने का कोई सरल तरीका?
आचार्य प्रशांत जी: प्रेम।
सारी पुरानी आदतें छूट जातीं हैं, जब कुछ ताकतवर मिल जाता है ज़िंदगी में।
श्रोता: लेकिन प्रेम हर किसी को तो नहीं मिलता।
आचार्य प्रशांत जी: वो तो आपके ऊपर है। “मैं तो किस्मत की शिकार हूँ। किसी-किसी को मिलता है, मुझ जैसों को कहाँ मिलता है। हर किसी को नहीं मिलता।”
हर किसी को मिलता है, चुनने की बात होती है। मिलता सबको है, चुनते कोई-कोई हैं। बिरला!
श्रोता: हर किसी को समझ भी नहीं होती कि ग़लत-सही क्या है।
आचार्य प्रशांत जी: न होती समझ, तो आप यहाँ नहीं बैठीं होतीं।
श्रोता: ये तम्बाकू वाली बात पर कह रहे हैं।
आचार्य प्रशांत जी: एक ही है। तम्बाकू हो, निंदा हो, माँस हो, आलस हो, या दुःख हो, अभी थोड़ी देर पहले कहा न, ये सब एक हैं।
श्रोता: क्या अध्यात्म, जीवन में पल-पल याद रखने का नाम है?
आचार्य प्रशांत जी:
एक बार ये जान जाओ कि किस माहौल में, किस विधि से, किस संगति से शांति मिलती है, सच्चाई मिलती है, उसके बाद एकनिष्ठ होकर उसको पकड़ लो।
तुम वो मरीज़ हो, जिसने सैकड़ों, हज़ारों दवाईयाँ आज़मां लीं। और जो दवाई आज़माई, वो मर्ज़ को और बिगाड़ गई । अब अगर कोई दवाई मिले, जो थोड़ा भी लाभ दे, तो उसका नाम मत भूल जाना।
भूलना मत, तुमने सही दवाई ढूँढने की बहुत कीमत चुकाई है। अब ये न हो कि तुम पहुँच भी गए, और पहुँच कर गँवा दिया, भूल गए। एक बार मिल गई सही दवाई, तो उसको सीने से लगा लो। उसकी आपूर्ति सुनिश्चित कर लो।
पर हम बड़े बेसुध रहे हैं। ऐसा नहीं है कि हमें सही दवाई अतीत में कभी मिली नहीं है। अतीत में भी मिली है, लाभ भी हुआ है। सत्य की झलक भी मिली है। पर हम इतने बेसुध रहे हैं कि जो मिला है उसको गँवाते रहे हैं, भूलते रहे हैं।
श्रोता: आचार्य जी, कई बार ऐसी परिस्थितियाँ आ जाती हैं, जिस कारण सब गड़बड़ हो जाता है। कुछ याद ही नहीं रहता है।
आचार्य प्रशांत जी: पर ये तो एक छोटे बच्चे को भी पता है, ये तो आपके शरीर को भी पता है। वैसे आप भले ही स्थिर बैठी हों, अभी आप के ऊपर पत्थर उछाल दिया जाए, आप तुरंत क्या करेंगी? अलग हट जाएँगी । जब अपनी ओर पत्थर आ रहा हो, तो आदमी चौकन्ना हो जाता है न? इसी तरीके से जब आपके शरीर पर विषाणुओं का हमला होता है, देखा है आपने आपका प्रतिरक्षा तंत्र कैसे सक्रिय हो जाता है, और जो भेदिया होता है, घुसपैठिया, पैथोजेन, उसका कैसे विरोध करता है? जो प्रतिरक्षा तंत्र सोया पड़ा है, उस पर जैसे ही आक्रमण करो, वो जग जाता है।
घर के बाहर कुत्ता है, आधी रात सोया पड़ा है। लेकिन जैसे ही कोई अपरिचित, अनजान, घर की दीवार लाँघेगा, कुत्ता जग जायेगा, भौंकेगा, काटने को दौड़ेगा। जो बात कुत्ते को भी पता है, शरीर को भी पता है, बच्चे को भी पता है, वो हमें कैसे नहीं पता, कि जब अपने ऊपर हमला हो, जब कोई उपद्रवी घुसपैठ करे, उस समय तो विशेष कर सतर्कता चाहिए? ये बात हमें कैसे नहीं पता?
श्रोता: मूर्छित हैं।
आचार्य प्रशांत जी: कुछ मूर्छित हैं, और कुछ आशान्वित हैं कि जो घुसपैठिया आ रहा है, उससे भी नेह लग जाए। हमें घुसपैठिए से भी तो बहुत आसक्ति है।
कौन है घुसपैठिया? क्रोध, मद, मोह – ये ही तो हैं घुसपैठिए।
हमें इनसे भी तो आकर्षण है।
हम उनका विरोध कैसे करेंगे, जब हमें वो भले लगते हैं।
कामना घुसी चली आ रही है, उसका विरोध तब करोगे न जब विरोध करने का इरादा हो। अगर इरादा ही हो कि कामना आ रही है, उसके स्वागत में द्वार खोल दो, तो विरोध कैसा?